अकबर किसी भी कीमत पर महाराणा प्रताप की हत्या करना चाहता था किंतु उसके सेनापति इस कार्य में सफल नहीं हो पा रहे थे। इस कारण अकबर अत्यंत निराश रहा करता था। अकबर ने सेनापतियों से कहा महाराणा को मारे बिना आओगे तो तुम्हारा सिर कलम होगा!
अकबर के सेनापति शाहबाज खाँ ने महाराणा प्रताप को कुंभलगढ़ के दुर्ग में घेर लिया किंतु महाराणा प्रताप ने अखैराज सोनगरा के पुत्र भाण सोनगरा को कुंभलगढ़ का दुर्गपति बनाकर दुर्ग उसे सौंप दिया तथा स्वयं राण चला गया। अबुल फजल ने लिखा है कि महाराणा प्रताप के दुर्ग से चले जाने के बाद कुंभलगढ़ के दुर्ग में अकस्मात ही एक बड़ी तोप फट गई जिससे दुर्ग में रखा हुआ लड़ाई का सामान जल गया।
इस पर भाण सोनगरा ने दुर्ग के द्वार खोल दिये। कविराज श्यामलदास ने लिखा है कि भाण सोनगरा मुगलों पर काल बनकर टूट पड़ा। इस युद्ध में भाण सोनगरा एवं बहुत से नामी राजपूत, दुर्ग के द्वार एवं मंदिरों पर लड़ते हुए काम आये। कुंभलगढ़ दुर्ग पर शाहबाज खाँ का अधिकार हो गया।
डॉ. गिरीशनाथ माथुर ने अपने शोधपत्र ‘महाराणा प्रतापकालीन दीवेर युद्ध’ में लिखा है कि महाराणा को कुंभलगढ़ दुर्ग में न पाकर शाहबाज खाँ ने अगले दिन दोपहर में गोगूंदा पर आक्रमण किया। महाराणा को वहाँ भी न पाकर शाहबाज खाँ आधी रात को उदयपुर में घुस गया और वहाँ भारी लूटपाट मचाई किंतु महाराणा वहाँ भी नहीं था। महाराणा इस दौरान गोड़वाड़ क्षेत्र में स्थित सूंधा के पहाड़ों में चला गया।
इधर शाहबाज खाँ की हताशा बढ़ती जा रही थी और उधर अकबर की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। वह जल्द से जल्द महाराणा प्रताप की हत्या का समाचार सुनना चाहता था। गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने लिखा है कि शाहबाज खाँ महाराणा प्रताप को ढूंढने बांसवाड़ा की तरफ चला गया। वह दिन और रात बांसवाड़ा की तरफ के पहाड़ों में महाराणा को ढूंढता रहा किंतु महाराणा की छाया को भी नहीं छू सका और थक-हार कर पंजाब की तरफ चला गया जहाँ उन दिनों बादशाह का डेरा था।
शाहबाज खाँ के जाते ही महाराणा प्रताप फिर से पहाड़ों से निकल आया। कविराज श्यामलदास ने लिखा है कि जब छप्पन की तरफ स्थित चावण्ड के राठौड़ उत्पात करने लगे तो महाराणा ने राठौड़ों के स्वामी लूणा को चावण्ड से निकाल दिया तथा स्वयं अपना निवास नियत करके, चावण्ड में रहने लगा। महाराणा प्रताप ने चावण्ड में अपने महल तथा चामुण्डा माता का मंदिर बनवाया जो आज भी विद्यमान हैं।
गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने लिखा है कि इन्हीं दिनों भामाशाह ने अकबर के अधिकार वाले मालवा प्रांत पर आक्रमण करके मुगलों से 25 लाख रुपये तथा 20 हजार अशर्फियां वसूल कीं। भामाशाह ने वे अशर्फियां चूलियां ग्राम में महाराणा को भेंट की।
इस धन से 25 हजार सैनिक 12 वर्ष तक जीवन निर्वाह कर सकते थे। भामाशाह द्वारा दी गई इस धनराशि के कारण भामाशाह मेवाड़ के इतिहास में अमर हो गया। उसे अद्भुत दानवीर के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त हो गई।
अकबर इन दिनों पंजाब में था। जब उसने महाराणा प्रताप की इन कार्यवाहियों के बारे में सुना तो वह क्रोध से तिलमिला गया। अबुल फजल ने लिखा है कि अकबर ने शाहबाज खाँ को बुलाकर कहा कि तुम अभी मेवाड़ जाओ। महाराणा प्रताप की हत्या अब अकबर की एकमात्र इच्छा बन गया था।
उसके साथ मुहम्मद हुसैन, शेख तीमूर बदख्शी और मीरजादा अली खाँ को भी भेजा गया। इन सेनापतियों से कहा गया कि यदि तुम प्रताप का दमन किये बिना वापस आओगे तो तुम्हारा सिर कलम कर दिया जायेगा। शाहबाज खाँ को, नई सेनाओं की भर्ती के लिये बहुत बड़ा खजाना भी दिया गया।
