शिवाजी का कर्नाटक अभियान इसलिए किया गया था ताकि सेनाओं का व्यय निकल सके। कर्नाटक अत्यंत प्राचीन काल से ही एक समृद्ध प्रदेश था जिसे मुसलमान लूट रहे थे।
जब शिवाजी दक्षिण भारत में मुगलों के क्षेत्र को कई बार लूट चुका तो उसका ध्यान कर्नाटक की ओर गया। कर्नाटक में चार शताब्दियों से मुसलमानों के आक्रमण नहीं होने से कृषि और विविध प्रकार के उद्योग धंधे भली-भांति पनप गए थे। इस कारण वहाँ की प्रजा अत्यंत समृद्ध तथा शांत थी।
इस समय कुछ जमींदार और बड़े जागीरदार कर्नाटक पर शासन करते थे जिनमें किसी बड़ी सेना का सामना करने की क्षमता नहीं थी। जब 13वीं शताब्दी के आरम्भ में अलाउद्दीन खिलजी ने कर्नाटक पर अभियान किया था, तब कर्नाटक प्रदेश में अंतिम लूट हुई थी। उसके बाद से किसी ने भी इस क्षेत्र को नहीं लूटा था।
अतः शिवाजी ने कर्नाटक पर अभियान करने का निश्चय किया ताकि उसकी सेनाओं का व्यय निकल सके। शिवाजी हैदराबाद, कृष्णा नदी के पठार, जिंजी तथा वैलोर होते हुए बंगाल की खाड़ी के तटीय क्षेत्र में स्थित मद्रास तक जाना चाहता था। इस अभियान में एक वर्ष का समय लगने का अनुमान था किंतु राज्य को छोड़कर लम्बी अवधि के लिए इतनी दूर जाने में कई खतरे थे।
बहादुर खाँ को रिश्वत
इस समय औरंगजेब पंजाब के विद्रोह को दबाने में व्यस्त था किंतु दक्षिण का मुगल सूबेदार बहादुर खाँ अब भी दक्षिण में था जो शिवाजी के इस अभियान में बाधा उत्पन्न कर सकता था। यद्यपि शिवाजी कई बार बहादुर खाँ को लूट चुके थे फिर भी इस बार शिवाजी ने बहादुर खाँ को मोटी रिश्वत देकर अपने पक्ष में करने का निर्णय लिया। बहादुर खाँ ने यह रिश्वत सहर्ष स्वीकार कर ली। उसने इसे शिवाजी पर अपनी जीत के रूप में देखा।
बीजापुर की अव्यवस्था
शिवाजी का कर्नाटक अभियान में बीजापुर से भी विध्न उत्पन्न किया जा सकता था। बीजापुर के शाह की मृत्यु हो जाने से उसके अल्पवयस्क पुत्र को सुल्तान बनाया गया था किंतु बीजापुर के मंत्री एक-दूसरे के विरुद्ध षड़यंत्रों में व्यस्त थे और इन्हीं षड़यंत्रों के कारण बीजापुर के प्रधानमंत्री खवास खाँ की हत्या हो गई थी।
इस कारण बीजापुर की तरफ से खतरा उत्पन्न होने की संभावना न के बराबर थी। कर्नाटक अभियान के लिए शिवाजी को जिस क्षेत्र से होकर निकलना था, उसका बहुत बड़ा हिस्सा शिवाजी के स्वर्गीय पिता शाहजी भौंसले की जागीर में स्थित था। यह जागीर इस समय बीजापुर राज्य के जागीरदार एवं शिवाजी के सौतेले भाई व्यंकोजी के अधिकार में थी। उसकी तरफ से खतरे की संभावना बहुत कम थी।
रघुनाथ नारायण का शिवाजी के पास आगमन
शाहजी भौंसले की मृत्यु के बाद, शिवाजी का सौतेला भाई व्यंकोजी कनार्टक की जागीर का स्वामी बना। शिवाजी को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी किंतु व्यंकोजी ने अपने मंत्री रघुनाथ नारायण हनुमंते को अपनी सेवा से पृथक कर दिया। रघुनाथ नारायण, शिवाजी के पास चला आया और शिवाजी को उकसाने लगा कि शिवाजी को अपने स्वर्गीय पिता की जागीर में से आधा हिस्सा मांगना चाहिए।
शिवाजी को यह सुझाव उचित लगा क्योंकि यदि शिवाजी को अपने पिता की आधी जागीर मिल जाती है तो उसे मद्रास तक पहुंचने में कोई कठिनाई नहीं रह जाएगी क्योंकि तब तो वह क्षेत्र शिवाजी के राज्य में ही सम्मिलित हो जाएगा।
