कैसे बना पाकिस्तान प्रश्न का उत्तर वस्तुतः भारत विभाजन का इतिहास ही है। इसी प्रश्न का हल ढूंढते हुए मैंने कैसे बना था पाकिस्तान शीर्षक से यह पुस्तक लिखी। इस पुस्तक को देश-विदेश में अपार लोकप्रियता प्राप्त हुई है।
इस पुस्तक का लेखन मैंने वर्ष 2017 में किया था। अब तक इस पुस्तक के दो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इसका प्रसारण शुभदा प्रकाशन जोधपुर द्वारा किया गया है।
इस पुस्तक को लिखने का विचार मुझे वर्ष 1985 में आया था। यह वह दौर था जब श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली एवं उत्तर भारत के कुछ नगरों में सिक्खों का बड़ा नर-संहार होकर ही चुका था तथा पंजाब में ‘घल्लूघारा’ चल रहा था। उन्हीं दिनों मुझे भारत पाक सीमा पर स्थित गंगानर जिले के ‘बिलोचिया’ गांव जाने का अवसर मिला। इस गांव में सैंकड़ों कच्चे घर थे जो पूरी तरह खाली पड़े थे। गांव के एक कौने में हिन्दुओं की एक छोटी सी बस्ती थी।
उन्हीं लोगों ने मुझे बताया कि आजादी से पहले यह गांव पूरी तरह आबाद था तथा इन खाली पड़े घरों में मुसलमान रहा करते थे जो 1947 में पाकिस्तान चले गए। उसके बाद से इन घरों में रहने के लिए कोई नहीं आया और इन्हें राजस्थान सरकार ने नजूल सम्पत्ति घोषित कर दिया है।
बिलोचिया से आने के कुछ ही दिनों बाद मुझे ‘हिन्दूमल कोट’ जाना पड़ा। यह पक्के घरों और साफ-सुथरी गलियों वाला एक सुंदर सा कस्बा था किंतु वहाँ भी सैंकड़ों घरों पर ताले पड़े हुए थे। मैंने लोगों से पूछा कि क्या इस कस्बे के लोग भी भारत विभाजन के समय पाकिस्तान चले गए? वहाँ के लोगों ने मुझे बताया कि नहीं पाकिस्तान नहीं गए, अधिकतर लोग गंगानगर, बीकानेर, अबोहर, फाजिल्का तथा बम्बई आदि शहरों में गए हैं।
मैंने पूछा- ‘क्यों?’ तो उन्होंने बताया- ‘यह कस्बा भारत विभाजन से पहले अनाज की अच्छी मण्डी हुआ करता था किंतु भारत-विभाजन के बाद यह कस्बा अचानक पाकिस्तान की सीमा पर आ गया। इस कारण 1965 और 1971 के भारत-पाक युद्धों में यह कस्बा उजड़ गया। लोग अपने परिवारों को लेकर अन्य शहरों को चले गए और इस कस्बे का वाणिज्य-व्यापार ठप्प हो गया। उनके घरों पर आज भी ताले लगे हुए हैं।’
गंगानगर के पांच साल के प्रवास के दौरान मैं श्री स्वदेशराज वर्मा के परिवार के सम्पर्क में आया। यह एक आर्यसमाजी परिवार है और बहुत खुले हुए आधुनिक विचारों का परिवार है। भारत-विभाजन के समय श्री स्वदेशराज वर्मा अपने पिता डॉ. गोविंदराम तथा परिवार के अन्य सदस्यों के साथ बहावलपुर स्टेट के खानपुर कस्बे से हिन्दूमल कोट आए थे। उनकी धर्मपत्नी श्रीमती कैलाश वर्मा के पिता कराची रेलवे स्टेशन के स्टेशन मास्टर हुआ करते थे।
भारत विभाजन के समय चूंकि पाकिस्तान से भारत आने वाली ट्रेनों में कत्ले-आम मचा हुआ था इसलिए यह परिवार कराची से वायुयान द्वारा दिल्ली पहुंचा। वहाँ से यह परिवार पहले मेरठ और फिर अमृतसर चला गया। श्रीमती कैलाश वर्मा के पिता श्री मूलचंद मल्होत्रा का परिवार मूलतः मुल्तान के सक्खर क्षेत्र का रहने वाला था। श्री स्वदेश वर्मा और श्रीमती कैलाश वर्मा अक्सर भारत विभाजन के समय की आंखों-देखी घटनाओं का उल्लेख किया करते थे।
चूंकि उन दोनों के परिवारों की पृष्ठभूमि सम्पन्न थी तथा वे समय रहते ही वहाँ से निकल आए थे तब भी उनके मन एवं मस्तिष्क से उन दिनों की यादें मिटती नहीं थीं। यहाँ तक कि श्रीमती कैलाश वर्मा के पिता श्री मूलचंद मल्होत्रा को भारत सरकार ने मेरठ रेल्वे स्टेशन पर नियुक्ति भी दी किंतु वे अपने सगे-सम्बन्धियों, मित्रों एवं अपनी अचल सम्पत्ति के पाकिस्तान में छूट जाने के कारण मानसिक रूप से इतने परेशान हो चुके थे कि वे नौकरी छोड़कर अमृतसर चले गए। उनके संगी-साथी तथा घर-सम्पत्ति पाकिस्तान में ही रह गए थे।
मैं जब वर्मा-दम्पत्ति की बातें सुनता था तो अक्सर भारत-विभाजन की त्रासदी झेलने वाले उन लाखों लोगों के बारे में सोचा करता था जो पैदल ही पाकिस्तान से भारत आए थे या भारत से पाकिस्तान गए थे! पांच लाख लोग तो अपने गंतव्य पर पहुंचने से पहले ही दंगाइयों के क्रूर हाथों में पड़कर मौत की खाई मंे जा गिरे थे। भारत से पाकिस्तान का अलग होना, मानवीय इतिहास की एक क्रूरतम एवं रक्तरंजित घटना थी। संसार के कई अन्य देशों को भी ऐसी भीषण त्रासदियां झेलनी पड़ी हैं जो यह सिद्ध करती हैं कि आदमी कभी सभ्य नहीं बन पाया, वह असभ्य था, है और रहेगा।
1980 के दशक में अजमेर प्रवास के दौरान मैं एक ऐसे परिवार के सम्पर्क में रहा जिसकी गृह-स्वामिनी श्रीमती द्रौपदी यादव अपने पिता एवं उनके परिवार के साथ भारत की आजादी से लगभग दो साल पहले उस समय बर्मा से भारत आई थीं जब द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान आजाद हिंद फौज एवं जापानी सेनाएं अंग्रेज सेनाओं को बर्मा से मारकर भगा रही थीं। श्रीमती यादव जो उस समय छोटी बच्ची ही थीं, का परिवार किसी बड़े दल के साथ पैदल चल कर ही बर्मा से असम तक आया था और वहाँ से इलाहाबाद गया।
इस दौरान उन्हें युद्धक-विमानों से होने वाली बम-वर्षा से लेकर हिंसक हाथियों तथा पुलिस के सिपाहियों के अत्याचारों का सामना करना पड़ा। इन्हीं में से एक घटना के दौरान उनके एक भाई अथवा एक बहिन की मृत्यु हो गई थी। श्रीमती द्रौपदी भी प्रायः उस पलायन के बहुत से लोमहर्षक प्रसंग कभी हँस कर तो कभी रो कर सुनाया करती थीं।
मेरे पितामह श्री मुकुंदी लाल गुप्ता भी ई.1947 में यमुनाजी के किनारे हुए मेवों के आक्रमण के समय अपने कुनबे के युवकों तथा संगी-साथियों के साथ सशस्त्र संघर्ष में सम्मिलित हुए थे। मेरी दादी श्रीमती जय देवी (अब स्वर्गीय) एवं पिताजी अक्सर उस संघर्ष की चर्चा करते रहे हैं।
वर्ष 1993 में मैंने भारत-पाकिस्तान की सरहद पर स्थित आकुड़ियां गांव देखा था। यह जालोर जिले के नेहड़ क्षेत्र में स्थित है जहाँ लूनी नदी का मुहाना है। यह पूरी तरह से सुनसान और उजड़ा हुआ गांव था। पूछताछ करने पर ज्ञात हुआ कि भारत की आजादी से पहले यह भरा-पूरा गांव था जिसमें मुसलमान परिवार रहा करते थे किंतु आजादी के बाद इस गांव के सारे लोग भारत की सीमा पार करके पाकिस्तान के क्षेत्र में चले गए और उन्होंने वहाँ पर एक नया गांव बसा लिया जिसका नाम भी आकुड़िया है। अब भारतीय आकुड़िया पूरी तरह सुनसान है।
भारत और पाकिस्तान के विभाजन के समय जो कुछ हुआ, वह भी इस बात की पुष्टि करता है कि सभ्यता के कैनवास पर मनुष्य सदैव गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार करता आया है। नयी जीत की आशा में वह पुरानी उपलब्धियों को आग में झौंक डालता है। मनपसंद खिलौना प्राप्त करने की प्रत्याशा में वह अपनी हथेली पर रखे खिलौने को क्रूरता से तोड़ डालता है। जो कुछ भी मानव के पास है, उसमें वह कभी भी संतुष्ट नहीं है, और जो कुछ उसे संतुष्ट कर सके, उसे कभी भी मिलता नहीं है।
ई.1906 में भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना हुई, तब से लेकर ई.1947 तक मुस्लिम लीग पाकिस्तान के लिये झगड़ती रही और उसे लेकर ही रही। ऊपरी तौर से देखने पर पाकिस्तान का निर्माण इन्हीं 41 वर्षों के संघर्ष का परिणाम लगता है किंतु सच्चाई यह है कि पाकिस्तान की नींव तो ई.712 में मुहम्मद बिन कासिम ने उसी समय डाल दी थी जब उसने सिंध पर आक्रमण करके महाराजा दाहिर सेन और उनके राज्य को समाप्त किया था। तब से लेकर ई.1947 तक तिल-तिल करके भारत का इतिहास पाकिस्तान की ओर बढ़ता रहा।
मेरी दृष्टि में पाकिस्तान इकतालीस वर्ष के संघर्ष का परिणाम नहीं था। अपितु पूरे 1225 वर्ष के संघर्ष का परिणाम था। भारत के इतिहास में यह पूरी अवधि नफरत, हिंसा, रक्तपात और दंगों से भरी हुई थी।
कैसे बना था पाकिस्तान पुस्तक में भारत विभाजन के समय हुए राजनीतिक संघर्ष की एक झलक भर है। इस पुस्तक को लिखने का उद्देश्य इतिहास के उन पन्नों को टटोल कर देखना है ताकि हम भविष्य में उन्हीं गलतियों को फिर से न दोहराएं जिनके कारण हम भारत-पाकिस्तान के विभाजन के खतरनाक निर्णय पर पहुंचे थे। आज भी हमारे सामने अवसर है कि हम शांति की साधना करें तथा अच्छे पड़ौसियों की तरह जिम्मेदारी के साथ रहें।
प्रत्येक भारतीय की पहली और आखिरी इच्छा भारत-पाकिस्तान के बीच शांति की स्थापना करने की ही है किंतु केवल भारत की ओर से की गई शांति की इच्छाएं भारत-पाकिस्तान के बीच शांति स्थापित नहीं कर सकतीं। इसके लिए पाकिस्तान के राष्ट्रीय चरित्र में भी शांति की लहर उठनी चाहिए। पाकिस्तानी शासकों द्वारा की जा रही नफरतों की खेती के बीच भारत की ओर से जाने वाले शांति के कबूतर लहूलुहान ही किए जाते रहेंगे और शांति केवल एक ढकोसला सिद्ध होगी।
कैसे बना था पाकिस्तान शीर्षक से लिखी गई यह पुस्तक पाकिस्तान निर्माण की पूरी कहानी नहीं है। यह भारत-पाकिस्तान विभाजन की दुखःद त्रासदी की पृष्ठभूमि पर लिखी गई एक संक्षिप्त गाथा है जो उस समय के कुछ ऐसे दृश्यों से साक्षात्कार करवाती है जिनकी पृष्ठभूमि में भारत का विभाजन हुआ और पाकिस्तान अस्तित्व में आया।
इस पुस्तक में कुल 11 अध्याय हैं जिनमें भारत में इस्लाम के प्रवेश से लेकर भारत के तीन टुकड़ों में बंटने अर्थात् भारत पाकिस्तान एवं बांगला देश के निर्माण तक का इतिहास लिखा गया है।
यह पुस्तक भारत विभाजन का इतिहास पढ़ने वाले पाठकों के लिए बेहद उपयोगी है। कृपया अपने मित्रों को भी इस पुस्तक के बारे में जानकारी दें।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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