हिन्दू मानते हैं कि अयोध्या स्थित श्रीराम जन्मभूमि मंदिर ई.1528 में बाबर के सेनापति मीर बाकी ने तोड़ा था। इस कथन में कितनी सच्चाई है ? या फिर यह सच तो है किंतु यह पूरा सच नहीं है, सच कुछ और भी है!
हिन्दू पुराणों के अनुसार भगवान राम का जन्म त्रेतायुग में हुआ। पुराणों ने त्रेता युग की अवधि आज से 12 लाख 96 हजार वर्ष पूर्व से लेकर 8 लाख 69 हजार वर्ष पहले तक बताई है।
ऐतिहासिक, साहित्यिक, पुरातात्विक एवं वैज्ञानिक खोजों ने सिद्ध किया है कि भगवान राम का जन्म आज से लगभग 7 हजार साल पहले हुआ। पूरी दुनिया में उनके हजारों मंदिर हैं जो विगत सात हजार साल की अवधि में बने हैं।
अयोध्या में श्री राम के जीवन से जुड़े स्थलों पर तीन मंदिर बनाए गए। पहला श्रीराम जन्मभूमि मंदिर था जिसे ‘जन्मस्थानम्’ कहा जाता था।
दूसरा मंदिर ‘त्रेता के ठाकुर’ कहलाता था जहाँ भगवान श्रीराम ने अपनी लीलाएं पूरी करके लौकिक देह का त्याग किया।
तीसरा मंदिर ‘स्वर्गद्वारम्’ कहलाता था जहाँ भगवान की लौकिक देह पंच-तत्वों में विलीन हुई थी।
इन तीनों स्थानों पर अयोध्यावासियों ने एक-एक मंदिर बनवाया। प्रथम शताब्दी ईस्वी में उज्जैन के राजा शाकारि विक्रमादित्य ने अयोध्या में जन्मभूमि पर एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया। निश्चित रूप से यह मंदिर पहले के किसी पुराने मंदिर या महल के अवशेषों पर बनाया गया होगा।
पांचवी शताब्दी ईस्वी के प्रारम्भ में चीनी यात्री फाह्यान अयोध्या आया। उसने अयोध्या में बौद्धों और हिन्दुओं के वैमनस्य तथा अयोध्या के निकट श्रावस्ती में कुछ बड़े बौद्ध विहरों का उल्लेख किया है। उसने अयोध्या के किसी हिन्दू मंदिर का उल्लेख नहीं किया है। वह बौद्ध था इसलिए संभव है कि फाह्यान की दृष्टि में राम जन्मभूमि मंदिर उल्लेखनीय नहीं था।
गुप्तसम्राट स्कंदगुप्त ई.455 में अपनी राजधानी पाटलिपुत्र से अयोध्या ले आया। ई.484 में हूणों ने पहली बार हिन्दूकुश पर्वत को पार करने में सफलता प्राप्त की किंतु उनके नेता तोरमाण के निशाने पर गुप्त-साम्राज्य का पश्चिमी भाग अर्थात् गांधार, पंजाब, कश्मीर एवं मालवा क्षेत्र रहा, उसने अयोध्या पर अभियान नहीं किया।
हूणों का अगला नेता मिहिरकुल हुआ किंतु वह भगवान शिव का भक्त बन गया था इसलिए उसने हिन्दू मंदिरों को छुआ तक नहीं। उसने केवल बौद्ध विहारों और चैत्यों को जलाया।
तोरमाण, मिहिरकुल अथवा किसी अन्य हूण आक्रांता द्वारा अयोध्या पर किसी अभियान का उल्लेख इतिहास में नहीं मिलता है।
सातवीं शताब्दी ईस्वी में चीनी यात्री ह्वेनसांग अयोध्या आया। उसने अयोध्या के निकट तीन टीले देखे जिन्हें मणि पर्वत, कुबेर पर्वत तथा सग्रीव पर्वत कहा जाता था। उसने अयोध्या को यौगिक शिक्षा का गृहस्थान बताया है।
यह एक आश्चर्य की ही बात है कि पांचवीं शताब्दी ईस्वी में फाह्यान अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर का उल्लेख नहीं करता, केवल बौद्ध विहार का उल्लेख करता है। जबकि सातवीं शताब्दी ईस्वी में ह्वेनसांग अयोध्या में बौद्ध विहार का उल्लेख नहीं करता, मणि पर्वत, कुबेर पर्वत तथा सग्रीव पर्वत का उल्लेख करता है।
