Thursday, November 21, 2024
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अकबर महान् ! (141)

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने अकबर को भारत के दो महान शासकों में से एक माना है किंतु जब हम अकबर के काल में लिखी गई फारसी पुस्तकों पर दृष्टि डालते हैं तो जवाहर लाल नेहरू का दावा सही जान नहीं पड़ता। हमें इतिहास से बार-बार यह प्रश्न पूछना पड़ता है कि क्या अकबर महान् था!

जवाहरलाल नेहरू ने क्यों केवल दो शासकों को भारत का महान् पुत्र माना!  भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू एवं आजादी के बाद के लेखक डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव के अनुसार अकबर ने दूसरे मजहबों के प्रति उदारता का प्रदर्शन करके उनका विश्वास अर्जित किया तथा अपने ही मजहब एवं अपने ही कुल के उन शहजादों एवं अफगान विरोधियों को दबा दिया जो अकबर के राज्य पर कब्जा करना चाहते थे।

नेहरू ने अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘अकबर का नाम भारत के इतिहास में जगमगा रहा है और कभी-कभी कुछ बातों में वह हमें अशोक की याद दिलाता है।’

नेहरू ने अपनी पुत्री इंदिरा प्रियदर्शिनी के नाम लिखे अपने पत्रों में लिखा है- ‘यह एक अजीब बात है कि ईसा से तीन सौ वर्ष पहले का एक बौद्ध सम्राट और ईसा के बाद सोलहवीं सदी में एक मुसलमान सम्राट दोनों एक ही ढंग से और करीब-करीब एक ही आवाज में बोल रहे हैं। ताज्जुब नहीं कि यह खुद भारत की ही आवाज हो जो उसके दो महान् पुत्रों के जरिए बोल रही हो! एक तरह से अकबर भारतीय राष्ट्रीयता का जन्मदाता माना जा सकता है।’

हालांकि पण्डित नेहरू ने अकबर को सम्राट अशोक के समकक्ष ठहराते हुए उसे भारत का महान् पुत्र लिखा है किंतु वास्तविकता यह है कि अकबर की नसों में बहने वाले रक्त की एक भी बूंद भारतीय नहीं थी। उसकी माता हमीदा बानू खुरासान की रहने वाली थी और पिता हुमायूँ काबुल का रहने वाला था। उसके पूर्वजों की जड़ें मध्य-एशिया के ट्रांसऑक्सियाना क्षेत्र अर्थात् समरकंद एवं उज्बेकिस्तान में थीं। अकबर की माता और पिता के पूर्वजों की जितनी भी पीढ़ियों के नाम इतिहास में उपलब्ध हैं, उनमें से कोई भी भारतीय नहीं था।

यदि नेहरू की पुस्तक के अनुसार अकबर को भारत का महान् पुत्र मान लिया जाए तो फिर उन अंग्रेज अधिकारियों को विदेशी कैसे माना जा सकता है, जिन्हें 15 अगस्त 1947 को जहाजों में बैठाकर इंग्लैण्ड के लिए रवाना कर दिया गया। जहाँ तक महानता का प्रश्न है, वह अकबर की अपेक्षा उन अंग्रेज अधिकारियों में अधिक पाई जाती है, जिन्होंने भारत में रेल चलाई, पुल एवं सड़कें बनवाईं, विद्यालय एवं चिकित्सालय बनवाए, नहरों एवं बांधों का निर्माण करवाया, नागरिक प्रशासन की आधुनिक पद्धतियां लागू कीं, अकबर ने इनमें से कुछ भी नहीं किया।

जहाँ तक अकबर की महानता और धर्म-सहिष्णुता का प्रश्न है, उसका उत्तर कुरुक्षेत्र में अकबर द्वारा साधुओं का एक-दूसरे के हाथों रक्तपात करवाने, चित्तौड़ के दुर्ग में तीस हजार निर्दोष लोगों का कत्लेआम करवाने, गुजरात में साबरमती के तट पर दो हजार कटे हुए सिरों की मीनार बनवाने और शराब के नशे में राजकुमार मानसिंह का गला दबाने की घटनाओं में स्वतः मिल जाता है।

हालांकि पानीपत के मैदान में बेहोश पड़े महाराज हेमचंद्र का गला काटने एवं नगरकोट मंदिर में हुसैन कुली खाँ की सेना द्वारा 200 काली गायों का संहार करवाने की घटनओं में अकबर का प्रत्यक्ष हाथ नहीं था, फिर भी ये घटनाएं अकबर के सेनापतियों की मानसिकता का पूरा परिचय देती हैं।

पं. नेहरू ने लिखा है- ‘एक तरह से अकबर भारतीय राष्ट्रीयता का जन्मदाता माना जा सकता है। ऐसे समय में जबकि देश में राष्ट्रीयता का कुछ भी निशान नहीं था और मजहब लोगों को एक दूसरे से अलग कर रहा था, अकबर ने समझ-बूझ कर समान भारतीय राष्ट्रीयता के आदर्श को फूट डालने वाले मजहबी दावों के ऊपर रख दिया।’

अकबर महान् था, यह सिद्ध करने के लिए नेहरू ने अकबर की तरफ से सफाई देते हुए लिखा है- ‘अकबर अपनी कोशिश में पूरी तरह तो सफल नहीं हुआ किंतु यह अचंभे की बात है कि वह कितना आगे बढ़ गया और उसकी कोशिशों को कितनी ज्यादा सफलता मिली! फिर भी अकबर को जो कुछ भी सफलता मिली वह अकेले उसी की नहीं थी। जब तक कि ठीक समय ना आ गया हो और आसपास के हालात मदद ना करें तब तक कोई भी मनुष्य महान कामों में सफल नहीं हो सकता। महापुरुष खुद अपना चौगिर्द तैयार करके जमाने को जल्दी बदल सकता है किंतु महापुरुष खुद भी तो जमाने का और जमाने के चौगिर्द का ही फल होता है। इस तरह अकबर भी भारत के उस जमाने का फल है।’

नेहरू ने लिखा है- ‘अकबर हिंदुओं की सद्भावना हासिल करने में सफल हुआ। अकबर की नौकरी करने और उसको सम्मान देने के लिए चारों ओर से लगभग सभी राजपूत इकट्ठे होने लगे सिावाय मेवाड़ के राणा प्रताप के जिसने कभी सिर नहीं झुकाया। जिंदगी भर यह अभिमानी राजपूत दिल्ली के महान सम्राट से लड़ता रहा और उसने उसके सामने सिर झुकाना मंजूर नहीं किया।’

नेहरू ने लिखा है- ‘अकबर हिन्दू सरदारों और हिन्दू जनता का स्नेह हासिल करने में जुट गया। राजा मानसिंह को तो अकबर ने कुछ दिनों के लिए काबुल का सूबेदार बनाकर भेजा। इस तरह अकबर ने राजपूतों को अपनी तरफ कर लिया और वह जनता का प्यारा बन गया।…. शरीर में अकबर असाधारण बलवान और चुस्त था और वह जंगली और खूंख्वार जानवरों के शिकार से ज्यादा और किसी चीज से प्रेम नहीं करता था। एक सिपाही की हैसियत से तो वह इतना बहादुर था कि उसे अपनी जान तक की बिल्कुल परवाह नहीं थी।’

नेहरू ने लिखा है- ‘मैंने अकबर की तुलना अशोक से की है किंतु तुम इस तुलना से भ्रम में न पड़ जाना। बहुत सी बातों में अकबर अशोक से बिल्कुल अलग था। अकबर बड़ी ऊंची उमंगों वाला बादशाह था और अपने जीवन के अंत समय तक वह अपना साम्राज्य बढ़ाने की धुन में चढ़ाइयां करता रहा।…. देखा जाए तो राजपूतों को और अपनी हिंदू प्रजा को मनाने के लिए कभी-कभी तो वह इतना आगे बढ़ जाता था कि मुसलमान प्रजा के साथ अक्सर अन्याय हो जाता था।’

पण्डित नेहरू के उपरोक्त कथनों में कितनी सच्चाई है, इस पर हम अगले आलेख में चर्चा करेंगे।

विभिन्न इतिहासकार भले ही अकबर की धार्मिक सहिष्णुता के कितने ही गीत क्यों न गा लें, ऐतिहासिक तथ्यों से केवल इस बात की पुष्टि होती है कि अकबर को भारत पर राज्य करने तथा अपने ही कुल के शहजादों एवं अफगान लड़ाकों से लड़ने के लिए वीर हिन्दू जाति के सहयोग की आवश्यकता थी, इसलिए उसने विधर्मियों के प्रति धार्मिक सहिष्णुता के प्रदर्शन का मार्ग चुना था न कि हृदय की किसी उच्च भावना से प्रेरित होकर!

जवाहर लाल नेहरू के किसी भी तर्क से यह सिद्ध नहीं होता कि अकबर महान् था।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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