संत तुलसीदास और अकबर समकालीन थे। तुलसीदास संत थे और अकबर बादशाह किंतु तुलसीदास की प्रसिद्धि अकबर से भी अधिक थी। अकबर चाहता था कि संत तुलसीदास और अकबर का साथ हो जाए किंतु तुलसी बाबा अकबर का मुंह देखने को भी तैयार नहीं थे।
अकबर ने वैष्णव संतों को अपने दरबार में बुलाने के अनेक प्रयास किए। उसने अवध क्षेत्र में निवास कर रहे विख्यात संत गोस्वामी तुलसीदासजी को अपने दरबार में बुलवाया। गोस्वामीजी ने अकबर के दरबार में जाने से मना कर दिया।
इस पर अकबर ने गोस्वामीजी को प्रस्ताव भिजवाया कि उन्हें अकबर के दरबार में मनसब प्रदान किया जाएगा। यह एक आकर्षक प्रस्ताव था जिसके लिए उस काल में भारत भर के वीर पुरुष, राजा-महाराजा एवं ज्ञानी पुरुष तरसते रहते थे किंतु गोस्वामीजी के लिए यह प्रस्ताव किसी सजा सुनाए जाने से कम नहीं था।
गोस्वामी तुलसीदासजी अप्रतिम विद्वान थे। उन्होंने रामचरित मानस, हनुमान बाहुक तथा विनय पत्रिका आदि लगभग 20 उत्कृष्ट ग्रंथों की रचना की थी। उन्होंने अपना पूरा जीवन निर्धन अवस्था में, एकाकी रहकर तथा भगवान श्रीराम के चरणों में समर्पित रहकर व्यतीत किया था। अपने जीवन का एक-एक क्षण ईशभक्ति में लगाने के लिए उन्होंने सदैव भिक्षा मांगकर उदरपूर्ति की थी और कभी धनार्जन नहीं किया।
उनके द्वारा लिखित प्रबंधकाव्य रामचरित मानस को अपार जनश्रद्धा प्राप्त हुई। इस ग्रंथ की चौपाइयां गांव-गांव गाई जाने लगीं। तत्कालीन संदर्भों के अनुसार काशी के कुछ पण्डित नहीं चाहते थे कि गोस्वामीजी द्वारा लिखित रामचरित मानस को लोक में ख्याति मिले। पण्डितों के इस दुराग्रह का मुख्य कारण यह था कि यह ग्रंथ संस्कृत में न होकर लोकभाषाओं अवधी एवं ब्रज में लिखा गया था जिसके कारण इस ग्रंथ को गांव-गांव में प्रचुर ख्याति मिल रही थी।
दुराग्रही पण्डितों ने गोस्वामीजी के इस ग्रंथ को नष्ट करने के लिए लठैत भिजवाए किंतु कहा जाता है कि भगवान श्रीराम एवं लक्ष्मणजी स्वयं धनुष-बाण लेकर इस ग्रंथ की रक्षा किया करते थे। स्वयं हनुमानजी गोस्वामीजी की कुटिया पर पहरा लगाने लगे। इस कारण दुराग्रही पण्डितों के लठैत इस ग्रंथ को नष्ट नहीं कर पाए। इस कारण गोस्वामीजी की ख्याति और अधिक बढ़ गई। यह ख्याति अकबर के दरबार तक जा पहुंची।
जब अकबर ने गोस्वामीजी को मनसब देने का प्रस्ताव भिजवाया तो गोस्वामीजी ने एक दोहा लिखकर अकबर को भिजवाया। यह दोहा इस प्रकार से था-
हम चाकर रघुबीर के पटौ लिखौ दरबार
तुलसी अब का होइंगे नर के मनसबदार।
अर्थात्- मैं तो भगवान श्रीराम का सेवक हूँ, मेरा पट्टा तो स्वयं प्रभु श्रीराम के दरबार से लिखा गया है। क्या अब मुझे मनुष्य का मनसबदार होना पड़ेगा! कहते हैं कि गोस्वामीजी के इस उत्तर से अकबर क्रोधित हो गया तथा उसने गोस्वामजी को पकड़कर जेल में बंद करवा दिया।
जब गोस्वामीजी जेल में बंद कर दिए गए तो बंदरों के एक विशाल झुण्ड ने अकबर के महल पर आक्रमण कर दिया। अकबर के महल में चारों तरफ बंदर ही बंदर दिखाई देने लगे। उन्होंने महल में रखी वस्तुएं उठाकर फैंक दी तथा अकबर के परिवार एवं सेवकों को डराने लगे।
अकबर के सैनिकों ने बंदरों को भगाने के बहुत प्रयास किए किंतु बंदरों का उत्पात जारी रहा। इस पर किसी ने अकबर को सुझाव दिया कि आपने गोस्वामी तुलसीदासजी को पकड़ लिया है, उनकी रक्षा स्वयं हनुमानजी करते हैं। इसलिए ये बंदर आपसे कुपित हो गए हैं। आप कोतवाल को आदेश दें कि वह गोस्वामीजी को मुक्त कर दे।
अकबर ने इस सुझाव को स्वीकार कर लिया तथा गोस्वामीजी को मुक्त करने के आदेश दिए। जब गोस्वामीजी मुक्त कर दिए गए तो बंदर शांत हो गए और वे अकबर का महल छोड़कर चले गए। अलग-अलग ग्रंथों में इस घटना का उल्लेख अलग-अलग तरह से मिलता है। कहा जाता है कि अकबर ने स्वयं गोस्वामीजी के समक्ष उपस्थित होकर उनसे क्षमा याचना की।
अकबर समझ गया कि संत तुलसीदास और अकबर कभी भी एक साथ नहीं बैठ सकते। अकबर अनाचारी म्लेच्छ शासक था और तुलसीदास भगवान राम के भक्त थे। इन दोनों का कोई मेल वैसे भी नहीं बैठता था।
अकबर ने वृंदावन के स्वामी हरिदासजी को भी अपने दरबार में आमंत्रित किया। वे अपने समय के प्रख्यात भक्त-कवि, शास्त्रीय संगीतकार तथा सखी संप्रदाय के प्रवर्तक थे। इस सम्प्रदाय के उपासक स्वयं को भगवान श्रीकृष्ण की सखि समझते हैं। स्वामी हरिदास को ललिता सखी का अवतार माना जाता था। वे उच्च कोटि के संगीतज्ञ थे।
उन्होंने शास्त्रीय संगीत परम्परा में चतुष् ध्रुपदशैली की रचना की। ‘केलिमाल’ में स्वामी हरिदास के सौ से अधिक पद संग्रहित हैं। इनकी वाणी सरस और भावुक है। माना जाता है कि प्रसिद्ध गायक तानसेन इनके शिष्य थे। कुछ संदर्भों के अनुसार स्वामी हरिदास तानसेन के गुरु नहीं थे किंतु तानसेन उनका गुरुवत् सम्मान करते थे।
जब अकबर ने संत हरिदास को अपने दरबार में बुलाया तो हरिदास ने भी अकबर के दरबार में जाने से मना कर दिया। इस पर अकबर उनके दर्शन करने स्वयं वृन्दावन गया। वह घण्टों तक हरिदास के चरणों में बैठकर उनका गायन सुनता रहा। यह प्रसिद्ध है कि अकबर साधु के वेश में तानसेन के साथ इनका गायन सुनने के लिए गया था।
संत हरिदास केवल निर्धारित समय पर भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिमा के समक्ष गाया करते थे। इसलिए तानसेन ने एक युक्ति निकाली ताकि हरिदास अकबर के समक्ष गायन करें। तानसेन स्वामी हरिदास के सम्मुख बैठकर गाने लगे और उन्होंने जानबूझकर गायन में कुछ भूल कर दी। इस पर स्वामी हरिदास ने उसी पद को शुद्ध करके गाया। इस युक्ति से अकबर को स्वामी हरिदास का गायन सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो गया। अकबर ने स्वामी हरिदास को बहुत सारी भेंट देनी चाही परंतु इन्होंने स्वीकार नहीं की।
लोकमान्यता है कि अकबर ने तानसेन के साथ वृंदावन की यात्रा की तथा मीरांबाई से उनके भजन सुने। मीरांबाई चित्तौड़ के महाराणा संग्रामसिंह (सांगा) के बड़े पुत्र कुंअर भोजराज की पत्नी थीं तथा अपने पति भोजराज की मृत्यु हो जाने के बाद चित्तौड़ के महल छोड़कर वृंदावन में निवास किया करती थीं।
मीरांबाई से अकबर की भेंट के सम्बन्ध में प्रचलित लोक मान्यता सही जान नहीं पड़ती। मीरांबाई का जन्म ई.1488 में तथा निधन ई.1547 में हुआ था। वे अकबर के दादा बाबर तथा पिता हुमायूँ की समकालीन थीं। जिस समय अकबर आगरा एवं दिल्ली का बादशाह हुआ, उस समय तक मीरांबाई इस संसार को त्यागकर जा चुकी थीं। अतः यह मान्यता सही नहीं है कि अकबर तानसेन के साथ वृंदावन गया और मीरांबाई के समक्ष उपस्थित हुआ। वस्तुतः अकबर और तानसेन ने वृंदावन जाकर स्वामी हरिदास से भेंट की थी और उनके गाए भजन सुने थे न कि मीरांबाई के।