जब महाराणा प्रताप अपने प्रिय अश्व चेतक पर बैठकर युद्धक्षेत्र में प्रकट हुआ तब शत्रुओं की परवाह किए बिना चेतक हल्दीघाटी में चक्कर काटने लगा।
18 जून 1576 को हल्दीघाटी का युद्ध आरम्भ होते ही दोनों पक्षों के हाथी अपनी-अपनी सेना के आगे आकर एक दूसरे पर जोर-आजमाइश करने लगे। मुगल पक्ष के सैनिकों ने महाराणा के हाथियों के महावतों को बंदूकों की गोलियों से छलपूर्वक मार डाला तथा महाराणा के प्रसिद्ध हाथी रामप्रसाद को पकड़ लिया।
यदि महाराणा प्रताप के सैनिक चाहते तो वे भी अकबर की सेना के हाथियों एवं उनके महावतों को गोली मार सकते थे। इस समय हाथियों की लड़ाई हो रही थी इसलिए हाथियों अथवा उनके महावतों को सैनिकों द्वारा गोली मारना अनैतिक कार्य था किंतु मुगल पक्ष के सैनिकों ने नैतिकता की परवाह किए बिना, महाराणा के हाथियों एवं महावतों को गोली मार दी।
महामहोपध्याय गौरी शंकर हीराचंद ओझा ने उदयपुर राज्य का इतिहास में लिखा है कि दोनों सेनाओं के मस्त हाथी अपनी-अपनी फौज में से निकलकर एक दूसरे से खूब लड़े और हाथियों का दरोगा हुसैन खाँ, जो मानसिंह के पीछे वाले हाथी पर सवार था, हाथियों की लड़ाई में सम्मिलित हो गया।
इस समय मानसिंह ने महावत की जगह बैठकर बहुत वीरता दिखाई। मानसिंह के जवान अंगरक्षक बहादुरों ने भी बड़ी वीरता दिखाई। ओझाजी ने लिखा है कि इस दिन से मानसिंह के सेनापतित्व के सम्बन्ध में मुल्ला शीरी का यह कथन ‘हिन्दू इस्लाम की सहायता के लिये तलवार खींचता है’, चरितार्थ हुआ।
मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी ने मुंतखत उत् तवारीख में लिखा है कि मुसलमानों ने बिना सोचे-विचारे कि राजपूत उनके पक्ष के हैं अथवा राणा के, उन पर तीर तथा गोलियां बरसाना आरम्भ कर दिया। राजा रामशाह तंवर, महाराणा प्रताप की सुरक्षा करता हुआ महाराणा के ठीक आगे चल रहा था, उसे जगन्नाथ कच्छवाहा ने मौत के घाट उतार दिया।
जगन्नाथ कच्छवाहा ने जयमल के पुत्र रामदास राठौड़ को भी मार डाला। जब जगन्नाथ अपने जीवन का बलिदान देने वाला ही था कि मुगल सेना का इल्तमश आ गया। मुगल सेना में मध्य स्थान के अग्रगामी संरक्षक दल को इल्तमश कहते थे। अर्थात् वह सैनिक टुकड़ी जो हरावल के ठीक पीछे रहकर हरावल की पीठ मजबूत करती थी।
अबुल फजल ने अकबरनामा में लिखा है कि सैयद हाशिम घोड़े से गिर गया किंतु सैयद राजू ने उसे फिर से घोड़े पर बैठा दिया। गाजी खाँ बदख्शी आगे बढ़ा और आक्रामक युद्ध में सम्मिलित हो गया।
मुल्ला बदायूंनी ने लिखा है- ‘युद्ध-क्षेत्र की भूमि ऊँची-नीची, रास्ते टेढ़े-मेढ़े और कांटों वाले होने के कारण हमारी सेना के हरावल में गड़बड़ी मच गई, जिससे हमारी हरावल की पूरी तौर से हार हुई।
हमारी सेना के राजपूत, जिनका मुखिया राजा लूणकरण था और जिनमें से अधिकतर वामपार्श्व में थे, भेड़ों के झुण्ड की तरह भाग निकले और हरावल को चीरते हुए अपनी रक्षा के लिये दक्षिणपार्श्व की तरफ दौड़े।
इस समय मैंने अर्थात् अल्बदायूंनी ने, जो कि हरावल के खास सैन्य के साथ था, आसफ खाँ से पूछा कि ऐसी अवस्था में हम अपने और शत्रु के राजपूतों की पहचान कैसे करें?
आसफ खाँ ने उत्तर दिया कि तुम तो तीर चलाये जाओ, चाहे जिस पक्ष के आदमी मारे जावें, इस्लाम को तो उससे लाभ ही होगा। इसलिये हम तीर चलाते रहे। भीड़ ऐसी थी कि हमारा एक भी वार खाली नहीं गया और काफिरों को मारने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ।
इस लड़ाई में बारहा के सैय्यदों तथा कुछ जवान वीरों ने रुस्तम जैसी वीरता दिखाई। दोनों पक्षों के मरे हुए वीरों से रणखेत छा गया।’
मुल्ला बदायूंनी लिखता है-
‘राणा कीका अर्थात् महाराणा प्रताप की सेना के दूसरे हिस्से ने, जिसका संचालक राणा स्वयं था, घाटी से निकलकर काजी खाँ की सेना पर हमला किया जो घाटी के द्वार पर था। चेतक हल्दीघाटी में चक्कर काटने लगा।’
मानसिंह के दरबारी कवि द्वारा लिखित मानप्रकाश नामक ग्रंथ में लिखा है कि इस समय महाराणा प्रताप दो मुख वाले व्यक्ति के समान बड़े वेग से आगे तथा पीछे देखता हुआ युद्ध कर रहा था। महाराणा प्रताप काजी खाँ की सेना का संहार करता हुआ, उसके मध्य तक पहुँच गया, जिससे सब के सब सीकरी के शेखजादे भाग निकले और उनके मुखिया शेख मन्सूर के शरीर में एक तीर ऐसा लगा कि बहुत दिनों तक उसका घाव न भरा। शेख मंसूर शेख इब्राहीम का दामाद था।’
मुल्ला बदायूंनी लिखता है- ‘काजी खाँ मुल्ला होने पर भी कुछ देर तक डटा रहा परन्तु दाहिने हाथ का अंगूठा तलवार से कट जाने पर वह भी अपने साथियों के पीछे भाग गया। ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर के पोते रामशाह तोमर ने, जो हमेशा राणा की हरावल में रहता था, ऐसी वीरता दिखाई, जिसका वर्णन करना लेखनी की शक्ति के बाहर है। मानसिंह कच्छवाहा के राजपूत, जो हरावल के वामपार्श्व में थे, भागे, जिससे आसफ खाँ को भी भागना पड़ा और उन्होंने दाहिने पार्श्व के सैयदों की शरण ली।’
मुल्ला बदायूंनी इस युद्ध में आसफ खाँ के साथ था परंतु आसफ खाँ के भागने के साथ वह अपने भागने का उल्लेख नहीं करता, मुंतखब उत तवारीख का अंग्रेजी अनुवादक टिप्पणी करता है कि मुल्ला बदायूंनी भी अवश्य ही आसफ खाँ के साथ भागा होगा।
मुल्ला बदायूंनी लिखता है- ‘यदि इस अवसर पर सैय्यद लोग टिके न रहते तो हरावल के भागे हुए सैन्य ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी थी कि बदनामी के साथ हमारी हार होती। हमारी फौज पहले हमले में ही भाग निकली थी। वह बनास नदी को पार कर 5-6 कोस तक भागती रही।
इस तबाही के समय मिहतर खाँ अपनी सहायक सेना सहित चंदावल से निकल आया। उसने ढोल बजाया और हल्ला मचाकर फौज को एकत्र होने के लिये कहा। उसकी इस कार्यवाही ने भागती हुई सेना में आशा का संचार कराया जिससे उसके पैर टिक गये।’
मिहतर खाँ ने हल्ला मचाकर क्या कहा, इस विषय में बदायूंनी ने कुछ नहीं लिखा, परंतु अबुल फजल ने अकबरनामा में लिखा है-
‘सरसरी तौर से देखने वालों की दृष्टि में तो राणा की जीत नजर आती थी, इतने में एकाएक शाही फौज की जीत होने लगी, जिसका कारण यह हुआ कि सेना में यह अफवाह फैल गई कि बादशाह स्वयं आ पहुँचा है। इससे बादशाही सेना में हिम्मत आ गई और शत्रु सेना की, जो जीत पर जीत प्राप्त कर रही थी, हिम्मत टूट गई।’
मुल्ला बदायूंनी के इस कथन से अनुमान होता है कि मिहतर खाँ ने सेना को एकत्रित करके उससे कहा होगा कि शहंशाह अकबर स्वयं सेना लेकर आ गया है, इसलिए मुगल सेना को लड़ाई छोड़कर भागने की जरूरत नहीं है। इस प्रकार युद्ध अपने चरम पर पहुँच गया।
अकबर के आने की सूचना से बेखबर चेतक हल्दीघाटी में अब भी एक सिरे से दूसरे सिरे तक चक्कर लगा रहा था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!