मानसिंह की मेवाड़ यात्रा मध्यकालीन भारतीय राजनीति की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण थी। इस यात्रा में मानसिंह ने महाराणा प्रताप को समझाने का प्रयास किया कि महाराणा प्रताप अकबर की अधीनता स्वीकार कर लें किंतु महाराणा प्रताप ने गरज कर कहा अपने फूफा को ले आना, हम सत्कार करेंगे!
आठवीं शताब्दी ईस्वी में भारत में यह परम्परा आरम्भ हुई थी कि जब भी कोई मुस्लिम आक्रांता चित्तौड़ पर आक्रमण करता था, तब बहुत से हिन्दू नरेश चित्तौड़ नरेश के आह्वान पर चित्तौड़ की सहायता के लिए आते थे।
मेवाड़ के गुहिलों के झण्डे के नीचे रहकर विदेशी आक्रांताओं से मोर्चा लेने की हिन्दू राजाओं की यह परम्परा ई.1527 में खानवा के युद्ध तक स्थापित रही जिसमें महाराणा सांगा के झण्डे के तले अनेक राजा लड़ने के लिए आए थे।
बाबर ने अपनी आत्मकथा ‘बाबरनामा’ में राणा सांगा की सेना का विवरण देते हुए लिखा है कि सांगा के पास कम से कम 2 लाख 22 हजार सैनिक थे जिनमें 1 लाख सैनिक राणा तथा उसके अधीन-सामंतों के थे और 1 लाख 22 हजार सैनिक मित्र-राजाओं के थे।
इनमें वागड़ अर्थात् डूंगरपुर के रावल उदयसिंह के पास 12 हजार, चंदेरी के शासक मेदिनीराय के पास 12 हजार, सलहदी के पास 30 हजार, हसन खाँ मेवाती के पास 12 हजार, ईडर के राजा वारमल के पास 4 हजार, नरपत हाड़ा के पास 7 हजार, कच्छ के राजा सत्रवी के पास 6 हजार, धर्मदेव के पास 4 हजार, वीरसिंह देव के पास 4 हजार और सिकंदर लोदी के पुत्र महमूद खाँ के पास 10 हजार घुड़सवार सैनिक थे।
बाबर ने सांगा की सेनाओं में मारवाड़ के राव गांगा राठौड़ की सेना, आम्बेर के राव पृथ्वीराज कच्छवाहा की सेना, बीकानेर के कुंवर कल्याणमल राठौड़ की सेना, अन्तरवेद के राजा चंद्रभाण चौहान और माणिकचंद चौहान आदि बड़े राजाओं की सेनाओं का उल्लेख ही नहीं किया है।
यदि सांगा की तरफ से लड़ने वाले इन राजाओं की सूची पर विचार किया जाए तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंच जाएंगे कि ई.1527 तक मेवाड़ के महाराणा भारत के हिन्दू राजाओं के सिरमौर बने हुए थे किंतु ई.1576 के आते-आते भारत भूमि के दुर्भाग्य से इनमें से अधिकांश राज्यों ने अकबर की चाकरी स्वीकार कर ली थी और मेवाड़ के महाराणा से सम्बन्ध तोड़ लिए थे।
श्रीराम शर्मा ने लिखा है कि अकबर के आदेश से कच्छवाहा राजकुमार मानसिंह, मेवाड़ आया ताकि महाराणा प्रताप को समझाकर बादशाही सेवा स्वीकार कराई जा सके। महाराणा प्रताप ने कुंवर मानसिंह के साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार किया किंतु दोनों राजाओं में विषमता का अंत नहीं था।
भड़कीली शाही पोशाक में मानसिंह और बिल्कुल मामूली कपड़े पहने प्रताप! बेहद रूखी-सूखी स्वाधीनता के मुकाबले विलासिता का वह चरम प्रदर्शन! एक ओर वह चिकना-चुपड़ा मुगल-दरबारी जिसे बारीकी से खराद कर तैयार किया गया था, और इधर ठोस राजपूती पत्थर का बिना घिसा या छिला एक खुरदुरा टुकड़ा। कछवाहा के विरुद्ध सिसोदिया।
कुंअर मानसिंह ने महाराणा प्रताप से बादशाही सेवा स्वीकार करवाने का बहुत उद्योग किया जो सब प्रकार से निष्फल सिद्ध हुआ। कुंअर मानसिंह की विदाई के समय महाराणा प्रताप ने उदयसागर की पाल पर दावत का प्रबंध किया। भोजन के समय महाराणा स्वयं उपस्थित न हुआ और कुंवर अमरसिंह को आज्ञा दी कि तुम मानसिंह को भोजन करा देना।
जब कुंअर मानसिंह ने महाराणा को भी भोजन में सम्मिलित होने का आग्रह किया तो कुंअर अमरसिंह ने उत्तर दिया- ‘महाराणा के पेट में कुछ दर्द है, इसलिये वे उपस्थित न हो सकेंगे, आप भोजन कीजिये।’
