गुरु तेग बहादुर के पुत्र गुरु गोविन्दसिंह ने सिक्ख समुदाय को अभूतपूर्व संगठन, अद्भुत अनुशासन एवं धर्म के प्रति अनन्य निष्ठा में बांध दिया। संसार में बहुत कम लोग ऐसे हुए हैं जिन्होंने अपने जीवन काल में इतनी बड़ी सफलताएं प्राप्त कीं।
हम चर्चा कर चुके हैं कि जहांगीर ने ई.1606 में गुरु अर्जुन देव पर भयानक अत्याचार किए थे। इसके बाद से सिक्खों ने स्वयं को धार्मिक समुदाय के साथ-साथ सैनिक समुदाय के रूप में ढाल लिया था। औरंगजेब का समय आते-आते सिक्खों की शक्ति में अभूतपूर्व वृद्धि हो गई थी। इस शक्ति को कुचलने के लिए औरंगजेब ने गुरु तेग बहादुर को दिल्ली बुलवाकर उनका सिर कलम करवाया।
यह एक असंभव सी बात थी कि इतिहास के पन्नों में सिमटा कोई धीरोदात्त नायक न केवल अपने जीवन काल में अपितु युगों-युगों तक विशाल जनसमुदाय को धार्मिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय चेतना से आप्लावित रख सके। गुरु गोविंदसिंह ने यह चमत्कार कर दिखाया।
जब गुरु तेगबहादुर देश की धर्म-प्राण जनता में शौर्य एवं साहस का प्रचार करते हुए ई.1666 में पूर्वी भारत के पटना नगर में पहुंचे, तब वहीं पटना में ही गोविन्दसिंह का जन्म हुआ। गुरु तेगबहादुर लगभग पाँच वर्ष तक पटना में रहकर धर्म-प्रचार एवं सामाजिक जनजागृति का कार्य करते रहे। इसके बाद वे पंजाब के आनन्दपुर नामक स्थान पर आए और वहीं पर उन्होंने अपना डेरा लगाया।
पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-
जब बालक गोविंदसिंह छः वर्ष के हुए तो पिता तेगबहादुर ने उनकी शिक्षा-दीक्षा का समुचित प्रबंध किया। बालक गोविंदसिंह को साहिबचन्द ग्रन्थी ने संस्कृत और हिन्दी तथा काजी पीर मुहम्मद ने फारसी भाषा एवं साहित्य का ज्ञात करवाया। बालक गोविंदसिंह ने शीघ्र ही इन भाषाओं पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार जीवन के आरम्भिक भाग में गोविंदसिंह के मन में साहित्य के प्रति जो अनुराग उत्पन्न हुआ वह सम्पूर्ण जीवन तक चलता रहा।
नौ वर्ष की आयु में जब गोविन्दसिंह के पिता दिल्ली में शहीद हुए तब सिक्ख पंथ का भार बालक गोविन्द सिंह के कन्धों पर आ गया और वे सिक्खों के दसवें गुरु हुए। जब उन्होंने देखा कि मुगलों का प्रतिरोध किए बिना धर्म का बचना कठिन है तो उन्होंने पंथ के समस्त शिष्यों को सैनिक समुदाय में परिवर्तित कर दिया। भारतवासियों के नाम उनका सबसे बड़ा संदेश था-
‘सकल जगत में खालसा पंथ गाजे,
जगे धर्म हिंदू सकल भंड भाजे!’
अर्थात्- मेरी इच्छा है कि सम्पूर्ण विश्व में खालसा पंथ की जयजयकार गूंजे, हिन्दू धर्म नींद से जागकर खड़ा हो जाए ताकि संसार भर में धर्म के नाम पर चल रहे समस्त पाखण्ड नष्ट हो जाएं। गुरु गोविंदसिंह ने आनंदपुर को अपनी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र बनाया जिसे अब सिक्ख समुदाय बड़े आदर से आनंदपुर साहब कहता है। गुरु गोविन्द सिंह ने आनन्दपुर नगर की सुरक्षा के लिए उसके आस-पास चार किले बनवाये- 1. आनन्दगढ़ 2. केशगढ़ 3. लौहगढ़ 4. फतेहगढ़।
गुरु गोविंदसिंह की गतिविधियों से नाराज होकर औरंगजेब ने गुरु पर कार्यवाही करने के लिए एक सेना भेजी। ई.1690 में गोविन्द सिंह एवं मुगल सेना बीच नादोन का युद्ध हुआ जिसमें गुरु गोविन्द सिंह की सेना की विजय हुई। इस युद्ध से गुरु की समझ में आ गया कि औरंगजेब से भविष्य में भी युद्ध होते रहेंगे जिसके लिए बहुत बड़ी तैयारी की आवश्यकता है। इसलिए उन्होंने कुछ समर्पित एवं विश्वसनीय लोगों का एक छोटा समूह बनाने का निश्चय किया जिनका अनुकरण करके जन-सामान्य अपने गुरु पर अटूट विश्वास एवं श्रद्धा रख सके।
इसके लिए उन्होंने एक विलक्षण योजना बनाई। उन्होंने पंजाब सूबे में दूर-दूर तक फैले सिक्खों को आनन्दपुर के वैशाखी मेले में आने के लिए आमंत्रित किया। गुरु के आह्वान पर बड़ी संख्या में सिक्ख आनंदपुर के वैशाखी मेले में आ गए।
गुरु गोविन्दसिंह ने एक बड़े चबूतरे पर चारों ओर से कनात खड़ी करवाकर उसके भीतर कुछ बकरे बँधवा दिए। तत्पश्चात वे तलवार खींच कर कनात से बाहर आए और विशाल जनसमुदाय को सम्बोधित करते हुए कहा कि धर्म की रक्षा के लिए महाचण्डी आपका बलिदान चाहती है। आप लोगों में से जो कोई भी अपने धर्म के लिए अपने प्राण देने को तैयार हो वह कनात के भीतर आ जाए, मैं अपने हाथों से महाचण्डी के आगे उसका बलिदान करूँगा।
गुरु के पुकारने पर एक आदमी सामने आया। गुरु उसे लेकर कनात के भीतर गए तथा उन्होंने उस व्यक्ति को तो वहीं बैठा दिया और एक बकरे की गरदन काट डाली। कुछ ही क्षणों में कनात से बाहर रक्त की धार दिखाई दी। इसके बाद गुरु रक्त से सनी हुई तलवार लेकर कनात से बाहर आए तथा उन्होंने किसी दूसरे व्यक्ति को सामने आने का आह्वान किया।
इस प्रकार एक-एक करके पाँच वीर सामने आए। इनमें लाहौर का दयाराम खत्री, दिल्ली का धर्मदास जाट, द्वारका का मोहकमचंद दर्जी, जगन्नाथ का हिम्मत भीवर एवं बीदर का साहबचंद नाई शामिल थे। जब गुरु फिर पुकार लगाई तो कोई व्यक्ति अपने बलिदान के लिए प्रस्तुत नहीं हुआ।
इस पर गुरु ने उन पाँच वीरों को कनात से बाहर निकाला और कहा- ये ‘पाँच प्यारे’ धर्म के खालिस अर्थात् शुद्ध सेवक हैं और इन्हें साथ लेकर मैं आज से ‘खालसा-धर्म’ की नींव डालता हूँ। उसी समय, उन्होंने एक कड़ाह में पवित्र जल भरवाया, उनकी धर्मपत्नी ने उसमें बताशे घोले और गुरु ने तलवार से उस जल को हिलाया और अपनी तलवार से ही उस जल को पाँच प्यारों पर छिड़का। इस प्रक्रिया को गुरु ने ‘अमृत छकने’ की रस्म बताया।
गुरु तथा उनकी पत्नी ने इस अमृत को वहाँ उपस्थित समस्त लोगों को पीने के लिए दिया। इस अमृत को पीकर गुरु गोबिंदसिंह के अनुयाई खालसा-धर्म में दीक्षित हुए। इस प्रकार गुरु गोविंदसिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की। 30 मार्च 1699 को गुरु गुरु गोविन्दसिंह ने खालसा पंथ की शिक्षाओं को अंतिम रूप दिया।
इस पंथ के अनुयाई, हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए हर समय प्राणोत्सर्ग करने के लिए तैयार रहते थे। गुरु गोविन्द सिंह ने 20,000 सैनिकों की खालसा सेना भी तैयार की।
गुरु गोविंदसिंह अपने शिष्यों को उपदेश दिया कि केवल ‘शाप’ ही नहीं ‘शर’ का भी प्रयोग करो। गुरु की कविताओं में अद्भुत ओज था। जिस परमात्मा को गुरु नानक ‘निरंकार पुरुख’ कहते थे, गुरु गोविन्दसिंह ने उसे असिध्वज, महाकाल और महालौह कहा।
सिक्ख-धर्म का वर्तमान संगठन काफी अंशों तक गुरु गोविन्दसिंह द्वारा ही किया गया। उन्होंने सिक्खों में पगड़ी बाँधने की प्रथा प्रारम्भ की तथा ‘पंच-ककारों’ अर्थात् (1.) कंघी, (2.) कच्छ, (3.) कड़ा, (4.) कृपाण तथा (5.) केश को धारण करना अनिवार्य बनाया।
गुरु गोविन्दसिंह ने सिक्ख पंथ में मदिरा और तम्बाकू सेवन को वर्जित किया। सिक्खों के लिए जो कर्म निषिद्ध हैं उनका उल्लेख रहतनामा नामक ग्रंथ में मिलता है। इस ग्रंथ में केश-कर्तन को महान् अपराध माना गया है।
इसके बाद गुरु गोविंदसिंह ने औरंगजेब की सेनाओं द्वारा किए जा रहे अत्याचारों का विरोध और अधिक तेज कर दिया। सिक्ख लड़ाके बड़ी फुती से खेतों के बीच से निकलकर मुगल सेनाओं पर धावा बोलते थे और उन्हें नुक्सान पहुंचाकर आनन-फानन में अदृश्य हो जाते थे।
गुरु गोविन्दसिंह की तैयारियों एवं कार्यवाहियों से औरंगजेब घबरा गया। वह विगत दो दशकों से दक्खिन के मोर्चे पर था इसलिए उसने लाहौर के सूबेदार को आदेश दिए कि गुरु की राजधानी आनन्दपुर पर हमला किया जाए।
इस समय औरंगजेब का तीसरे नम्बर का पुत्र मुअज्जम लाहौर का सूबेदार था। उसने आनंदपुर साहिब पर आक्रमण करने से मना कर दिया। इस पर औरंगजेब ने सरहिन्द के सूबेदार वजीरखाँ को आदेश दिए कि वह आनन्दपुर पर हमला करके गुरु गोविंदसिंह को समाप्त कर दे।
गुरु के शिष्यों ने तलवार और भाले लेकर मुगलों का सामना किया किंतु विशाल मुगल सेना के समक्ष अधिक समय तक नहीं टिक सके। इस पर गुरु अपने शिष्यों को लेकर आनंदपुर से निकल गए। इस दौरान मची अफरा-तफरी में उनके दो पुत्र जोरावर सिंह और फतेहसिंह अपने परिवार से बिछड़ गए।
किसी व्यक्ति ने इन दोनों गुरु-पुत्रों को सरहिन्द के सेनापति वजीर खाँ को सौंप दिया। वजीर खाँ ने उन बालकों से इस्लाम स्वीकार करने के लिए कहा परन्तु उन बालकों ने भी अपने दादा की भांति, इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया।
इस पर 27 दिसम्बर 1704 को दुष्ट वजीर खाँ ने गुरुपुत्रों को जीवित ही दीवार में चुनवा दिया गया। कहा जाता है कि उस समय गुरुपुत्रों की माता भी उनके साथ थी जो यह भयावह दृश्य देखकर मृत्यु को प्राप्त हो गई।
जब गुरु गोविंदसिंह को अपने पुत्रों की शहीदी का पता चला तो उन्होंने औरंगजेब की धर्मान्ध नीति के विरुद्ध उसे फारसी भाषा में एक लम्बा पत्र लिखा जिसे सिक्खों के इतिहास में ‘जफरनामा’ के नाम से जाना जाता है जिसका अर्थ हेाता है- ‘विजय की चिट्ठी।’ इस पत्र में औरंगजेब के शासन-काल में हो रहे अन्याय तथा अत्याचारों का मार्मिक उल्लेख है।
इस पत्र में गुरु की तरफ से औरंगजेब को नेक कर्म करने और मासूम प्रजा का खून न बहाने की नसीहत दी गई तथा धर्म एवं ईश्वर की आड़ में मक्कारी और हिंसा न करने की चेतावनी भी दी गई। गुरु ने औरंगजेब को योद्धा की तरह रणक्षेत्र में आकर युद्ध करने की चुनौती दी तथा लिखा कि तेरी सल्तनत नष्ट करने के लिए खालसा पंथ तैयार हो गया है।
गुरु-पुत्रों की शहीदी के बाद सिक्ख समुदाय वजीर खाँ तथा औरंगजेब का शत्रु हो गया। सिक्खों ने पंजाब सूबे की राजधानी लाहौर सहित विभिन्न कस्बों में मारकाट एवं लूटमार मचा दी जिसका सामना करना मुगलों के वश में नहीं था। सिक्खों ने मुगलों के अनेक भवनों को लूट लिया और बहुतों को नष्ट कर दिया। वजीर खाँ ने भी सिक्खों से निबटने की बड़ी तैयारी की।
ई.1705 में चमकौर अथवा मुक्तसर नामक स्थान पर दोनों पक्षों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में गुरु गोविन्द सिंह के दो पुत्र अजीत सिंह और जुझारु सिंह भी काम आए।
सिक्खों द्वारा पंजाब के प्रमुख स्थान सरहिंद को पूरी तरह नष्ट कर दिया गया तथा लाहौर सहित आसपास के अनेक मुगल भवनों के पत्थरों को तोड़कर अमृतसर के स्वर्णमंदिर एवं अन्य भवनों को भेज दिया गया। इन युद्धों के दौरान ‘आदि ग्रन्थ’ लुप्त हो गया। अतः शुरु ने इसका पुनः संकलन करवाया गया। इसी कारण इसे ‘दशम् पादशाह का ग्रन्थ’ भी कहा जाता है।
औरंगजेब की सेनाएं लगातार हारती जा रही थीं किंतु औरंगजेब दक्खिन का मोर्चा छोड़ सकने की स्थिति में नहीं था इसलिए उसने गुरु से सन्धि करने के लिए उन्हें दक्षिण में आने के लिए आमंत्रित किया। गुरु गोविंदसिंह दक्षिण की तरफ रवाना हुए किंतु गुरु द्वारा औरंगजेब से भेंट किए जाने से पहले ही औरंगजेब का निधन हो गया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता