Thursday, November 21, 2024
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सरहपाद बौद्ध या हिन्दू !

सरहपाद अथवा सरहपा द्वारा प्रतिपादित सहजयान सम्प्रदाय को बौद्धधर्म के अंतर्गत गिना जाता है किंतु दार्शनिक स्तर पर सरहपाद बौद्धदर्शन से काफी दूर है। इस आलेख में ‘ सरहपाद बौद्ध या हिन्दू ‘ विषय पर विचार किया गया है।

बौद्धधर्म

छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व के संन्यासी सिद्धार्थ गौतम को ज्ञान प्राप्त होने पर गौतम बुद्ध अथवा बुद्ध कहा गया। बुद्ध के उपदेशों को उनके शिष्यों ने दार्शनिक स्वरूप प्रदान कर एक अलग मत का प्रतिपादन किया जिसे बौद्धधर्म कहा गया। बुद्ध ने अपने उपदेशों में आत्मा, परमात्मा, परलोक और मोक्ष आदि विषयों पर बात न करके लौकिक जीवन में जीवों पर करुणा करने का एवं कठोर साधना छोड़कर मध्यम मार्ग अपनाने का मार्ग बताया।

अगले एक हजार साल में बौद्धधर्म भारत एवं उससे लगते हुए पूर्वेशियाई एवं दक्षिण एशियाई देशों में फैलता चला गया। आज के भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, चीन, तिब्बत, बर्मा, थाईलैण्ड, श्रीलंका, कोरिया, इण्डोनेशिया, वियतनाम आदि देशों में रहने वाले अधिकांश लोग बौद्धधर्म का पालन करते थे। इस अवधि में बौद्धधर्म में तंत्र-मंत्र एवं अभिचार आदि भी होने लगे।

हीनयान और महायान

छठी शताब्दी ईस्वी में जब कुमारिल भट्ट, शंकराचार्य और मण्डन मिश्र आदि वेदांतियों ने बौद्धधर्म में फैली कुरीतियों पर आघात किया तब बौद्धधर्म दो भागों में बंट गया जिन्हें ‘हीनयान’ और ‘महायान’ कहा गया। हीनयान उसे कहते थे जो अपने परम्पागत सिद्धांतों में परिवर्तन की छूट नहीं देता था जबकि महायान उसे कहा गया जो बुद्धदर्शन में नए विचारों के प्रवेश की अनुमति देता था। बहुत से विद्वानों के अनुसार हीनयान बौद्धधर्म का चिन्तन पक्ष या सैद्धान्तिक पक्ष था और महायान व्यावहारिक पक्ष।

सिद्धों का उद्भव

सिद्धों का उद्भव बौद्धधर्म के भीतर एक अलग शाखा के रूप में हुआ। कहा जाता है कि महायान की वज्रयान शाखा के कुछ भिक्षुओं द्वारा सरल साधना से तंत्र और अभिचार का आश्रय लेकर सिद्धि प्राप्त करने की प्रक्रिया अपनाई गई। सिद्धि प्राप्त करने के लिए साधना करने वाले ये साधक ‘सिद्ध’ कहलाए।

बौद्धधर्म के सहजयान में सिद्धों की कुल संख्या चौरासी बताई गई है। राहुल सांकृत्यायन ने इनमें से दस सिद्धों को सर्वाधिक प्रभावशाली एवं महत्वपूर्ण माना है। सिद्धों में पहला नाम सरहपाद का है जिन्हें लोक में सरहपा के नाम से भी ख्याति प्राप्त है। सरहपा के बाद शबरपा, लुइपा, डोम्भिपा, कण्हपा तथा कुक्कुरिपा आदि सिद्ध हुए। सिद्धों का कार्यक्षेत्र बिहार, उड़ीसा, बंगाल एवं असम आदि प्रांतों में था।

