Wednesday, February 5, 2025
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शिया सुन्नी तथा सूफी (139)

अकबर स्वयं सुन्नी मुसलमान था किंतु उसके रक्त में शिया सुन्नी तथा सूफी तीनों का खून बहता था। वह इस्लाम की इन तीनों धाराओं का संयुक्त वारिस था।

ईस्वी 1576 के आते-आते अकबर का राज्य काफी विस्तृत हो चुका था। इसलिए उसने अपनी प्रजा का प्रशासनिक नेतृत्व करने के साथ-साथ मजहबी नेतृत्व करने का भी विचार किया। अकबर द्वारा प्रजा के मजहबी नेतृत्व के लिए किए गए प्रयासों की चर्चा करने से पहले हमें अकबर की मजहबी प्रवृत्तियों की पृष्ठभूमि के बारे में कुछ जानना चाहिए।

अकबर की मजहबी प्रवृत्तियों के बारे में भिन्न-भिन्न लेखकों ने एक दूसरे से बिल्कुल उलट विचार व्यक्त किए हैं। इस आलेख में हम अकबर की पारिवारिक एवं शैक्षणिक पृष्ठभूमि में कार्य कर रही मजहबी प्रवत्तियों की चर्चा करेंगे।

अकबर का पिता हुमायूँ सुन्नी मत को मानने वाला था और उसकी माता हमीदा बानू फारस अर्थात् ईरान से आए शिया मत को मानने वाले मियां अली बाबा दोस्त की पुत्री थी। यह परिवार ईरान के खुरासान प्रांत के तोरबात-ए-जाम नगर का प्रसिद्ध सूफी परिवार था जो गायन-वादन की विशिष्ट शैली के लिए जाना जाता था।

इस प्रकार अकबर की धमनियों में शियाओं, सुन्नियों तथा सूफियों का मिश्रित रक्त प्रवाहित हो रहा था। यदि यह कहा जाए कि अकबर इस्लाम की तीनों मुख्य शाखाओं अर्थात् शिया सुन्नी तथा सूफी का संयुक्त वारिस था, तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

हालांकि अकबर के पूर्वज समरकंद के सुन्नी थे किंतु उन्हें अपने जीवन में अनेक बार ईरान के शियाओं से समझौते करने पड़े थे। हुमायूँ के दादा बाबर को मध्य-ऐशियाई उज्बेकों से लड़ने के लिए ईरान के शिया बादशाह शाह इस्माइल से संधि करके कुछ समय के लिए शिया मत अपनाना पड़ा था।

अकबर के पिता हुमायूँ ने मियां अली बाबा दोस्त की पुत्री से विवाह किया था जो शिया थी। इसी प्रकार हुमायूँ को भारत से भाग कर ईरान में शरण लेनी पड़ी थी जहाँ उसे शिया मतावलम्बियों की तरह रहना पड़ा था और एक शिया शहजादी से विवाह करना पड़ा था।

हुमायूँ का अत्यंत स्वामि-भक्त सरदार बैराम खाँ भी शिया था जो बाद में अकबर का मुख्य संरक्षक बना। इस प्रकार हुमायूँ, हमीदा बानू बेगम तथा खानखाना बैराम खाँ अकबर की मजहबी प्रवृत्तियों एवं व्यवहार के लिए उत्तरदाई थे।

डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने लिखा है कि अकबर के सुयोग्य शिक्षक अब्दुल लतीफ ने जो अपने धार्मिक विश्वासों में इतना उदार था कि फारस देश के शिया मतावलम्बी, अब्दुल लतीफ को सुन्नी मत का समझते थे जबकि उत्तर भारत के सुन्नी मतावलम्बी, अब्दुल लतीफ को शिया मत का मानते थे। अब्दुल लतीफ ने ही अकबर को सबके साथ शांति रखने के सिद्धांत का पाठ पढ़ाया था जिसे भारतीय राजनीति में सुलहकुल कहा जाता है।

डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने लिखा है कि अकबर सुलहकुल के सिद्धांत को कभी नहीं भूला। धार्मिक कट्टरता और मदान्धता अकबर स्वभाव के ही प्रतिकूल थी।

राज्यारोहण के पश्चात के कुछ वर्षों में अकबर को शाह अबुल मुआली, बैराम खाँ तथा शेख गदाई सहित अनेक मुसलमानों के विरुद्ध सख्त कदम उठाने के लिए प्रेरित किया गया किंतु फिर भी अकबर ने किसी प्रकार की कट्टरता का परिचय नहीं दिया।

