Tuesday, September 17, 2024
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कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्

भगवान् श्रीकृष्ण ने मानव जाति को ज्ञान, कर्म एवं भक्ति पर आधारित जीवन व्यतीत करने का मार्ग दिखाया। इस कारण कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् कहकर उनके अवदान की प्रतिष्ठा की जाती है।

विष्णु वैदिक देवों में एक हैं। उन्हें सृष्टिकर्त्ता, सृष्टिपालक एवं सृष्टिनियंता होने के साथ-साथ जीव को भवसागर से मुक्ति देने वाला परमात्मा कहा गया। इस कारण वेदों को मानने वालों में विष्णु की पूजा का प्रचलन हुआ। विष्णु को संकर्षण एवं वासुदेव भी कहा जाता है। जब भगवान श्रीकृष्ण इस जगत् में अवतार के रूप में प्रतिष्ठित हुए तो उन्हें संकर्षण होने के कारण श्रीकृष्ण कहा गया तथा वैकुण्ठवासी वासुदेव का अवतार माना गया। वसुदेव के पुत्र होने के कारण भी श्रीकृष्ण को वासुदेव कहा गया।

विष्णु तथा उनके अवतारों की पूजा करने वालों को वैष्णव कहा गया और उनका सम्प्रदाय भागवत धर्म के नाम से प्रसिद्ध हुआ। श्रीकृष्ण-भक्ति का प्रभाव भारत की सीमाओं को पार करके सुदूर पूर्व एवं पश्चिम तक फैला। श्रीकृष्ण के मुख से निकली गीता दार्शनिक जगत की अमूल्य निधि घोषित हुई।

श्रीकृष्ण ने हिन्दुओं के दार्शनिक चिंतन में क्रान्तिकारी परिवर्तन किये जिससे वैदिक धर्म का काया-कल्प होकर उसे लोक में अधिक प्रसिद्धि प्राप्त हुई। श्रीकृष्ण के समय में ब्रजक्षेत्र में इन्द्रदेव की पूजा होती थी जो एक प्राचीन वैदिक देवता था और जिसके बारे में मान्यता थी कि इन्द्र अपनी पूजा से प्रसन्न होकर धरती पर वर्षा करता है तथा उसके अप्रसन्न होने से अतिवृष्टि अथवा अनावृष्टि होती है।

भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रजवासियों को अपने अलौकिक स्वरूप के दर्शन करवाकर निष्ठुर इन्द्रदेव की पूजा समाप्त करवा दी तथा वैदिक यज्ञों को पुनः प्रतिष्ठित किया। उन्होंने धर्मराज युधिष्ठर से सात्विक ढंग का राजसूय यज्ञ करवाया और झूठी पतलों को उठाने का कार्य स्वयं अपने हाथों से किया। श्रीकृष्ण ने राधारानी की प्रतिष्ठा को अपने समकक्ष करके लौकिक जगत में स्त्री-पुरुष के आध्यात्मिक भेद को समाप्त किया।

श्रीकृष्ण ने गीता के माध्यम से ज्ञान, भक्ति एवं कर्म की त्रयी प्रवाहित की तथा मनुष्य को निरासक्त रहकर कर्म करने का उदपेश दिया। उन्होंने स्वयं ग्वाला बनकर गोपालों के साथ क्रीड़ की, गोपियों को प्रेम का संदेश दिया, तथा गायों की सेवा करके मनुष्य को सहज-सरल धर्म का पालन करने का मार्ग दिखाया। श्रीकृष्ण ने कंस आदि बुरी शक्तियों का संहार करके मनुष्य के समक्ष बुराइयों से लड़ने का मार्ग प्रशस्त किया।

भगवान श्रीकृष्ण ने अपने धर्मनिष्ठ पाण्डवों को अतिशय विनम्रता के कारण उत्पन्न अकृमण्यता की स्थिति से बाहर निकाला तथा अपना नैसर्गिक अधिकार प्राप्त करने के लिए प्राणों की बाजी तक लगाने का उपदेश दिया।

श्रीकृष्ण ने ही भारत के समस्त अच्छे और बुरी क्षत्रियों को कुरुक्षेत्र के मैदान में खींचकर उनके बीच महाभारत जैसे विशाल युद्ध की रचना की किंतु युद्ध से पहले शांति के समस्त प्रयास भी किये। वे स्वयं शान्ति दूत बनकर दुर्योधन आदि के पास गए और अंत में महाभारत के युद्ध में अर्जुन के रथ पर सारथी बनकर बैठ गए।

श्रीकृष्ण चाहते तो स्वयं भी लड़ सकते थे किंतु उन्होंने युद्ध न करके और सरथी बनके, मानव मात्र को संदेश दिया कि जीवन का संघर्ष जीव को स्वयं करना है, ईश्वर तो उसे कर्म करने की छूट देता है तथा स्वयं उस कर्म का साक्षी बनकर उसके कर्मों एवं उसकी वृत्ति के अनुसार उसे कर्म का फल देता है।