इस पर मानसिंह ने जोश में आकर कहा- ‘इस पेट के दर्द की दवा मैं खूब जानता हूँ, अब तक तो हमने आपकी भलाई चाही, परन्तु आगे के लिये सावधान रहना।’
राजपूताना रियासतों के विश्वसनीय इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अपनी पुस्तक उदयपुर राज्य का इतिहास में लिखा है-
‘इस बात को सुनकर कुलाभिमानी महाराणा ने मानसिंह से कहलवाया कि जो आप अपने सैन्य सहित आवेंगे तो मालपुरा में हम आपका स्वागत करेंगे और यदि अपने फूफा अकबर के बल पर आवेंगे तो जहाँ मौका मिलेगा, वहीं आपका सत्कार करेंगे।
यह सुनते ही मानसिंह अप्रसन्न होकर वहाँ से चला गया। इस प्रकार दोनों के बीच वैमनस्य उत्पन्न हो गया। महाराणा ने मानसिंह को यवन सम्पर्क से दूषित समझकर भोजन तालाब में फिंकवा दिया और वहाँ की जमीन खुदवाकर उस पर गंगाजल छिड़कवा दिया।’
जयपुर के राजकवि राम ने जयसिंह चरित्र में लिखा है-
‘मानसिंह ने भोजन के समय कहा कि जब आप भोजन नहीं करते तो हम क्यों करें? राणा ने कहलवाया कि कुंवर आप भोजन कर लीजिये, अभी मुझे कुछ गिरानी है, पीछे से मैं भोजन कर लूंगा।
कुंवर ने कहा कि मैं आपकी इस गिरानी का चूर्ण दे दूंगा। फिर कुंवर कांसे (थाल) को हटाकर अपने साथियों सहित उठ खड़ा हुआ और रूमाल से हाथ पोंछकर उसने कहा कि चुल्लू तो फिर आने पर करूंगा।’
महाराणा प्रताप द्वारा इस प्रकार का रुख अपनाने से मानसिंह की मेवाड़ यात्रा भारत के इतिहास का वैसा ही गौरवगयी पन्ना बन गई जिस प्रकार आगे चलकर छत्रपति शिवाजी की आगरा यात्रा भारतीय इतिहास का सबसे चमकता हुआ पन्ना बनी थी।
मानसिंह की मेवाड़ यात्रा के सम्बन्ध में जहांगीर के समकालीन लेखक मौतमिद खाँ ने इकबालनामा ए जहांगीरी में लिखा है-
‘कुंवर मानसिंह जो इसी मुगल दरबार का तैयार किया हुआ खास बहादुर आदमी है और जो फर्जन्द अर्थात् बेटा के खिताब से सम्मानित हो चुका है, अजमेर से कई मुसलमान और हिन्दू सरदारों के साथ राणा को पराजित करने के लिये भेजा गया।
इसको भेजने में बादशाह का अभिप्राय यह था कि वह राणा की ही जाति का है और मानसिंह के बाप-दादे अकबर के अधीन होने से पहले राणा के अधीन और खिराजगुजार रहे हैं, इसको भेजने से सम्भव है कि राणा इसे अपने सामने तुच्छ और अपना अधीनस्थ समझकर लज्जा और अपनी प्रतिष्ठा के ख्याल से लड़ाई में सामने आ जाये और युद्ध में मारा जाए
……… कुंअर मानसिंह शाही फौज के साथ मांडलगढ़ पहुंचा और वहाँ सेना की तैयारी के लिये कुछ दिन ठहरा। राणा ने अपने गर्व के कारण उसे अपने अधीनस्थ जमींदार समझकर उसको उपेक्षा की दृष्टि से देखा और यह सोचा कि माण्डलगढ़ पहुँचकर ही लड़ें।’
मौतमिद खाँ के उपर्युक्त कथन में काफी अंश में सच्चाई दिखाई देती है क्योंकि आम्बेर के कच्छवाहे, वास्तव में मेवाड़ के गुहिलों के अधीन सामंत थे। कच्छवाहा राजा पृथ्वीराज, महाराणा सांगा की सेना में था।
भारमल का पुत्र भगवानदास भी पहले महाराणा उदयसिंह की सेवा में रहता था। बाद में जब राजा भारमल ने अकबर की अधीनता स्वीकार की तब से आम्बेर वालों ने मेवाड़ की अधीनता छोड़ दी थी।
निश्चित रूप से अकबर चाहता था कि महाराणा प्रताप से संधि न की जाये अपितु उसे सम्मुख युद्ध में मारा जाये और यह कार्य, महाराणाओं के पुराने अधीनस्थ अर्थात् कच्छवाहे अपने हाथों से करें। अकबर, अच्छी तरह समझता था कि अपने पुराने अधीनस्थ के हाथों, गुलामी का संदेश पाकर महाराणा अवश्य ही भड़क जायेगा और युद्ध करने पर उतारू हो जायेगा।
मानसिंह की मेवाड़ यात्रा के पीछे अकबर का असली उद्देश्य हिन्दु राजाओं को हिन्दू राजाओं से ही लड़वाकर मरवाना था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!