दिसम्बर 1578 में शाहबाज खाँ पुनः मेवाड़ के लिये रवाना हुआ। उसके आते ही प्रताप फिर से पहाड़ों में चला गया। मुगल सेनाएं तीन महीने तक पहाड़ों में भटकती रहीं और महाराणा प्रताप को ढूंढती रहीं किंतु महाराणा प्रताप मुगल सेना के हाथ नहीं लगा। इस पर ई.1580 के आरम्भ में शाहबाज खाँ मैदानी क्षेत्र के थानों पर मुगल अधिकारी नियुक्त करके मेवाड़ से चला गया।
शाहबाज खाँ, प्रताप को मारे या पकड़े बिना ही फिर से अकबर के दरबार में लौटा था। इस कारण अकबर शाहबाज खाँ से बहुत नाराज हुआ। अकबर ने शाहबाज खाँ का सिर तो कलम नहीं किया किंतु उससे अजमेर की सूबेदारी छीन ली तथा मिर्जा खाँ अर्थात् अब्दुर्रहीम खानखाना को अजमेर का सूबेदार बना दिया।
अकबर के इस कदम से शाहबाज खाँ असंतुष्ट हो गया। मुंशी देवी प्रसाद ने लिखा है कि एक दिन शाहबाज खाँ ने बादशाह के दरबार में अवज्ञा की तो अकबर ने उसे रायसल दरबारी के पहरे में रखवा दिया।
डॉ. गिरीशनाथ माथुर ने लिखा है कि शाहबाज खाँ के चले जाने पर महाराणा ई.1580 में पुनः मेवाड़ आया तथा एक वर्ष तक गोगूंदा से 16 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में स्थित ढोल गांव में रहा।
तत्पश्चात् महाराणा, तीन वर्ष तक गोगूंदा से पांच किलोमीटर दूर बांसड़ा गांव में रहा। इस बीच प्रताप ने पूरे मेवाड़ में राजाज्ञा प्रचारित करवाई कि मेवाड़ी प्रजा मैदानी भाग में खेती न करे। यदि किसी ने एक बिस्वा भूमि पर भी खेती करके मुसलमानों को हासिल दिया तो उसका सिर तलवार से उड़ा दिया जायेगा। इस आज्ञा के बाद मेवाड़ के किसान मैदानी क्षेत्रों को खाली करके पहाड़ों पर चले गये और वहाँ किसी तरह अपना पेट पालने लगे।
कविराज श्यामलदास ने लिखा है कि जब मेवाड़ से अनाज का एक दाना भी नहीं मिला तो मुगल सेनाएं देश के दूसरे हिस्सों से अनाज मंगवाने लगीं। इस अनाज को प्रताप के सैनिक लूट लिया करते थे। एक बार प्रताप को सूचना मिली कि ऊँटाले के एक किसान ने शाही थानेदार की आज्ञा से अपने खेत में सब्जी बोई है।
उस किसान को रात के समय मुगल सेना के शिविर में रखा जाता था ताकि महाराणा उसका सिर न काट सके। महाराणा प्रताप ने एक रात शाही फौज में घुसकर किसान का सिर काट डाला और लड़ता-भिड़ता फिर से पहाड़ों में चला गया। प्रताप की इस कार्यवाही के बाद उस सम्पूर्ण प्रदेश में खेती पूरी तरह बंद हो गई जिसमें मुगल सेना का शिविर लगा हुआ था।
कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा है कि उन दिनों आगरा से यूरोप के बीच का व्यापार सूरत बंदरगाह के माध्यम से होता था। प्रताप के भय से यह समस्त व्यापार बंद हो गया क्योंकि आगरा से सूरत तक जाने के लिये मेवाड़ से होकर जाना पड़ता था और प्रताप के सिपाही इस माल को लूट लेते थे।
इस बीच हल्दीघाटी के युद्ध को हुए सात साल बीत गए। चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़, गोगूंदा और उदयपुर पर अब भी मुगलों का अधिकार था और महाराणा प्रताप पहाड़ी गांवों में रह रहा था। अकबर अपनी सारी शक्ति मेवाड़ के विरुद्ध झौंककर पूरी तरह निराश हो गया था। अक्टूबर 1583 में महाराणा ने कुंभलगढ़ पर फिर से अधिकार करने की योजना बनाई। सबसे पहले उसने दिवेर थाने पर आक्रमण किया जहाँ अकबर की ओर से सुल्तान खाँ नामक थानेदार नियुक्त था।
प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान उदयपुर में उपलब्ध ‘सूर्यवंश’ नामक ग्रंथ में लिखा है कि जब प्रताप की सेना ने दिवेर पर आक्रमण किया तो आसपास के पांच और मुगल थानेदार अपनी-अपनी सेनाएं लेकर दिवेर पहुँच गये। महाराणा प्रताप की हत्या अब तक नहीं हो पाई थी।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!