हल्दीघाटी युद्ध का परिणाम क्या निकला? इस विषय पर इतिहासकारों ने बहुत कुछ लिखा है किंतु उसके सूक्ष्म तत्वों पर विचार नहीं किया है। कोई युद्ध कैसे लड़ा जाता है, उसका कैसे अंत होता है और युद्ध के बाद दोनों पक्षों का आचरण क्या रहता है, यही वे सूक्ष्म तत्व हैं जिनके आधार पर किसी युद्ध का परिणाम तय होता है। हल्दीघाटी युद्ध का परिणाम भी इसी आधार पर निकाला जाना चाहिए!
हल्दीघाटी के युद्ध में दोनों पक्षों के लेखकों एवं कवियों ने अपने-अपने पक्ष की जीत के दावे किए। इस आलेख में हम उन दावों में निहित तथ्यों की समीक्षा करेंगे। उदयपुर राज्य का इतिहास लिखने वाले महामहोपाध्याय गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अपना मत प्रस्तुत करते हुए लिखा है-
उस समय के संसार के सबसे सम्पन्न और प्रतापी बादशाह अकबर के सामने एक छोटे से प्रदेश का स्वामी प्रतापसिंह कुछ भी न था क्योंकि मेवाड़ के बहुत से नामी-नामी सरदार बहादुरशाह और अकबर की चित्तौड़ की चढ़ाइयों में पहले ही मर चुके थे, जिससे थोड़े ही स्वामिभक्त सरदार प्रतापसिंह की तरफ से लड़ने के लिये रह गये थे।
मेवाड़ का सारा पूर्वी उपजाऊ इलाका अकबर की चित्तौड़ विजय के समय से ही बादशाही अधिकार में चला गया था, केवल पश्चिमी पहाड़ी प्रदेश ही प्रताप के अधिकार में था, तो भी प्रताप का कुलाभिमान, बादशाह के आगे दूसरे राजाओं के समान सिर न झुकाने का अटल व्रत, अनेक आपत्तियाँ सहकर भी अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने का प्रण और उसका वीरत्व, ये ही उसको उत्साहित करते रहे थे।
हिन्दुओं के विरुद्ध मुसलमान बादशाहों की लड़ाइयों में मुसलमान लेखकों का लिखा हुआ वर्णन एकपक्षीय होता है, तो भी मुसलमान लेखकों के कथन से ही निश्चित है कि शाही सेना की बुरी तरह दुर्दशा हुई और प्रतापसिंह के लौटते समय भी मुगल सेना की स्थिति ऐसी न रही कि वह उसका पीछा कर सके और उसका भय तो उस सेना पर यहाँ तक छा गया कि वह यही स्वप्न देखती थी कि राणा पहाड़ के पीछे रहकर, हमारे मारने की घात में लगा हुआ होगा। दूसरे दिन गोगूंदा पहुँचने पर भी शाही अफसरों को यही भय बना रहा कि राणा आकर हमारे पर टूट न पड़े।
मेवाड़ी सैनिकों के भय से मुगलों ने उस गांव के चौतरफ खाई खुदवाकर घोड़ा न फांद सके, इतनी ऊँची दीवार बनवाई और गांव के तमाम मौहल्लों में आड़ खड़ी करवा दी गई।
फिर भी शाही सेना गोगूंदे में कैदी की भांति सीमाबद्ध ही रही और अन्न तक न ला सकी जिससे उसकी और भी दुर्दशा हुई। इन सब बातों पर विचार करते हुए यही मानना पड़ता है कि इस युद्ध में प्रतापसिंह की ही प्रबलता रही थी।
मौलाना मुहम्मद हुसैन आजाद ने अकबरी दरबार में हल्दीघाटी युद्ध का वर्णन करते हुए लिखा है-
नमक हलाल मुगल और मेवाड़ के सूरमा ऐसे जान तोड़कर लड़े कि हल्दीघाटी के पत्थर इंगुर हो गये। यह वीरता ऐसे शत्रुओं के सामने क्या काम कर सकती थी जिसके साथ असंख्य तोपें और रहकले आग बरसाते थे और ऊँटों के रिसाले आंधी की तरह दौड़ते थे। यह सही है कि अकबर की सेना के सामने महाराणा की सैन्य संख्या कुछ भी न थी किंतु सैन्य संख्या तो जीत-हार का निर्णय नहीं करती।
हल्दीघाटी युद्ध का परिणाम यदि कोई निकला था तो वह इतना ही था कि अकबर ने अल्प समय के लिये मेवाड़ के बड़े भू-भाग पर अधिकार कर लिया था। इस भू-भाग में से भी केवल माण्डलगढ़ को छोड़कर शेष धरती, महाराणा प्रताप ने अकबर के जीवन काल में ही मुगलों से वापस छीन ली थी।
वैसे भी युद्ध के समय किसी पक्ष द्वारा, शत्रु पक्ष का भू-भाग, दुर्ग, धन-सम्पत्ति तथा पशु छीन लेने से अथवा शत्रु पक्ष के परिवार को बंदी बना लेने से उसकी विजय सिद्ध नहीं होती।
ई.1948 एवं 1965 में पाकिस्तान ने भारत का भू-भाग दबा लिया किंतु जीत निश्चत रूप से भारत की हुई थी। ठीक वही स्थिति हल्दीघाटी के युद्ध की थी। अकबर ने मेवाड़ का बहुत सा भू-भाग दबा लिया किंतु जीत महाराणा की हुई।
युद्ध के मैदान में अकबर की सेना के भय की स्थिति यह थी कि प्रताप के घोड़े ने मानसिंह के हाथी के मस्तक पर अपने दोनों पांव टिका दिये और महाराणा ने अपना भाला मानसिंह पर देकर मारा।
मानसिंह झुक गया और महाराणा ने उसे मरा हुआ जानकर अपने घोड़े को मानसिंह के हाथी से हटा लिया। इस पूरे घटनाक्रम में कोई भी मुगल सैनिक महाराणा पर हमला करने का दुस्साहस नहीं कर सका।
युद्ध के दौरान मुगल सेना की स्थिति इतनी बुरी थी कि जब महाराणा प्रताप हल्दीघाटी से बाहर निकल गया तब अकबर की भयभीत सेना, महाराणा का पीछा तक न कर सकी।
युद्ध के पश्चात् की स्थिति यह थी कि जब तक अकबर जीवित रहा, वह महाराणा प्रताप को जान से मारने तथा महाराणा प्रताप के बाद महाराणा अमरसिंह को युद्ध अथवा संधि के माध्यम से अपनी अधीनता अथवा मित्रता स्वीकार करवाने के लिये तरसता रहा।
मुहम्मद हुसैन आजाद ने लिखा है कि 5 अक्टूबर 1605 को आगरा के महलों में जब अकबर की मृत्यु हुई तो उसकी दो ही अधूरी आशाएं थीं। पहली यह कि वह महाराणा प्रताप को काबू में न ला सका और दूसरी यह कि वह मानबाई तथा जहांगीर के पुत्र खुसरो को अपना उत्तराधिकारी न बना सका।
यह भी हल्दीघाटी युद्ध का परिणाम था कि मेवाड़ के महाराणाओं ने कभी भी मुगलों, मराठों एवं अंग्रेजों के दरबार में उपस्थिति नहीं दी। यहाँ तक कि ई.1881 में जब अंग्रेजों ने महाराणा सज्जनसिंह को ग्रैण्ड कमाण्डर ऑफ दी स्टार ऑफ इण्डिया का खिताब देना चाहा तो महाराणा ने अपने वंश के प्राचीन गौरव तथा पूर्वजों का बड़प्पन बताते हुए यह सम्मान लेने से मना कर दिया।
अंत में वायसराय एवं गवर्नर जनरल लॉर्ड रिपन स्वयं यह खिताब लेकर मेवाड़ आया और उसने 23 नवम्बर 1881 को महाराणा के दरबार में हाजिर होकर उसे यह खिताब दिया।
ई.1903 में जब दिल्ली में इंग्लैण्ड के सम्राट एडवर्ड सप्तम के राज्यारोहण के उपलक्ष्य में वायसराय एवं गवर्नर जनरल द्वारा दरबार का आयोजन किया गया तब महाराणा फतहसिंह दिल्ली तो पहुँचा किंतु उसने दरबार में भाग नहीं लिया।
ई.1911 में जब इंग्लैण्ड का सम्राट जार्ज पंचम दिल्ली आया तो भी महाराणा फतहसिंह दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर जार्ज पंचम का स्वागत करके, उसके जुलूस तथा दरबार में भाग लिये बिना ही उदयपुर लौट आया। ई.1921 में जब प्रिंस ऑफ वेल्स उदयपुर आया तो महाराणा फतहसिंह ने उससे भेंट तक नहीं की।
इस प्रकार हल्दीघाटी के युद्ध के सैंकड़ों साल बाद भी भारत के राजनीतिक गगन में हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप की विजय की गूंज सुनाई देती रही। ये समस्त ऐतिहासिक घटनाएं इस तथ्य को सिद्ध करने के लिये पर्याप्त हैं कि हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर पराजित हुआ था, किसी भी रूप में उसकी विजय नहीं हुई थी।
जबकि दूसरी तरफ इस युद्ध में महाराणा प्रताप निश्चित रूप से विजयी रहा था, किसी भी अंश में उसकी पराजय नहीं हुई थी। हल्दीघाटी युद्ध का परिणाम यही निकला था, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं! आधुनिक साम्यवादी लेखकों ने हल्दीघाटी के युद्ध के वास्तविक इतिहास पर जो धूल बिछाई है, आशा है कि इस तथ्यपरक विवेचन के बाद वह धूल छंट जाएगी।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!