इतिहासकारों ने इस प्रश्न को लेकर बहुत माथापच्ची की है कि क्या अकबर मुसलमान था। विभिन्न इतिहासकारों ने इस प्रश्न का उत्तर अलग-अलग ढंग से दिया है। अधिकांश विदेशी इतिहासकारों का मानना है कि अकबर निश्चित रूप से जीवन भर इस्लाम और पैगम्बर पर विश्वास करता रहा इसलिए यह प्रश्न ही नहीं उठना चाहिए कि क्या अकबर मुसलान था?
डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने लिखा है कि अकबर अपने जीवन के आरम्भिक भाग में इस्लाम के सिद्धांतों में बड़ी श्रद्धा रखते हुए भी दूसरे धर्म वालों के प्रति बड़ा उदार था। इबादतखाने की तहरीरों को सुनने के बाद अकबर के मजहबी विचारों एवं विश्वासों के विकास का द्वितीय दौर आरंभ हुआ। कट्टर इस्लाम में अकबर का विश्वास हिल गया।
बदायूनी ने लिखा है कि पढ़े-लिखे जुबानी तलवार चलाकर जंग लड़ते। वाद-प्रतिवाद करते, पंथों के विरोध इस ऊंचाई पर पहुंच जाते कि वे एक-दूसरे को मूर्ख और पाखण्डी कहने लगते। यह विवाद शिया-सुन्नी, हनीफी-शाफई से ऊपर उठकर मूल विश्वास पर ही आक्रमण कर देता।
डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने लिखा है कि अकबर का तर्क-सम्मत विश्वास, इस्लाम के परंपरागत स्वरूप से पहले ही हिल गया था। कयामत के इस्लामी सिद्धांतों को अकबर ने मानने से इंकार कर दिया और इलहाम की बात तो उसने एक ओर ही रख दी। उसे यह विश्वास ही नहीं होता था कि कोई स्वर्ग कैसे जाता है? वहाँ से लंबी बातचीत करके इतनी जल्दी वापस कैसे आ सकता है कि उसका बिस्तर गरम का गरम मिले? डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने लिखा है कि बहुत सी हिंदू और फारसी नीतियों और विश्वासों को भी अकबर ने अपना लिया था जैसे पुनर्जन्म का सिद्धांत और सूर्य उपासना। इस प्रकार इस्लाम से उसकी विरक्ति आरंभ हुई।
आधुनिक इतिहासकारों में से बहुतों का यह विचार है कि अकबर जीवन भर और अंत समय तक भी मुसलमान ही बना रहा किंतु डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने लिखा है कि मैं उनके विचारों से सहमत नहीं हूँ। हिंदू धर्म के प्रतिकूल इस्लाम एक सुनिश्चित धर्म है और जो व्यक्ति इस धर्म के पांच मूलभूत सिद्धांतों कलमा अर्थात् अल्लाह एक है, मोहम्मद की पैगंबरी, पांच नमाजों, रमजान के रोजों, जकात और हज में विश्वास नहीं रखता, मुसलमान नहीं कहा जा सकता।
डॉ. श्रीवास्तव लिखते हैं कि कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धांत पर विश्वास तथा सूर्य की उपासना, चाहे वह यह समझ कर ही की जाए कि सूर्य प्रकाश का स्रोत है, मुसलमानी धर्म के मूल सिद्धांत के बिल्कुल विरुद्ध है। डॉ. श्रीवास्तव लिखते हैं कि इस्लाम का दावा है कि सत्य पर केवल उसी का एकाधिकार है, अन्य धर्मों में सत्य नहीं है और जो कुछ पहले पैगंबरों ने शिक्षा दी थी, वह सब मोहम्मद की शिक्षा द्वारा रद्द हो गई है क्योंकि मोहम्मद सबसे अंतिम और सबसे बड़े पैगंबर हुए हैं।
डॉ. श्रीवास्तव लिखते हैं कि अकबर मोहम्मद पैगंबर को मानता था किंतु हमारे पास तत्कालीन कोई ऐसा प्रमाण नहीं है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि अकबर अपने बाल्यकाल में मजहब में निष्ठा रखे रहा। वौटेल्हो और पैरुशिची जिनकी यह धारणा थी, उस काल के इतिहासकार नहीं थे और उन्होंने अपनी जो राय प्रकट की है वह केवल जेजुइट पादरियों के लेखों पर आधारित है।
डॉ. श्रीवास्तव लिखते हैं कि ईस्वी 1586 में अब्दुल्ला खाँ उजबेग को अकबर द्वारा लिखे गए पत्र को भी, जिसमें उसने लिखा था कि वह (अकबर) मुसलमान है, इस सम्बन्ध में प्रमाण के रूप में प्रस्तुत और स्वीकार करना भी उचित नहीं है। यह तो केवल कूटनीतिक पत्र-व्यवहार था जिसमें सत्य की प्रतिष्ठा नहीं थी। यद्यपि अकबर ने इस्लाम को छोड़ दिया था तथापि मुसलमानी सभ्यता की सभी बातों को छोड़ना उसके लिए असंभव था क्योंकि उसका बाल्यकाल उसी सभ्यता में व्यतीत हुआ था।
जब हम मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूनी, पण्डित जवाहर लाल नेहरू तथा डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव द्वारा अकबर के सम्बन्ध में प्रकट की गई धारणाओं पर ऐतिहासिक तथ्यों के संदर्भ में चर्चा करते हैं तो हम पाते हैं कि उनकी ये धारणाएं बिल्कुल गलत हैं कि अकबर सभी मजहबों से ऊपर उठ गया था या उसने इस्लाम छोड़ दिया था या उसने दूसरे धर्मों की बहुत सी बातों को मान लिया था।
इन्हीं धारणाओं के कारण यह प्रश्न बार-बार पूछा जाता है कि क्या अकबर मुसलमान था किंतु वास्तव में यह प्रश्न बेमानी है। सच्चाई यह है कि अकबर जीवन के आरम्भ से लेकर जीवन के अंत तक मुलसमान बना रहा। उसका मन इस्लाम से उचाट नहीं हुआ था।
अकबर यदि उकताया था तो मुल्लों के कट्टरपन से जो अपने-अपने हिसाब से इस्लाम की व्याख्या करते थे और अपनी बात को ही सही ठहराने की जिद्द ठान लेते थे। यदि कोई एक मुल्ला, दूसरे मुल्ला की बात को नहीं मानता था तो वे दोनों ही एक दूसरे पर डण्डा तान लेते थे। अकबर जैसा बुद्धिमान बादशाह ऐसे मुल्लों की बातों को कैसे स्वीकार कर सकता था!
इसलिए अकबर अवश्य ही इबादतखाने की बैठकों में इन मुल्लों की बातों को स्वीकार नहीं करता होगा और उनसे तर्क करके उन्हें पराजित कर देता होगा। इस कारण बहुत से मुल्लों ने अकबर को इस्लाम विरोधी कहना आरम्भ कर दिया होगा।
यही हाल अन्य धर्मावलम्बियों के आचार्यों एवं पादरियों का रहा होगा। अकबर उनकी सभी बातों पर आंखें मूंदकर विश्वास करने को तैयार नहीं था। मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूनी ने अपनी पुस्तक मुंतखब-उत्-तवारीख लिखा भी है कि जहांपनाह हरेक की राय इकट्ठी करते थे। खासकर ऐसे लोगों की जो मुसलमान नहीं थे और उनमें से जो कोई बात उनको पसंद आती, उसे रख लेते और जो उनके मिजाज और मर्जी के खिलाफ जातीं, उन सबको फैंक देते।
अकबर ने इस्लाम नहीं छोड़ा था, इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण ई.1579 की एक घटना से मिलने वाला था। इस घटना ने स्पष्ट कर दिया कि अकबर ने इस्लाम में आस्था नहीं छोड़ी थी अपितु उन मुल्लों पर से आस्था छोड़ी थी जिन्होंने इस्लाम की मनमानी व्याख्या करना तथा एक-दूसरे को नीचा दिखाकर स्वयं को सबसे ऊंचा सिद्ध करना, अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझ लिया था।
इन मुल्लों को नियंत्रण में लाने के लिए अकबर ने फैजी और अबुल फजल के पिता शेख मुबारक से कहा कि वह इस सम्बन्ध में अध्ययन करके बादशाह के समक्ष एक मजहर का मसविदा पेश करे। अर्थात् शाही परिपत्र का प्रारूप प्रस्तुत करे।
जब यह शाही मसविदा सामने आया तो मुल्लों के सामने फिर से यह प्रश्न खड़ा हो गया कि क्या अकबर मुसलमान था?