शहजादे मुराद ने खानखाना अब्दुर्रहीम को युद्ध के मैदान में मरवाने का षड़यंत्र रचा। मुराद स्वयं तो शाहपुर में बैठा रहा और उसने शहबाज खाँ कंबो, रजाअली खाँ रूमी तथा खानखाना अब्दुर्रहीम को चांद बीबी के सेनापति सुहेल खाँ पर चढ़ाई करने के लिये भेजा।
मुराद के आदमियों ने मुराद के कहे अनुसार युद्ध की कपटपूर्ण व्यूह रचना की जिसका भेद बहुत कम आदमियों को मालूम था किंतु युद्ध आरम्भ होने से ठीक पहले रजाअली खाँ रूमी को मुराद के षड़यंत्र का पता लग गया।
उसने खानखाना के प्राण बचाने का निर्णय लिया तथा वह अपना मोर्चा छोड़कर सुहेल खाँ की तोपों की सीधी मार में खड़े खानखाना को बचाने के लिये दौड़ पड़ा।
रजाअली खाँ रूमी तथा उसके सिपाहियों को ऐन वक्त पर अपना स्थान छोड़ दौड़कर जाते हुए देखकर मुराद के आदमी गुस्से से चिल्लाने लगे कि धोखेबाज रजाअली खाँ शत्रु से मिल गया है। रजाअली खाँ ने उनकी परवाह नहीं की और किसी तरह खानखाना के पास जा पहुँचा।
उसने कहा- ‘खानखाना! शहजादे ने आपके साथ दगा की है। आपको जानबूझ कर ऐसी जगह रखा गया है जहाँ से आप जीवित बचकर नहीं निकल सकते। सारी आतिशबाजी आपके बराबर चुनी हुई है। अभी उसमें आग दी जाती है। इसलिए यदि आप दाहिनी ओर मुड़ जावें तो ठीक होगा।’
खानखाना तो तुरंत अपने आदमियों के सहारे उसी ओर मुड़ गया और रजाअली खाँ रूमी उसके स्थान पर डट गया। जैसे ही खानखाना वहाँ से हटा, गनीम की तोपों को आग दिखाई गयी और सारा आकाश धुएँ से भर गया। यहाँ तक कि सूर्यदेव भी उस धुएँ से ढंक गये।
कुछ पता नहीं चला कि कौन जीवित रहा और कौन मर गया। शत्रु की फौज रजाअली खाँ को खानखाना समझ कर उस पर चढ़ बैठी। किसी को शत्रु-मित्र की पहचान न रही। सब अमीर आपस में कट मरे। रजाअली खाँ का भी काम तमाम हो गया। मुगलों की बड़ी भारी क्षति हुई। राजा जगन्नाथ अपने चार हजार सिपाहियों सहित मारा गया।
धुआँ छंटने पर खानखाना ने फिर से उसी स्थान पर धावा किया जिस स्थान पर उसने रजाअली खाँ को छोड़ा था किंतु रजाअली खाँ वहाँ नहीं मिला। इसी दौरान रात हो गयी और दोनों ओर की सेनाएं अपनी-अपनी जीत समझ कर सारी रात रणक्षेत्र में खड़ी रहीं।
कोई भी घोड़े की पीठ से नहीं उतरा। दक्खिनी तो यह समझते रहे कि हमने खानखाना को मार डाला है और मुगल सेना यह समझती रही कि सुहेल खाँ पराजित होकर भाग गया है। यह भाग्य अथवा प्रारब्ध का ही यत्न था कि जिस खानखाना को मार डालने के लिये उसके स्वामी ने षड़यंत्र रचा था, उसी खानखाना को बचाने के लिये सेवकों ने अपने प्राण न्यौछावर कर दिये।
सुबह होने पर खानखाना ने अपना नक्कारा बजाया और अपना नरसिंगा फूंका जिसे सुनकर मुगल सेना के जो सिपाही युद्ध से भागकर इधर-उधर छिपे हुए थे, खानखाना से आ मिले। खानखाना ने किसी तरह रजाअली खाँ के क्षत-विक्षत शव को ढूंढ निकाला।
उस समय खानखाना और उसके आदमियों के पास कुल सात हजार सवार रह गये थे जबकि शत्रु सैन्य में पच्चीस हजार घुड़सवार मौजूद थे।
इस पर दौलत खाँ लोदी ने खानखाना से कहा- ‘यदि मैं तोपखाने या हाथियों के सामने चढ़ कर जाऊंगा तो शत्रु तक पहुँचने से पहले ही मारा जाऊंगा इसलिये पीठ पीछे से धावा करता हूँ।’
इस पर खानखाना ने दौलत खाँ लोदी से कहा- ‘जो तू ऐसा करेगा तो दिल्ली का नाम डुबोवेगा।’
– ‘नाम को जीवित रखकर क्या करना है? यदि मैं जीवित रहा तो सौ दिल्लियाँ बसा लूंगा।’ यह कहकर दौलत खाँ आगे बढ़ गया।
दौलत खाँ लोदी के नौकर सैयद कासिम को खानखाना की नीयत पर शक हो गया। उसने दौलत खाँ के कान में फुसफुसा कर कहा- ‘खानखाना आपको मरवा डालने के लिये ऐसा कह रहा है।’
दौलत खाँ लोदी ने खानखाना की टोह लेने के लिये पूछा- ‘इतना बता दो खानखाना! यदि हार हो जावे और मैं किसी तरह शत्रु के हाथों से बचकर वापिस आऊँ तो आप कहाँ मिलेंगे?’
– ‘शत्रु की लाशों के नीचे।’ खानखाना ने जवाब दिया। इस जवाब से संतुष्ट होकर दौलत खाँ लोदी सुहेल खाँ की सेना पर धावा बोलने के लिये चला गया।
खानखाना समझ गया कि उसकी नीयत पर शक किया जा रहा है। मुगलों का संशय मिटाने के लिये उस दिन खानखाना ने ऐसी लड़ाई की कि मुराद और उसके मंत्री दांतों तले अंगुली दबाकर देखने के सिवाय कुछ न कर सके।
चांद बीबी का सेनापति सुहेल खाँ विशाल सेना का स्वामी होने के बावजूद खानखाना की छोटी सेना से परास्त हो गया। खानखाना यह चमत्कार करने का पुराना जादूगर था।
इसी जादू के बल पर वह मुगलिया सल्तनत का खानखाना बना था। विजय प्राप्त होने पर खानखाना ने उस दिन पचहत्तर लाख रुपये और अपनी समस्त सम्पत्ति अपने सैनिकों में लुटा दी। दक्खिनियों के चालीस हाथी और तोपखाना खानखाना के हाथ लगे जो उसने मुराद को सौंप दिये।
उस शाम मुगल सेना में चारों ओर विजय का उत्सव था। सिपाही छक कर शराब पीते थे और रक्कासाओं के साथ नगाड़ों की धुन पर घण्टों नाचते थे किंतु शायद ही कोई जान सका कि विजयी सेनापति खानखाना अब्दुर्रहीम खाँ अपने डेरे में मुँह पर कपड़ा बांधे जार-जार रो रहा था।
उसके पास उसके दोस्त रजाअली खाँ रूमी का क्षत-विक्षत शव रखा था। रजा अली खाँ मुगलिया राजनीति की चौसर पर बलिदान हो गया था।
यह मुगलों की बड़ी भारी विजय थी जिसके कारण पूरा दक्खिन काँप उठा था। जीत का सेहरा अपने सिर पर बांधने तथा खानखाना से छुटकारा पाने की फिराक में लगे शहजादे मुराद ने भागते हुए दक्खिनियों के पीछे अपना कोई लश्कर नहीं भेजा अन्यथा दक्खिनियों की बड़ी भारी हानि होती। खानखाना तो वैसे भी नहीं चाहता था कि इस शत्रु फौज का और अधिक नुक्सान हो।
सुहेल खाँ पर विजय प्राप्त करके खानखाना फिर से जालना लौट गया। जब परनाला और गावील के दुर्ग मुराद के हाथ लग गये तो उसने अपने अमीर सादिक खाँ के कहने से खानखाना को लिखा कि अब अवसर है कि चलकर अहमदनगर ले लें। मुराद का पत्र पाकर खानखाना के होश उड़ गये।
उसे अनुमान तो था कि शहजादा अपने वचन से फिरेगा किंतु इतनी शीघ्र फिरेगा, इसका अनुमान नहीं था। बहुत सोच-विचार कर खानखाना ने मुराद को लिखा कि अभी तो यही उचित है कि इस वर्ष बराड़ में रहकर यहाँ के किलों को फतह करें और जब यह देश पूर्ण रूप से दब जाये तो दूसरे देशों पर जायें।
खानखाना के इस लिखित जवाब से मुराद को खानखाना के विरुद्ध मजबूत प्रमाण मिल गया। उसने खानखाना का पत्र ढेर सारे आरोपों के साथ नत्थी करके बादशाह अकबर को भिजवा दिया।
उसमें प्रमुख शिकायत यह थी कि खानखाना अब्दुर्रहीम शहंशाह अकबर और समूची मुगलिया सल्तनत से दगा करके चाँद बीबी से मिल गया है। शहजादे का पत्र पाकर अकबर खानखाना पर बड़ा बिगड़ा।
उसने खानखाना को दक्खिन से लाहौर में तलब किया और खानखाना की जगह शेख अबुल को दक्षिण का सेनापति बनाकर भेज दिया। ऐसी थी उस काल की मुगलिया राजनीति की गंदी चौसर जहाँ हर कोई हर किसी को निबटाने में लगा रहता था। यह अलग बात है कि राजनीति हर काल में ऐसी गंदी ही होती है।