Monday, March 10, 2025
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किन्नर अथवा किम्पुरुष – भारतीय साहित्य एवं मूर्तिकला के संदर्भ में !

भारतीय साहित्य, चित्रकला एवं मूर्तिकला में किन्नर अथवा किम्पुरुष अत्यंत प्राचीन काल से उपस्थित हैं। पुराणों में भी किन्नर अथवा किम्पुरुष मौजूद हैं तथा प्राचीन मंदिरों के बार बनी मूर्तियों में प्रुखता के साथ स्थान लिए हुए हैं।

किन्नर (किं नरः) का शाब्दिक अर्थ है- ‘क्या (यह) नर है?’ अर्थात् किन्नर शब्द से ही ऐसा आभास होता है कि किन्नर में नर के होने का संकेत है। साहित्य में किन्नर, शब्द का पर्यायवाची शब्द ‘ किम्पुरुष ’ भी मिलता है।

कुछ पुराणों में मुनि कर्दम के पुत्र इल की कथा मिलती है जिसने माता पार्वती के द्वारा शापित होने पर स्त्री योनि पाई और पार्वती की कृपा से वह अपने जीवन में आधा समय स्त्री बनकर तथा आधा समय पुरुष बनकर जिया। राजा इल के साथ जो सैनिक थे, वे भी माता पार्वती के श्राप से स्त्री हो गए थे किंतु बाद में देवी पार्वती ने उन्हें किन्नरी बनाकर पर्वत पर निवास करने तथा कुछ काल के बाद किम्पुरुषों को पति के रूप में पाने का वरदान दिया। इस प्रकार किन्नर एवं किम्पुरुष जाति अस्तित्व में आई।

रामायण तथा कुमार सम्भव में ‘किन्नर-किन्नरी’ तथा ‘किम्पुरुष-किम्पुरुषी’ शब्दों से सम्बोधित किया गया है। इससे आभास होता है कि इन ग्रंथों के रचयिताओं की दृष्टि में न केवल ‘किन्नर’ और ‘किम्पुरुष’ शब्द पर्यायवाची थे अपितु वे एक ही प्रकार के जीवों पर समान रूप से लागू भी होते थे।

भारतीय साहित्य में मानव तथा अश्व के मिले-जुले शरीर वाले जीव को ‘किन्नर’ माना गया है। इसीलिए उन्हें ‘तुरग-नर’ भी कहा गया है। प्रायः इन्हें ‘अश्वमुखी मानव’ माना जाता है। अर्थात् गले तक मानव के धड़ पर अश्व का मुख। अश्वमुखी यक्षी (किन्नरी) के उल्लेख बौद्ध जातक कथाओं में मिलते हैं। गुप्तकाल तक भारतीय वाङ्मय में प्रायः किन्नर की केवल एक प्रकार की आकृति (अश्वमुखी मानव) की ही कल्पना की गई थी। गुप्तकालीन शिल्पग्रंथ ‘विष्णुधर्माेत्तर पुराण’ में कहा गया है कि किन्नर दो प्रकार के थे- (1) पहले वे जिनके मुख अश्व के और धड़ मानव के थे, (2) दूसरे वे जिनके सिर मानव के और शेष शरीर अश्व के थे-

किन्नराः द्विविधाः प्रोक्ताः नृवक्त्राहयविग्रहाः। नृदेहाश्चाश्ववक्त्राश्च तथान्ये परिकीर्तिताः।।

मुख

विष्णुधर्माेत्तरपुराण में इन दोनों प्रकार के जीवों को किन्नर ही कहा गया है। आगे चलकर कतिपय कोशकारों ने ‘अश्वमुखी मानव’ को किन्नर तथा ‘मानवमुखी अश्व’ को किम्पुरुष कहा-

किंपुरुषः स च अश्वाकारजघनः नराकारमुखः।

किन्नरस्तु अश्वाकारवदनः नराकारजघनः इतितयोर्भेदः।।

कोशकारों ने किन्नर अथवा किम्पुरुष की इस पहचान के पीछे किसी प्रकार का आधार अथवा तर्क प्रस्तुत नहीं किया है।

विष्णुधर्माेत्तर पुराण की रचना गुप्तकाल में हुई किंतु इससे भी बहुत पहले से इन दोनों प्रकार के किन्नरों के अंकन भारतीय मूर्ति कला तथा मृण्मूर्ति कला में होते थे। शुंग कालीन मूर्तियों में इन्हें स्पष्ट देखा जा सकता है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण का शिल्पशास्त्री भारतीय कला में उपलब्ध किन्नरों के दोनों स्वरूपों से परिचित था। इसीलिए उसने उन दोनों का वर्णन किन्नराः द्विविधाः प्रोक्ताः नृवक्त्राहयविग्रहाः। नृदेहाश्चाश्ववक्त्राश्च तथान्ये परिकीर्तिताः।। कहकर उन दोनों स्वरूपों की भिन्नता प्रकट कर दी ।

चूँकि किन्नर और किम्पुरुष शब्द पर्यायवाची थे और पूर्ववर्ती ग्रंथों-रामायण तथा कुमारसम्भव में दोनों शब्दों का प्रयोग एक ही अवसर पर एक ही प्रकार के लिए किया जा चुका था, संभवतः इसीलिए विष्णुधर्माेत्तरपुराण के रचयिता ने उनके दो भिन्न-भिन्न प्रकार बतलाकर भी उन दोनों को किन्नर ही कहा। परवर्ती कोशकारों को साहित्य के इन दो शब्दों (किन्नर अथवा किम्पुरुष) की तथा भारतीय मूर्तिकला में किन्नरों के दो प्रकार की भिन्न आकृतियों के अंकनों की जानकारी थी, इसीलिए उन्होंने एक को ‘किन्नर’ और दूसरे को ‘किम्पुरुष’ कहकर दोनों की भिन्न-भिन्न पहचान सुनिश्चित कर दी और इस प्रकार विष्णुधर्माेत्तर पुराण में उल्लिखित किन्नराः द्विविधाः प्रोक्ताः, की पुष्टि कर दी।

आकृति-भिन्नता के आधार पर इन कोशकारों ने किन्नर और किम्पुरुष में जो भेद बताए हैं उसके पीछे संभवतः पूर्ववर्ती ऐसे साक्ष्यों को ध्यान में रखा होगा जिनमें अश्वमुखी मानव को किन्नर कहा गया है। जातक कथाओं तथा बौद्ध साहित्य में अश्वमुखी यक्षी को किन्नरी भी कहा गया है। इसी आधार पर मोनिअर विलियम्स और गुनवेडेल जैसे विद्वानों ने भी किन्नरों की पहचान अश्वमुखी मानव से की है। चूँकि अश्वमुखी मानव के रूप में किन्नर की पहचान पहले से मानी गई थी, शायद इसीलिए इन कोशकारों ने मानवमुखी अश्व को किम्पुरुष कहकर इन दोनों को अलग-अलग कर दिया। 

‘अश्वमुखी नारी’ तथा ‘पुरुष सवार से संयुक्त मानवमुखी अश्विनी’ के मृण्फलक विभिन्न स्थानों पर पाए गए हैं। मानव पुरुष के साथ अश्वमुखी नारी को अंकित करने वाला एक मृण्फलक बड़ौदा-संग्रहालय में है। मानव सवार को अपनी पीठ पर बिठाए मानवमुखी अश्विनी वाले गोल मृण्फलक कौशाम्बी, मथुरा तथा राजघाट (सभी उत्तर प्रदेश) से मिले हैं।

ऐसा ही एक गोल मृण्फलक रोम (इटली) के राष्ट्रीय संग्रहालय में है। अहिच्छत्रा (उत्तर प्रदेश के बरेली) से भी इसी विषय को अंकित करने वाला एक मृण्फलक मिला है जो गोल न होकर चौकोर है। रजघाट और अहिच्छत्रा के मृण्फलकों को कुछ विद्वान गुप्तकाल का तथा कुछ अन्य शुंगकाल का मानते हैं। इन दो को छोड़कर शेष सभी प्रस्तर तथा मृण्फलक शुंगकाल के माने गए हैं।

प्रस्तर मूर्तिकला तथा मृण्मूर्तिकला के इन फलकों में अश्व की गर्दन के ऊपर एक नारी का कटि से लेकर मुख तक का भाग दिखाई देता है। ये नारियाँ आकर्षक केशसज्जा तथा नाना प्रकार के आभूषणों से अलंकृत दिखायी गयी हैं। उनके हाथों में मालाएँ और दर्पण हैं जो उनकी शृंगार-प्रियता के प्रतीक हैं।

अश्वमुखी नारी (यक्षी) के अंकन भाजा (महाराष्ट्र), साँची (मध्य प्रदेश), मथुरा (उत्तर प्रदेश) तथा बोधगया (बिहार) के उत्कीर्ण शिल्प में और मानवमुखी अश्विनी के अंकन नासिक (महाराष्ट्र), साँची तथा मथुरा के उत्कीर्ण शिल्प में देखे जा सकते हैं। मानवमुखी अश्विनी की पीठ पर मानव सवार भी दिखाया गया है। साँची-शिल्प में कुछ अंकन ऐसे भी मिले हैं जिनमें मानवमुखी अश्व की पीठ पर एक नारी को बैठे दिखाया गया है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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