डॉ. श्रीवास्तव ने लिखा है कि तत्कालीन इतिहास लेखक बदायूंनी के वृतांत से पता चलता है कि अकबर दिन में न केवल पांच बार नमाज पढ़ता था बल्कि वह राज्य, धन-दौलत और मान-प्रतिष्ठा प्रदान करने की अल्लाह की अपार अनुकंपा के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के निमित्त प्रतिदिन प्रातःकाल अल्लाह का चिंतन करता था और या-हू या-हादी का ठीक मुसलमानी ढंग से उच्च स्वर से पाठ करता था।

अकबर सुन्नी होने पर भी प्रत्येक वर्ष अजमेर में सूफी दरवेश ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह की भक्ति-भाव से यात्रा करता था। बहुत से इतिहासकारों ने अकबर की इस धार्मिक उदारता की प्रशंसा की है।

डॉ. श्रीवास्तव के अनुसार अकबर अपने युग के मुस्लिम बादशाहों से बिल्कुल उलट, उदार तथा व्यापक दृष्टिकोण का बादशाह था। वह वैचारिक संकीर्णता से परे था।

अकबर का बाल्यकाल संकटों, षड़यंत्रों तथा मुसीबतों से भरा हुआ होने के कारण अकबर का जीवन तथा धर्म के प्रति दृष्टिकोण, एक सामान्य बादशाह से भिन्न होना स्वाभाविक था।

उसे कामरान तथा अन्य चाचाओं की धूर्त्तता तथा राज्यलिप्सा के लिये किये गये षड़यंत्रों से अच्छी तरह अनुभव हो गया था कि अपने ही मजहब के लोग तथा अपने ही रक्त सम्बन्धी, राज्य तथा सम्पत्ति के लिये किसी भी निर्दोष के प्राण लेने के लिये उद्धत हो जाते हैं।

इसलिये अकबर ने मजहब तथा रक्त-सम्बन्धों को ही सब-कुछ मानने के स्थान पर व्यक्ति के भीतर बसने वाले गुणों को प्रमुखता दी तथा हर धर्म में बसने वाली अच्छी बात को स्वीकार किया।

डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव के अनुसार अकबर के पिता हुमायूँ को अपने भाइयों से कदम-कदम पर धोखे और विश्वासघात मिले थे जो कि हुमायूँ की ही तरह सुन्नी मुसलमान थे।

जबकि मुगल दरबार में काफिर समझे जाने वाले शियाओं एवं हिंदुओं ने हुमायूँ को अपने यहाँ रखकर उसे अपने खोये हुए राज्य को फिर से प्राप्त करने का अवसर दिया था।

इस कारण हुमायूँ में उतना धार्मिक कट्टरपन तथा उन्माद नहीं था जितना उसके पूर्वज तैमूर लंग तथा बाबर में था। हुमायूँ सुसंस्कृत, उदार, दयालु तथा सहिष्णु बादशाह था। उसके व्यक्तित्त्व का अकबर पर गहरा प्रभाव पड़ा।

सूफियों के प्रति अकबर सहज आकर्षण का अनुभव करता था, इस कारण वह प्रत्येक बड़े युद्ध अभियान पर जाने से पहले स्वयं अजमेर जाता था और ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर उपस्थित होकर मनौती मांगता था।

अकबर ने फतहपुर सीकरी में सूफी दरवेश सलीम चिश्ती के साथ निकट सम्बन्ध बनाए। बादशाह होते हुए भी अकबर शेख सलीम चिश्ती के मकान में जाकर रुकता था और उसने अपनी मुख्य बेगम को गर्भवती होने पर सलीम चिश्ती के मकान में रखकर उसका प्रसव करवाया ताकि बेगम को इस सूफी दरवेश का आशीर्वाद प्राप्त हो सके और अकबर की बेगमें पुत्रों को जन्म दे सकें।

जब अकबर के पहले पुत्र का जन्म हुआ तो अकबर ने सलीम चिश्ती के नाम पर अपने पुत्र का नाम सलीम रखा। इतना ही नहीं, अकबर अपने इस पुत्र को सामान्यतः शेखू बाबा अथवा शेखू कहकर ही पुकारता था क्योंकि सलीम चिश्ती को शेखुल इस्लाम भी कहते थे।

अकबर के एक अन्य पुत्र दानियाल का जन्म भी अजमेर में सूफी दरवेश ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती के खादिम शेख दानियाल के मकान में हुआ था तथा इस शहजादे का नाम भी इसी खादिम के नाम पर रखा गया।

इस प्रकार अकबर की रक्त परम्परा और इतिहास परम्परा में शिया सुन्नी तथा सूफी तीनों ही समाए हुए थे। इस संयुक्त विरासत के कारण ही वह इस्लाम की इन तीनों धाराओं अर्थात् शिया सुन्नी तथा सूफी तीनों को ही प्रसन्न नहीं रख सका।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

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