स्पष्ट है कि इन दोनों चीना यात्रियों को जो कि वस्तुतः बौद्ध भिक्षु थे, के लिए बौद्ध धर्म महत्वपूर्ण था, हिन्दू मंदिर नहीं।
ईस्वी 712 में भारत भूमि पर इस्लाम का पहला आक्रमण हुआ किंतु यह आक्रमण सिंध तक सीमित था। इसलिए इस आक्रमण का अयोध्या से कोई सम्बन्ध नहीं है।
ग्यारहवीं शताब्दी ईस्वी के आरम्भ में महमूद गजनवी ने भारत पर 17 बार आक्रमण किए किंतु उसने अयोध्या पर एक भी अभियान नहीं किया। उसके निशाने पर नगरकोट एवं सोमनाथ जैसे समृद्ध मंदिर ही रहे।
महमूद गजनवी का उद्देश्य मंदिरों की सम्पदा को लूटना था। इसलिए उसने मथुरा, सोमनाथ तथा नगरकोट जैसे समृद्ध मंदिरों को लूटा एवं तोड़ा। उसकी दृष्टि में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर इसलिए महत्वहीन था क्योंकि वहाँ सम्पदा मिलने की आशा नहीं थी।
इस्लाम को भारत में प्रवेश करने से लेकर दिल्ली पर शासन स्थापित करने तक पूरे 500 साल तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। ईस्वी 1206 में मुहम्मद गौरी के गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली सल्तनत की नींव रखी।
यह राज्य ईस्वी 1526 तक अर्थात् पूरे सवा तीन सौ साल तक चला। इस सल्तनत पर धर्मांध तुर्कों के गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, सैयद वंश और लोदी वंश नामक तुर्की कबीलों ने शासन किया।
तुर्क सुल्तानों ने सम्पूर्ण भारत में मंदिरों को तोड़ने एवं मस्जिदों को बनाने का एक लम्बा सिलसिला चलाया। निश्चित रूप से अयोध्या उनसे बची नहीं रह सकती थी।
ईस्वी 1210 से 1236 के बीच गुलाम वंश के ताकतवर सुल्तान इल्तुतमिश ने दिल्ली एवं उत्तर भारत के मैदानों पर शासन किया। उसने अपने बड़े पुत्र नासिरुद्दीन को अयोध्या का सूबेदार बनाया।
नासिरुद्दीन ने अपने अधिकार वाले सम्पूर्ण क्षेत्र में हिन्दुओं के विरुद्ध जेहाद करके अपने पिता की प्रशंसा प्राप्त की। इस जेहाद के दौरान अयोध्या क्षेत्र में बड़ी संख्या में हिन्दुओं को मारा गया तथा उनके मंदिर तोड़े गए।
अतः यही वह अवधि अनुमानित की जानी चाहिए जिस समय अयोध्या का मंदिर पहली बार तोड़ा गया होगा।
स्वाभाविक है कि जब अयोध्या का मुस्लिम शासक जेहाद करेगा तो उसके हाथों से रामजन्मभूमि जैसा महत्वपूर्ण मंदिर साबत नहीं बचा रहा होगा।
जब दिल्ली सल्तनत कमजोर पड़ गई, तब हिन्दुओं ने अवसर पाकर रामजन्मभूमि मंदिर का फिर से निर्माण कर लिया।
यद्यपि इस सम्बन्ध में कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं मिलता, तथापि इसकी पुष्टि इस तथ्य से होती है कि खुरासान से आए मंगोल बादशाह बाबर के सेनापति मीरबाकी ने जब ईस्वी 1528 में अयोघ्या पर अभियान किया तब यहाँ श्रीराम जन्मभूमि मंदिर मौजूद था।
जिस समय बाबर का शिया सेनापति मीर बाकी अयोध्या की तरफ बढ़ा, उस समय भाटी नरेश महताब सिंह तथा हँसवर नरेश रणविजय सिंह ने अयोध्या में मीर बाकी का मार्ग रोका। उनका नेतृत्व हँसवर के राजगुरु देवीनाथ पांडे ने किया।
सर्वप्रथम देवीनाथ पांडे ने ही अपनी सेना के साथ मीर बाकी पर आक्रमण किया। वह स्वयं भी तलवार हाथ में लेकर मीर बाकी के सैनिकों पर टूट पड़ा। हिन्दू सैनिक तलवार लेकर लड़ रहे थे जबकि मीर बाकी ने तोपों एवं बंदूकों का सहारा लिया। मीर बाकी ने छिपकर राजगुरु को गोली मारी।
लखनऊ गजट के लेखक कनिंघम के अनुसार इस युद्ध में 1,74,000 हिन्दू सैनिकों ने प्राणों की आहुति दी। इस युद्ध में मीर बाकी विजयी हुआ। उसने रामजन्मभूमि पर एक मस्जिद का निर्माण करवाया।
इस प्रकार मीर बाकी के काल में रामजन्मभूमि मंदिर दूसरी बार तोड़ा गया। मीर बाकी ने यहाँ फिर से एक मस्जिद बनवाई तथा इसके फाटक पर तीन पंक्तियों का एक लेख लिखवाया। पहली पंक्ति में लिखा था-
बनामे आँ कि दाना हस्त अकबर
कि खालिक जुमला आलम लामकानी।
हरूदे मुस्तफ़ा बाहज़ सतायश
कि सरवर अम्बियाए दोजहानी।
फिसाना दर जहां बाबर कलंदर
कि शुद दर दौरे गेती कामरानी।
अर्थात्- उस परमात्मा के नाम से जो महान और बुद्धिमान है, जो सम्पूर्ण जगत का सृष्टिकर्ता और स्वयं निवास रहित है।
परमात्मा के बाद मुस्तफ़ा की कथा प्रसिद्ध है जो दोनों जहान और पैगम्बरों के सरदार हैं।
संसार में बाबर और कलंदर की कथा प्रसिद्ध है जिससे उसे संसार चक्र में सफलता मिलती है।
मीर बाकी ने मस्जिद के भीतर भी तीन पंक्तियों का एक लेख लिखवाया-
बकरमूद ऐ शाह बाबर कि अहलश
बनाईस्त ता काखे गरहूं मुलाकी।
बिना कर्द महबते कुहसियां अमीरे स आहत निशां मीर बाकी।
बुअह खैर बाकी यूं साले बिनायश।
अर्थात् बादशाह बाबर की आज्ञा से जिसके न्याय की ध्वजा आकाश तक पहुंची है।
नेकदिल मीर बाकी ने फरिश्तों के उतरने के लिए यह स्थान बनवाया है।
उसकी कृपा सदा बनी रहे।
इस लेख से लगता है कि इसमें वर्णित फरिश्तों के उतरने के स्थान का आशय रामजन्मभूमि से है किंतु यहाँ जिन फरिश्तों के उतरने का स्थान बताया गया है वह मस्जिद है न कि मंदिर। अतः यह उल्लेख इस्लाम में वर्णित उन फरिश्तों का है जो धरती पर अल्लाह का संदेश लेकर आते हैं।
इस लेख को बाद के वर्षों में हिन्दुओं द्वारा तोड़कर यहीं पटक दिया गया किंतु इसके टुकड़ों से इस इमारत के बनाने का वर्ष 935 हिजरी (ईस्वी 1528) भी ज्ञात हो जाता है।
चूंकि इस शिलालेख में बाबर के आदेश का उल्लेख हुआ है इसलिए इस इमारत को बाबरी मस्जिद कहा जाने लगा। वर्ष 1992 में मीर बाकी द्वारा बनाई गई इसी इमारत को तोड़ा गया।
इस इमारत के स्थापत्य पर विचार किया जाना चाहिए। इसकी दो विशेषताएं हैं-
(1) इसके निर्माण में प्राचीन रामजन्मभूमि मंदिर के भग्नावशेषों को काम में लिया गया था जिसमें काले रंग के कसौटी पत्थर के चौदह स्तम्भ भी सम्मिलित थे जिन पर हिन्दुओं के धार्मिक चिह्न उत्कीर्ण थे।
(2) इस इमारत का बाहरी स्वरूप दिल्ली सल्तनत के तुर्क शासकों के स्थापत्य से मेल खाता था न कि मुगलों के स्थापत्य से।
इसका कारण यह है कि मीर बाकी बहुत कम समय तक अयोध्या में रुका। उसने जल्दबाजी में जो मस्जिद बनवाई, उसमें मंदिर के ही पुराने अवशेष काम में लिए। उस समय तक देश में तुर्कों को शासन करते हुए लगभग तीन सौ साल बीत चुके थे, इसलिए मीर बाकी ने जिन कारीगरों से यह मस्जिद बनवाई, उन्होंने तुर्की स्थापत्य शैली की मस्जिद बनवाई, वे मुगल स्थापत्य शैली से परिचित नहीं थे।
बाबरी मस्जिद के बन जाने पर भी हिन्दू रामजन्मभूमि मंदिर पूरी तरह विध्वंस नहीं हुआ। मंदिर का भवन भले ही टूट चुका था किंतु पास के ही चबूतरे पर रामलला की पूजा होती रही। यही कारण है कि पूरू मुगल काल में यहाँ की मस्जिद को मस्जिद जन्मस्थानम् कहा जाता रहा।
मुगल कालीन राजस्व अभिलेखों के आधार पर कुछ इतिहासकारों ने सिद्ध करने की चेष्टा की है कि रामजन्मभूमि मंदिर औरंगजेब के काल तक मौजूद था। यहाँ पर औरंगजेब के समय में एक मस्जिद बनी जिसे बाबरी मस्जिद कहा गया।
इस मत को स्वीकार करने में कठिनाई यह है कि औरंगजेब के समकालीन इतिहासकारों ने अयोध्या का राम जन्मभूमि मंदिर तोड़े जाने और उसके स्थान पर मस्जिद बनवाए जाने का उल्लेख नहीं किया है। यदि ऐसा हुआ होता तो मुस्लिम इतिहासकारों ने उसका उल्लेख गर्व के साथ किया होता।
17वीं शताब्दी ईस्वी में औरंगजेब ने अयोध्या में श्रीराम के जीवन प्रसंगों से जुड़े शेष दो मंदिरों- ‘स्वर्गद्वारम्’ तथा ‘त्रेता के ठाकुर’ को तोड़कर मस्जिदें बनवाईं।
औरंगजेब ने अयोध्या में कन्नौज के राजा जयचंद्र द्वारा ई.1191 में निर्मित विष्णु मंदिर को भी तोड़ डाला। उसका भग्न शिलालेख आज भी अयोध्या संग्रहालय (पुराना नाम फैजाबाद संग्रहालय) में रखा है।
औरंगजेब के जीवन काल में सत्रहवीं शताब्दी ईस्वी में ऑस्ट्रिया के एक पादरी, फादर टाइफैन्थेलर ने अयोध्या की यात्रा की तथा लगभग 50 पृष्ठों में अयोध्या यात्रा का वर्णन किया। इस वर्णन का फ्रैंच अनुवाद ई.1786 में बर्लिन से प्रकाशित हुआ।
उसने लिखा- ‘अयोध्या के रामकोट मौहल्ले में तीन गुम्बदों वाला ढांचा है जिसमें काले रंग की कसौटी के 14 स्तम्भ लगे हुए हैं। इसी स्थान पर भगवान श्रीराम ने अपने तीन भाइयों सहित जन्म लिया। जन्मभूमि पर बने मंदिर को बाबर ने तुड़वाया। आज भी हिन्दू इस स्थान की परिक्रमा करते हैं और साष्टांग दण्डवत करते हैं।’
ई.1889-91 में अलोइज अंटोन नामक इंग्लिश पुरातत्वविद् की देख-रेख में अयोध्या का पुरातात्विक सर्वेक्षण किया गया जिसमें उसने अयोध्या के निकट तीन टीले देखे जिन्हें मणि पर्वत, कुबेर पर्वत तथा सग्रीव पर्वत कहा जाता था।
ब्रिटिश पुरातत्ववेत्ता कनिंघम ने माना है कि इन टीलों के नीचे उन्हीं बड़े बौद्ध मठों के अवशेष हैं जिनका उल्लेख ह्वेसांग ने किया था। यह केवल मान्यता है, इनकी खुदाई आज तक नहीं की गई है।
भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् अयोध्या नगर में हुई खुदाइयों में अयोध्या में मानव सभ्यता को ईसा से 1,700 वर्ष अर्थात् आज से 3,700 वर्ष पूर्व पुरानी माना गया। जबकि रामजी का जन्म अन्य विविध स्रोतों एवं रामेश्वर सेतु आदि से 7000 वर्ष पुराना ठहरता है।
इसलिए कहा जा सकता है कि उस अवधि की सभ्यता नष्ट हो गई होगी। या फिर वह खुदाई किए गए स्थल से भी अधिक नीचे दबी हुई है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता