अकबर ने मानसिंह को महाराणा प्रताप पर आक्रमण करने भेज तो दिया था किंतु मानसिंह की दुविधा ने मानसिंह को महाराणा पर आक्रमण करने से रोक दिया। महाराणा ने मानसिंह की दुविधा को समझ कर पहला आक्रमण अपनी ओर से करने का निश्चय किया।
जून 1576 में मुगल बादशाह अकबर का सेनापति कुंअर मानसिंह तथा मेवाड़ का महाराणा प्रतापसिंह हल्दीघाटी के दोनों ओर अपनी-अपनी सेनाओं के साथ पहुंच गए ताकि दोनों पक्षों में सन्मुख युद्ध के पश्चात् जीत-हार का निर्णय हो सके।
18 जून 1576 को सेनाएं सजा लेने के बाद दोनों पक्ष एक दूसरे की सेनाओं द्वारा पहल किए जाने की प्रतीक्षा करने लगे। कुंअर मानसिंह निश्चय ही वीर योद्धा था और वह अकबर की सेनाओं के साथ हल्दीघाटी में मरने-मारने के लिए आया था। उसने इस युद्ध से पहले भी बड़े-बड़े सूरमाओं को परास्त किया था, फिर भी महाराणाओं के इतिहास में कुछ ऐसा जादू था कि मानसिंह की हिम्मत आगे बढ़कर आक्रमण करने की नहीं हुई। मानसिंह की दुविधा के कई कारण थे। मानसिंह जानता था कि प्रताप के भील सैनिक हर पहाड़ी पर तीर-कमान लिये बैठे हैं, यदि मानसिंह अपने स्थान से हिला तो उसके सैनिक बात की बात में मार दिये जायेंगे। इसलिये वह चाहता था कि महाराणा प्रताप, मानसिंह पर आक्रमण करने की पहल करे और मानसिंह के घुड़सवारों तथा हाथियों की सेना के जाल में फंस जाये। यह पहाड़ी क्षेत्र था जिसमें अकबर की तोपें अधिक कारगर सिद्ध नहीं हो सकती थीं। इसीलिये भालों से लड़ने वाले गुहिलों और भीलों के विरुद्ध तलवारों से लड़ने वाले कच्छवाहों को भेजा गया था। मानसिंह की दुविधा का एक कारण यह भी था कि वह अपने पुराने स्वामियों के बल को भूला नहीं था, इसलिये आगे बढ़कर आक्रमण करने की भूल कदापि नहीं कर सकता था।
मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी ने अपनी पुस्तक मुंतखब उत् तवारीख में लिखा है कि युद्ध आरम्भ होने से पहले मैंने खुदा से प्रार्थना की-
‘ए खुदा, जो आप में यकीन करने करते हैं
आप उन नर-नारियों को क्षमा करें।
जो मुहम्मद के दीन की रक्षा करता है, उसकी आप रक्षा करें।
जो मुहम्मद के मजहब की रक्षा नहीं करता,
उसकी आप रक्षा मत करें।
मुहम्मद आपको शांति प्राप्त हो!’
उधर मानसिंह की दुविधा बढ़ती जा रही थी और इधर महाराणा प्रताप अपनी भूमि पर शत्रु की सेना को पंक्तिबद्ध हुआ देखकर क्रोध से उबल रहा था। वह शत्रु के विरुद्ध तत्काल कार्यवाही करने को उत्सुक था। जब मानसिंह अपने स्थान से नहीं हिला तो प्रतापसिंह ने आगे बढ़कर धावा बोलने का निर्णय लिया।
सूर्यदेव, आकाश की मुंडेर पर चढ़कर हल्दीघाटी में हो रही हलचल को देखने का प्रयास कर ही रहे थे कि अचानक हल्दीघाटी में ‘हर-हर महादेव’ का घोष हुआ और प्रताप की सेना, मानसिंह की सेना की तरफ दौड़ पड़ी।
भाले चमक उठे और बख्तरबंदों की जंजीरें खनखना उठीं। रणभेरी बजने लगी और घोड़ों ने जोर से हिनहिनाना आरम्भ कर दिया। हाथी भी अपनी विकराल सूण्डें उठाकर चिंघाड़ उठे।
महाराणा अपनी मातृभूमि को शत्रुओं से रहित करने के लिये अपना भाला उठाये, म्लेच्छ सेना का काल बनकर दौड़ पड़ा था। आकाश में मण्डराती चीलों, अरावली की टेकरियों पर डेरा जमाये बैठे गिद्धों तथा पेड़ों के झुरमुट में छिपे सियारों, जंगली कुत्तों तथा भेड़ियों में भी उत्साह का संचरण हो गया।
अभी मानसिंह के सिपाही भौंचक्के होकर स्थिति को समझने का प्रयास कर ही रहे थे कि राणा के योद्धा एकाएक मानसिंह की सेना पर आक्रमण करने लगे। जिस प्रकार मेघ समूह जल की वर्षा करते हैं, उसी प्रकार उन योद्धाओं ने शत्रुदल पर तीरों, तलवारों, भालों एवं परशुओं की वर्षा कर दी।
जिस प्रकार सिंह महान हाथी को मारने की इच्छा रखता है, उसी प्रकार प्रताप पक्ष के योद्धाओं के प्रताप को देखकर राजा मान ने अपनी सेना को, युद्ध के लिये ललकारा। दिन निकलने के कोई तीन घण्टे बाद, प्रताप की सेना का हाथी मेवाड़ का केसरिया झण्डा फहराता हुआ घाटी के मुहाने में से निकला।
उसके पीछे सेना की अग्रिम पंक्ति थी जिसका नेतृत्व हकीम खाँ सूरी कर रहा था। रणवाद्य अर्थात् रणभूमि में बजने वाले बाजे तथा चारण गायक मिलकर वातावरण को बड़ा उत्तेजक बनाये हुए थे।
महाराणा की सेना का आक्रमण आरम्भ हुआ जानकर मानसिंह की दुविधा खत्म हो गई। अब तलवार चलाने का समय आ गया था। राणा ने मुगल सेना पर सीधा आक्रमण किया। उस समय मुगलों की सेना, हल्दीघाटी के प्रवेश स्थान की पगडण्डी के उत्तर-पश्चिम के मैदान में लड़ने के लिये खड़ी थी जो अब बादशाह का बाग कहलाता है।
राणा का आक्रमण इतना जबर्दस्त था कि मुगलों के आगे की सेना का अगला और बायें अंग का दस्ता दोनों के दोनों तितर-बितर हो गये और उनका दाहिना एवं बीच का दस्ता संकट में पड़ गये।
राणा की सेना बहुत छोटी थी। उसके पास न तो कोतल सेना थी और न अल्तमश (मध्यसेना का अग्रिम भाग) था जो उसकी आरम्भिक सफलता का लाभ उठाता। अतः राणा ने शत्रु के मध्य की सेना तथा बायें अंग की सेना को हराने के लिये हाथियों से प्रहार किया क्योंकि दूसरी ओर से आते हुए तीर और गोलियों ने सिसोदियों को बहुत क्षति पहुँचाई थी।
देवीलाल पालीवाल द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘हल्दीघाटी युद्ध’ में जदुनाथ सरकार के आलेख ‘हल्दीघाटी की लड़ाई’ में लिखा है कि इस प्रकार पहली मुठभेड़ में महाराणा प्रताप ने मुगल सेना पर अपनी धाक बना ली। मुगल सैनिक, बादशाही बाग के उत्तर-पूर्व में हल्दीघाटी के बाहरी सिरे पर जमा हो गये।
जदुनाथ सरकार ने लिखा है कि महाराणा ने आनन-फानन में मुगलों पर दूसरे आक्रमण की योजना बनाई और अपने हाथी लोना को आगे का रास्ता साफ करने के लिये भेजा। लोना को देखकर मुगलों की सेना में दहशत फैल गई तथा मुगल सैनिक उसके लिए रास्ता छोड़कर भागने लगे।
लोना का आक्रमण रोकने के लिये मुगलों ने गजमुक्ता नामक विकराल हाथी को आगे बढ़ाया। पहाड़ की आकृति वाले इन दो हाथियों के प्रहार से सैनिकों में आतंक छा गया। मुगलों का हाथी घायल होकर गिरने ही वाला था कि इसी समय राणा के हाथी के महाबत को मुगल सैनिकों ने गोली मार दी।
इस पर राणा का हाथी लौट गया तथा ग्वालियर नरेश रामशाह तंवर के पुत्र प्रतापशाह तंवर ने रामप्रसाद नामक हाथी आगे बढ़ाया। इस हाथी का मुकाबला करने के लिये मुगलों ने गजराज तथा रणमदार नामक दो हाथी आगे बढ़ाये।
मुगलों द्वारा रामप्रसाद के महाबत को भी मार डाला गया। जैसे ही महाबत धरती पर गिरा, मुगल सेना के हाथियों का फौजदार हुसैन खाँ अपने हाथी से रामप्रसाद पर कूद गया।
यह राणा की सेना का प्रसिद्ध हाथी था। उसे मुगलों ने बंदी बना लिया। उसके बंदी होते ही हाथियों की लड़ाई समाप्त हो गई तथा मुगल सेना एवं मेवाड़ी सेना के योद्धाओं ने आगे बढ़कर निकट युद्ध आरम्भ किया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!