अन्य दर्शनों में भी सिद्धों की परम्परा

बौद्धधर्म की महायान शाखा के अंतर्गत विकसित वज्रयान सम्प्रदाय के अतिरिक्त किसी भी अन्य बौद्ध सम्प्रदाय में सिद्धों की चर्चा नहीं की गई है किंतु सिद्ध केवल वज्रयान की परम्परा में ही नहीं हुए, जैनों की परम्परा में भी सिद्ध हुए हैं तथा शैवधर्म के नाथ सम्प्रदाय में भी सिद्ध हुए हैं।

इन तीनों परम्पराओं के सिद्धों की सूची अलग-अलग मिलती है किंतु 84 सिद्धों में से कुछ नाम अन्य सम्प्रदायों की सूची में भी मिलते हैं। यहाँ तक कि कुछ नाम तीनों ही सूचियों में मिलते हैं। सरहपा का नाम भी विभिन्न सूचियों में मिलता है। इस आलेख में सहजयानी सिद्धों की परम्परा में हुए सरहपा की चर्चा की गई है।

सिद्धों का काल

वज्रयान के सिद्धों की परम्परा में प्रथम सिद्ध सरहपा को माना गया है। सरहपा के ग्रंथों एवं उनमें उपलब्ध उल्लेखों के आधार पर उनका काल ई.720 से 820 के बीच अनुमानित किया गया है।

सहजयान के सिद्धों की कुल संख्या चौरासी है। सिद्धों की यह परम्परा कब तक चली, कहा नहीं जा सकता। इनमें से अनेक सिद्धों ने काव्य के रूप में दर्शन ग्रंथों की रचना की। सिद्धों के दर्शन ने कई शताब्दियों तक हिन्दू धर्म की विभिन्न शाखाओं को प्रभावित किया।

सिद्धों का दर्शन

सिद्धों के आविर्भाव के समय बौद्धधर्म में कई प्रकार की कठोर साधनाओं का बोलबाला था। तंत्र-मंत्र आधारित इन कठोर साधनाओं और बुद्ध के मूल उपदेशों के बीच दार्शनिक अन्तर्द्वन्द्वों की पृठभूमि में सिद्धों का पदार्पण हुआ। सिद्ध दार्शनिक धार्मिक, कर्मकाण्ड, बाह्याचार, तीर्थाटन आदि के विरोधी थे।

सिद्धों ने अपने ग्रंथों में नैरात्म्य भावना, कायायोग, सहज, शून्य तथा समाधि की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं का वर्णन किया है। पहले सिद्ध सरहपा ने ही सिद्धों के लिए सहजयान का प्रवर्तन किया था। उन्होंने सहज जीवन और सहज साधना पर जोर दिया।

प्रथम सिद्ध सरहपा

सरहपा के बचपन का नाम सरोज था। उनका जन्म आधुनिक बिहार प्रांत के भागलपुर मंडल के राज्ञी कस्बे के एक वेदपाठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्होंने बाल्काल में वेद, पुराण, उपनिषद्, गीता, रामायण, महाभारत तथा संस्कृत व्याकरण का अध्ययन किया। वयस्क होने पर उनका विवाह एक ब्राह्मण कन्या से किया गया।

कुछ समय बाद वे ब्राह्मण धर्म की अनिवार्यताओं से असंतुष्ट होने के कारण अपना धर्म एवं परिवार छोड़कर नालंदा विश्वविद्यालय में बौद्धभिक्षु हरिभद्र के शिष्य हो गए। उनका नाम राहुलभद्र रखा गया। शिक्षा पूर्ण होने पर वे नालंदा विश्वविद्यालय में शिक्षक नियुक्त हुए।

बौद्धधर्म के प्रति शंका

राहुलभद्र बौद्ध बन गए थे किंतु कुछ प्रश्न उन्हें यहाँ भी उद्वेलित करने लगे। वे सोचते थे कि भगवान बुद्ध की करुणा स्त्रियों के लिए क्यों नहीं है? क्या सचमुच ही स्त्रियों की छाया पाप है? क्या चीवर धारण करने से मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी? क्या बौद्धभिक्षु के लिए चीवर धारण करने तथा मठ में रहने की अनिवार्यता सहज जीवन की विरोधी नहीं है? ऐसी अनिवार्यताएं तो ब्राह्मण धर्म में भी हैं। दोनों में अंतर क्या है?

