Wednesday, April 16, 2025
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मेवाड़ के महाराणा क्यों बन गए थे हिन्दू नरेशों के सिरमौर (116)

अत्यंत प्राचीन काल से ही भारत में एक से बढ़कर एक वीर राजकुल हुए जिन्होंने हिन्दू जाति को हजारों साल तक स्वतंत्र बनाए रखा तथा राजनीति एवं संस्कृति के उच्च मानदण्डों की स्थापना की। उन्हीं की परम्परा का पालन करते हुए मध्यकालीन भारत में मेवाड़ के महाराणा हिन्दुओं के सिरमौर बन गए।

ई.1576 में अकबर ने अपनी सेनाओं का मुँह मेवाड़ की ओर मोड़ दिया। इस समय तक अकबर उत्तर भारत के विशाल मैदानों पर अधिकार कर चुका था। पूर्व में समुद्र से लेकर पश्चिम में हिंदुकुश पर्वत से आगे काबुल-कांधार तक अकबर के नाम का खुतबा पढ़ा जा रहा था।

अकबर की इस विशाल सल्तनत के सम्मुख मेवाड़ रियासत बहुत ही छोटी थी। अकबर की सामरिक शक्ति के समक्ष मेवाड़ के महाराणा की सामरिक शक्ति कुछ भी नहीं थी। अकबर की सेना में जितने हाथी थे, उतने तो महाराणा की सेना में घोड़े भी नहीं थे।

मुगल सल्तनत एवं मेवाड़ राज्य के सैनिकों की संख्या की तुलना करना व्यर्थ है। यदि हल्दीघाटी के युद्ध से पहले के केवल पचास सालों को देखा जाए तो महाराणा के पूर्वज ई.1526 से लेकर ई.1576 तक मुगलों से हुए युद्धों में इतने सैनिक खो चुके थे कि अब मेवाड़ के महाराणा की छोटी सी सेना किसी भी हालत में अकबर जैसे शक्तिशाली बादशाह की विशाल सेना के सामने युद्ध करने की स्थिति में नहीं थी।

इस कारण महाराणा प्रतापसिंह के समक्ष विगत सैंकड़ों साल से चली आ रही मेवाड़ की स्वतंत्रता और अस्मिता को बचाने का प्रश्न आ खड़ा हुआ।

यह वही मेवाड़ था जिसके लिये गुहिल, विगत आठ सौ वर्षों से मरते-मारते आये थे और मेवाड़ को स्वतंत्र रखते आए थे किंतु अब समय बदल चुका था।

प्रताप के गद्दी पर बैठने से पूर्व, ई.1561 में मालवा, जौनपुर एवं चुनार, ई.1562 में आम्बेर, मेड़ता तथा नागौर, ई.1564 में गोंडवाना, ई.1568 में चित्तौड़, ई.1569 में रणथंभौर तथा कालिंजर, ई.1570 में जोधपुर तथा बीकानेर एवं ई.1571 में सिरोही आदि राज्य एवं दुर्ग अकबर के अधीन चले गये थे।

ई.1573 में गुजरात, अकबर के अधीन हो गया था। बंगाल, बिहार, उड़ीसा, कांगड़ा, काश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, सिंध और गक्खर प्रदेश अकबर के पैरों तले रौंदे जा चुके थे।

ई.1573 तक स्थिति यह हो गई थी कि मारवाड़ अर्थात् जोधपुर का राजा रावचंद्रसेन तथा मेवाड़ अर्थात् चित्तौड़ का राजा महाराणा प्रतापसिंह अपनी राजधानियों से वंचित होकर पहाड़ों एवं जंगलों में भटक रहे थे। उन्हें छोड़कर, राजपूताना के समस्त हिन्दू राजवंश, अकबर की अधीनता स्वीकार कर चुके थे।

मेवाड़ के महाराणा तथा उसके अधीन डूंगरपुर, बांसवाड़ा तथा प्रतापगढ़ राज्य अब भी अकबर के शिकंजे से मुक्त थे। ये चारों राजा उस प्रतापी गुहिल के वंशज थे जिसने गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद छठी शताब्दी ईस्वी में गुहिल राज्यवंश की स्थापना की थी।

वास्तविकता तो यह थी कि यह राजवंश सूर्य के पुत्र वैवस्वत मनु के समय से ही अस्तित्व में था किंतु गुहिल राजवंश के पूर्वज किन प्राचीन नामों से जाने जाते थे, उनकी पहचान अब नहीं की जा सकती। ये चारों गुहिल राज्य, अकबर की आँख की किरकिरी बने हुए थे।

राणा प्रताप के सिंहासनारूढ़ होते ही ई.1573 में अकबर ने तीन हिन्दू सेनापतियों कुंअर मानसिंह, राजा जगन्नाथ और राजा गोपाल तथा छः मुस्लिम अमीरों को आदेश दिया कि वे ईडर होते हुए डूंगरपुर जाएं तथा वहाँ के राजाओं को अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए समझाएं।

अकबर ने कच्छवाहा राजकुमार मानसिंह को आज्ञा दी कि जो राजा हमारी अधीनता स्वीकार करें उनका सम्मान करना और जो ऐसा न करें उन्हें दण्डित करना। शाही फौज ने सबसे पहले डूंगरपुर पर आक्रमण किया।

डूंगरपुर के रावल आसकरण ने मानसिंह से युद्ध किया किंतु अंत में अपनी राजधानी खाली करके गहन पहाड़ों में चला गया जिससे कुंवर मानसिंह रावल आसकरण का बाल भी बांका नहीं कर सका। इस प्रकार मेवाड़ के महाराणा तथा उसके अधीनस्थ डूंगरपुर, बांसवाड़ा तथा प्रतापगढ़ राज्य अब भी अकबर के लिए चुनौती बने हुए थे।

पाठक यह प्रश्न उठा सकते हैं कि जब मुगलों के समक्ष मेवाड़ के महाराणा की शक्ति कुछ भी नहीं थी तब मेवाड़ के गुहिल किसके बलबूते पर अकबर के लिए चुनौती बने हुए थे और किस शक्ति के बल पर मेवाड़ के महाराणा विगत कई शताब्दियों से राजपूताना के समस्त हिंदू राजाओं के सिरमौर बने हुए थे?

इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए हमें आठवीं शताब्दी ईस्वी में चलना होगा जब भारत पर खलीफा की सेना का प्रथम आक्रमण हुआ था। राजपूताना रियासतों का प्रामाणिक इतिहास लिखने वाले सुप्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने लिखा है कि देलवाड़ा के राजा के पास सुरक्षित एक प्राचीन इतिहास-ग्रंथ के अनुसार मेवाड़ के शासक बप्पा रावल ने इस्फहान, काश्मीर, ईराक, ईरान, तूरान, काफिरिस्तान आदि सब देशों को जीत लिया था।

यद्यपि कर्नल टॉड ने इस कथन को सत्य माना है तथापि आधुनिक काल में बहुत से इतिहासकार इस बात को सत्य नहीं मानते। फिर भी यह कहा जा सकता है कि इस कथन में न्यूनाधिक सच्चाई अवश्य है।

बप्पा रावल ने आठवीं शताब्दी ईस्वी में नए सिरे से गुहिलों के राजवंश की पुनर्स्थापना की थी, तभी से यह राजवंश खलीफा की सेनाओं से लड़ने लगा था, इस कारण गुहिल राजवंश को उत्तर भारत के हिन्दू राजाओं में श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाने लगा था।

गुहिलों तथा मुसलमानों के बीच एक बड़ी लड़ाई का उल्लेख ‘खुमांण रासो’ में मिलता है जिसके अनुसार आठवीं शताब्दी ईस्वी में खलीफा अलमामूं ने रावल खुमांण (तृतीय) के समय में चित्तौड़ पर आक्रमण किया था। तब रावल खुमांण के बुलावे पर चित्तौड़ की सहायता के लिये काश्मीर से सेतुबंध तक के अनेक हिन्दू राजा आये तथा खुमांण ने शत्रु को परास्त कर देश की रक्षा की।

कर्नल टॉड ने इतिहास की किसी प्राचीन पुस्तक के आधार पर उन राजाओं की सूची दी है जो खुमांण (तृतीय) की सहायता के लिये आये थे। इस सूचि में दक्षिण भारत के राजाओं के नाम भी मिलते हैं, यदि उन राजाओं को छोड़ दिया जाए तो भी उत्तर भारत के उन राजाओं की सूची काफी लम्बी है जो आठवीं शताब्दी ईस्वी में मेवाड़ के गुहिलों के झण्डे के नीचे रहकर, खलीफा द्वारा भेजी गई सेना से लड़े थे और विजयी रहे थे।

उस काल में खलीफा की सेनाएं पूरे संसार को रौंद रही थीं तथा पूरी दुनिया में इस्लाम के प्रसार का कार्य बड़ी तेजी से चल रहा था किंतु भारत में गुहिल, प्रतिहार तथा चौहान राजवंशों ने कई शताब्दियों तक अरब एवं सिंध से आने वाली मुस्लिम सेनाओं को भारत में पांव नहीं पसारने दिए थे।

 जब खुंमाण ने खलीफा की सेना को नष्ट कर दिया, तब से ही चित्तौड़ के गुहिल भारत के समस्त हिन्दू राजाओं के सिरमौर हो गए थे। जब भी मेवाड़ का कोई राजा किसी विदेशी आक्रांता से युद्ध करने के लिए हिन्दू राजाओं का आह्वान करता तो अनेक हिन्दू राजा मेवाड़ के झण्डे के तले युद्ध करने के लिए आते थे और देश की रक्षा में अपनी आहुति देते थे।

इन युद्धों का अधिकांश इतिहास सैंकड़ों साल के राजनीतिक पराभव के कारण नष्ट हो गया है। पहले तुर्कों ने, फिर मुगलों ने, उसके बाद अंग्रेजों ने और अंत में साम्यवादी लेखकों ने भारत के इतिहास को विकृत एवं नष्ट-भ्रष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। फिर भी उस इतिहास के कतिपय उल्लेख कुछ प्राचीन ग्रंथों में मिलते हैं।

दुर्भाग्य से देश की आजादी के बाद जिन लेखकों को भारत के विश्वविद्यालयों एवं विद्यालयों के लिए पाठ्यक्रमों की पुस्तकें लिखने का काम दिया गया, उन्होंने भारत के उज्जवल इतिहास के महत्वपूर्ण तथ्यों को, साम्प्रदायिक सद्भाव, सर्वधर्म समभाव एवं धर्मनिरपेक्षता आदि के लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अपनी पुस्तकों में स्थान नहीं दिया जिससे भारत के गौरवमयी इतिहास के बचे-खुचे हिस्से भी भुला दिए गए।      

विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों से अलग स्वतंत्र रूप से इतिहास लिखने वाले लेखकों ने मेवाड़ के महाराणा और उनके इतिहास को संभाल कर रखने का प्रयास किया जिसके कारण आज मेवाड़ के महाराणा भारतीय इतिहास के पन्नों में जगमगा रहे हैं।                               

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

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