Friday, November 22, 2024
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मुहम्मद अली जिन्ना को जेल गए बिना ही पाकिस्तान कैसे मिला!

अंग्रेजों के राज में हजारों लोगों को केवल इसलिए गिरफ्तार कर लिया जाता था क्योंकि वे वंदेमातरम् गाते थे या वंदेमातरम् का नारा लगाते थे। जबकि मुहम्मद अली जिन्ना को जेल गए बिना ही पाकिस्तान मिल गया।

तिरंगा झण्डा हाथ में लेकर चलने वाले को गिरफ्तार कर लिया जाता था। अखबार में लेख लिखने पर गिरफ्तार कर लिया जाता था। यहाँ तक कि गांधी टोपी लगाने वालों को भी लात-घूसों से पूजा जाता था।

बालगंगाधर तिलक को अखबार निकालने, लेख लिखने, भाषण देने पर ही न जाने कितनी बार जेल में डाला गया। ऐसा भी कई बार हुआ जब तिलक ने किसी अंग्रेज अधिकारी के अत्याचारों के खिलाफ लेख लिखा और तिलक पर उस अंग्रेज अधिकारी की हत्या के षड़यंत्र का आरोप लगाकर जेल में ठूंस दिया गया। माण्डले जेल आज भी तिलक के कदमों को याद करके रो पड़ती है।

वीर सावरकर को दो बार काले पानी की सजा दी गई तथा उन्हें दो बार आजन्म कारवास की सजा दी गई। उन्हें जेल में कोल्हू पेरने के लिए विवश किया जाता था तथा भरपेट खाना नहीं दिया जाता था। विरोध करने पर कोड़ों से मारा जाता था। उनका कुसूर केवल यह था कि उन्होंने मदनलाल धींगरा द्वारा अंग्रेज अधिकारी वायली की हत्या के बाद धींगरा के समर्थन में एक लेख लिखा था।

उन दिनों भारत में यह कहावत चल पड़ी थी कि गांधीजी ने जितना चरखा नहीं फेरा उतना तो वीर सावरकर ने अंग्रेजों की जेलों में कोल्हू पेरा था।

क्रांतिकारी भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को जेल में ही फांसी दी गई तथा उनकी मृत देह को जलाकर नदी में बहा दिया गया। वीर प्रतापसिंह बारहठ को बरेली जेल में जीवित जला कर मारा गया।

सुभाषचंद्र बोस को तो अंग्रेज जेल से बाहर देखना ही नहीं चाहते थे। उन्हें न जाने किस-किस अपराध में कितनी बार जेल में डाले रखा गया किंतु अंग्रेज ऐसी कोई जेल नहीं बना पाए जिसमें सुभाष बाबू को हमेशा के लिए बंद करके रखा जा सकता!

कांग्रेस में भी एक भी ऐसा बड़ा नेता नहीं था जिसने जेल में कुछ महीने या कुछ साल न गुजारे हों। अरविंद घोष, लाला लाजपतराय तथा विपिनचंद्र पाल ने अपने जीवन का बहुत सा समय अंग्रेजो की जेलों में बिताया।

गांधी, नेहरू और पटेल को बात-बात पर और न जाने कितनी बार जेलों में डाला गया।

हैरानी यह सोचकर होती है कि जब सावरकर, भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु जैसे क्रांतिकारियों तथा सुभाष, गांधी, नेहरू और पटेल जैसे कांग्रेसियों को भारत की आजादी मांगने के अपराध में बार-बार जेल जाना पड़ा तब भारत की सड़कों पर कत्ले आम करवाने वाले मुहम्मद अली जिन्ना, लियाकत अली खाँ तथा सुहरावर्दी जैसे किसी भी मुस्लिम लीगी नेता को एक बार भी जेल क्यों नहीं जाना पड़ा?

भारत को पाने के लिए हमारे नेताओं को जेल पर जेल की गई तब फिर जिन्ना, लियाकत अली और सुहरावर्दी को एक बार भी जेल गए बिना, पाकिस्तान कैसे मिल गया?

पंजाब प्रांत में ई.1937 से पंजाब यूनियनिस्ट पार्टी की सरकार चल रही थी। ई.1946 में मुहम्मद अली जिन्ना ने मुस्लिम लीग के कार्यकर्ताओं को आदेश दिया कि वे इस सरकार को गिरा दें।

मुस्लिम लीग के गुण्डों ने तुरंत ही सड़कों पर छुरेबाजी एवं आगजनी शुरु कर दी जिससे घबराकर पंजाब के अंग्रेज गवर्नर ने यूनियनिस्ट पार्टी की सरकार को बर्खास्त करके मुस्लिम लीग की सरकार बनवा दी। इस हिंसा के लिए एक भी मुस्लिम लीगी नेता को गिरफ्तार नहीं किया गया।

जब मुहम्मद अली जिन्ना एवं लियाकत अली ने अगस्त 1946 में कलकत्ता में सीधी कार्यवाही का आह्वान किया तो मुस्लिम लीग के गुण्डों ने हजारों निर्दोष नागरिकों की निर्मम हत्या कर दी। तब भी गवर्नर जनरल लॉर्ड वैवेल की सरकार ने जिन्ना और लियाकत अली सहित मुस्लिम लीग के किसी भी नेता को गिरफ्तार नहीं किया! न उन पर कोई मुकदमा चलाया!

जब सीधी कार्यवाही के दौरान बंगाल के मुख्यमंत्री सुहरावर्दी ने खुलेआम हिंसा की कार्यवाही में भाग लिया तब वैवेल सरकार ने सुहरावर्दी की सरकार को बर्खास्त नहीं किया, उसे गिरफ्तार नहीं किया! न उस पर कोई मुकदमा चलाया!

कांग्रेस के नेताओं तथा अंग्रेज अधिकारियों को राष्ट्रीय स्वयं संगठन हिंसक कार्यवाहियों वाला संगठन दिखता था किंतु उन्हें यह दिखाई क्यों नहीं दिया कि मुस्लिम लीग ने ‘मुस्लिम नेशनल गार्ड’ के नाम से 40 हजार लोगों की खूनी एवं हथियारबंद फौज खड़ी कर ली है और वह प्रतिदिन निर्दोष नागरिकों के साथ हिंसा कर रही है।

जिस समय कैबीनेट मिशन भारत में विभिन्न पक्षों से बात कर रहा था, उसी दौरान अप्रेल 1946 में नई दिल्ली में मुस्लिम लीग के नेताओं ने कैबीनेट मिशन के सदस्यों पर दबाव बनाने के लिए भड़काऊ भाषण दिए।

मुहम्मद अली जिन्ना ने कहा- यदि कोई भी अंतरिम व्यवस्था मुसलमानों पर थोपी गई तो मैं स्वयं को किसी भी खतरे, परीक्षा या बलिदान जो भी मेरे से मांगा जा सकता है, को झेलने के लिए शपथ लेता हूँ।

यही शपथ अधिवेशन में उपस्थित सभी मुस्लिम सदस्यों ने ली। पंजाबी नेता फिरोज खाँ नून ने कहा- जो विनाश हम करेंगे, उससे चंगेज खां और हलाकू ने जो किया, उसे भी शर्म आ जाएगी। उसने यह भी कहा कि यदि ब्रिटेन अथवा हिन्दुओं ने पाकिस्तान नहीं दिया तो रूस यह कार्य करेगा।

बंगाल के मुख्यमंत्री सुहरावर्दी ने कहा- ‘यदि हिन्दू सम्मान और शांति से रहना चाहते हैं तो कांग्रेस को पाकिस्तान की स्वीकृति देनी चाहिए।’

सीमांत नेता कयूम खाँ ने घोषणा की- ‘मुसलमानों के पास सिवाय तलवार निकालने के और कोई मार्ग नहीं बचेगा।’

बंगाल लीग के जनरल सैक्रेटरी अब्दुल हाशिम ने कहा- ‘जहाँ न्याय और समता असफल हो, चमचमाता इस्पात मसले को तय करेगा।’

पंजाब के शौकत हयात खाँ ने कहा- ‘मेरे प्रांत की लड़ाकू जाति केवल एक उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा कर रही है। आप हमें केवल एक अवसर दीजिए और हम नमूना पेश कर देंगे जबकि ब्रिटिश सेना अभी भी मौजूद है।’

इतनी खतरनाक कार्यवाहियों एवं बयानबाजियों एवं धमकियों के बावजूद यदि अंग्रेज सरकार जिन्ना और उसके दोस्तों को गिरफ्तार नहीं कर रही थी तो इसके पीछे लॉर्ड मिण्टो द्वारा ई.1906 में तैयार की गई एक नीति काम कर रही थी जिसका सार इस प्रकार है-

जब लाल-बाल और पाल के नेतृत्व में उग्रवादी कांग्रेसी नेताओं ने देश की आजादी की मांग तेज कर दी तो अँग्रेजों ने तब के अलगाववादी मुसिलम नेताओं को कांग्रेस के विरुद्ध हथियार की तरह इस्तेमान करने का निश्चय किया।

तत्कालीन वायसराय लॉर्ड मिण्टो के निजी सचिव स्मिथ ने अलीगढ़ कॉलेज के अंग्रेज प्रिंसिपल आर्किबाल्ड को एक पत्र लिखा जिसमें कहा गया कि- ‘यदि आगामी सुधारों के बारे में मुसलमानों का एक प्रतिनिधि मण्डल मुसलमानों के लिए अलग अधिकारों की मांग करे और इसके लिए वायसराय से मिले तो वायसराय को उनसे मिलने में प्रसन्नता होगी।’

इस निमंत्रण को पाकर अलगाववादी-मुस्लिम नेताओं की बांछें खिल गईं। 1 अक्टूबर 1906 को 36 मुस्लिम नेताओं का प्रतिनिधि मण्डल सर आगा खाँ के नेतृत्व में शिमला में लॉर्ड मिन्टो से मिला और उन्हें एक आवेदन पत्र दिया जिसके माध्यम से कई तरह की मांगें सरकार के समक्ष रखी गईं।

लॉर्ड मिण्टो ने इन लोगों का स्वागत किया तथा कहा कि आपकी हर मांग उचित है तथा आपकी हर मांग पूरी की जाएगी। आप को केवल इतना करना है कि कांग्रेस द्वारा चलाई जा रही देश-विरोधी गतिविधियों से दूर रहना है।

उस समय के अलगाववादी मुस्लिम नेताओं ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि अंग्रेज सरकार अचानक उन्हें इतना सम्मान देगी और कांग्रेस के खिलाफ लड़ने में उनकी सहायता करेगी। एक तरह से इन अलगाववादी नेताओं की लॉटरी लग गई थी।

इस प्रकार अंग्रेज अधिकारियों ने अलगाववादी मुसलमानों को अपने जाल में फंसाने तथा साम्प्रदायिकता की खाई को चौड़ा करने का काम आरम्भ कर दिया। अंग्रेज चाहते थे कि भारत के अलगाववादी मुसलमान, कांग्रेस से अलग होकर एक बड़ा राजनीतिक दल खड़ा कर लें।

इस अलगाववादी प्रतिनिधि मण्डल की उत्तेजना को देखकर अँग्रेज अधिकारी अच्छी तरह समझ गये कि वे इन नेताओं को भारत की आजादी के आन्दोलन के खिलाफ आसानी से काम ले सकते हैं। इस बात की पुष्टि स्वयं लॉर्ड मिण्टो की पत्नी मैरी मिन्टो की डायरी से होती है।

जिस दिन यह प्रतिनिधि मण्डल शिमला से अपने घरों को लौटा, उसी शाम एक ब्रिटिश अधिकारी ने वायसराय की पत्नी मैरी मिन्टो को पत्र लिखकर सूचित किया- ‘मैं आपको संक्षेप में सूचित करता हूँ कि आज एक बहुत बड़ी बात हुई है। आज राजनीतिज्ञता पूर्ण एक ऐसा कार्य हुआ है जिसका प्रभाव भारत तथा उसकी राजनीति पर चिरकाल तक पड़ता रहेगा। भारत के 6 करोड़ 20 लाख लोगों को हमने विद्रोही पक्ष अर्थात् कांग्रेस में सम्मिलित होने से रोक लिया है।’

इंग्लैण्ड के समाचारपत्रों ने भी शिमला में आए अलगाववादी मुसलमानों के प्रतिनिधि मण्डल को अंग्रेजों की बहुत बड़ी विजय बताया और अलगाववादी मुसलमानों की बुद्धिमत्ता की प्रशंसा की।

यह प्रथम अवसर था जब वायसराय के निमंत्रण पर भारत के विभिन्न भागों के मुसलमान नेता शिमला में एकत्रित हुए थे।

ई.1923 के कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए मुहम्मद अली जिन्ना ने कहा कि यह प्रतिनिधि मण्डल, सरकारी आदेश से लॉर्ड मिन्टो के पास गया था।

जब ये अलगाववादी मुस्लिम नेता वापिस अपने घरों को लौटे तब वे पूरे राजनीतिज्ञ बन चुके थे। अब उनके कंधों पर सर सैयद अहमद द्वारा तराशी गई अलीगढ़ की राजनीति को सारे देश में फैलाने की जिम्मेदारी थी।

मुसलमानों को हिन्दुओं के विरुद्ध खड़ा करने के इस काम के लिए भारत सचिव लॉर्ड मार्ले ने 16 अक्टूबर 1906 को गवर्नर जनरल लॉर्ड मिन्टो को पत्र लिखकर बधाई दी।

इस सम्मेलन के दो साल के भीतर ही ई.1908 में ढाका में मुस्लिम लीग की स्थापना की गई जो देश में कांग्रेस तथा हिन्दू महासभा द्वारा चलाए जा रहे आंदोलनों को विफल करने के उद्देश्य से बनाई गई थी।

शिमला में गवर्नर द्वारा मुस्लिम नेताओं को दिया गया आश्वासन ब्रिटिश सरकार द्वारा शीघ्र ही पूरा किया और ई.1909 के भारतीय परिषद् अधिनियम में, ब्रिटिश-भारत की प्रत्येक विधान सभा के लिए मुसलमानों को अपनी जनसंख्या के अनुपात से अधिक सदस्य चुनने का अधिकार दिया गया।

इसके बाद अंग्रेज सरकार की यह नीति हो गई कि जब भी कांग्रेस या हिन्दू महासभा या कोई अन्य राष्ट्रवादी संगठन आजादी की मांग को लेकर आंदोलन करे तो उसे लाठी-घूंसों से निबटो और जेल में पटको किंतु यदि जिन्ना के नेतृत्व वाली मुस्लिम लीग कुछ भी खून-खराबा करे तो उससे कुछ मत कहो।

यही कारण था कि जिन्ना और उसके दोस्तों को एक बार भी जेल गए बिना पाकिस्तान मिल गया। खुद लॉर्ड माउंटबेटन ने जिन्ना को थाली में परसोकर पाकिस्तान भेंट किया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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