जब मानसिंह की सेना बनास नदी के तट पर स्थित खमनौर गांव के निकट आकर ठहर गई तब महाराणा प्रताप की सेना ने भी खमनौर से लगभग 10 किलोमीटर दूर आकर अपने खेमे गाढ़ लिए। अब युद्ध अत्यंत निकट दिखाई देने लगा।
कविराज श्यामलदास ने अपने ग्रंथ वीर विनोद में लिखा है कि जब कुंअर मानसिंह को ज्ञात हुआ कि महाराणा प्रताप, कुम्भलगढ़ से निकलकर गोगूंदा आ गया है तो मानसिंह, माण्डलगढ़ से चलकर मोही गांव होते हुए खमनौर के समीप आ गया और उसने हल्दीघाटी से कुछ दूर बनास नदी के किनारे डेरा डाला।
इधर महाराणा भी अपनी सेना तैयार करके गोगूंदा से चला और मानसिंह से तीन कोस अर्थात् लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर आ ठहरा। इस प्रकार हल्दीघाटी के दोनों ओर सेनाएं सजकर बैठ गईं।
गोगूंदा और हल्दीघाटी के बीच स्थित भूताला गांव से लगभग तीन किलोमीटर दूर ‘पोलामगरा’ नामक पहाड़ में बनी गुफा में महाराणा ने अपना राजकोष एवं शस्त्रागार स्थापित किया ताकि संकट काल में, मेवाड़ का कोष एवं आपातकालीन शस्त्रागार, शत्रु की दृष्टि से छिपा हुआ रह सके।
महाराणा नहीं चाहता था कि ये दोनों चीजें किसी भी हालत में शत्रु के हाथों में जाएं। इसलिए इस गुफा की रक्षा का भार महाराणा प्रताप के कुंवर अमरसिंह को दिया गया। अमरसिंह की सहायता के लिये सहसमल एवं कल्याणसिंह को नियुक्त किया गया। भामाशाह का पुत्र जीवाशाह तथा झाला मान का पुत्र शत्रुशाल भी अमरसिंह की सेवा में नियत किये गये।
यद्यपि आम्बेर के कच्छवाहे और बीकानेर के राठौड़, गुहिलों से दोस्ती तोड़ चुके थे तथापि महाराणा के शेष बचे मित्र, महाराणा के लिये मरने-मारने को तैयार थे। ग्वालियर के स्वर्गीय राजा विक्रमादित्य का पुत्र राजा रामशाह तंवर, अपने पुत्रों शालिवाहन, भवानीसिंह तथा प्रतापसिंह को साथ लेकर महाराणा की ओर से लड़ने के लिये आया।
भामाशाह और उसका भाई ताराचंद ओसवाल भी अपनी सेनाएं लेकर आ गये। झाला मानसिंह सज्जावत, झाला बीदा (सुलतानोत), सोनगरा मानसिंह अखैराजोत, डोडिया भीमसिंह, रावत कृष्णदास चूण्डावत, रावत नेतसिंह सारंगदेवोत, रावत सांगा, राठौड़ रामदास, मेरपुर का राणा पुंजा, पुरोहित गोपीनाथ, पुरोहित जगन्नाथ, पडिहार कल्याण, बच्छावत महता जयमल, महता रत्नचंद खेतावत, महासानी जगन्नाथ, राठौड़ शंकरदास, सौदा बारहठ के वंशज चारण जैसा और केशव आदि भी आ गये।
इनमें से बहुत से वीरों के पूर्वज महाराणा सांगा के साथ खानवा के मैदान में लड़ते हुए काम आए थे। बहुतों के बाप-दादे कुछ वर्ष पहले ही चित्तौड़ के साके में वीरगति को प्राप्त हुए थे। हकीम खाँ सूरी भी मुगलों की सेना से लड़ने के लिये राणा की सेना में सम्मिलित हुआ क्योंकि अकबर के पूर्वजों ने भारत से अफगानों की राज्यशक्ति समाप्त की थी।
मेवाड़ की ख्यातों में मानसिंह के साथ 80,000 और महाराणा के साथ 20,000 सवार होना लिखा है। मुहणोत नैणसी ने अपनी ख्यात में कुंवर मानसिंह के साथ 40,000 और महाराणा प्रतापसिंह के साथ 9-10 हजार सवार होना बताया है।
अल्बदायूंनी (मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी) ने जो कि इस लड़ाई में मानसिंह के साथ था, मानसिंह के पास 5,000 और महाराणा के पास 3,000 सवार होना लिखा है।
आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव के अनुसार मेवाड़ी सेना में 3,000 से अधिक घुड़सवार और कई सौ भील प्यादों से अधिक नहीं थे। मेवाड़ की छोटी सी सेना के अगले दस्ते में लगभग 800 घुड़सवार थे और यह दस्ता हकीम खाँ सूर, भीमसिंह डोडिया, जयमल के पुत्र रामदास राठौड़ तथा कुछ अन्य वीरों की देख-रेख में रखा गया था।
उसके दायें अंग में 500 घुड़सवार थे और ये ग्वालियर के रामशाह तंवर एवं भामाशाह की अधीनता में थे। इस सेना का बायां अंग झाला ‘माना’ की अधीनता में था और बीच के भाग की अध्यक्षता स्वयं महाराणा के हाथ में थी। पुंजा के भील तथा कुछ सैनिक इस सेना के पिछले भाग में नियुक्त किये गये थे। महामहोपाध्याय गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अपनी पुस्तक उदयपुर राज्य का इतिहास में लिखा है कि युद्ध छिड़ने से कुछ दिन पहले कुंवर मानसिंह अपने कुछ साथियों के साथ निकटवर्ती जंगल में शिकार खेलने गया। महाराणा प्रताप के गुप्तचरों ने उसे देख लिया तथा उन्होंने यह सूचना महाराणा को दी। इस पर मेवाड़ के कुछ सामंतों ने महाराणा प्रताप को सलाह दी कि इस अच्छे अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहिये और शत्रु को मार देना चाहिये परन्तु महाराणा ने, उत्तर दिया कि इस तरह छल और धोखे से शत्रु को मारना क्षत्रियों का काम नहीं है। राजेन्द्रशंकर भट्ट ने अपनी पुस्तक ‘उदयसिंह, प्रतापसिंह, अमरसिंह, मेवाड़ के महाराणा और शांहशाह अकबर’ में लिखा है कि वि.सं.1633 ज्येष्ठ सुदि द्वितीया अर्थात् 18 जून 1576 को हल्दीघाटी और खमनौर के बीच, दोनों सेनाओं का भीषण युद्ध आरम्भ हुआ। कुंअर मानसिंह मोलेला में ठहरा हुआ था।
लड़ाई के दिन बहुत सवेरे वह अपने 6000 जवानों के साथ आगे आया और युद्ध के लिये पंक्तियां संगठित कीं। सैयद हाशिम बारहा के नेतृत्व में 80 नामी युवा सैनिक सबसे आगे खड़े किये गये।
उसके बाद सेना की मुख्य अग्रिम पंक्ति थी जिसका संचालन आसफ खाँ और राजा जगन्नाथ कर रहे थे। दक्षिण पार्श्व की सेना, सैयद अहमद खाँ के अधीन खड़ी की गई। बारहा के सैयद, युद्ध कौशल और साहस के लिये प्रसिद्ध थे इसलिये इन्हें सेनापति के दाहिनी ओर खड़ा किया जाता था।
बाएं पार्श्व की सेना गाजी खाँ बदख्शी तथा लूणकरण कच्छवाहा की देख-रेख में खड़ी की गई। मानसिंह स्वयं इनके बीच में, समस्त सेना के मध्य में रहा। मानसिंह के पीछे मिहतर खाँ के नेतृत्व में सेना का पिछला भाग था। इसके पीछे एक सैनिक दल माधोसिंह के नेतृत्व में आपात स्थिति के लिये सुरक्षित रखा गया। हाथी अगल-बगल किंतु पीछे की ओर खड़े किये गये थे।
दूसरी ओर महाराणा प्रताप की सेना के हरावल का नेतृत्व हकीम खाँ सूर के हाथ में था। उसकी सहायता के लिये सलूम्बर का चूण्डावत किशनदास, सरदारगढ़ का डोडिया भीमसिंह, देवगढ़ का रावत सांगा तथा बदनोर का रामदास नियुक्त किये गये।
दक्षिण पार्श्व में राजा रामशाह तोमर, उसके तीन पुत्र एवं अन्य चुने हुए वीर रखे गये। भामाशाह तथा ताराचंद, दोनों भाई भी यहीं नियुक्त किये गये। वाम पार्श्व झाला मानसिंह के अधीन था। उसकी सहायता के लिये सादड़ी का झाला बीदा तथा सोनगरा मानसिंह नियुक्त किये गये।
महाराणा प्रताप अपनी सेना के ठीक बीच में था। सबसे पीछे पानरवा का राणा पूंजा, पुरोहित गोपीनाथ, जगन्नाथ, महता रत्नचंद, महसानी जगन्नाथ, केशव तथा जैसा चारण नियुक्त किये गये। ज्ञातव्य है कि महता, पुरोहित एवं चारण विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये सेना के साथ रहते थे किंतु समय आने पर तलवार उठाने में भी पीछे नहीं रहते थे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!