बौद्धधर्म के प्रति उठने वाली शंकाओं से उद्वेलित होकर राहुलभद्र ने नालंदा विश्वविद्यालय छोड़ दिया और फिर से भटकने लगे। इसी काल में उन्होंने राजगृह में सरहकन्या नामक एक युवती से विवाह किया तथा अपना नाम भी सरह रख लिया। इस काल तक सरहपा बहुज्ञ और बहुश्रुत हो गए थे। वे लोगों को सहज जीवन जीने तथा अपना कर्म करने का उपदेश देने लगे। शिष्यों के द्वारा उन्हें सरहपाद एवं सरहपा कहा गया।

सहजयान का उदय

सरहपा बौद्धधर्म की वज्रयान शाखा में दीक्षित हुए थे किंतु उनके सिद्धांत न तो बौद्धधर्म से मेल खाते थे और न व्रजयान से। इसलिए उनके द्वारा दिए जा रहे उपदेशों को सहजयान कहा जाने लगा। कुछ समय बाद उन्होंने भारत भ्रमण किया तथा लोगों को सहज जीवन जीने का उपदेश दिया।

सरहपा कालीन दर्शन

सरहपा के जन्म के समय तक गौतम बुद्ध का निर्वाण हुए कम से कम 12 शताब्दियां बीत चुकी थीं। इस बीच न केवल बौद्धदर्शन में अपितु वैदिक धर्म की विभिन्न शाखाओं के प्रचलित दर्शनों एवं स्वरूपों में पर्याप्त अंतर आ चुका था। कुछ दर्शन तो आपस में इतने गड्डमड्ड हो चुके थे कि सरहपा युगीन भारत में दर्शन की अनेक उलझी हुई गुत्थियाँ देखने को मिलती हैं। प्रत्येक दर्शन में जीव, जगत, माया, शरीर, तन्त्र-मन्त्र, आचार-विचार, मुक्ति, गुरु, समाधि, साधना आदि के बारे में भिन्न-भिन्न सिद्धांत एवं मत प्रचलित थे।

बहुत से लोग सिद्धों, नाथों और ज्ञानाश्रयी संतों को भी बौद्धों की परम्परा में मानते हैं जो कि किसी भी प्रकार से स्वीकार्य नहीं है। ये तीनों ही बौद्ध धर्म एवं बौद्ध दर्शन से काफी दूर हैं। यहाँ तक कि सिद्ध सैद्धांतिक रूप से बौद्ध होते हुए भी व्यावहारिक रूप से बौद्धों से पर्याप्त भिन्न हैं।

 सरहपाद का दर्शन

यद्यपि सरहपा ने बौद्धधर्म के सिद्धांतों से निराश होकर तथा वज्रयान के सिद्धांतों से विद्रोह करके सहजयान के सिद्धांत प्रतिपादित किए थे तथापि उनके मत को बौद्धधर्म की ही एक शाखा माना गया। वैचारिक नवीनता के कारण सरहपाद का सहजयान बौद्धधर्म की महायान शाखा के अंतर्गत माना गया जो वज्रयान से यंत्रयान के रूप में विकसित हुई थी।

सरहपाद के दर्शन का परिचय उनके ग्रंथों से मिलता है। उनके अब तक 32 ग्रंथ प्राप्त हुए हैं जिनमें से कुछ संस्कृत के तथा कुछ अपभ्रंश के हैं, उनके कुछ ग्रंथों के तिब्बती अनुवाद ही प्राप्त हो सके हैं। उनके कुछ ग्रंथ इस प्रकार हैं-

1. कखस्यदोहानाम, 2. कखदोहाटिप्पण, 3. कायकोशामृतबज्रगीति, 4. कायवाकचित्तामनसिकारनाम, 5. चित्तकोषाजबज्रगीति 6. तत्त्वोपदेशशिखरदोहागीति, 7. दोहाकोशगीति, 8. दोहाकोशनामचर्यागीति, 9. दोहाकोशोपदेशगीतिनाम, 10. दोहाकोशनाममहामुद्रोपदेश, 11. द्बादशोपदेशगाथा, 12. भावनादृष्टिचर्याफलदोहागीति, 13. बसन्ततिलकदोहा्कोषगीतिकानाम 14. भावनादृष्टिचर्याफलदोहागीतिकानाम, 15. महामुद्रोपदेशवज्रगुह्यगीति, 16. वाक्कोसारुचिरस्वरबज्रगीति, 17. श्रीबुद्धकपालतन्त्रपंजिका, 18. श्रीबुद्धकपालमण्डलबिद्धिक्रम प्रद्योत्ननामा, 19. श्रीबुद्धकपालसाधनानाम, 20. स्वाधिष्ठानाक्रम, 21. सर्वभूतबलिबिद्धि, 22. त्रैलोकवशंकरलोकेश्वरसादन।

बौद्धधर्म से साम्य

सरहपा के दर्शन का मूल बौद्धधर्म से लिया गया है जिसमें बुद्ध की करुणा एवं बौद्धदर्शन के शून्यवाद को ज्यों का त्यों ग्रहण किया गया है। करुणा एवं शून्य को जीवन का लक्ष्य बताते हुए सरहपा कहते हैं-

करुणा रहिअ जो सुण्णहिं लग्गा

णउ सो पावइ उत्तिम मग्गा।

अर्थात्- करुणा का भाव अपनाकर शून्य में स्थित रहने वाला व्यक्ति उत्तम मार्ग को प्राप्त करता है।

बौद्ध दर्शन स्वर्ग-नर्क को अस्वीकार करता है, सरहपा ने भी स्वर्ग के अस्तित्व को नकारा है। इस दृष्टि से भी सरहपा बौद्ध दर्शन के निकट हैं-

पाणि चलणि रअ गइ, जीव दरे ण सग्गु।

वेण्णवि पन्था कहिअ मइ, जहिं जाणसि तहिं लग्गु।।

अर्थात्- हाथ, पैर, शरीर ये सब धूल में समा जाते हैं। ये ही जीव की स्थिति है। स्वर्ग नहीं है। सरह कहते हैं कि मैंने (स्वर्ग तथा नर्क) दोनों मार्ग बता दिए हैं, जो अच्छा लगे, उस पर चल।

बुद्ध ने आत्मा की बात नहीं की। इस तथ्य को बौद्ध दर्शन में नैरात्म के सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया। इसी से ‘शून्य’ दर्शन उत्पन्न हुआ। नैरात्म और शून्य का अर्थ है कि देह में आत्मा नामक कोई वस्तु नहीं है।

सिद्धों ने भी बुद्ध के नैरात्म और करुणा के विचार को स्वीकार किया तथा शून्य में स्थिर होकर सुख और शांति की अनुभूति करने का विचार अपनाया। सहजयान के अनुसार जिस मनुष्य के मन में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है, समरसता है, वही सिद्ध है।

बौद्धदर्शन से वैषम्य

बौद्धदर्शन के नैरात्म और शून्यता के सिद्धांत से सहमति व्यक्त करते हुए भी सरहपा का सहजयानी दर्शन बौद्ध दर्शन से काफी अलग है-

1. बौद्धधर्म करुणा से उपजे सत्य, अहिंसा एवं सदाचरण पर बल देता है और संघ शक्ति को स्वीकार करता है जबकि सरहपाद के सहजयान में, सहज कर्म करते हुए सहज जीवन निर्वाह करने की प्रेरणा और नैरात्म (शून्यता) एवं करुणा पर बल दिया गया है।

2. बौद्धधर्म मनुष्य के लिए भिक्षु बनकर मठ में निवास करने का मार्ग बताता है जबकि सहजयान में संन्यास के स्थान पर गृहस्थी को मान्यता दी गई है।

3. बुद्ध ने कभी भी आत्मा अथवा परमात्मा की बात नहीं की। न उन्हें स्वीकार किया, न नकारा किंतु सहरपा ने चित्त, आत्मा एवं परमात्मा की निरंतर चर्चा की है।

4. बौद्धधर्म के वज्रयान में हठयोग एवं ध्यानयोग के माध्यम से कुण्डलिनी जागरण की बड़ी कठिन प्रक्रिया अपनाई गई है जबकि सरहपाद ने शक्ति जागृति के लिए सहजानुभूति एवं आडम्बरहीन स्वच्छ-सात्विक वृत्ति पर बल दिया जिससे सांसारिक द्वंद मिट जाते हैं और साधक निर्द्वन्द्व होकर आनंदलोक में विचरने लगता है। साधना की सहजानुभूति से उत्पन्न अद्वैत भाव कुंडलिनी शक्ति के द्वारा सहस्रार (मानव मस्तिष्क में स्थित हजार पंखुड़ियों वाला चक्र) में अमृतपान के आनंद के समान है।

5. बौद्ध दर्शन में निर्वाण को स्वीकार किया गया है किंतु सरहपाद ने निर्वाण को भी अस्वीकार करके परम महासुख अर्थात् सहज आनंद की स्थिति प्राप्त करने का सिद्धांत दिया है-

जहि मण पवण ण संचरइ, रविससि णाहिं पवेस

तहि बढ चित्त विसाम करु, सरहें कहिअ उएस

एक्क करु मा वेण्णि करुख मा करु विण्णि विसेस।

एक्कें रंगे रंजआ, तिहुअण सअलासेस

आइ ण अंत ण मज्झ तहिंख णउ भव णउ णिव्वाण।

एहु सो परममहासुह, णउ पर णउ अप्पाण

अर्थात्- जहाँ मन और पवन की गति नहीं है और जहाँ रवि और शशि की भी पहुँच नहीं है, हे मूर्ख मन! तू वहीं स्थिर हो। परम तत्व न एक है और न दो है तथा न ही विशेष दो है। यानी न अद्वैत है, न द्वैत है और न विशिष्टाद्वैत है। तीनों लोक संपूर्ण रूप से उसी परम तत्व के रंग में रंगे हुए हैं। इस परमपद का न आदि है, न अंत और न मध्य है। न ही उत्पन्न होता है और न ही यह निर्वाण की अवस्था है। यह न तो दूसरों का है और न ही अपना कहा जा सकता है। यह तो परम महासुख की अवस्था है।

उपनिषदों से साम्य

सैद्धांतिक रूप से सरहपा का सहजयान नैरात्म के सिद्धांत पर खड़ा है किंतु व्यावहारिक रूप से उनकी कविताओं में आत्मा का उल्लेख मिलता है। जब वे चित्त की बात करते हैं तो कहते हैं कि चित्त आत्मा में निवास करता है।

इस कारण सरहपा के ग्रंथों में उपलब्ध दर्शन बौद्धदर्शन से अथवा वज्रयान के दर्शन से मेल नहीं खाता। उनका साम्य उपनिषदों के दर्शन से है। उनके द्वारा रचित दोहागीतिकोष हिन्दी सन्त साहित्य परम्परा का ‘आदि ग्रन्थ’ माना जाता है। दोहागीतिकोष में उन्होंने लिखा है-

जिवँ लोणु विलिज्जइ पाणियहिं तिवँ जइ चित्तु विलाइ

अप्पा दीसइ परहिं सवुँ तत्थ समाहिए काइँ।।

अर्थात्- जिस प्रकार नमक पानी में विलीन होता है, वैसे चित्त आत्मा में विलीन हो जाता है। तब आत्मा, परमात्मा के समान दिखती है, फिर समाधि क्यों करें?

बृहदारण्यक उपनिषद के ब्रह्मज्ञानी याज्ञवलक्य ऋषि द्वारा जनक की राजसभा में विदुषी गार्गी से किए गए शास्त्रार्थ में आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए यही उद्धरण दिया गया है-

एक अन्य दोहे में सरहपा लिखते हैं-

जोवइ चित्तुण-याणइ बम्हहँ अवरु कों विज्जइ पुच्छइ अम्हहँ।

णावँहिं सण्ण-असण्ण-पआरा पुणु परमत्थें एक्काआरा ।।

अर्थात्- चित्त ब्रह्म को देखता है पर उसे जानता नहीं है। चित्त हमसे पूछता है कि दूसरा कौन है? नाम देने से संज्ञा एवं जड़ पृथक हो जाते हैं, परंतु परमार्थ से वे एकाकार हैं।

इस दोहे में दिया गया दर्शन पूर्णतः उपनिषदों पर आधारित है। बुद्धधर्म तो ब्रह्म की बात तक नहीं करता। इस प्रकार यह दोहा उपनिषदों का ही दर्शन प्रस्तुत करता है।

एक अन्य दोहे में सरहपा कहते हैं-

खाअंत-पीअंतें सुरउ रमंतें अरिउल-बहलहो चक्कु फिरंतें ।

एवंहिं सिद्धु जाइ परलोअहो मत्थएं पाउ देवि भू-लोअहो ।।

अर्थात्- खाता-पीता, रति करता, शत्रुओं के बहुसंख्यों के बीच चक्र फिराता। ऐसे ही सिद्ध भूलोक के मस्तक पर पाँव रखकर परलोक जाता है।

इस दोहे में परलोक की बात कही गई है। बुद्ध ने कभी भी परलोक की बात नहीं की। परलोक की चर्चा विशुद्ध रूप से उपनिषदों का दर्शन है।

नाथों से साम्य

सरहपा के साहित्य में जो दर्शन दिखाई पड़ता है, उसके मुख्य आधार सहज संयम, पाखंड-विनाश, गुरु सेवा, सहज मार्ग और महासुख की प्राप्ति है। शैव मत के नाथ सम्प्रदाय का भी यही दर्शन है। वज्रयान के परवर्ती सिद्धों की बानी में जो स्वच्छन्द आचार दिखाई देता है, वह सरहपा की बानी (वाणी) में लगभग नहीं के बराबर है।

भागवत धर्म से साम्य

सरहपा ने लिखा है-

देक्खउ सुणउ पईसउ साद्दउ। जिघ्घउ भ्रमउ बईसउ उट्ठउ।।

आलमाल बहवारें बोल्लउ। मण च्छडु एका ओर म्म चलउ।।

अर्थात्- संसार में आए हो तो सब कुछ देखो, सुनो, सुनो, सूंघो, घूमो, फिरो, उठो, बैठो, खाओ, पिओ। कोई आलमाल मिले तो प्रेम-प्यार से बोलचाल सब करो। उसके बाद योग करो। माना कि संसार में दुःख बहुत है किंतु सुख भी यहीं है।

सरहपा की इस कविता की बहुत सी बातें भागवत् धर्म के सिद्धांतों से मेल खाती हैं। भगवान कृष्ण कहते हैं-

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।

अर्थात्- जो मनुष्य यथायोग्य आहार और विहार करने वाला है, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाला है, यथायोग्य सोने और जागने वाला है, उसी मनुष्य का योग दुःखों का नाश करने वाला होता है।

इस श्लोक में भगवान कृष्ण ने यही संदेश दिया है कि न कम खाओ, न अधिक खाओ, न कम काम करो, न अधिक काम करो, न कम सोओ न अधिक सोओ, न कम जागो, न अधिक जागो, ऐसा करने से ही योग सफल होता है तथा मनुष्य के दुःखों का नाश होता है।

सरहपा द्वारा मत-मतांतरों की आलोचना

सरहपा ने ब्राह्मण धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म एवं पाशुपत धर्म आदि समस्त धर्मों के मतावलम्बियों की आलोचना की है। इस मामले में वे ठीक वैसे ही हैं, जैसे कबीर। यतियों की आलोचना करते हुए वे कहते हैं-

दीर्घानखी यति मलिने भेसे। नंगे होई उपाडे केसे।।

अर्थात्- यदि नंगे रहने से मोक्ष मिलने की सम्भावना हो तो कुत्ते और सियारों को तो मिल ही जाएगा।

सरहपा ने वेदों की आलोचना नहीं की। अपितु बहुत ही शांत स्वर में केवल इतना कहा कि ब्राह्मण चारों वेद पढ़ते हैं किंतु वे वेदों का मर्म नहीं जानते!

मानव के सहज धर्म का सिद्ध सरहपा

सरहपा का सहजयान मानव का सहज धर्म है जो गृहस्थों को करुणा और नैरात्म की अनिवार्यता की शिक्षा देता है। करुणा, दुःखानुभूति, सहानुभूति और परोपकार एवं सहअस्तित्व के बिना मनुष्य क्षण भर भी कैसे रह सकता है? सरहपा का सहज स्वाभाविक मानव धर्म समस्त कृत्रिम आडम्बरों को छोड़कर मानव के सहज गुणों को विकसित करने का संदेश देता है।

एक दोहे में वे कहते हैं-

एवं लहै परमपद् क्या बहु बोहिए एहिं।

हौं पुनि जानउ येन मन, छाड़ै चिन्ता तत्व।।

इस तरह परमपद को प्राप्त करना चाहिए। इसका क्या बहुत वर्णन करूं, मैं तो इतना जानता हूँ कि चिंता को छोड़कर मनुष्य परमपद पाता है। अर्थात् सरहपा की मान्यता है कि मनुष्य से अपना मन तो चिंता से मुक्त किया नहीं जाता, परमपद क्या खाक प्राप्त करेंगे?

विभिन्न दर्शनों की छाया

सरहपा के सम्पूर्ण साहित्य को पढ़ने से ज्ञात होता है कि उनके दर्शन पर विभिन्न दर्शनों की छाया है। उनका दर्शन एंद्रिक सुखों से दूर रहने के सिद्धांत पर टिका है। वे आत्मा को स्वीकार करते हैं किंतु स्वर्ग एवं मोक्ष को नकार कर शून्य में आनंद करने का उपदेश देते हैं, उनके इस दर्शन को इन दोहों से स्पष्ट किया जा सकता है-

जइ जग पूरिया सहजणन्दे, णच्चहु गावहु विलसहु चंगे।

विसअ रमन्तण विषअहि लिप्पइ, उ अअ हरंतण पाणी च्छुप्पइ।

णउ घरे णउ वणे बोहि ठउ, एहु परिआणउ भेङ।

णिमल चित्त सहावता, करहु अविकल सेहु।

बिस आसत्ति म बन्ध करू, अरे बढ़ सरहे बुत्त,

मौन पअङ्गम करि भमर पेव ख्रह हरिणह जुत्त।

नाद न विंदु न रवि न शशि मंडल, चिअराअ सहबे मूकल।

सरहपाद बौद्ध या हिन्दू!

उपरोक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि सहजयान बौद्धधर्म के सिद्धांतों की अपेक्षा उपनिषदों के दर्शन से अधिक मेल रखता है। इसलिए सरहपा के सहजयानी सिद्धांतों को हिन्दू धर्म की सम्पदा समझना चाहिए।

यदि यह पूछा जाए कि सरहपाद बौद्ध या हिन्दू! तो उसका एक ही उत्तर हो सकता है कि सरहपा उपनिषद के ज्ञान को लेकर चलने वाला सहज मार्ग का पथिक है और इस नाते से वह हिन्दू सिद्ध है न कि बौद्धभिक्षु!

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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