Saturday, September 7, 2024
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भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या एवं हिन्दू प्रतिरोध

इस पुस्तक में भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या एवं हिन्दू प्रतिरोध का संक्षिप्त इतिहास लिखा गया है।

हिन्दू धर्म, भारतवर्ष की भूमि पर आकार लेने वाला प्रथम धर्म है। जब हम भारतवर्ष की बात करते हैं तो उसका आशय आज के ‘यूनियन ऑफ इण्डिया जो कि भारत’ से नहीं अपितु हिन्दुकुश पर्वत से लेकर आज के अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, बांगला देश, बर्मा, थाईलैण्ड, श्रीलंका, मलेशिया, वियतनाम, कम्बोडिया आदि देशों एवं जावा, सुमात्रा तथा बाली आदि इण्डोनेशियाई द्वीपों से है।

भारत वर्ष की धरती पर प्रकट हुआ यह धर्म वैदिक धर्म के रूप में प्रकट हुआ जिसमें से अनेकानेक शाखाएं विकसित हुईं जो सम्मिलित रूप से सनातन धर्म के नाम से जानी गईं। इस धर्म की मुख्य शाखा भागवत धर्म तथा ब्राह्मण धर्म के नाम से विख्यात हुई। यही सनातन धर्म अथवा ब्राह्माण धर्म, भारत भूमि के साथ सिमटता हुआ अब ‘यूनियन ऑफ इण्डिया जो कि भारत’ में हिन्दू धर्म कहलाता है।

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हिन्दू धर्म का मूल स्वरूप इतना उदार, व्यापक, सहिष्णु, परोपकारी एवं समावेशी भाव लिए हुए है कि इसका कोई आकार-प्रकार निश्चित नहीं है। तेतीस करोड़ देवी देवताओं वाले इस धर्म में, किसी भी हिन्दू धर्मावलम्बी पर यह दबाव नहीं डाला जाता कि वह किसी निश्चित देवता की पूजा करे या किसी निश्चित प्रकार की पूजा पद्धति काम में ले। या कि वह किसी निश्चित धार्मिक पुस्तक को पढ़े या किसी निश्चित प्रकार से विवाह करे या वह किसी निश्चित प्रकार से शव की अंत्येष्टि करे।

हिन्दू धर्म के अंतर्गत समाहित भिन्न-भिन्न पूजा पद्धतियों को मानने वाले लोग, सामूहिक रूप से विभिन्न धार्मिक आयोजनों में भाग लेते हैं। कुछ हिन्दू, शव का दहन करते हैं तो कुछ मिट्टी में गाढ़ते हैं तो कुछ हिन्दू, शव को जल में बहा देते हैं। कुछ हिन्दू मतावलम्बी देवी-देवताओं की मूर्तियों की पूजा करते हैं, कुछ नहीं करते हैं। कुछ हिन्दू, वेद और ईश्वर को मानते हैं और कुछ हिन्दू, वेद या ईश्वर को नहीं मानते हैं, फिर भी वे सब हिन्दू धर्म के भीतर बने हुए हैं।

वैदिक देवी-देवताओं से लेकर पौराणिक देवी-देवताओं को मानने वाले तथा लोक देवियों एवं लोक देवताओं को मानने वाले, सभी लोग समान रूप से हिन्दू कहलाते हैं। विभिन्न क्षेत्रों के हिन्दुओं के खान-पान, वेषभूषा, वैवाहिक पद्धतियां, रीति-रिवाज एवं परम्पराएं अलग हैं। उत्तर भारत के हिन्दू, मामा की लड़की तथा मामा के गौत्र की लड़की से विवाह करने को पाप मानते हैं तो दक्षिण भारत में मामा की लड़की से विवाह करना अत्यंत साधारण बात है।

हिन्दू धर्म की इतनी विविधताओं के कारण ही हिन्दू धर्म के सम्बन्ध में कहा जाता है कि यह धर्म नहीं, जीवन शैली है। युगों-युगों से चले आने के कारण इसे सनातन धर्म भी कहते हैं। बौद्ध, जैन, सिक्ख आदि कई पंथ इसी धर्म से निकले और पृथक् धर्म के रूप में पहचान बनाने में सफल रहे। आगे चलकर कबीर पंथियों, दादू पंथियों, ब्रह्म समाजियों एवं आर्य समाजियों आदि ने भी अपने आप को सनातन हिन्दू धर्म से अलग दिखाने की चेष्टा की जो आज तक जारी है। वर्तमान समय में वीर शैव, लिंगायत जैसे पुराने सम्प्रदाय तथा नारायण स्वामी एवं ब्रह्मकुमारी जैसे नवोद्भव सम्प्रदाय भी हिन्दू धर्म से विलग दिखने का प्रयास कर रहे हैं।

इस्लाम तथा ईसाई मत भारत में बाहर से आए। इस्लाम ने आक्रांताओं के धर्म के रूप में भारत में प्रवेश किया। आक्रांता तो शक, कुषाण, हूण, बैक्ट्रियन तथा यूनानी भी थे किंतु उन्होंने इस देश में अपना धर्म थोपने के स्थान पर भारत के स्थानीय धर्मों को अपना लिया। उनमें से कुछ शैव, वैष्णव अथवा बौद्ध हो गए तो कुछ जैन। जबकि इस्लाम को मानने वाले आक्रांताओं ने ऐसा नहीं किया। वे न केवल स्वयं के लिए इस्लाम को एकमात्र विकल्प के रूप में देखते थे अपितु उन्होंने भारत की जनता में भी इस्लाम के बलपूर्वक प्रसार का प्रयास किया।

यदि इस्लाम भारत की भूमि पर उत्पन्न हुआ होता तथा इस्लाम के अनुयाइयों ने कट्टरता नहीं दिखाई होती तो संभवतः हिन्दुओं और मुसलमानों तथा सिक्खों और मुसलमानों के बीच इतनी व्यापक साम्प्रदायिक हिंसा नहीं हुई होती। इस्लाम की इस कट्टरता के चलते न तो मुसलमान कभी यह भूल पाए कि उनकी पहचान इस्लाम से है और न हिन्दू कभी भूल पाए कि इस्लाम आक्रांताओं का धर्म है।

इस्लामी आक्रांताओं द्वारा बल-पूर्वक भारत की जनता को इस्लाम में प्रवेश कराने के प्रयासों के कारण भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या आठवीं शताब्दी इस्वी में उत्पन्न हुई जिसका विकास पूरे मुस्लिम शासन काल में होता रहा। मुसलमानों द्वारा साम्प्रदायिकता की समस्या को इतना अधिक बढ़ाया गया कि देश में करोड़ों लोग हिन्दू धर्म छोड़कर मुसलमान बन गए ताकि उन्हें सुरक्षा तथा रोजगार प्राप्त हो। जो लोग हिन्दू बने रहे, वे निर्धनता, दुर्भाग्य और मृत्यु के अंधेरों में धकेल दिए गए।

ईसाई धर्म यद्यपि पंद्रहवीं शताब्दी में भारत में प्रवेश कर गया था किंतु ईसाइयों ने सामान्यतः तलवार के जोर पर अपने धर्म का प्रसार नहीं किया। वे एक हाथ में धर्म का तथा दूसरे हाथ में व्यापार का झण्डा रखते थे, धर्म का झण्डा उन्होंने भी पकड़ने का प्रयास किया किंतु इस पर अधिक जोर नहीं दिया। जब अठारहवीं शताब्दी में उन्होंने भारत में राजनीतिक शक्ति प्राप्त की तब भी वे ईसाई धर्म के प्रसार के बारे में कम ही उत्सुक थे।

उनका पूरा जोर भारत से धन बटोरने और अपने राज्य को मजबूत करने में लगा रहा किंतु जब बीसवीं सदी में भारत में स्वाधीनता संग्राम अपने चरम पर पहुंचने लगा, तब अँग्रेजों ने हिन्दुओं एवं मुसलमानों के बीच की साम्प्रदायिक समस्या को देश पर राज्य करने के मजबूत हथियार के रूप में काम में लिया जिससे यह समस्या मध्यकाल की ही तरह विकराल स्वरूप को प्राप्त हो गई।

अंग्रेजों द्वारा, साम्प्रदायिकता की समस्या को इतनी हवा दी गई कि यह समस्या हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा बन कर खड़ी हो गई। इस कारण देश की प्रजा को स्वाधीनता प्राप्त करने में अधिक पसीना बहाना पड़ा तथा स्वातंत्र्य-रथ मंद गति से आगे बढ़ा। ऐसा कई बार हुआ जब निकट आती हुई स्वतंत्रता, साम्प्रदायिकता की समस्या के कारण दूर खिसक गई।

इस समस्या के कारण देश का विभाजन हुआ और देश के तीन टुकड़े हुए। करोड़ों लोगों को अपने घर छोड़ने पड़े। लाखों स्त्रियों के साथ बलात्कार हुए तथा लाखों स्त्री-पुरुष एवं बच्चे मौत के घाट उतार दिए गए, तब कहीं जाकर भारत को आजादी मिली किंतु साम्प्रदायिकता की समस्या का अंत देश की आजादी के बाद भी नहीं हो सका।

आज भी देश की निरीह जनता साम्प्रदायिक हिंसक घटनाओं में बेरहमी से मारी जाती है। यह मानव मात्र की मानसिक समस्या है जो सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त है। जब तक साम्प्रदायिकता की समस्या के मूल कारणों को पहचानकर उनका वास्तविक समाधान नहीं ढूंढा जाएगा, तब तक न तो इस समस्या का उन्मूलन हो सकेगा और न मानव सुखी हो सकेगा।

आशा है इस पुस्तक को लिखने में लगा मेरा श्रम विद्यार्थियों, शोधार्थियों एवं रुचिवान पाठकों के लिए उपयोगी सिद्ध होगा।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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