श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध अर्थात् कर्म करने के लिए प्रेरित करते समय ईश् एवं जीव के वास्तविक स्वरूप, उनके परस्पर सम्बन्ध एवं मानव के लिए करणीय कर्म आदि का ज्ञान करवाया। ऐसा करने के लिए उन्होंने समस्त उपनिषदों का ज्ञान निचोड़कर अर्जुन के समक्ष बहुत ही सरल भाषा में प्रस्तुत किया। इसी कारण गीता के लिए कहा जाता है-

सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः।
पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्।।

अर्थात्- श्रीकृष्ण रूपी गोपाल ने उपनिषदों रूपी गायों को दुह कर गीता रूपी अमृत प्राप्त किया, अर्जुन रूपी बछड़े ने उस अमृत का पान किया।

श्रीकृष्ण ने यादव वंश में जन्म लिया था। पुराणों में यादवों को क्षत्रिय, गौपालक एवं आभीर नामक तीन जातियों में रखा है। श्रीकृष्ण ने क्षत्रिय होने के कारण प्रजा की रक्षा करने का धर्म निभाया, पशुपालक जैसे छोटे कहे जाने वाले वंश में जन्म लेकर मानव मात्र में सहयोग एवं मैत्री का मार्ग दिखाया। यदि यादवों को आभीर स्वीकार कर लिया जाए तो श्रीकृष्ण विदेशी कुल में अवतार लेने वाले, विष्णु के पहले अवतार थे।

श्रीकृष्ण ने अपनी शरण में आने वाले मानवों के योगक्षेम वहन करने का आश्वासन दिया जिसका आशय यह है कि वे ब्राह्मण से लेकर स्त्री एवं शूद्र तक समस्त मानवों को अपनी शरण में लेते हैं तथा उनका योगक्षेम वहन करते हैं। श्रीकृष्ण ने कर्मयोग पर दृढ़ रहने वालों के लिए समान रूप से मुक्ति के द्वार खोल दिये।

जन साधारण ने कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् कहकर श्रीकृष्ण को अपना रक्षक एवं गुरु माना-

वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् ।
देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ।।

ज्ञान, कर्म एवं योग को जीवन का अंग बनाने का उपदेश श्रीकृष्ण से पहले किसी और दार्शनिक, चिंतक एवं समाज सुधारक ने नहीं दिया इसलिए श्रीकृष्ण ही वे प्रथम दार्शनिक थे जिनकी वंदना कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् कहकर की गई।

श्रीकृष्ण के प्रयासों से वैदिक धर्म ने नया रूप धारण किया। मन की उदारता और हृदय की विशालता को हिन्दुओं ने अपनी संस्कृति का अभिन्न अंग बना लिया। इसी उदारता और विशालता के कारण हिन्दुओं ने जैनियों के तीर्थंकर आदिनाथ ऋषभदेव को एवं तथागत बुद्ध को भी विष्णु के अवतारों में स्वीकार कर लिया।

भगवान श्रीकृष्ण का आविर्भाव भगवान श्रीराम के लगभग दो हजार साल बाद हुआ किंतु सनातन धर्म में अवतारवाद की धारणा श्रीकृष्ण के आविर्भाव के बाद ही आई क्योंकि वाल्मीकि रामायण लिखे जाने तक भगवान श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम एवं महापुरुष माना जाता था।

पुराणों की रचना श्रीकृष्ण के आविर्भाव के बहुत बाद में हुई। पुराणों में ही अवतारवाद की संकल्पना स्वीकार की गई। पुराणों ने ही विष्णु के दशावतारों की संकल्पना हिन्दू समाज के समक्ष रखी। पुराणों ने ही सबसे पहले मर्यादा पुरुषोत्तम राम को विष्णु का अवतार स्वीकार किया। पुराणों ने ही देवकीनंदन श्रीकृष्ण को विष्णु का अवतार घोषित किया।

पुराणों की रचना से पहले महाभारत की रचना हो चुकी थी, अतः पुराणों की दशावतार की संकल्पना के आधार पर मूल महाभारत का कई बार पुनर्लेखन हुआ। वाल्मीकि रामायण में भी बहुत से परिवर्तन करके श्रीराम को परब्रह्म परमेश्वर श्री विष्णु का अवतार घोषित किया गया।

जैन साहित्य में उल्लेख मिलता है कि महावीर स्वामी एक बार श्रीकृष्ण मन्दिर में ठहरे। इससे स्पष्ट है कि आज से 2600 वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण को भगवान के रूप में पूजा जाता था।

इस प्रकार श्रीकृष्ण ने केवल सनातन धर्म को अपति सम्पूर्ण मानवता को ज्ञान, कर्म एवं भक्ति की त्रयी पर चलने का व्यावहारिक, दार्शनिक एवं तात्विक मार्ग दिखाया। इस कारण वे लोक में पूज्य हैं तथा कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् कहकर वंदना किए जाने के योग्य हैं।

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