मदन्ना और अकन्ना ब्राह्मण
शिवाजी के मार्ग का थोड़ा सा भाग गोलकुण्डा के कुतुबशाह के राज्य के अंतर्गत स्थित था। शिवाजी चाहता था कि शिवाजी को कुतुबशाह के अधिकार वाले कर्नाटक में होकर निकलने की अनुमति मिल जाए। गोलकुण्डा में 21 अप्रेल 1672 से अब्दुल हसन कुतुबशाह गद्दी पर था तथा मदन्ना नामक एक ब्राह्मण, उसका प्रधानमंत्री था।
मदन्ना तथा उसका भाई अकन्ना इस समय गोलकुण्डा राज्य में सर्वेसर्वा बने हुए थे। शिवाजी ने नीराजी पंत को अपना दूत बनाकर प्रधानमंत्री मदन्ना के पास भेजा ताकि उसके माध्यम से कुतुबशाह से संधि हो सके एवं शिवाजी स्वयं कुतुबशाह से भेंट कर सकें। मदन्ना ने कुतुबशाह को शिवाजी से मिलने के लिए सहमत कर लिया।
कुतुबशाह की घबराहट
कुतुबशाह शिवाजी से मिलना तो चाहता था किंतु घबरा भी रहा था क्योंकि उसने शिवाजी के बारे में कई किस्से सुन रखे थे कि वह पलक झपकते ही कुछ भी करने में समर्थ है। शिवाजी के प्रतिनिधि नीराजी राव तथा मदन्ना के समझाने पर कुतुबशाह तैयार हो गया।
जनवरी 1677 में शिवाजी ने 50 हजार सैनिकों के साथ हैदराबाद के लिए प्रस्थान किया। उसने सैनिकों को कठोर आदेश दिए कि मार्ग में वे किसी भी गांव को न लूटें तथा प्रजा का उत्पीड़न नहीं करें अन्यथा उन्हें शिवाजी द्वारा मृत्यु दण्ड दिया जाएगा।
शिवाजी का हैदराबाद में स्वागत
हैदराबाद में कुतुबशाह ने तथा नगर-वासियों ने शिवाजी का भारी स्वागत किया। उसके लिए स्थान-स्थान पर स्वागत द्वार बनाए गए। जब शिवाजी अपनी सेना के साथ हैदराबाद की सड़कों से गुजरा तो उसे देखने के लिए सड़क के दोनों ओर तथा मकानों की छतों पर हजारों नर-नारियों की भीड़ जमा हो गई।
वे उस शिवाजी को अपनी आंख से देखना चाहते थे जिसने पलक झपकते ही शक्तिशाली अफजल खाँ को मार डाला था तथा शाइस्ता खाँ को बुरी तरह घायल कर दिया था। एक ऐसा चमत्कारी राजा उनकी आंखों के सामने सड़क से गुजर रहा था जिसने आदिलशाह तथा औरंगजेब को मुजरा करने से मना कर दिया था और औरंगजेब की कैद से रहस्यमय ढंग से गायब हो गया था।
शिवाजी को हैदराबाद में मित्र के रूप में देखा गया और जनता द्वारा शिवाजी अमर रहें के नारे लगाए गए। हिन्दू स्त्रियों ने स्थान-स्थान पर उसकी आरती उतारी और उस पर पुष्पों की वर्षा की। शिवाजी ने भी हैदराबाद की जनता पर विपुल धन की वर्षा की। हैदराबाद के महल में कुतुबशाह ने स्वयं आगे आकर शिवाजी का स्वागत किया तथा उसे अपने महल में ले जाकर उसका पान एवं इत्र से सत्कार किया। कुतुबशाह के सारे मंत्री इस अवसर पर उपस्थित रहे।
अगले दिन गोलकुण्डा के प्रधानमंत्री मदन्ना की माता ने अपने हाथों से शिवाजी के लिए भोजन तैयार किया तथा स्वयं ही परोसकर शिवाजी को खिलाया। इस अवसर पर मदन्ना तथा उसका भाई अकन्ना, वहाँ उपस्थित रहे। कुतुबशाह तथा शिवाजी के बीच कई बैठकें हुईं तथा कुतुबशाह को शिवाजी पर भरोसा हो गया। उसने अपने मंत्रियों से कहा कि शिवाजी जो कुछ भी मांगे, दे दिया जाए।
कुतबशाह से संधि
प्रधानमंत्री मदन्ना के सहयोग से शिवाजी तथा कुतुबशाह में एक गुप्त समझौता भी हुआ जिसके अनुसार शिवाजी को कर्नाटक की लूट में मिलने वाले धन में से आधा हिस्सा कुतुबशाह को देना था। इसके बदले में कुतुबशाह ने शिवाजी को इस अभियान में आर्थिक एवं सैन्य सहायता प्रदान की। इस बीच शिवाजी के सिपाही हैदराबाद नगर में साहसिक करतब दिखाकर प्रजा का मन जीतने में लगे रहे।
चक्रतीर्थ में स्नान एवं दान-पुण्य
लगभग एक माह के आतिथ्य सत्कार एवं सैन्य तैयारियों के पश्चात् शिवाजी ने कर्नाटक विजय के लिए प्रस्थान किया। उसने कृष्णा नदी से पहले कर्नूल नगर से 5000 होन का चंदा वसूल किया तथा सेना को अनंतपुर में शिविर लगाने का निर्देश दिया। शिवाजी अपने कुछ सिपाहियों को साथ लेकर कृष्णा एवं भवनाशी नदियों के संगम में स्नान करने के लिए गया। उसने चक्रतीर्थ भंवर में स्नान करके दान-पुण्य किया तथा धार्मिक अनुष्ठन सम्पन्न किए। संगम से शिवाजी शैल तीर्थ के लिए गया।
मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की सेवा में दस दिन
कृष्णा नदी समुद्र में विलीन होने से पहले पूर्व की ओर मुड़ती है तथा कर्नूल से लगभग 100 किलोमीटर दूर एक चौड़े और खड़े कगारों वाले लगभग 300 मीटर गहरे खड्ड में बहते हुए उत्तर की ओर एक तीव्र चाप बनाती है।
यहाँ विषम पहाड़ियों और सुनसान ज्वरग्रस्त भूमि की पेटी से घिरे निर्जन नल्ला-माला जंगल के मध्य में नदी के ऊपर की ओर लगभग 525 मीटर ऊंचा पठार है जहाँ दक्षिण भारत का सर्वाधिक प्राचीन एवं विख्यात श्री शैल शिवमंदिर है जिसमें मल्लिकार्जुन नामक ज्योतिर्लिंग स्थित है। यह भारत के सुप्रसिद्ध द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है।
उन दिनों इस पठार पर कैलास नामक एक भव्य द्वार हुआ करता था, इस द्वार से प्रवेश करते ही मंदिर का परकोटा दिखाई देता था। इस परकोटे की दीवारें 20 से 25 फुट ऊंची तथा काफी मोटी थीं। इस परकोटे के भीतर 660 फुट लम्बा तथा 510 फुट चौड़ा आयताकार स्थान था जिसमें मल्लिकार्जुन का मंदिर स्थित था।
विजय नगर के महाराजा कृष्णदेव ने इस मंदिर पर सोने का पानी चढ़े पीतल के पतरे लगवाए थे। इस मंदिर की दीवारों पर पुराणों एवं महाकाव्यों के प्रसंगों के दृश्य उत्कीर्ण थे। यहाँ पार्वती का एक मंदिर है। कृष्णदेव की रानी ने इस मंदिर से लेकर कृष्णा नदी के घेरे तक पत्थर की सीढ़ियां बनवाई थीं, इस घेरे को पाताल गंगा कहते हैं।
यही सीढ़ियां आगे नीलगढ़ नामक पांझ तक जाती हैं। यह भी बहुत पवित्र माना जाता है। शिवाजी ने दस दिन इसी पठार पर व्यतीत किए। उसने यहाँ भगवान गणेश को समर्पित एक घाट, एक मठ और एक धर्मशाला के निर्माण हेतु अधिकारी नियुक्त करके उन्हें पर्याप्त धन प्रदान किया। शिवाजी ने इस तीर्थ में एक लाख ब्राह्मणों को भोजन करवाया और उन्हें बहुत सा धन दान में दिया।
जिंजी दुर्ग पर अधिकार
कृष्णा के पठार से उतरकर शिवाजी पुनः अनंतपुर पहुंचा और वहाँ से अपनी सेना के साथ कड़प्पा, तिरुपति और कलहस्ती होते हुए मद्रास के निकट स्थित जिंजी दुर्ग तक पहुंचा। जिंजी बीजापुर के अधिकार में था। जब उसके दुर्गपति ने शिवाजी का नाम सुना तो उसने दुर्ग बिना लड़े ही शिवाजी को समर्पित कर दिया।
उन दिनों मद्रास एक बहुत छोटा नगर हुआ करता था। उसे मछुआरों की बस्ती कहना ही उचित होगा। मद्रास के निकट अंग्रेजों ने सेंट जॉर्ज फोर्ट नामक दुर्ग बना रखा था। शिवाजी अंग्रेजों से युद्ध में नहीं उलझना चाहता था इसलिए उसने सेंट जॉर्ज फोर्ट की बजाय वेल्लोर पर घेरा डालने का निर्णय लिया जहाँ एक मुस्लिम जागीरदार का अधिकार था।
वेल्लोर पर घेरा
जिंजी दुर्ग की सुरक्षा का समुचित प्रबन्ध करके शिवाजी ने वेल्लोर दुर्ग पर घेरा डाला। यह दुर्ग अत्यंत दुर्गम था और इस पर अधिकार करने में काफी समय लगना अनुमानित था। इसलिए शिवाजी ने अपनी सेना के एक भाग को दुर्ग पर घेरा डालकर बैठे रहने के निर्देश दिए तथा दूसरे भाग को लेकर शेर खाँ लोढ़ी से लड़ने चला गया।
शेर खाँ किसी समय बीजापुर का सामंत था किंतु बीजापुर राज्य की कमजोरी का लाभ उठाकर स्वतंत्र हो गया था। शेर खाँ विशाल सेना लेकर शिवाजी से लड़ने के लिए आया। तिरूवड़ी नामक स्थान पर दोनों पक्षों में युद्ध हुआ। कई दिन तक छोटी-छोटी लड़ाइयाँ करके शिवाजी ने शेर खाँ के हौंसले तोड़ दिए।
अंत में शेर खाँ युद्ध की क्षति पूर्ति के लिए 20 हजार होन देने के लिए सहमत हो गया। शिवाजी ने उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया किंतु शेर खाँ के पास पर्याप्त होन नहीं थे। इसलिए उसने अपने पुत्र को शिवाजी के पास बंधक रख दिया। वर्ष 1678 में शेर खाँ ने शिवाजी को पूरा धन देकर अपने पुत्र को मुक्त करवाया।
तुंगभद्रा से लेकर कावेरी तक के क्षेत्र पर विजय
कुछ ही समय में तुंगभद्रा से लेकर कावेरी तक का कर्नाटक प्रदेश, शिवाजी के प्रत्यक्ष अधीन हो गया। शिवाजी ने महाराष्ट्र से हजारों योग्य व्यक्तियों को बुलाकर उन्हें कनार्टक का राजस्व एवं सैनिक प्रशासन सौंप दिया। आज साढ़े तीन सौ साल बीत जाने पर भी इस पूरे क्षेत्र में मराठी परिवार निवास करते हुए दिखाई देते हैं, ये परिवार उन्हीं महाराष्ट्रियनों के वंशज हैं।
व्यंकोजी से भेंट
शेर खाँ से निबटकर शिवाजी ने व्यंकोजी से मिलकर पैतृक सम्पत्ति का बंटवारा करवाने का कार्यक्रम बनाया। वह अपनी सेना लेकर तंजौर की तरफ बढ़ा तथा कोलेरून नदी के पास डेरा डाला। व्यंकोजी को इसकी सूचना भेजी गई। वह कई सप्ताह के बाद शिवाजी के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए आया।
उसके साथ उसके अनुचरों तथा अंगरक्षकों की टुकड़ी भी थी। शिवाजी ने उसके समक्ष प्रस्ताव रखा कि पैतृक सम्पत्ति का बंटवारा करके परिवार में सौहार्द बनाए। व्यंकोजी बंटवारे के लिए तैयार नहीं हुआ। कई दिनों तक उसे समझाने का प्रयास किया गया किंतु वह मना करता रहा और अंत में एक दिन अवसर पाकर नदी की तरफ भाग गया और वहाँ लट्ठों की सहायता से एक नाव बनाकर, नदी पार करके अपनी राजधानी पहुंचने में सफल हो गया।
शिवाजी ने उसके अनुचरों को बंदी बना लिया किंतु उन्हें अपने पिता और भाई का सेवक जानकर, उन्हें ससम्मान नई पोषाकें दीं और मुक्त कर दिया। शिवाजी ने एक पत्र व्यंकोजी को भिजवाया कि पैतृक सम्पत्ति का बंटवारा हर तरह से न्याय संगत है किंतु व्यंकोजी ने इस पत्र का कोई जवाब नहीं दिया।
अभियान की समाप्ति
शिवाजी चाहता तो व्यंकोजी पर भी आक्रमण कर सकता था किंतु वह इसे अनुचित मानता था। शिवाजी को अपनी राजधानी छोड़े हुए दस माह से अधिक हो गए थे। कर्नाटक अभियान लगभग पूरा हो चुका था। इसलिए शिवाजी ने वापस लौट जाने का निर्णय लिया। मार्ग में उसने अपने पिता की जागीर के कुछ हिस्से अपने अधिकार में लेकर अपने थाने बैठा दिए।
जब शिवाजी और आगे चला गया तो व्यंकोजी ने उन थानों पर हमला किया किंतु व्यंकोजी उन क्षेत्रों को अपने अधिकार में नहीं ले सका। शिवाजी ने कड़ा पत्र लिखकर व्यंकोजी को चेतावनी दी कि पैतृक सम्पत्ति का बंटावारा करने के स्थान पर, तुमने मुसलमानों के साथ मिलकर अपने ही भाई को नीचा दिखाने का प्रयास किया है।
तुम्हारा प्रयास कभी सफल नहीं होगा क्योंकि ईश्वर की कृपा से ही मैंने अब तक अपने शत्रुओं को नीचा दिखाया है और मैं हिन्दू राज्य की स्थापना के काम में लगा हुआ हूँ। तुम्हें मेरे इस काम में सहयोग देना चाहिए।
दीपाबाई द्वारा शिवाजी से समझौता
व्यंकोजी की रानी दीपाबाई एक समझदार स्त्री थी। उसने व्यंकोजी को भाई से विग्रह करने के लिए फटकारा तथा उसे परामर्श दिया कि अपने मंत्री रघुनाथ पण्डित के माध्यम से शिवाजी से संधि करो। साथ ही अपने राज्य से मुसलमान परामर्शदाताओं को निकाल दो जो तुम्हें अपने ही भाई के विरुद्ध उकसाते हैं।
व्यंकोजी ने अपनी रानी का परामर्श स्वीकार कर लिया तथा रघुनाथ पण्डित को शिवाजी के पास भेजकर शिवाजी से संधि कर ली। इससे दोनों भाइयों के बीच का कलह समाप्त हो गया। शिवाजी ने दीपाबाई के इस कृत्य के लिए उसे कर्नाटक में एक बड़ी जागीर पुरस्कार में दी तथा उस विदुषी महिला की बहुत प्रशंसा की।
दिलेर खाँ का हैदराबाद पर आक्रमण
जब शिवाजी हैदराबाद से चलकर कर्नाटक पहुंच गया तब मुगल सूबेदार दिलेर खाँ ने कुतुब खाँ को दण्डित करने के लिए हैदराबाद पर आक्रमण किया। शिवाजी से भेंट करने के बाद प्रधानमंत्री मदन्ना उत्साह से भरा हुआ था। उसे विश्वास हो गया था कि हिन्दू तेज के समक्ष मुसलमानों की शक्ति कुछ भी नहीं है। इसलिए उसने दिलेर खाँ में कसकर मार लगाई। मुगल सूबेदार को अपनी हार पर दुःख से अधिक, आश्चर्य हुआ। वह हैदराबाद से भाग खड़ा हुआ।
शिवाजी की सेना द्वारा औरंगाबाद क्षेत्र में लूट
शिवाजी अभी कर्नाटक में था कि उसे दिलेर खाँ के हैदराबाद पर आक्रमण करने की सूचना मिली। शिवाजी ने अपने संदेश वाहकों के माध्यम से अपने सामंतों और जागीरदारों को आदेश भिजवाए कि दिलेर खाँ की प्रगति को रोकने के लिए गोदावरी से लेकर औरंगाबाद तक के मुगल क्षेत्रों पर धावे मारें और पूरी तरह उजाड़ दें। शिवाजी के सामंतों ने ऐसा ही किया। इससे दिलेर खाँ बुरी तरह मुसीबत में फंस गया। एक तरफ तो मदन्ना उसे मार रहा था और दूसरी तरफ मराठों ने धावे मारने शुरु कर दिए थे। उसके लिए शिवाजी को समझ पाना संभव नहीं था।
औरंगजेब की चिंता और मुअज्जम का आगमन
मुगलों के लिए दक्षिण एक बड़ी चुनौती बन गया था। वह बार-बार सूबेदारों को बदल रहा था किंतु कुछ भी परिणाम सामने नहीं आ रहा था। उसने एक बार फिर से शहजादे मुअज्जम को दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया। फरवरी 1679 में मुअज्जम औरंगाबाद पहुंच गया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता