राजस्थान के इतिहास में दो कल्ला राठौड़ हुए हैं, दोनों ही अकबर के समकालीन थे। एक मेड़ता का राजकुमार था और दूसरा सियाना का शासक। इस कड़ी में हम सियाना के जागीरदार की चर्चा कर रहे हैं।
यद्यपि अब तक राजपूताना के अधिकांश हिन्दू शासकों ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी तथापि उनमें से अधिकांश ने अपनी धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाए रखा था। सिवाना का शासक कल्याणसिंह रायमलोत भी उन्हीं में से एक था।
जिस समय अकबर ने मारवाड़ के स्वर्गीय राजा मालदेव के पुत्र मोटाराजा उदयसिंह को जोधपुर का राजा बनाया, उस समय कल्याणसिंह रायमलोत सिवाना का जागीरदार था। वह मारवाड़ नरेश मालदेव का पौत्र, राव रायमल का पुत्र तथा मोटाराजा उदयसिंह का सगा भतीजा था। कल्याणसिंह रायमलोत को मारवाड़ में कल्ला राठौड़ भी कहा जाता है। जब मारवाड़ के राठौड़ों ने अकबर की अधीनता स्वीकर कर ली तब कल्ला राठौड़ भी अकबर की सेवा में चला गया।
अकबर की सेवा में रहते हुए कल्ला राठौड़ बीकानेर के राजकुमार पृथ्वीराज राठौड़ के सम्पर्क में आया। पृथ्वीराज राठौड़ अपने समय में डिंगल भाषा का श्रेष्ठ कवि था। वह वीर-रस, भक्ति-रस एवं श्ृंगार-रस की कविताएं लिखा करता था। एक बार कल्ला राठौड़ ने कुंअर पृथ्वीराज राठौड़ से अनुरोध किया कि मैं धरती की रक्षा के लिये युद्ध करता हुआ वीरगति को प्राप्त करूंगा। इसलिये आप मेरी प्रशंसा में एक कवित्त बनाकर मुझे आज ही सुना दें।
इस पर पृथ्वीराज राठौड़ ने एक सुंदर कविता की रचना करके कल्ला राठौड़ का सुनाई जो आज भी डिंगल भाषा की अनूठी सम्पदा है।
एक बार अकबर ने बूंदी के हाड़ा शासक राव सुरजन से कहा कि हमारी इच्छा है कि आपकी पुत्री का विवाह शहजादे सलीम से हो। भरे दरबार में यह प्रस्ताव सुनकर हाड़ा हतप्रभ रह गया। उसने अकबर की अधीनता स्वीकर करते समय यह शर्त रखी थी कि बूंदी की राजकुमारियों का डोला कभी भी मुगल शहजादों के लिए नहीं जाएगा किंतु अब अकबर मक्कारी पर उतर आया था और उसे बूंदी की राजकुमारी का डोला चाहिए था।
इस समय तक बूंदी के हाड़ों की स्थिति यह नहीं रह गई थी कि वे अकबर जैसे शक्तिशाली बादशाह से सीधा लोहा ले सकें। अतः हाड़ा राजा स्वयं तो बादशाह के प्रस्ताव को अस्वीकार नहीं कर सका किंतु उसने सहायता की आशा से अकबर के दरबार में खड़े हिंदू राजाओं एवं राजकुमारों की तरफ दृष्टि दौड़ाई।
कहा जाता है कि समस्त हिन्दू राजाओं ने दृष्टि नीची कर ली किंतु सिवाना का कल्ला रायमलोत (कल्ला राठौड़) निर्भीकता से मूंछों पर ताव देते हुए हाड़ा की तरफ देखने लगा। कल्ला से दृष्टि मिलते ही हाड़ा को बचाव का रास्ता मिल गया। हाड़ा ने कहा, मेरी बेटी की सगाई हो चुकी है। अकबर ने पूछा किसके साथ?
इस पर कल्ला राठौड़ ने अपनी मूंछों पर ताव देते हुए कहा, हुजूर मेरे साथ। अकबर समझ गया कि इस बात में सच्चाई नहीं है किंतु स्वाभिमान की चौखट पर खड़े हिंदू राजा की बात को अभिमानी बादशाह काट नहीं सका। कुछ दिनों बाद ही कल्ला राठौड़ ने हाड़ों की राजकुमारी से विवाह कर लिया। एक हिंदू नारी की अस्मिता की रक्षा के लिये अकबर के दरबार में दिखाए गए इस साहस का भुगतान कुछ दिन बाद कल्ला रायमलोत को अपने प्राणों से हाथ धोकर करना पड़ा।
जब अकबर को ज्ञात हुआ कि कल्ला राठौड़ ने बूंदी के हाड़ा राजकुमारी से विवाह कर लिया है तो अकबर बड़ा कुपित हुआ। उसने कल्ला को दण्ड स्वरूप लाहौर के मोर्चे पर तैनात कर दिया। लाहौर के मोर्चे पर एक दिन कल्ला राठौड़ तथा बादशाह के एक प्रिय मनसबदार के बीच कहा-सुनी हो गई। कल्ला ने उस मनसबदार को वहीं पर मार गिराया और लाहौर का मोर्चा छोड़कर सिवाना आ गया।
कविराज श्यामलदास ने अपने ग्रंथ वीर विनोद लिखा है कि जोधपुर नरेश मोटाराजा उदयसिंह ने अपनी पुत्री जगत गुसाइंन का विवाह शहजादे सलीम से कर दिया था। उदयसिंह का भतीजा कल्ला राठौड़ इस विवाह सम्बन्ध को अनुचित एवं अपमानजनक मानता था और उदयसिंह से झगड़ा करता था। उदयसिंह ने अकबर से अपने भतीजे की शिकायत की।
इस पर अकबर ने मोटाराजा उदयसिंह को आदेश दिया कि वह सिवाना पर हमला करके कल्ला राठौड़ को मार डाले। जोधपुर नरेश मोटाराजा उदयसिंह ने 2 जनवरी 1589 को सिवाना दुर्ग पर हमला किया। कल्ला राठौड़ युद्ध क्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हुआ। कहा जाता है कि सिर कट जाने पर भी कल्ला राठौड़ का धड़ लड़ता रहा। इस घटना के सम्बन्ध में दुरसा आढ़ा ने लिखा है-
पाखती मीर उड़िया तरसि पारसी, घात चूको नहीं चूक रै घाई।
ऊजळी धार पडियार हूँ आछटी। रोसि त्रुटै कवटि हिंदवै राइ।
अर्थात्- आसपास के मुसलमान योद्धा भयभीत होकर भाग गए। स्वंय पर मृत्यु कारक गुप्त प्रहार होने पर भी वह वीर प्रहार करने में चूका नहीं। मस्तक टूट पड़ने पर भी उसने क्रोधपूर्वक म्यान से तीखी धार वाली कटार निकालकर चलाई।
जे किण ही साचवी तपणि सतवे-जुगनि,
पासि ढळियां कमळ पछै प्रतमाळ।
जुवैं माथै हुवै दुरति रांमोत जिमि,
किणिहि काढी नहीं, एणि कळिकाळ।
अर्थात्- सतयुग में भले ही किसी ने सिर कटकर पास में पड़ जाने के बाद तपबल से कटार संभाली हो, पर मस्तक के अलग हो जाने पर इस कलियुग में तो दुर्दम्य वीर, रायमल के पुत्र कल्ला की तरह किसी ने भी कटार नहीं निकाली।
जब कल्ला वीरगति को प्राप्त हुआ तो उसकी नई-नवेली हाड़ी रानी ने दुर्ग की ललनाओं के साथ जौहर का अनुष्ठान किया। राजस्थानी साहित्य में कल्ला रायमलोत की वीरता और पराक्रम से सम्बन्धित अनेक दोहे मिलते हैं-
किलो अणखलो यूं कहे, आव कल्ला राठौड़।
मो सिर उतरे मेहणो, तो सिर बांधै मौड़।।
मारवाड़ में कल्ला रायमलोत को लोकदेवता के रूप में पूजा जाता है। सिवाना के दुर्ग में इनका थान बना हुआ है। अब यहाँ पर एक समारोह भी होता है। कल्ला रायमलोत का सिर कट जाने पर भी कल्ला का धड़ लड़ता रहा। इसलिये इन्हें लोकदेवता के समान पूजा जाता है।
सिवाना के दुर्ग में इनका थान बना हुआ है जहाँ प्रतिवर्ष एक समारोह होता है। चित्तौड़ दुर्ग में वीरगति प्राप्त करने वाले कल्ला राठौड़ का इतिहास हम पहले ही बता चुके हैं। बहुत से लोग इन दोनों कल्ला राठौड़ों को भ्रमवश एक ही समझ बैठते हैं।