जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम की अनुशंसा भारत सरकार के लिए बाध्यकारी है या नहीं, जब से इस विषय पर चर्चा उठी है, तब से जनता में यह प्रश्न उठने लगा है कि ताकतवर कौन है, सुप्रीम कोर्ट या भारत सरकार?
सुप्रीम कोर्ट और भारत सरकार में से कौन अधिक ताकतवर है, इसका कानूनी पक्ष तो संविधान के बड़े-बड़े जानकार जिन्हें संविधान विशेषज्ञ कहा जाता है, कई सालों की बहस के बाद भी शायद ही एक-मत हो सकें किंतु लोकतंत्र में हर मामले पर जनता की कुछ न कुछ धारणा अवश्य होती है। भले ही यह धारणा लिखित रूप में नहीं होती किंतु इस धारणा की अपनी ताकत बहुत होती है।
जनता की धारणा इतनी ताकतवर होती है कि उसके सामने बड़ी से बड़ी शक्ति को नतमस्तक होना पड़ता है। हम यहाँ सुप्रीम कोर्ट तथा भारत सरकार की ताकत पर जनता की धारणा की बात कर रहे हैं कि इस विषय पर जनता क्या सोचती है!
सुप्रीम कोर्ट ताकतवर इसलिए हैं क्योंकि उसे चुनाव नहीं लड़ना है। भारत सरकार ताकतवर इसलिए हैै क्योंकि वह चुनावों से अस्तित्व में आती है।
सुप्रीम कोर्ट ताकतवर है इसलिए वह सीबीआई को पिंजरे में बंद तोता कहता है। भारत सरकार ताकतवर इसलिए है क्योंकि उसके पास ऐसे कई पिंजरे हैं जिनमें सीबीआई जैसे बहुत से तोते बंद हैं। ये तोते सरकार के असली उपकरण हैं, यदि ये तोते पिंजरे से बाहर निकाल दिए जाएं तो देश में अराजकता मच जाए।
सुप्रीम कोर्ट ताकतवर इसलिए है क्योंकि वह सरकार के बुलडोजर पर रोक लगा सकती है। सरकार ताकतवर इसलिए है क्योंकि उसे अवैध कब्जों को हटाने के लिए बुलडोजर चलाने की संवैधिानिक शक्ति प्राप्त है।
सुप्रीम कोर्ट ताकतवर इसलिए है क्योंकि उसने स्वयं ही कॉलेजियम की व्यवस्था कर ली है। सरकार ताकतवर इसलिए है कि वह कॉलेजियम की स्वयंभू व्यवस्था को अस्वीकार करके उसी पद्धति से जजों की नियुक्ति करना चाहती है जिस तरह से उनकी नियुक्ति का प्रावधान भारत के संविधान में किया गया है तथा 1993 तक जिस पद्धति से जजों की नियुक्ति होती आई थी।
न्यायालयों में जजों की नियुक्ति के मामले को छोड़कर भारत में एक भी पद ऐसा नहीं है जो अपनी नियुक्ति स्वयं कर ले। प्रत्येक पद के लिए किसी भी व्यक्ति का चयन संविधान सम्मत किसी अन्य संस्था द्वारा किया जाता है किंतु सुप्रीम कोर्ट जजों की नियुक्ति का अधिकार अपने पास रखना चाहती है और एक ऐसे कॉलेजियम के माध्यम से अपनी अनुशंसा को भारत सरकार के लिए बाध्यकारी मानती है जिसमें कोई चुना हुआ प्रतिनिधि शामिल नहीं है। इसी कारण जनता में यह बहस छिड़ी है कि ताकतवर कौन है, सुप्रीम कोर्ट या भारत सरकार।
न तो सुप्रीम कोर्ट, और न भारत सरकार, कोई भी जनता में आकर कॉलेजियम की बात नहीं करता किंतु सुप्रीम कोर्ट के वकीलों एवं सरकार के मंत्रियों के माध्यम से मीडिया में छन-छन कर कुछ बातें आती हैं जिनसे लगता है कि कॉलेजियम को लेकर दोनों संस्थाएं अपनी-अपनी ताकत को तौल रही हैं।
सुप्रीम कोर्ट ताकतवर इसलिए है क्योंकि संविधान सभा द्वारा बनाए गए संविधान ने सुप्रीम कोर्ट को बनाया है तथा उसे कुछ निश्चित ताकत दी है। भारत सरकार ताकतवर इसलिए है क्योंकि भारत सरकार ने ही संविधान सभा द्वारा बनाए गए संविधान को स्वीकार किया है, लागू किया है तथा भारत सरकार ही संसद के माध्यम से संविधान को हर समय जन-आकांक्षाओं के अनुरूप ढालती रहती है।
अब जबकि संविधान सभा अस्तित्व में नहीं है, तब उसकी उत्तराधिकारी संस्था संसद के रूप में विद्यमान है। संविधान की वास्तविक कस्टोडियन संसद ही है। वह इस कार्य में अपनी सुविधा के लिए सुप्रीम कोर्ट की भी सहायता लेती है।
सुप्रीम कोर्ट तथा भारत सरकार तो उस समय भी थे जब भारत पर अंग्रेजों का राज्य था किंतु तब के सुप्रीम कोर्ट तथा भारत सरकार की ताकत का स्रोत लंदन में लगने वाली संसद थी। जब ब्रिटिश वायसराय की सरकार भारत छोड़कर इंग्लैण्ड चली गई तब तत्कालीन सुप्रीम कोर्ट भी उस सरकार के साथ इंग्लैण्ड चला गया।
15 अगस्त 1947 से 25 जनवरी 1950 तक उस सुप्रीम कोर्ट की एक छाया भारत में काम करती रही, ठीक उसी तरह, जिस तरह 2 सितम्बर 1946 से भारत में जवाहर लाल नेहरू की अंतरिम सरकार काम करती थी। इस अवधि में सुप्रीम कोर्ट तथा भारत सरकार दोनों के पास 1935 में ब्रिटिश संसद से पारित कानून था जिससे दोनों संस्थाओं का संचालन होता था।
6 दिसम्बर 1946 को जवाहर लाल नेहरू की अंतरिम सरकार ने ही नया संविधान बनाने के लिए संविधान सभा की स्थापना की तथा इसके लिए सुप्रीम कोर्ट से कोई आदेश नहीं लिया।
जवाहर लाल नेहरू की अंतरिम सरकार ने ही 26 जनवरी 1950 से भारत का नया संविधान लागू किया और सुप्रीम कोर्ट का वर्तमान स्वरूप सामने आया।
जवाहर लाल नेहरू के समय में यह प्रश्न शायद ही कभी उठा हो कि कौन बड़ा है, सुप्रीम कोर्ट या भारत सरकार! लाल बहादुर शास्त्री केवल 19 महीने प्रधानमंत्री रहे, इस संक्षिप्त अवधि में ताकत का प्रश्न उठे, ऐसी कोई परिस्थिति बनी ही नहीं।
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय में न्यायालय एवं सरकार के बीच यह प्रश्न कई बार उठा। इंदिरा गांधी जबर्दस्त जननेता थीं, उनकी अपनी ताकत थी, अपनी एक सोच थी। सामान्यतः वे संविधान सम्मत ढंग से सरकार चलाती थीं किंतु इंदिरा गांधी सरकार को मनमाने ढंग से भी चलाती थीं। इस कारण न्यायालय एवं सरकार के बीच कई बार ठनी।
12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी को चुनावों में धांधली करके जीतने के 14 प्रकार से कदाचार का दोषी पाया तथा उनका निर्वाचन अवैध घोषित कर दिया। इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। 24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को ही मान्य रखा किंतु इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बने रहने की अनुमति दे दी। इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी रहीं और उन्होंने अगले ही दिन अर्थात् 25 जून 1975 को देश में इमरजेंसी लगा दी।
इस घटनाक्रम से ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट सरकार पर भारी पड़ा क्योंकि चुनाव अवैध घोषित हो जाने के बाद भी इंदिरा गांधी सुप्रीम कोर्ट की इच्छा से प्रधानमंत्री बनी रहीं किंतु इंदिरा गांधी ने अगले दिन ही इमरजेंसी लगाकर देश पर मजबूती से शिकंजा कस लिया। इतना ही नहीं, इंदिरा गांधी की सरकार ने 38वां संविधान संशोधन करके न्यायपालिका से आपातकाल की न्यायिक समीक्षा करने का अधिकार ही छीन लिया।
कुछ समय बाद ही इंदिरा गांधी की सरकार ने 42वां संविधान संशोधन करके कानूनों की संवैधानिक वैधता पर निर्णय देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों की शक्ति को कम कर दिया।
42वें संविधान संशोधन ने संविधान में इतने बड़े परिवर्तन किए कि इसके आकार के कारण, इसे लघु-संविधान कहा गया। इंदिरा गांधी की सरकार ने संविधान के कई हिस्से, जिनमें प्रस्तावना और संविधान संशोधन खंड भी शामिल हैं, बदल दिए और कई नए अनुच्छेद और धाराएं लगा दीं। संशोधन के 39 खंडों ने सर्वोच्च न्यायालय की कई शक्तियां छीन लीं और न्यायिक व्यवस्था पर कई प्रकार से संसदीय संप्रभुता स्थापित कर दी।
इंदिरा गांधी की सरकार ने 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से देश में लोकतांत्रिक अधिकारों में कटौती की और प्रधानमंत्री कार्यालय ने व्यापक शक्तियां प्राप्त कर लीं। संसद को न्यायिक समीक्षा के बिना, संविधान के किसी भी हिस्से को संशोधित करने की असीमित शक्ति भी दे दी। इस संशोधन ने राज्य सरकारों की कुछ शक्तियां भी केंद्र सरकार को हस्तांतरित कर दीं।
सरकार ने 42वें संविधान संशोधन के द्वारा प्रस्तावना में भी संशोधन करके भारत की पहचान ‘संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य’ के स्थान पर ‘संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य’ बना दी।
सरकार द्वारा किए गए संविधान के इस अतिक्रमण पर सुप्रीम कोर्ट के पास मौन रह जाने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं बचा। क्योंकि यह सारी प्रक्रिया संसद के माध्यम से हुई।
1977 में हुए आम चुनावों में इंदिर गांधी हारीं। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी सरकार ने इंदिरा गांधी द्वारा किए गए संविधान संशोधनों पर हो-हल्ला तो खूब मचाया तथा इंदिरा गांधी को जेल तक भेज दिया किंतु इससे पहले कि मोरारजी की सरकार कुछ ठोस काम कर पाती, स्वयं ही गिर गई। 1980 में हुए मध्यावधि चुनावों में इंदिरा गांधी चुनाव जीतकर फिर से प्रधानमंत्री बन गईं।
इस प्रकार 1975 में इंदिरा गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय के जो अधिकार सीमित किए थे, वे फिर से बहाल नहीं किए गए और आज भी संवैधानिक रूप से इंदिरा गांधी द्वारा किए गए संशोधन अस्तित्व में हैं।
इस ऐतिहासिक विवेचना के बाद एक दृष्टि अमरीका पर डालते हैं। अमरीका में संघीय न्यायालय ही नहीं, प्रांतीय न्यायालय भी सरकार की तुलना में बहुत अधिक ताकतवर दिखाई देते हैं किंतु वास्तव में हैं नहीं। वहाँ भी सरकारें ही ताकतवर हैं। संघीय सरकार तथा प्रांतीय सरकारें ही जनता की आकांक्षाओं की प्रतिनिधि हैं।
अमरीका में सरकार की ताकत का एक उदाहरण लेना ही पर्याप्त होगा कि अमरीका के राष्ट्रपति को अपनी स्वयं की किसी भी गलती को क्षमा करने का अधिकार प्राप्त है।
भारत में भी न्यायालय द्वारा किसी अपराधी को फांसी की सजा सुनाए जाने पर भारत के राष्ट्रपति को क्षमादान देने का अधिकार प्राप्त है।
एक दृष्टि भारत के पड़ौसी देशों पर डालते हैं। पाकिस्तान का सुप्रीम कोर्ट भारत के सुप्रीम कोर्ट की तरह ताकतवर दिखाई तो देता है किंतु है नहीं। पाकिस्तनी सुप्रीम कोर्ट को बड़े राजनीतिक फैसले पाकिस्तान की सरकार की मंशा के अनुसार ही देने होते हैं जिनके चलते पाकिस्तान का प्रत्येक पूर्व प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति या तो जेल में पटक दिया जाता है, या फिर देश छोड़कर भाग जाता है। या फिर फांसी पर भी चढ़ा दिया जाता है जैसे कि जुल्फिकार अली भुट्टो।
पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट में जो जज सरकार की मंशा के विरुद्ध कार्य करते हैं, उन्हें किसी न किसी बहाने से उनके पदों से हटा दिया जाता है। हाल ही में पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस बनने जा रहे इजाज उल अहसन ने इसलिए चीफ जस्टिस के पद की शपथ लेने से मना कर दिया क्योंकि वहाँ नवाज शरीफ के भाई शहबाज शरीफ की सरकार है और इस जज ने ही 2017 में पूर्व प्रधामंत्री नवाज शरीफ के विरुद्ध फैसला सुनाया था और शरीफ को पाकिस्तान छोड़कर लंदन में जाकर रहना पड़ा था।
पाकिस्तान में तो सरकार ही नहीं मिलिट्री भी जजों का भाग्य तय कर देती है। हालांकि जजों को नियंत्रित करने के लिए पाकिस्तान की मिलिट्री ने आज तक एक भी गोली नहीं चलाई है। उन्हें केवल आंख दिखाकर ही भगा दिया जाता है।
हमारे दूसरे पड़ौसी अर्थात् बांगलादेश में भी सुप्रीम कोर्ट की हालत लगभग पाकिस्तान जैसी ही है। हाल ही में अराजक तत्वों ने जजों के घरों का घेराव करके उनसे बलपूर्वक इस्तीफ लिए। क्योंकि शेख हसीना की सरकार हट चुकी थी और मोहम्मद यूनुस की सरकार ने जजों का बचाव नहीं किया।
सौभाग्य से भारत में पाकिस्तान और बांगलादेश जैसी स्थितियां नहीं हैं तथा सुप्रीम कोर्ट और भारत सरकार बिना किसी विशेष विवाद के अपना-अपना संविधान सम्मत काम कर रहे हैं।
जनता, सरकार और न्यायपालिका के सम्बन्ध एक रूपक के माध्यम से इस तरह समझे जा सकते हैं कि जनता महावत है जिसने अपनी सुविधा के लिए सरकार रूपी हाथी पाल रखा है और उस हाथी ने स्वयं को नियंत्रित करने के लिए न्यायपालिका रूपी अंकुश बनाया है। अंकुश अपनी मर्जी से हाथी को नियंत्रित नहीं कर सकता। अंकुश महावत के हाथ में है, और महावत की भूमिका में केवल और केवल जनता है। न्यायपालिका एक ऐसा अंकुश है जो न केवल हाथी पर अपितु महावत पर भी कुछ न कुछ नियंत्रण स्थापित करता है।
सारांश रूप में केवल यही कहा जा सकता है कि भारत की जनता की सेवा करने के लिए ही भारत सरकार तथा सुप्रीम कोर्ट नामक दोनों संस्थाएं बनी हैं। भारत की जनता ही सुप्रीम कोर्ट और भारत सरकार की मालिक है। जनता की धारणा ही दोनों के लिए बाध्यकारी है।
जनता की अपेक्षा केवल इतनी है कि ये दोनों संस्थाएं जनता के कल्याण के लिए एक-दूसरे की शक्ति बनें, एक-दूसरे की पूरक बनें तथा किसी भी स्थिति में शक्ति के दो अलग-अलग तथा प्रतिस्पर्द्धी केन्द्र न बनें।
सिद्धांत कुछ भी कहते रहें, धरातल की कड़वी सच्चाई यह है कि कोई भी अंकुश हाथी को नियंत्रित नहीं कर सकता। यदि हाथी बिगड़ गया तो महावत और अंकुश दोनों धरे रह जाते हैं। अतः हर स्थिति में सरकार की इच्छा से चुनी गई सरकार का सम्मान ही सर्वोपरि है।
उस सरकार का सम्मान कोई नहीं करना चाहेगा जो बिगड़े हुए हाथी की तरह व्यवहार करती है, उस अंकुश का भी कोई सम्मान नहीं करना चाहेगा जो हाथी को अपनी मर्जी से नियंत्रित करने का प्रयास करता है। उस महावत का भी कोई सम्मान नहीं करना चाहेगा जो हाथी और अंकुश दोनों को प्रेम और बुद्धिमानी से संचालित करने में असमर्थ है।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता