Monday, March 10, 2025
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लिल्ली घोड़ी

लिल्ली घोड़ी भारत का एक प्राचीन लोकनृत्य है जिसे सार्वजनिक समारोहों में खुले मंच पर अथवा लोगों की भीड़ के बीच में सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किया जाता है। लिल्ली घोड़ी लोकनृत्य में लोकगीत, लोकाख्यान, लोकवाद्य और लोकसंगीत का अद्भुत सामंजस्य होता है। यह एक सामूहिक नृत्य है जिसमें दो या दो से अधिक नर्तक भाग लेते हैं। कभी-कभी कोई कलाकार अकेले ही इस कला का प्रदर्शन करता है। यह विवाह समारोहों से लेकर होली, दीपावली जैसे पर्वों पर भी आयोजित किया जाता है।

लिल्ली घोड़ी नृत्य के नाम

लिल्ली घोड़ी नृत्य को भारत के विभिन्न प्रांतों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश के कुछ भागों में इसे लिल्ली घोड़ी कहा जाता है तथा राजस्थान एवं गुजरात में कच्छी घोड़ी कहा जाता है। ‘लिल्ली’ शब्द ‘लीला’ से बना है जिसका अर्थ है- अभिनय अथवा क्रीड़ा। इस प्रकार लिल्ली घोड़ी का अर्थ हुआ- ‘लीला करने वाली घोड़ी’।

इस लोकनृत्य में कलाकार अपनी कमर पर काठ से बनायी गई एक घोड़ी बांधता है जिसके कारण इसे ‘कट्ठी घोड़ी’ भी कहा जाता है। ‘कट्ठी घोड़ी’ शब्द ही घिसकर ‘कच्छी घोड़ी’ बन गया प्रतीत होता है। राजस्थान में इस लोकनृत्य को ‘धांचा घोड़ी’ अर्थात् नाचने वाली घोड़ी भी कहा जाता है। गोवा में इसे ‘घोड़मोदनी’ अर्थात् मनोरंजन करने वाली घोड़ी कहा जाता है।

उड़ीसा में इस लोकनृत्य का पारम्परिक नाम ‘चैती घोड़ी’ है। चैत्र माह में फसल पकने पर ग्रामवासी इस लोकनृत्य का आयोजन करते हैं, संभवतः इसीलिए इसे चैती घोड़ी कहा जाता है। बुन्देलखण्ड क्षेत्र में इसे ‘दुलदुल’ कहा जाता है। दक्षिण भारत में तमिलनाडु के तंजाउर तथा मदुरई क्षेत्रों में कच्छी घोड़ी लोकनृत्य अत्यन्त लोकप्रिय है। मदुरई में चार स्त्री-पुरुष मिलकर एक साथ कच्छी घोड़ी नृत्य करते हैं जिसे ‘पूर्वीअतम’ या पूर्वीओट्टम कहा जाता है।

लिल्ली घोड़ी का निर्माण

लिल्ली घोड़ी लकड़ी, बाँस, घास और कपड़े से बनाई जाती है। बिना पैरों वाली घोड़ी का एक खोखला ढांचा या पोली काठी बनाई जाती है जिसकी पीठ से लेकर पेट तक आरपार बड़ा गोल छेद रखा जाता है। यह छेद इतना चौड़ा बनाया जाता है कि इसमें से नर्तक पुरुष या स्त्री नीचे से सिर डालकर घुस सके तथा अपना कमर से ऊपर का भाग काठी के ऊपर निकाल सके।

घोड़ी की काठी का बाहरी भाग रंगीन कपड़ों की झूल एवं झालरों से सजाया जाता है। काले रंग की सूतली से पूँछ लगाई जाती है और कपड़े एवं खपच्चियों की सहायता से घोड़ी का मुख बनाया जाता है। घोड़ी के मुख को कपड़े से लपेटकर घोड़ी के अलंकरणों जैसे माला, नकेल, कलँगी आदि से सजाया जाता है। इस घोड़ी के मुख में लगाम भी डाल दी जाती है।

रंगीन बेल-बूटों वाली लम्बी-चौड़ी झूल को घोड़ी की काठी पर डाल दिया जाता है जो नर्तक के पैरों को ढकती हुई भूमि तक लटकती है। नृत्य करते समय नर्तक इस काठी में घुसकर अपना धड़ भाग काठी से ऊपर निकाल लेता है तथा काठी को कसकर अपनी कमर के चारों ओर बाँध लेता है। जब वाद्य बजते हैं तो नर्तक घोड़ी की लगाम अपने हाथों में पकड़कर इस प्रकार हिलाता है जैसे किसी घोड़ी को हांका जाता है।

नृतक अपने दूसरे हाथ में लकड़ी की एक तलवार पकड़े रहता है तथा उसे इस तरह घुमाता रहता है जैसे कोई योद्धा रणक्षेत्र में युद्ध कर रहा हो। इसके बाद नर्तक अपने पैरों पर नृत्य करता हुआ ऐसा अभिनय करता है मानो कोई घोड़ी अपनी पीठ पर घुड़सवार को बिठाकर स्वयं उछल-कूद कर नृत्य कर रही हो। नर्तक के पैरों में बँधे घुँघरू की रुनझुन, ढोल तथा मंजीरे की ध्वनि से मिलकर सम्मोहक वातावरण उत्पन्न करती है।

देशव्यापी परम्परा

लिल्ली घोड़ी अथवा कच्छी घोड़ी से मनोरंजन करने की परम्परा भारत के कई प्रांतों में देखने को मिलती है। उत्तरी भारत में कुछ लोग गांवों में घूम-घूमकर लिल्ली घोड़ी नृत्य दिखाते हैं और उससे अपनी आजीविका चलाते हैं। ग्रामवासी उन्हें अनाज अथवा पैसे देते हैं। विवाह के अवसर पर जनवासे से लड़की के घर तक बारात के आगे-आगे इन सजे-सजाए घोड़ों अथवा घोड़ियों को भाँति-भाँति से दौड़ाया, कुदाया और नचाया जाता है। पहले गांवों में लिल्ली घोड़ी का नृत्य वर्ष में कई बार देखने को मिल जाता था किंतु धीरे-धीरे लोगों में इसके प्रति रुझान कम होता जा रहा है।

राजस्थान में कच्छी घोड़ी लोकनृत्य की परम्परा सर्वाधिक लोकप्रिय है। वहाँ कई पिछड़ी जातियों में इस नृत्य के कलाकार मिलते हैं। राजस्थान में कच्छी घोड़ी के नर्तक योद्धा की वेशभूषा में हाथों में भाला तथा तलवार लेकर घोड़ी का नृत्य करते हैं जिससे उनमें रणवीर होने का भाव प्रकट होता है।

गुजरात में भी कच्छी घोड़ी की परम्परा बहुत लोकप्रिय है। वहाँ प्रायः आदिवासी जातियों के कलाकार इस नृत्य को करते हैं। उत्तरी गुजरात के वडगाम के निकट चांगा गांव में तथा दक्षिण गुजरात के डेडियापाड़ा तालुका के अलमावाड़ी ग्राम में ये आदिवासी कलाकार स्थायी बड़ी संख्या में रहते हैं। ये लोग होली पर कच्छी घोड़ी का नृत्य करने गांव-गांव जाते हैं।

होली माता की मनौती और पूजा में कच्छी घोड़ी, का नृत्य किया जाता है। विवाह के अवसर पर भी बारात के आगे-आगे सजे-सजाए घोड़े-घोड़ी की दौड़ और नृत्य की परम्परा देश के अन्य भागों की भाँति गुजरात में भी पाई जाती है। राजस्थान की भाँति उत्तरी गुजरात में भी घोड़ों के नर्तक योद्धा की वेशभूषा में हाथों में नंगी तलवार लेकर पुत्र-पौत्रों सहित कार्तिक पूर्णिमा को दौड़ते हैं।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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