जब-जब सनातन धर्म पर संकट आया है, तब-तब सनातन धर्म की रक्षा के लिए भारत के साधु-संतों एवं संन्यासियों ने अपने साधना स्थलों से बाहर निकल कर भारत की जनता का उद्धार किया है। आज फिर से सनातन धर्म संकट में है तथा साधु-संतों एवं संन्यासियों को अपने मठों, आश्रमों, तपोस्थलियों से बाहर निकल कर हिन्दू जनता के बीच आकर हिन्दू जनता का उद्धार किए जाने की आवश्यता है।
सनातन धर्म पर प्रहार करके उसे नष्ट करने का सिलसिला उस समय से ही आरम्भ हो गया था जिस समय हयग्रवीव नामक असुर ब्रह्माजी के हाथों से वेद छीनकर पाताल में छिप गया था। तब भगवान विष्णु ने ब्रह्माजी को नींद में सोया हुआ जानकर स्वयं वेद की रक्षा करने का निश्चय किया तथा हयग्रीव नामक असुर को मारने के लिए विष्णु ने स्वयं भी हयग्रीव के रूप में अवतार लिया तथा हयग्रीव नामक असुर को मारकर वेद का उद्धार किया था।
तब से लेकर आज तक सनातन वैदिक धर्म पर असुरों, दैत्यों, विधर्मियों आदि के प्रहार होते ही रहे हैं। इसी कारण समय-समय पर सनातन वैदिक धर्म की रक्षा के लिए प्रयास भी उच्च स्तर पर होते रहे हैं।
भगवान विष्णु ने मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम और कृष्ण के रूप में अवतार लेकर हिन्दू धर्म को बचाया।
जिस समय रावण ने वैदिक संस्कृति एवं धर्म को मिटाने के लिए देवताओं एवं लोकपालों को बंदी बना लिया और जंगलों में तप कर रहे ऋषि-मुनियों को नष्ट करना आरम्भ किया, तब मुनि विश्वामित्र ने श्रीराम को अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा देकर तथा महर्षि अगस्त्य ने श्रीराम को दिव्य अस्त्र-शस्त्र देकर लेकर असुरों का वध करवाया।
महाभारत काल में जब कंस, जरासंध, शिशुपाल, दुर्योधन आदि दुष्ट राजाओं के कारण हिन्दू धर्म एवं संस्कृति पर महाविनाश का खतरा उत्पन्न हो गया तब श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर, द्रुपद, विराट, त्रितर्ग एवं पाण्ड्य आदि समस्त अच्छी शक्तियों को एक करके दुष्ट राजाओं का विनाश करवाया। इसीलिए श्रीकृष्ण की वंदना कृष्णम् वंदे जगद्गुरुम् कहकर की जाती है।
जिस समय बौद्धों ने मौर्य राजाओं का संरक्षण पाकर सनातन वैदिक धर्म को पूरी तरह समाप्त करने की तैयारी की, उस समय पूरे भारत में बौद्ध मठ बन गए। लोग अपना नियत कर्म त्यागकर मठों में जाकर रहने लगे। देश में तंत्र-मंत्र और अभिचार का बोलबाला हो गया। बौद्धों के इस पाखण्ड में वेदों की आवाज दब सी गई।
तब केरल के एक छोटे से गांव का संन्यासी शंकराचार्य केवल आठ वर्ष की आयु में अपने गुरु से दीक्षा लेकर भारत की आत्मा को जगाने के लिए निकला। वह जंगलों, पर्वतों एवं नदियों को पार करता हुआ सम्पूर्ण भारत में घूमा।
आचार्य शंकर ने गांव-गांव जाकर लोगों को वैदिक धर्म का ज्ञान दिया। बौद्धों को शास्त्रार्थों में पराजित किया। चार दिशाओं में चार मठों की स्थापना की जिन्होंने धर्म रूपी समुद्र में यात्रा कर रही भारत की जनता को सदियों तक ज्ञान का प्रकाश स्तम्भ बनकर धर्म के सच्चे स्वरूप का ज्ञान करवाया।
बौद्धों के पाखण्ड का नाश करने के लिए गुरु मत्स्येंद्रनाथ, गोरखनाथ, भर्तरीनाथ एवं गोपीचंद आदि नौ नाथों ने अपने जीवन हिन्दू धर्म के उद्धार के लिए झौंक दिए। ये नाथ भारत के गांव-गांव फिरे और उन्होंने लोगों को बौद्ध धर्म के पाखण्ड से बाहर निकलकर हिन्दू धर्म की तरफ लौटाया।
नाथों में ही सरहपा आदि चौरासी सिद्ध हुए। उन्होंने भी सैंकड़ों साल तक गुरु मत्स्येंद्रनाथ एवं गोरखनाथ के काम को आगे बढ़ाया और भारत की जनता सनातन वैदिक हिन्दू धर्म में लौट आई। सरहपा को भी बौद्धों ने बौद्ध बना लिया था किंतु वे अपनी आत्मा के प्रकाश से पुनः हिन्दू धर्म में लौटे तथा उन्होंने भारत, नेपाल एवं तिब्बत में निवास करने वाली हिन्दू जतना का उद्धार किया।
जिस समय सातवीं शताब्दी ईस्वी में अरब की धरती पर इस्लाम ने जन्म लिया और आठवीं शताब्दी ईस्वी से खलीफाओं की सेनाएं भारत के लोगों को बलपूर्वक मुसलमान बनाने के लिए आने लगीं, तब दक्षिण भारत में आलवार संतों ने भारत के लोगों को विष्णु-भक्ति का मार्ग सुझाया। कुल 12 आलवार संतों ने तीन सौ साल की अवधि में पूरे दक्षिण को भक्तिमय कर दिया। घर-घर आरती और कीर्तन होने लगे।
आलवार संतों ने दक्षिण भारत में विष्णु धर्म की जड़ को इतना मजबूत कर दिया कि उसे किसी लालच, भय एवं मीठी बातों से हिला पाना संभव नहीं रहा।
इन्हीं आलवारों की परम्परा में रामानुजाचार्य हुए। रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य और निम्बार्काचार्य ने भी सैंकड़ों साल तक भारत की जनता का अध्यात्मिक नेतृत्व किया तथा उसमें विष्णु भक्ति के प्रति नवीन चेतना का संचार किया।
रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में रामानंदाचार्य हुए। उनके काल में महमूद गजनवी एवं उनके कुछ समय बाद मुहम्मद गौरी आदि के नेतृत्व में भारत की जनता का संहार हुआ। उत्तर भारत की जनता अपना धर्म बचाने के लिए कुओं में छलांगें लगाने लगी। बहुत से भयभीत हिन्दू तलवार के जोर पर मुसलमान बनाए गए।
इस काल में रामानुजाचार्य के शिष्य रामानंद ने मोर्चा संभाला। उन्होंने, उनके श्ष्यिों ने तथा उनके शिष्यों के शिष्यों ने उत्तर भारत में भक्ति की ऐसी रसधारा बहाई कि लोग अपने धर्म की रक्षा करने के लिए आततायी सेनाओं का मुकाबला करने के लिए तैयार होने लगे।
रामानंद की प्रेरणा से उत्तर भारत में वैष्णव भक्त-कवियों की झड़ी लग गई। कबीर, तुलसी, मीरा, रैदास, दादू आदि संतों ने भारत की आत्मा को धर्ममय बना दिया। तुलसीदास ने धनुर्धारी राम का ऐसा स्वरूप भारत की जनता के सामने रखा, जैसा पहले कोई भी नहीं रख सका था।
तुलसी के राम हाथ में धनुष लेकर ताड़का, सुबाहू, मारीच और रावण को मारते थे तो शबरी के झूठे बेर खाकर, गीध की अंत्येष्टि करके, बिना किसी अपराध के ही समाज की दृष्टि से नीचे गिरी हुई अहिल्या का उद्धार करके सम्पूर्ण भारतीय समाज को सम्बल देते थे और जंगलों में स्थित संत-महात्माओं के आश्रमों में जाकर उन्हें निर्भय होकर तप करने का संदेश देते थे।
जिस समय देश पर सिकंदर लोदी भारत के लोगों को तेजी से मुसलमान बनाने लगा, उस काल में वल्लभाचार्य और उनके शिष्यों ने मोर्चा संभाला। उन्होंने वृंदावन क्षेत्र से उन मूर्तियों का उद्धार किया जो आतताइयों के भय से धरती में दबी पड़ी थीं। वल्लभाचार्य के शिष्य सूरदास ने पूरी भारत भूमि को कृष्णमय बना दिया। आज भी करोड़ों भारतीय सूरदास के बाल कृष्ण को भोग लगाए बिना मुंह में अन्न नहीं रखते।
सिकंदर लोदी के शासन काल में ही बंगाल से चैतन्य महाप्रभु अपने शिष्यों की मण्डली लेकर बंगाल से निकले। वे भारत के सैंकड़ों गांवों से हरिकीर्तन करते हुए और भक्ति में मग्न होकर नाचते हुए निकले तथा वृंदावन तक पहुंचे। उनके गौड़ीय सम्प्रदाय ने बड़ी संख्या में बंगाल, बिहार, उड़ीसा एवं उत्तर प्रदेश के लोगों को मुसलमान बनने से रोका।
जब इस्लामी सेनाओं ने महाराष्ट्र में प्रवेश किया, तब संत ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम, रामदास आदि सैंकड़ों संतकवि घरों का त्याग करके जनता के बीच घूमने लगे।
औरंगजेब के काल में हजारों सतनामियों ने मीनाक्षी माता से प्रेरणा पाकर पंजाब से लेकर आगरा एवं दिल्ली तक के क्षेत्र में औरंगजेब की सेना द्वारा किए जा रहे अत्याचारों का विरोध किया तथा औरंगजेब की सेना को परास्त किया।
जो इतिहास हमें अंग्रेजी शासन के काल में तथा उसके बाद कांग्रेस के काल में पढ़ाया गया है, उसमें भारत के साधु-संतों एवं संन्यासियों के योगदान को उपेक्षित किया गया है ताकि भारत की जनता में जो धर्म रूपी एकता का सूत्र है उसे नष्ट करके उस पर शासन किया जा सके।
धर्म रूपी सूत्र की एकता के बल पर भारत की जनता ने मुहम्मद बिन कासिम से लेकर, महमूद गजनवी, मुहम्मद गौरी, तैमूर लंग, अहमदशाह अब्दाली, बख्तियार खिलजी आदि सैंकड़ों आतताइयों का सामना किया। हिन्दू वीर रणखेत में अमर हुए किंतु उन्होंने अपना धर्म नहीं छोड़ा।
इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि यदि भारत के हिन्दुओं ने हिन्दू धर्म छोड़ दिया होता तो आज भारत में हिन्दुओं का वही हाल होता जो ईरान में पारसियों का हुआ और अफगानिस्तान में बौद्धों का हुआ। उन देशों में अब न कोई पारसी बचा है और न कोई बौद्ध।
अंग्रेजों के समय में संन्यासियों ने भारत की जनता में विदेशी शासन के विरुद्ध अलख जगाने का कार्य किया जो कि भारत की जनता को ईसाई बनाने का प्रयास कर रहा था। हिन्दू संन्यासियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति करने का प्रयास किया जिसे कुचलने के लिए अंग्रेज सरकार ने हजारों संन्यासियों की हत्याएं करवाईं। इसी संन्यासी आंदोलन को कलकत्ता के हिन्दू डिप्टी कलक्टर बंकिमचंद्र चटर्जी ने आनंद मठ नामक उपन्यास की रचना की जिसका एक गीत वंदे मातरम् भारत भूमि के लिए वरदान सिद्ध हुआ।
वंदे मातरम् भारत की आत्मा में समा गया। वंदे मातरम् को उद्घोष करते हुए सैंकड़ों हजारों हिन्दू अंग्रेजी गोलियों के सामने छाती ठोककर खड़े हो जाते थे। आज भी हम वंदे मातरम् को सुनकर जैसी अनूभति करते हैं, वैसी किसी अन्य गीत को सुनकर नहीं करते।
दुनिया में 195 देश हैं, उनमें से 57 देशों में आज इस्लाम का शासन है। शायद ही कोई देश बचा हो जहाँ मुसलमान नहीं रहते या उन देशों की जनता को मुसलमान बनाने के प्रयास नहीं चलते।
इस्लाम के नाम पर 1947 में भारत के तीन टुकड़े करवाए गए। आज उन्हीं देशों से इस्लाम को मानने वाले लोग भारत में चोरी-छिपे प्रवेश कर रहे हैं, हिन्दू लड़कियों को लव जेहाद में फंसाकर हिन्दू धर्म से दूर कर रहे हैं। उनकी कोख से ऐसी संतान उत्पन्न होती है जो हिन्दू धर्म के लिए और भी बड़ा खतरा है।
इसीलिए आज एक बार फिर मठों से बाहर निकलने का समय आ गया है! साधु-संत और संन्यासी अपने मठों, आश्रमों, तपोस्थलियों से बाहर निकलें। गांव-गांव जाएं, लोगों को हिन्दू धर्म की आत्मा के दर्शन करवाएं। उन्हें शांति और अहिंसा का संदेश देते हुए अपने धर्म में बने रहने के लिए प्रेरित करें। सनातन धर्म की रक्षा के लिए उन्हें अपने पुरखों का गौरव स्मरण करवाएं।
भारत की जनता को अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा भारत में इस्लाम के प्रसार के लिए चलाए जा रहे षड़यंत्रों का ही सामना नहीं करना है, उन्हें उन ईसाई मिशनरियों का भी सामना करना है जो आदिवासियों, निर्धनों एवं भोलेभाले लोगों को चमत्कारों में फंसाकर हिन्दू धर्म से दूर कर रहे हैं। सनातन धर्म की रक्षा के लिए इन पाखण्डों एवं षड़यंत्रों का भाण्डाफोड़ करना आवश्यक है।
खतरा बाहर से ही नहीं अंदर से भी है। यदि भारत के साधु-संत और संन्यासी अपने मठों, आश्रमों, तपोस्थलियों से बाहर निकल कर भारत की जनता तक नहीं पहुंचे तो भारत की भोलीभाली जनता रामरहीम इंसां, नित्यानंद और आसाराम बापू जैसे ठगों, हत्यारों एवं दुराचारियों के चंगुल में फंसकर अपना इहलोक एवं परलोक दोनों ही नष्ट करती रहेगी।
भारत में अरबपति सेठों की कमी नहीं है, वे भी भारत के साधु-संत एवं संन्यासियों की सहायता करें जिससे साधु-संत गांव-गांव में मण्डलियों के रूप में पहुंचकर वहाँ के सरपंचों एवं प्रभावशाली लोगों से सम्पर्क करके गांवों में जनसभाएं करके लोगों को हिन्दू धर्म के व्यावहारिक स्वरूप का उपदेश दें।
साधु-संत एवं संन्यासियों को कोई राजनीतिक बात नहीं करनी है, कोई आंदोलन नहीं खड़ा करना है, विशुद्ध रूप से वही कार्य करना है जिसके लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित किया है। वे अपनी तपस्या भी करें और शंकराचार्य तथा चैतन्य महाप्रभु बनकर गांवों में जाएं। आज पढ़ी लिखी नई पीढ़ी हिन्दू धर्म की बातों को हेय समझती है तो उसका कारण केवल यही है कि कोई उन्हें पथ दिखाने वाला नहीं है। सनातन धर्म की रक्षा के लिए साधु-संत यह कार्य कर सकते हैं।
यदि साधु-संन्यासियों की मण्डलियां गांवों में कोई उपदेश न भी करें तथा केवल हरिकीर्तन करती हुई एक गांव से दूसरे गांव तक जाएं तो भी भारत में ऐसा अद्भुत वातावरण तैयार होगा कि पूरा संसार दांतों तले अंगुली दबाएगा।
हम साधु-संतों एवं संन्यासियों को कोई निर्देश, सुझाव या मार्गदर्शन नहीं दे सकते, हम केवल उनसे करबद्ध होकर प्रार्थना कर सकते हैं कि वे मठों से निकलकर हमारे बीच आएं और हमें हिन्दू धर्म में बने रहने के लिए प्रेरित करें।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता