जातीय जगनणना से पहले सवर्ण जातियों में जो बेचैनी दिखाई दे रही है, वह शीघ्र उन जातियों में स्थानांतरित हो जाएगी जो जातीय जगनणना के परिणाम स्वरूप किसी बड़े लाभ का गणित लगा रही हैं!
एक पुरानी कहावत है- भुस में आग लगाय, जमालो दूर खड़ी मुसकाय। जमालो तब तक ही मुस्कुरा सकती है जब तक वह दूसरों के भूसे में आग लगाती है। इस बार जमालो ने ओवर कॉन्फिडेंस में अपने ही भूसे में आग लगा ली है। अब जमालो नहीं मुस्कुराएगी, वह पछताएगी और पूरा गांव दूर खड़ा होकर जमालो का तमाशा देखेगा!
ऐसा ही कुछ हाल जातीय जगनणना वाले मामले में कांग्रेस का होने वाला है। कांग्रेस पिछले कुछ सालों से जातीय जनगणना के भूसे में आग लगाने का प्रयास कर रही है। अब ऐसा लग रहा है कि पूरा गांव भूसे में आग लगाने को तैयार है। पता नहीं क्यों कांग्रेस इस बात की अनदेखी कर रही है कि जिस भूसे में आग लगने वाली है, उससे कांग्रेस का ही सबसे अधिक नुक्सान होने वाला है!
लोकसभा चुनाव 2024 में दलित जातियां, पिछड़ी जातियां और मुसलमान वोटर जिस बड़ी संख्या में कांग्रेस के साथ जुड़ा, उससे कांग्रेस को लगता है कि जातीय जनगणना के मुद्दे को उछाल कर कांग्रेस 52 से 99 पर पहुंची है। संभवतः इसीलिए कांग्रेस ने जातीय जनगणना के मुद्दे को कस कर पकड़ लिया।
कांग्रेस को लगता था कि सरकार कभी भी जातीय जनगणना के लिए तैयार नहीं होगी और कांग्रेस इस मुद्दे को भुनाकर 99 से 272 पर पहुंच जाएगी किंतु दांव उलटा भी पड़ सकता है, ऐसा कांग्रेस ने क्यों नहीं सोचा?
भाजपा अब तक इस मुद्दे पर असमंजस में थी कि कहीं इससे समाज में जातीय वैमनस्य न फैल जाए किंतु अब लगता है कि भाजपा ने कांग्रेस के हाथ से यह मुद्दा छीनने के लिए जातीय जनगणना करवाने का मन बना लिया है।
जातीय जनगणना से सवर्ण जातियों को कुछ फर्क तो पड़ेगा किंतु अधिक फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि उन्हें पता है कि उनकी संख्या देश में एक तिहाई से अधिक नहीं है। वैसे भी अब पढ़ा-लिखा सवर्ण युवा सरकारी नौकरी में नहीं जाता, प्राइवेट सैक्टर के पैकेज के पीछे भागता है।
जातीय जनगणना से फर्क उन जातियों को पड़ेगा जो विगत कुछ दशकों से आरक्षण की मलाई खाती आ रही हैं। जातीय जनगणना के बाद इस मलाई पर वे जातियां हक जताएंगी जो आरक्षण में रहकर भी इसका कोई लाभ नहीं उठा सकी हैं। उन्हें आरक्षण के नाम पर बुरी तरह से ठगा गया है।
मनमोहनसिंह सरकार द्वारा करवाए गए आर्थिक सर्वेक्षण में 37 लाख से अधिक जातियों की सूची बनाई गई थी। यदि जातीय जनगणना के नाम पर फिर से वैसी ही एक नई सूची बनवाई जाए तो जातीय जनगणना का कोई अर्थ नहीं होगा।
अतः बहुत अधिक संभावना है कि जब किसी परिवार की जाति लिखी जाएगी तो अगले कॉलमों में यह भी लिखा जाए कि उस परिवार के पास भूमि कितनी है, भैंसें कितनी हैं, वाहन कितने हैं, ट्रैक्टर कितने हैं, मकान कितने हैं, सरकारी नौकरियों में सदस्य कितने हैं?
जैसे ही यह सूची तैयार होकर सामने आएगी, वैसे ही उन आरक्षित जातियों के भीतर बेचैनी उत्पन्न होगी जिनके पास कोई भूमि, भैंस, ट्रैक्टर वाहन, मकान और नौकरी आदि नहीं होंगे। वे अपने लिए कोटा के भीतर कोटा और क्रीमी लेयर जैसी मांगें करेंगे जिनके लिए सुप्रीम कोर्ट पहले से ही अपनी राय व्यक्त कर चुका है और कुछ निर्देश भी दे चुका है।
अब तक दलित वर्ग में आरक्षण का बड़ा हिस्सा खा रहीं यूपी की जाटव और बिहार की पासवान जैसी जातियां, जनजाति वर्ग में मीणा, ओबीसी वर्ग में कुर्मी और यादव जैसी जातियां, राजस्थान में जाट, माली और चारण जैसी जातियाँ संभवतः आरक्षण का वैसा लाभ न ले सकें जैसा वे अब तक लेती आई हैं।
वैसे भी अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल यादव, जाट, मीणा, माली चारण, आदि बहुत सी जातियाँ उच्च वर्ण जातियां हैं, सामाजिक एवं आर्थिक आधार पर वे ठीक वैसी ही है जैसी कायस्थ, राजपुरोहित, या अन्य पढ़ी-लिखी एवं सम्पन्न जातियां हैं। यादव, जाट, मीणा, माली, चारण में से एक भी जाति ऐसी नहीं है जिन्हें आजादी से पहले या बाद में, सवर्ण समाज अपने साथ बैठाकर भोजन नहीं करता था अथवा उनके घर भोजन करने नहीं जाता था।
दलित एवं ओबीसी वर्ग की जिन जातियों से लोग मुख्यंत्री, प्रधानमंत्री, राज्यपाल एवं राष्ट्रपति बनते हैं, वे पिछड़े हुए कैसे हो सकते हैं! क्योंकि इन पदों के लिए कोई आरक्षण नहीं है!
दूसरी ओर दलित वर्ग को ही लें, इनके भीतर की स्थिति ऐसी है कि यदि बिहार की पासवान जाति की तुलना मुसहरा जाति से की जाए तो पासवान की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति मुसहरे की तुलना में वैसी ही है जैसे अम्बानी और अडाणी के कारखानों के सामने पेड़ के नीचे बैठकर दांतुन बेचने वाला लड़का।
राजस्थान सरकार द्वारा वर्ष 2012 में पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व जांचने के लिये करवाए गए सर्वे के अनुसार राज्य में 23 पिछड़ी जातियों का एक भी सदस्य सरकारी नौकरी में नहीं था। इन जातियों के नाम इस प्रकार थे- गाड़िया लोहार, बागरिया, हेला मोगिया, न्यारिया, पटवा, सतिया-सिंधी, सिकलीगर, बंदूकसाज सिरकीवाल, तमोली, जागरी, लोढ़े-तंवर, खेरवा, कूंजड़ा, सपेरा, मदारी, बाजीगर, नट, खेलदार, चूनगर, राठ, मुल्तानी, मोची, कोतवाल तथा कोटवाल।
जातीय जगनणना के बाद ये जातियाँ सामने आएंगी और वे आरक्षित जातियों से अपने हिस्से का लाभ मांगेंगी। इस कारण आरिक्षत जातियों में बेचैनी उत्पन्न होगी। इस बेचैनी के जो भी परिणाम आगे निकलेंगे, उनके बारे में अभी से आकलन करना कठिन है किंतु इतना तय है कि कांग्रेस को इस जातीय जनगणना से कोई लाभ नहीं मिलेगा। अपितु यादव, कुर्मी, जाट, चारण, माली, जाटव, पासवान जैसी शक्तिशाली आरक्षित जातियां कांग्रेस का विरोध करेंगी।
यह भी संभव है कि ये शक्तिशाली आरक्षित जातियां जातीय जगनणना को रोकने का प्रयास करें अथवा उनके नतीजे सार्वजनिक न करने के लिए दबाव बनाएं। ठीक वैसे ही जैसे कांग्रेस ने कनार्टक में जो जातीय जनगणना करवाई उसके नतीजे आज तक सार्वजनिक नहीं किए गए।
बिहार में जो जातीय जगनणना हुई, उसका कोई लाभ किसी भी राजनीतिक दल को नहीं मिला। इस बार भी जातीय जगनाणना का लाभ किसी भी राजनीतिक दल को नहींं मिलेगा। यह ठीक वैसा ही होगा जैसे कि मण्डल आयोग की रिपोर्ट लागू करने का लाभ वी. वी. पी. सिंह और उनकी पार्टी को नहीं मिला! उनके साथ-साथ किसी और दल को भी नहीं मिला।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता