मुगल सेनापति अब्दुर्रहीम खानखाना इस समय अहमद नगर की राजकुमारी चांद बीबी के महल में था। और चांद बीबी पर्दे के पीछे थी।
खानखाना अब्दुर्रहीम के अनुरोध पर सुल्ताना चांद बीबी, बिना किसी पर्दे के खानखाना के सामने उपस्थित हुई। चाँद को पर्दे से बाहर आया देखकर खानखाना ने हँसकर कहा-
‘रहिमन प्रीति न कीजिये जस खीरा ने कीन।
ऊपर से तो दिल मिला, भीतर फांकें तीन।’
-‘इसका क्या अर्थ है खानानजू?’ सुलताना ने हँस कर पूछा। उसे अब पहिले का सा संकोच न रह गया था।
-‘सुलताना! मैं चाहूंगा कि संधि के सम्बन्ध में जो भी बात हो, दिल से हो, निरी शाब्दिक नहीं हो।’ खानखाना ने जवाब दिया।
चांद ने खानखाना को विश्वास दिलाया कि जो कुछ भी तय होगा, उसका अक्षरशः पालन होगा, बशर्ते कि मुगल अपनी तरफ से वादाखिलाफी न करें। खानखाना समझ गया कि चांद का संकेत शहबाज खाँ कम्बो द्वारा की गई लूट की तरफ है।
खानखाना ने गंभीर होकर कहा कि मुझे तुम पर विश्वास है इसीलिये मैं तुम्हें कुछ कहना चाहता हूँ। इसे मुगल बादशाह की तरफ से नहीं अपितु मेरी तरफ से समझना। खानखाना ने कहा-
रहिमन छोटे नरन सों बैर भलो ना प्रीति।
काटे चाटे स्वान के, दौऊ भांति विपरीत।’
चाँद को समझ नहीं आया कि खानखाना ने ऐसा क्यों कहा।
-‘खानखाना! हमारी समझ में कुछ नहीं आया।’ चाँद ने कहा।
चाँद की बेचैनी देखकर खानखाना मुस्कुराया। उसने कहा-
‘रहिमन बात अगम्य की, कहन सुनन की नाहि।
जै जानत ते कहत नहि, कहत ते जानत नाहि।’
अर्थात्- गूढ़ बातें कहने और सुनने की नहीं होतीं। जो इन्हें जानते हैं, वे कहते नहीं हैं और जो कहते हैं, समझो कि वे जानते नहीं हैं। खानखाना अब्दुर्रहीम की अत्यंत गूढ़ और रहस्य भरी बातों से चाँद के होश उड़ गये। जाने खानखाना क्या कहता था, जाने वह क्या चाहता था!
खानखाना उसकी दुविधा समझ गया। उसने कहा- ‘ओछे व्यक्तियों से न दुश्मनी अच्छी होती है और न दोस्ती। जैसे कुत्ता यदि दुश्मन बनकर काट खाये तो भी बुरा और यदि दोस्त होकर मुँह चाटने लगे तो भी बुरा।’
-‘क्या मतलब हुआ इस बात का?’
-‘मैं अपने स्वामी मुराद की ओर से संधि का प्रस्ताव लेकर आया हूँ। वह भी एक ऐसा ही ओछा इंसान है। मतलब आप स्वयं समझ सकती हैं।’
खानखाना की बात सुनकरचांद बीबी और भी दुविधा में पड़ गयी। कुछ क्षण पहले वह जिस खानखाना को सरल सा इंसान समझे बैठी थी, वह भावना तिरोहित हो गयी। उसे लगा कि उसका पाला एक रहस्यमय इंसान से पड़ा है जिससे पार पाना संभवतः आसान न हो।
-‘और दूसरे दोहे में आपने क्या कहा?’
-‘दूसरे दोहे में मैंने कहा कि जो बातें हमारी सामर्थ्य से बाहर हैं, वे कहने सुनने की नहीं हैं। क्योंकि जो जानते हैं वे कहते नहीं हैं और जो कहते हैं, वे जानते नहीं हैं।’
-‘इस बात का क्या मतलब हुआ?’
-‘इसका अर्थ यह हुआ कि जो बात मैंने तुम्हें अपने स्वामी के बारे में बताई है वह मेरी सामर्थ्य के बाहर की बात है। उसे कभी किसी और के सामने कदापि नहीं कहा जाये।’
-‘खानखाना मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा कि आप क्या कह रहे हैं और आप मेरे लिये क्या संदेश लाये हैं!’ चाँद के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आयीं।
-‘मैं कहना चाहता हूँ कि शहजादा मुराद धूर्त इंसान है। इसलिये मैं जानबूझ कर स्वयं तुम्हारे सामने संधि का प्रस्ताव लेकर आया हूँ। मैं तो तुम्हें केवल यह चेतावनी दे रहा था कि मैं जिस स्वामी की ओर से संधि करने आया हूँ, वह विश्वास करने योग्य नहीं है।
चूंकि वह बहुत शक्तिशाली है, इसलिये वह शत्रुता करने योग्य भी नहीं है। मैंने ऐसा इसलिये कहा ताकि तुम्हारे मन में किसी तरह का भ्रम न रहे और तुम बाद में किसी परेशानी में न पड़ जाओ।
तुम साहसी हो, बुद्धिमती हो, स्वाभिमानी हो, भगवान कृष्णचंद्र पर भरोसा करने वाली हो किंतु तुम्हें ज्ञात होना चाहिये कि तुम्हारा पाला किसी इंसान से नहीं, अपितु शैतान से पड़ा है।’
-‘यह तो मैं उसी समय देख चुकी हूँ जब मुगल सैनिकों ने नगर में घुस कर विश्वासघात किया। कृपया बताईये कि मैं मुराद से संधि करूं या नहीं?’
-‘संधि तो तुम्हें करनी होगी किंतु सावधान भी रहना होगा।’
-‘अर्थात्?’
-‘यदि तुम संधि नहीं करोगी तो मुराद अहमदनगर की ईंट से ईंट बजा देगा और यहाँ से तब तक नहीं हिलेगा जब तक कि अहमदनगर उसके अधीन न हो जाये।
संधि करने से तुम्हें यह लाभ होगा कि मुराद अपनी सेना लेकर अहमदनगर से चला जायेगा। और सावधान इसलिये रहना होगा कि यदि मुराद संधि भंग करे तो तुम तुरंत कार्यवाही करने की स्थिति में रहो।’
-‘संधि का क्या प्रस्ताव तैयार किया है आपने?’
-‘मेरा प्रस्ताव यह है कि बराड़ का वह प्रदेश जो बराड़ के अंतिम बादशाह तफावल खाँ के पास था और जिसे इन दिनों मुरतिजा निजामशाह ने दबा रखा है वह तो शहजादा मुराद ले ले और बाकी का राज्य माहोर के किले से चोल बन्दर तक और परेंड़े से दौलताबाद के किले और गुजरात की सीमा तक अहमदनगर के अधिकार में रहे।’
-‘इससे मुझे क्या लाभ होगा?’
-‘बरार अहमदनगर का मूल हिस्सा नहीं है। वह तो मुरतिजा ने तफावल खाँ से छीना था। यदि यह क्षेत्र तुम्हारे हाथ से निकल भी जाता है तो भी तुम्हारा मूल राज्य सुरक्षित रहेगा।’
-‘क्या मुझे शहजादे मुराद के सामने पेश होना होगा?’
-‘नहीं, तुम मुरतिजा को अपनी ओर से शहजादे की सेवा में भेज सकती हो।’
-‘क्या शहजादा मुराद बरार लेकर मान जाएगा?’ चांद ने पूछा।
खानखाना की सीधी-सपाट बात सुनकर चांद बीबी की आँखों में आँसू आ गये। किसी तरह अपने आप को संभाल कर बोली- ‘आप ज्ञानी हैं, इसी से इतने उदासीन हैं और बड़ी-बड़ी बातें कहते हैं किंतु मैं अज्ञानी हूँ, मैं आपकी तरह संतोषी नहीं हो सकती।’ खानखाना उठ खड़ा हुआ। चाँद ने सिर पर दुपट्टा लेकर खानखाना को तसलीम कहा और पर्दे की ओट में चली गयी। खानखाना को लगा कि श्रद्धा, विश्वास और प्रेम का निश्छल चाँद जो कुछ क्षण पहले तक कक्ष में उजाला किये हुए था, अचानक बादलों की ओट में चला गया।
-‘शहजादे की नजर पूरे अहमदनगर राज्य पर है किंतु फिलहाल वह बराड़ से संतोष कर लेगा। समय के साथ परिस्थितियाँ बदलेंगी। हो सकता है बादशाह द्वारा मुराद को वापस बुला लिया जाये और यह पूरा काम मेरे जिम्मे छोड़ दिया जाये या फिर हम दोनों के ही स्थान पर कोई और आये। जब जैसी परिस्थति हो, तुम वैसे ही निबटना।
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