Monday, February 24, 2025
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अल्लाह हमारी जान बचा (127)

श्यामनारायण पाण्डे ने अपनी कविता हल्दीघाटी में लिखा है कि हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर के सैनिक भेड़ों की तरह अपने प्राणों की रक्षा के लिए भागे- भेड़ों की तरह भगे कहते, अल्लाह हमारी जान बचा

 उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में ई.1910 में जन्मे श्यामनारायण पाण्डेय ने 17 सर्गों में हल्दीघाटी नामक काव्य की रचना की जिसे राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त हुई। उन्होंने अपनी इस कविता में हल्दीघाटी के युद्ध का ऐसा सुंदर वर्णन किया है जिसे सुनकर रगों का खून उबाल लेने लगता है। प्रस्तुत हैं, इस काव्य के कुछ अंश-

ग्यारहवें सर्ग के अंश-

कोलाहल पर कोलाहल सुन, शस्त्रों की सुन, झंकार प्रबल।

मेवाड़ केसरी गरज उठा, सुनकर अरि की ललकार प्रबल।।

     हर एक लिंग को माथ नवा, लोहा लेने चल पड़ा वीर।

     चेतक का चंचल वेग देख, था महा-महा लज्जित समीर।।

लड़-लड़कर अखिल महीतल को, शोणित से भर देने वाली।

तलवार वीर की तड़प उठी, अरि कण्ठ कतर देने वाली।।

     राणा का ओज भरा आनन, सूरज समान चमक उठा।

     बन महाकाल का महाकाल, भीषण भाला दमदमा उठा।

भेरी प्रताप की बजी तुरत, बज चले दमामे धमर-धमर।

धम-धम रण के बाजे बाजे, बज चले नगारे घमर-घमर।।

     कुछ घोड़े पर कुछ हाथी पर, कुछ योधा पैदल ही आये।

     कुछ ले बरछे कुछ ले भाले, कुछ शर से तरकस भर लाये।।

रण-यात्रा करते ही बोले, राणा की जय, राणा की जय।

मेवाड़ सिपाही बोल उठे, शत बार महाराणा की जय।।

     हल्दी घाटी के रण की जय, राणा प्रताप के प्रण की जय।

     जय जय भारतमाता की जय, मेवाड़-देश कण-कण की जय।।

हर एक लिंग हर एक लिंग, बोला हर हर अम्बर अनन्त।

हिल गया अचल भर गया तुरत, हर हर निनाद से दिग्दिगन्त।।

     घनघोर घटा के बीच चमक, तड़-तड़ नभ पर तड़िता तड़की।

     झन-झन असि की झनकार इधर, कायर-दल की छाती धड़की।।

अब देर न थी वैरी-वन में, दावानल के सम छूट पड़े।

इस तरह वीर झपटे उन पर, मानों हरि मृग टूट पड़े।।

     मरने कटने की बान रही। पुश्तैनी इससे आह न की।

     प्राणों की रंचक चाह न की। तोपों की भी परवाह न की।।

रण-मत्त लगे बढ़ने आगे, सिर काट-काट करवालों से।

संगर की मही लगी पटने क्षण-क्षण अरि कंठ कपालों से।

     हाथी सवार हाथी पर थे, बाजी सवार बाजी पर थे।

     पर उनके शोणितमय मस्तक, अवनी पर मृत-राजी पर थे।।

कर की असि ने आगे बढ़कर, संगर-मतंग-सिर काट दिया।

बाजी वक्षःस्थल गोभ-गोभ, बरछी ने भूतल पाट दिया।।

     गज गिरा मरा पिलवान गिरा, हय कटकर गिरा निशान गिरा।

     कोई लड़ता उत्तान गिरा, कोई लड़कर बलवान गिरा।।

झटके से शूल गिरा भू पर, बोला भट, मेरा शूल कहाँ।

शोणित का नाला बह निकला, अवनी-अम्बर पर धूल कहाँ।।

     आँखों में भाला भोंक दिया, लिपटे अन्धे जन अन्धों से।

     सिर कटकर भू पर लोट-लोट। लड़ गये कबंध कबंधों से।।

अरि किंतु घुसा झट उसे दबा, अपने सीने के पार किया।

इस तरह निकट बैरी उर को कर-कर कटार से फार दिया।।

     कोई खरतर करवाल उठा, सेना पर बरस आग गया।

     गिर गया शीश कटकर भू पर, घोड़ा धड़ लेकर भाग गया।।

कोई करता था रक्त वमन, छिद गया किसी मानव का तन।

कट गया किसी का एक बाहु, कोई था सायक-विद्ध नयन।।

     गिर पड़ा पीन गज, फटी धरा, खर रक्त-वेग से कटी धरा।

     चोटी-दाढ़ी से पटी धरा, रण करने को भी घटी धरा।।

तो भी रख प्राण हथेली पर वैरी-दल पर चढ़ते ही थे।

मरते कटते मिटते भी थे, पर राजपूत बढ़ते ही थे।।

     राणा प्रताप का ताप तचा, अरि-दल में हाहाकार मचा।

     भेड़ों की तरह भगे कहते अल्लाह हमारी जान बचा।।

अपनी नंगी तलवारों से वे आग रहे हैं उगल कहाँ

वे कहाँ शेरों की तरह लड़ें, हम दीन सिपाही मुगल कहाँ।।

     भयभीत परस्पर कहते थे, साहस के साथ भगो वीरो!

     पीछे न फिरो न मुड़ो, न कभी अकबर के हाथ लगो वीरो।।

यह कहते मुगल भगे जाते, भीलों के तीर लगे जाते।

उठते जाते गिरते जाते, बल खाते, रक्त पगे जाते।

     आगे थी अगम बनास नदी, वर्षा से उसकी प्रखर धार।

     थी बुला रही उनको शत-शत लहरों के कर से बार-बार।।

पहले सरिता को देख डरे, फिर कूद-कूद उस पार भगे।

कितने बह-बह इस पार लगे, कितने बहकर उस पार लगे।।

     मंझधार तैरते थे कितने, कितने जल पी-पी ऊब मरे।

     लहरों के कोड़े खा-खाकर कितने पानी में डूब मरे।।

राणा दल की ललकार देख, अपनी सेना की हार देख।

सातंक चकित रह गया मान, राणा प्रताप के वार देख।।

     व्याकुल होकर वह बोल उठा, लौटो-लौटो न भगो भागो।

     मेवाड़ उड़ा दो तोप लगा, ठहरो-ठहरो फिर से जागो।।

देखो आगे बढ़ता हूँ मैं, बैरी-दल पर चढ़ता हूँ मैं।

ले लो करवाल बढ़ो आगे, अब विजय-मंत्र पढ़ता हूँ मैं।।

     भगती सेना को रोक तुरत लगवा दी भैरवकाय तोप।

     उस राजपूत-कुल-घालक ने हा महाप्रलय-सा दिया रोप।।

फिर लगी बरसने आग सतत उन भीम भयंकर तोपों से।

जल-जलकर राख लगे होने योद्धा उन मुगल-प्रकोपों से।।

     भर रक्त तलैया चली उधर, सेना-उर में भर शोक चला।

     जननी-पद शोणित से धो-धो, हर राजपूत हर-लोक चला।।

क्षण भर के लिये विजय दे दी अकबर के दारुण दूतों को।

माता ने अंचल बिछा दिया सोने के लिये सपूतों को।

     विकराल गरजती तोपों से रुई-सी क्षण-क्षण धुनी गई।

     उस महायज्ञ में आहुति सी राणा की सेना हुनी गई।।

बच गये शेष जो राजपूत संगर से बदल-बदलकर रुख।

निरुपाय दीन कातर होकर, वे लगे देखने राणा-मुख।।

     राणा दल का यह प्रलय देख, भीषण भाला दमदमा उठा।

     जल उठा वीर का रोम-रोम, लोहित आनन तमतमा उठा।।

वह क्रोध वह्नि से जलभुनकर काली कटाक्ष सा ले कृपाण।

घायल नाहर सा गरज उठा, क्षण-क्षण बिखरते प्रखर बाण।।

     बोला, ‘आगे बढ़ चलो शेर, मत क्षण भर भी अब करो देर।

     क्या देख रहे हो मेरा मुख, तोपों के मुँह दो अभी फेर’।।

बढ़ चलने का संदेश मिला, मर मिटने का उपदेश मिला।

दो फेर तोप-मुख राणा से। उन सिंहों को आदेश मिला।।

     गिरते जाते बढ़ते जाते, मरते जाते चढ़ते जाते।

     मिटते जाते कटते जाते गिरते-मरते मिटते जाते।।

बन गये वीर मतवाले थे, आगे वे बढ़ते चले गये।

‘राणा प्रताप की जय’ करते, तोपों तक चढ़ते चले गये।।

Teesra Mughal Jalaluddin Muhammad Akbar - www.bharatkaitihas.com
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     उन आग बरसती तोपों के मुँह फेर अचानक टूट पड़े।

     बैरी-सेना पर तड़-तड़प मानों शत-शत पत्रि छूट पड़े।

फिर महासमर छिड़ गया तुरत, लोहू-लोहित हथियारों से।

फिर होने लगे प्रहार वार, बरछे-भाले तलवारों से।।

     शोणित से लथपथ ढालों से, करके कुन्तल करवालों से।

     खर-छुरी-कटारी फालों से, भू भरी भयानक भालों से।।

गिरि की उन्नत चोटी से पाषाण भील बरसाते।

अरि दल के प्राण-पंखेरू तन-पिंजर से उड़ जाते।।

     कोदण्ड चण्ड रव करते बैरी निहारते चोटी।

     तब तक चोटीवालों ने बिखरा दी बोटी-बोटी।।

अब इस समर में चेतक मारुत बनकर आयेगा।

राणा भी अपनी असि का अब जौहर दिखलायेगा।।

बारहवें सर्ग के अंश

घायल बकरों से बाघ लड़े। भिड़ गये सिंह मृग छौनों से।

घोड़े गिर पड़े गिरे हाथी, पैदल बिछ गये बिछौनों से।

     हाथी से हाथी जूझ पड़े भिड़ गये सवार सवारों से

     घोड़ों पर घोड़े टूट पड़े तलवार लड़ी तलवारों से।।

हय रुण्ड गिरे गज मुण्ड गिरे कट-कट अवनी पर शुण्ड गिरे।

लड़ते-लड़ते अरि झुण्ड गिरे। भू पर हय विकल बितुण्ड गिरे।।

     क्षण महाप्रलय की बिजली सी, तलवार हाथ की तड़प-तड़प

     हय गज रथ पैदल भगा भगा लेती थी बैरी वीर हड़प।।

क्षण पेट फट गया घोड़े का हो गया पतन कर कोड़े का।

भू पर सातंक सवार गिरा, क्षण पता न था हय-जोड़े का।।

     चिंघाड़ भगा भय से हाथी लेकर अंकुुश पिलवान गिरा।

     झटका लग गया, फटी झालर हौदा गिर गया, निशान गिरा।

कोई नत मुख बेजान गिरा, करवट कोई उत्तान गिरा।

रण-बीच अमित भीषणता से लड़ते-लड़ते बलवान गिरा।।

     होती थी भीषण मार-काट, अतिशय रण से छाया था भय।

     था हार-जीत का पता नहीं, क्षण इधर विजय क्षण उधर विजय।

कोई व्याकुल भर आह रहा, कोई था विकल कराह रहा।

लोहू से लथपथ लोथों पर कोई चिल्ला अल्लाह रहा।

     धड़ कहीं पड़ा सिर कहीं पड़ा, कुछ भी उनकी पहचान नहीं।

     शोणित का ऐसा वेग बढ़ा। मुरदे बह गये निशान नहीं।।

मेवाड़ केसरी देख रहा, केवल रण का न तमाशा था।

वह दौड़-दौड़ करता था रण, वह मान-रक्त का प्यासा था।।

     चढ़कर चेतक पर घूम-घूम करता सेना रखवाली था।

     ले महा मृत्यु को साथ-साथ, मानो प्रत्यक्ष कपाली था।।

रण चौकड़ी भर-भर कर, चेतक बन गया निराला था।

राणा प्रताप के घोड़े से, पड़ गया हवा को पाला था।।

     गिरता न कभी चेतक-तन पर राणा प्रताप का कोड़ा था।

     वह दौड़ रहा अरि-मस्तक पर, या आसमान का घोड़ा था।।

जो तनिक हवा से बाग हिली, लेकर सवार उड़ जाता था।

राणा की पुतली फिरी नहीं, तब तक चेतक मुड़ जाता था।।

     कौशल दिखलाया चालों में, उड़ गया भयानक भालों में।

     निर्भीक गया वह ढालों में, सरपट दौड़ा करवालों में।।

हैं यहीं रहा, अब यहाँ नहीं, वह वहीं रहा है वहाँ नहीं।

थी जगह न कोई जहाँ नहीं, किस अरि-मस्तक पर कहाँ नहीं।।

     बढ़ते नद-सा वह लहर गया, वह गया गया फिर ठहर गया।

     विकराल ब्रज-मय बादल-सा, अरि की सेना पर घहर गया।।

भाला गिर गया गिरा निषंग, हय टापों से खन गया अंग।

वैरी समाज रह गया दंग, घोड़े का ऐसा देख रंग।।

     चढ़ चेतक पर तलवार उठा रखता था भूतल पानी को।

     राणा प्रताप सिर काट-काट करता था सफल जवानी को।।

कलकल बहती थी रण-गंगा, अरि-दल को डूब नहाने को।

तलवार वीर की नाव बनी, चटपट उस पार लगाने को।।

     वैरी-दल को ललकार गिरी, वह नागिन सी फुफकार गिरी।

     था शोर मौत से बचो-बचो, तलवार गिरी तलवार गिरी।।

पैदल से हय-दल गज-दल में छिप-छिप करती वह विकल गई।

क्षण कहाँ गई कुछ पता न फिर, देखो चमचम वह निकल गई।

     क्षण इधर गई क्षण उधर गई, क्षण चढ़ी बाढ़-सी उतर गई।

     था प्रलय चमकती जिधर गई, क्षण शोर हो गया किधर गई।।

क्या अजब विषैली नागिन थी, जिसके डसने में लहर नहीं।

उतरी तन से मिट गये वीर, फैला शरीर में जहर नहीं।

     थी छुरी कहीं तलवार कहीं, वह बरछी-असि खगधार कहीं

     वह आग कहीं, अंगार कहीं। बिजली थी कहीं कटार कहीं।।

लहराती थी सिर काट-काट, बल खाती थी भू पाट-पाट।

बिखराती अवयव बाट-बाट, तनती थी लोहू चाट-चाट।।

     सेना-नायक राणा के भी रण देख-देखकर चाह भरे।

     मेवाड़ सिपाही लड़ते थे दूने-तिगुने उत्साह भरे।।

क्षण मार दिया कर कोड़े से, रण किया उतर कर घोड़े से।

राणा-रण कौशल दिखा दिया, चढ़ गया उतर कर घोड़े से।।

     क्षण भीषण हलचल मचा-मचा, राणा-कर की तलवार बढ़ी।

     था शोर रक्त पीने को यह रणचण्डी जीभ पसार बढ़ी।।

 वह हाथी दल पर टूट पड़ा, मानो उस पर पवि छूट पड़ा।

कट गई वेग से भू ऐसा शोणित का नाला फूट पड़ा।।

     जो साहस कर बढ़ता उसको केवल कटाक्ष से टोक दिया।

     जो वीर बना नभ-बीच फैंक, बरछे पर उसको रोक दिया।।

क्षण उछल गया अरि घोड़े पर क्षण लड़ा सो गया घोड़े पर।

वैरी-दल से लड़ते-लड़ते, क्षण खड़ा हो गया घोड़े पर।।

     क्षण भर में गिरते रुण्डों से मदमस्त गजों के झुण्डों से।

     घोड़ों से विकल वितुण्डों से, पट गई भूमि नर-मुण्डों से।।

ऐसा रण राणा करता था, पर उसको था संतोष नहीं।

क्षण-क्षण आगे बढ़ता था वह पर कम होता था रोष नहीं।

     कहता था लड़ता मान कहाँ मैं कर लूं रक्त-स्नान कहां।

     जिस पर तय विजय हमारी है, वह मुगलों का अभिमान कहां।।

भाला कहता था मान कहां, घोड़ा कहता था मान कहां।

राणा की लोहित आँखों से, रव निकल रहा था मान कहां।।

     लड़ता अकबर सुल्तान कहां, वह कुल-कलंक है मान कहां?

     राणा कहता था बार-बार, मैं करूं शत्रु-बलिदान कहां?

तब तक प्रताप ने देख लिया लड़ रहा मान था हाथी पर।

अकबर का चंचल साभिमान उड़ता निशान था हाथी पर।।

     वह विजय-मंत्र था पढ़ा रहा, अपने दल को था बढ़ा रहा।

     वह भीषण समर भवानी को, पग-पग पर बलि था चढ़ा रहा।

फिर रक्त देह का उबल उठा, जल उठा क्रोध की ज्वाला से,

घोड़ा से कहा बढ़ो आगे, बढ़ चलो कहा निज भाला से।।

     हय-नस में बिजली दौड़ी, राणा का घोड़ा लहर उठा।

     शत-शत बिजली की आग लिये वह प्रलय मेघ से घहर उठा।।

क्षय अमिट रोग वह राजरोग, ज्वर सन्निपात लकवा था वह।

था शोर बचो घोड़ा रण से, कहता हय कौन हवा था वह।।

     तनकर भाला भी बोल उठा, राणा मुझको विश्राम न दे।

     बैरी का मुझसे हृदय गोभ तू मुझे तनिक आराम न दे।

खाकर अरि-मस्तक जीने दे, बैरी-उर-माल सीने दे।

मुझको शोणित प्यास लगी, बढ़ने दे शोणित पीने दे।।

     मुरदों का ढेर लगा दूं मैं, अरि-सिंहासन थहरा दूं मैं।

     राणा मुझको आज्ञा दे दें, शोणित सागर लहरा दूं मैं।।

रंचक राणा ने देर न की, घोड़ा बढ़ आया हाथी पर

वैरी-दल का सिर काट-काट राणा चढ़ आया हाथी पर।।

     गिरि की चोटी पर चढ़कर, किरणें निहारती लाशें।

     जिनमें कुछ तो मुरदे थे, कुछ की चलती थी सांसें।।

वे देख-देख कर उनको, मुरझाती जाती पल-पल।

होता था स्वर्णिम नभ पर, पक्षी क्रन्दन का कल-कल।।

      मुख छिपा लिया सूरज ने, जब रोक न सका रुलाई।

     सावन की अन्धी रजनी, वारिद-मिस रोती आई।।

श्यामनारायण पाण्डेय द्वारा लिखी गई यह कविता बहुत लम्बी है, उसमें से मैंने कुछ अंश यहाँ दिए गए हैं ताकि पाठकों को हल्दीघाटी युद्ध की भयावहता और उसमें राणा प्रताप और उनकी सेना द्वारा दिखाए गए पराक्रम का कुछ अनुमान हो सके।

श्यामनारायण पाण्डे की खण्डकाव्य रचना हल्दीघाटी का एक अंश!

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