Wednesday, October 16, 2024
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संत कुम्भनदास और अकबर (156)

संत कुम्भनदास और अकबर समकालीन थे। अकबर चाहता था कि संत कुंभनदास फतहपुर सीकरी आकर रहें तथा अकबर के नवरत्न बन जाएं किंतु कुंभनदास को  राजसी वैभव की कोई लालसा नहीं थी। उन्होंने अकबर से कहलवाया कि जिस अकबर का मुंह देखकर दुःख उत्पन्न होता है उसे फतहपुर सीकरी आकर सलाम क्यों करूं?

बीरबल आदि हिन्दू दरबारियों, हिन्दू धर्मोपदेशकों, संतों एवं योगियों के प्रभाव से अकबर ने दिन में चार बार सूर्य की पूजा करनी आरम्भ कर दी तथा जोगियों की तरह लम्बी आयु पाने के लिए मांस खाना छोड़ दिया! अकबर को यह बात अनुभव हो गई थी कि जोगियों की तरह वैष्णव संत भी दिव्य शक्तियों वाले होते हैं। इसलिए अकबर ने अपने समय के विख्यात वैष्णव संतों को अपने दरबार में बुलाने के प्रयास प्रारम्भ किए। अकबर ने अपने अधिकारियों को आदेश दिया कि वे संत कुंभनदास को दरबार में लेकर आएं।

संत कुम्भनदास का जन्म मथुरा क्षेत्र में स्थित गोवर्धन के निकट जमुनावतो गांव में पंद्रहवीं शताब्दी ईस्वी के अंतिम वर्षों में हुआ था। वे गोरवा क्षत्रिय थे। उनके पिता एक साधारण किसान थे। कुम्भनदास बड़े होकर अपने पिता के साथ खेती करने लगे। वृंदावन क्षेत्र के पारसोली गांव में इस परिवार के पास एक छोटा सा खेत था। इस कारण यह परिवार अत्यंत निर्धन अवस्था में जीवन यापन करता था। कुंभनदास के परिवार में पत्नी, सात पुत्र, सात पुत्र-वधुएँ और एक विधवा भतीजी रहती थी।

जब कुम्भनदास पच्चीस वर्ष के हुए तो उन्होंने खेती-बाड़ी से मोह छोड़ दिया और वैष्णव संत महाप्रभु वल्लभाचार्य से दीक्षा लेकर उनके शिष्य बन गए। इस कारण खेती-बाड़ी का काम परिवार के अन्य सदस्यों पर चला गया। संत वल्लभाचार्य ने कुम्भनदास को गोवर्द्धन पर्वत पर प्रकट हुई भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिमा की सेवा में रख दिया। इस प्रकार कुंभनदास वृंदावन आ गए तथा अत्यंत विपन्न अवस्था में दिन बिताते हुए भजन करने लगे। वैष्णव संतों में यह मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण स्वयं बाल रूप में आकर संत कुंभनदास के साथ खेला करते थे।

श्रीनाथजी के मन्दिर में कुम्भनदास नित्य नये पद गाकर सुनाने लगे। पुष्टि सम्प्रदाय में सम्मिलित होने पर उन्हें कीर्तन की सेवा दी गयी। कुम्भनदास भगवत्कृपा को ही सर्वाेपरि मानते थे, बड़े-से-बड़े घरेलू संकट में भी वे अपने आस्था-पथ से कभी विचलित नहीं हुए। श्रीनाथजी के श्ृंगार सम्बन्धी पदों की रचना में उनकी विशेष रुचि थी। एक बार वल्लभाचार्यजी ने उनके युगल-लीला सम्बन्धी पदों से प्रसन्न होकर कहा था कि तुम्हें तो निकुंज-लीला के रस की अनुभूति हो गयी। संत कुम्भनदास महाप्रभु वल्लभाचार्य की कृपा से गद्गद होकर बोले, मुझे तो इसी रस की नितान्त आवश्यकता है।

महाप्रभु वल्लभाचार्य के गौलोक धाम गमन के बाद संत कुम्भनदास वल्लभाचार्य के पुत्र गोसाईं विट्ठलनाथ के संरक्षण में रहकर भगवान श्री पुरुषोत्तम का लीला-गान करने लगे। विट्ठलनाथ महाराज की उन पर बड़ी कृपा थी। वे उनके निर्लोभी जीवन की बड़ी सराहना किया करते थे। ई.1545 में गोसाईं विट्ठलनाथ ने अपने पिता के चार शिष्यों एवं अपने चार शिष्यों पर छाप अंकित की जिन्हें अष्टछाप संत कहा गया। कुंभनदास भी उनमें से एक थे।

बड़े-बड़े राजे-महाराजे एवं सेठ साहूकार संत कुम्भनदास के दर्शन करने में स्वयं को सौभाग्यशाली मानते थे। वृन्दावन के बड़े-बड़े रसिक और सन्त-महात्मा उनके सत्संग की उत्कृष्ट इच्छा किया करते थे। कुंभनदास ने भगवद्भक्ति का यश सदा अक्षुण्ण रखा, आर्थिक संकट और दीनता से उसे कभी कलंकित नहीं होने दिया।

एक बार विट्ठलनाथजी उन्हें अपनी द्वारका यात्रा में साथ ले जाना चाहते थे, उनका विचार था कि वैष्णवों की भेंट से उनकी आर्थिक स्थिति सुधर जायगी। कुम्भनदास श्रीनाथजी का वियोग एक पल के लिये भी नहीं सह सकते थे परंतु उन्होंने गोसाईंजी की आज्ञा का विरोध नहीं किया। वे गोसाईंजी के साथ अप्सरा कुण्ड तक ही गये थे कि श्रीनाथजी के सौंदर्य स्मरण से उनके अंग-अंग सिहर उठे, भगवान की मधुर-मधुर मन्द मुस्कान की ज्योत्स्ना विरह-अन्धकार में थिरक उठी, माधुर्यसम्राट नन्दनन्दन की विरह वेदना से उनका हृदय घायल हो चला। उन्होंने श्रीनाथजी के वियोग में एक पद गाया-

केते दिन जु गए बिनु देखैं।

तरुन किसोर रसिक नँदनंदन, कछुक उठति मुख रेखैं।।

वह सोभा, वह कांति बदन की, कोटिक चंद बिसेखैं।

वह चितवन, वह हास मनोहर, वह नटवर बपु भेखैं।।

स्याम सुँदर सँग मिलि खेलन की आवति हिये अपेखैं।

‘कुंभनदास’ लाल गिरिधर बिनु जीवन जनम अलेखैं।।

विट्ठलनाथजी के हृदय पर कुंभनदासजी द्वारा गाए गए इस विरह-गीत का बड़ा प्रभाव पड़ा। उन्होंने कुम्भनदास को वृंदावन लौट जाने की आज्ञा दे दी। वे नहीं चाहते थे कुम्भनदास पल भर के लिये भी श्रीनाथजी से अलग रहें। श्रीनाथजी के दर्शन करके कुम्भनदास स्वस्थ हुए।

कहा जाता है कि जब अकबर ने कुंभनदासजी के इस पद को सुना तो उसने कुम्भनदासजी को अपने दरबार में बुलाया। कुम्भनदासजी ने सीकरी जाने से मना कर दिया किंतु जब अकबर के अधिकारियों ने बारम्बार आग्रह किया तो वे पैदल ही वृंदावन से सीकरी के लिए रवाना हो गये।

जब कुंभनदास अकबर के दरबार में पहुंचे तो उन्हें अकबर का वैभव बड़ा फीका लगा। कुम्भनदास की पगड़ी फटी हुई थी तथा उनकी टांगों पर लिपटी हुई धोती मैली थी। वे आत्मग्लानि में डूबे हुए थे और विचार कर रहे थे कि किस पाप के फलस्वरूप उन्हें इनके सामने उपस्थित होना पड़ा!

अकबर ने कुंभनदास की बड़ी आवभगत की परंतु श्रीनाथजी से विलग होकर कुम्भनदास को अकबर का दरबार साक्षात नर्क के समान प्रतीत हो रहा था। अकबर ने कुंभनदास से आग्रह किया कि वे वही पद अपने मुख से सुनाएं जो उन्होंने श्रीविट्ठलनाथजी के समक्ष गाया था। कहते हैं कि कुंभनदास ने जब अकबर के समक्ष गायन किया तो उनके मुख से यह पद निकला-

भगत को कहा सीकरी सों काम।

आवत जात पन्हैयां टूटीं, बिसरि गयो हरिनाम।।

जाको मुख देखैं दुख लागै, ताको करनो पर्यो प्रनाम।

‘कुंभनदास’ लाल गिरिधर बिनु और सबै बेकाम।।

कुंभनदास के शब्द सुनकर अकबर समझ गया कि कुंभनदास कहना चाहते हैं कि अकबर का मुख देखकर दुःख उत्पन्न होता है, मैं फतहपुर सीकरी आकर उसे सलाम क्यों करूं? इस पर अकबर ने उन्हें फिर से वृंदावन जाने की आज्ञा दे दी। कुछ ग्रंथों के अनुसार अकबर के बुलाने पर कुंभनदास सीकरी गए ही नहीं, अपितु यह पद लिखकर अकबर को भिजवा दिया।

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मान्यता है कि ई.1563 में कुंअर मानसिंह ब्रज आया। उसने वृन्दावन भूमि के दर्शन करने के बाद गोवर्धन पर्वत की यात्रा की तथा श्रीनाथजी के दर्शन किये। जिस समय मानसिंह श्रीनाथजी के मंदिर में पहुंचा, उस समय कुंभनदास मृदंग और वीणा के साथ कीर्तन कर रहे थे। कुंअर मानसिंह कुंभनदास के निवास पर मिलने उनके गांव जमुनावतो भी गया। जब मानसिंह ने कुम्भनदास की दीन-हीन दशा को देखा तो वह चकित रह गया। जब मानसिंह उनकी कुटिया में पहुंचा तो कुम्भनदास धरती पर बैठकर भगवान के रूप-चिन्तन में ध्यानस्थ थे। मानसिंह भी वहीं बैठ गया। जब कुंभनदास की आंख खुली तो उन्होंने अपनी विधवा भतीजी से कहा कि अतिथि को आसन दो और मुझे तिलक लगाने के लिए दर्पण दो।

भतीजी ने कहा कि आसन और दर्पण तो पड़िया खा-पी गई। अर्थात् घास के बने हुए आसन तथा कुण्डी में भरे हुए पानी रूपी दर्पण को भैंस की बछिया खा-पी गयी। महाराजा मानसिंह को संत कुंभनदास की निर्धनता का पता लग गया। उसने संत को सोने का दर्पण देना चाहा किंतु कुंभनदास ने उसे अस्वीकार कर दिया। मानसिंह ने उन्हें मोहरों की थैली देनी चाही किंतु कुंभनदास ने वह भी स्वीकार नहीं की। मानसिंह ने जमनुवतो गांव कुम्भनदास के नाम करना चाहा, पर उन्होंने कहा कि मेरा काम तो करील और बेर के वृक्षों से ही चल जाता है। मैं इन सब चीजों को लेकर क्या करूंगा?

अत्यंत वृद्ध हो जाने पर भी कुम्भनदास नित्य जमुनावतो से गोवर्धन आया करते थे। एक दिन संकर्षण कुण्डी पर आन्योदर के निकट रुके। अष्टछाप के प्रसिद्ध कवि चतुर्भुजदासजी उनके साथ थे। कुंभनदास ने चतुर्भुजदास से कहा कि अब घर चलकर क्या करना है। कुछ समय बाद शरीर ही छूटने वाला है। जब गोसाईं विट्ठलनाथजी को यह बात ज्ञात हुई तो वे कुंभनदास के पास आए। कुछ ही देर में कुंभनदासजी के प्राण कंठ में आ गए। गोसाईं विट्ठलनाथजी ने कुंभनदास से पूछा कि इस समय मन किस लीला में लगा है? कुम्भनदासजी ने कहा- लाल तेरी चितवन चितहि चुरावै।

इसके अनन्तर कुम्भनदासजी ने युगल-स्वरूप की छवि के ध्यान में यह पद गाया-

रसिकनी रस में रहत गड़ी।

कनक बेलि बृषभानुनंदिनी स्याम तमाल चढ़ी।।

बिहरत श्रीगिरिधरन लाल सँग, कोने पाठ पढ़ी।

‘कुंभनदास’ प्रभु गोबरधनधर रति रस केलि बढ़ी।।

यह पद गाकर कुंभनदास ने नश्वर शरीर छोड़ दिया। कहा जाता है कि उस समय कुंभनदासजी की आयु 113 साल थी। कुम्भनदास के पदों की संख्या लगभग 500 है। कुम्भनदास के पदों का एक संग्रह कुम्भनदास शीर्षक से श्रीविद्या विभाग, कांकरोली द्वारा प्रकाशित हुआ है।

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