कलकत्ता प्रेसीडेंसी में भूख हड़ताल करने से सुभाष बाबू की हालत तेजी से बिगड़ने लगी। इस पर सरकार ने उन्हें 5 दिसम्बर 1940 को जेल से मुक्त करके उनके घर में नजरबन्द कर दिया। घर में भी उन पर कड़े प्रतिबन्ध थे।
भारत से पलायन
नजरबंदी के दौरान कुछ दिनों तक सुभाष अपने घर में चुपचाप रहे। 17 जनवरी 1941 की रात में लगभग सवा एक बजे सुभाषचंद्र सुरक्षा प्रहरियों को चकमा देकर घर से निकल गये तथा कलकत्ता से कार द्वारा गोआ पहुंच गये। गोआ से वे रेलगाड़ी द्वारा पेशावर पहुंच गये। पेशावर से वे जमरूद होकर तथा लंडीकोतल को बगल में छोड़ते हुए गढ़ी पहुँचे। उन्होंने पैदल ही भारतीय सीमा को पार किया और मोटरगाड़ी से काबुल जा पहुँचे। वहाँ से वे इटालियन पासपोर्ट लेकर रूस पहुंचे। 28 मार्च 1941 को सुभाष बाबू विमान द्वारा मास्को से बर्लिन जा पहुँचे जहाँ हिटलर के सहयोगी रिवेनट्राप ने उनका स्वागत किया।
हिटलर से भेंट
बर्लिन में सुभाष बोस ने जर्मन सरकार के चांसलर अडोल्फ हिटलर से भेंट करके उसके समक्ष तीन प्रस्ताव रखे-
(1.) सुभाषचंद्र बोस, बर्लिन रेडियो से ब्रिटिश विरोधी अभियान चलायेंगे।
(2.) सुभाषचंद्र बोस, जर्मनी सरकार की अभिरक्षा में रह रहे भारतीय युद्ध-बन्दियों में से सैनिकों को चुनकर लिब्रेशन आर्मी का गठन करेंगे।
(3.) तीनों धुरी राष्ट्र- जर्मनी, जापान और इटली, संयुक्त रूप से भारत की स्वाधीनता की घोषणा करेंगे।
सुभाषचंद्र बोस की लिबरेशन आर्मी
हिटलर ने बोस के पहले दो प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया परन्तु तीसरे प्रस्ताव पर चुप रहा। इसी दौरान जर्मनी ने रूस पर आक्रमण किया और रूस मित्र राष्ट्रों के खेमे में चला गया। ऐसी विकट परिस्थिति में जर्मनी सरकार ने सुभाष को प्रोत्साहित किया कि वे भारतीयों की सेना गठित करें। सुभाष का विश्वास था कि सोवियत संघ परास्त हो जायेगा और लिब्रेशन आर्मी, सोवियत संघ से होकर भारत की सीमा तक पहुँच जायेगी और फिर जर्मनी की सेना के साथ मिलकर ब्रिटिश भारत पर आक्रमण करेगी। इस योजना के अनुसार जनवरी 1942 तक सुभाष बाबू ने, जर्मनी सरकार द्वारा उत्तरी अफ्रीका में बन्दी बनाये गये भारतीय युद्ध बन्दियों को लेकर लिब्रेशन आर्मी का गठन किया तथा उसके दो दस्ते खड़े कर लिये। जर्मनी में उनके नाम के आगे नेताजी शब्द जोड़ा गया। सुभाष बाबू ने रोम और पेरिस में भी फ्री इंडिया सेन्टर स्थापित किये। इस समय तक लगभग 3,000 भारतीय सैनिक लिब्रेशन आर्मी में सम्मिलित हो चुके थे।
रासबिहारी बोस की भारतीय राष्ट्रीय सेना
8 दिसम्बर 1941 को जापान ने ब्रिटेन के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी जिससे यूरोपीय युद्ध विश्व युद्ध में बदल गया। जापान ने ब्रिटिश साम्राज्य के दक्षिण पूर्वेशिया में सबसे बड़े सामरिक अड्डे सिंगापुर को जीत लिया तथा मलाया से बर्मा तक का समस्त क्षेत्र भी मुक्त करा लिया। 28-30 मार्च 1942 को रासबिहारी बोस की पहल पर राजनीतिक सवालों पर विचार करने के लिये टोकियो में प्रवासी भारतीयों का एक सम्मेलन बुलाया गया। इस सम्मेलन में भारतीय अधिकारियों की देखरेख में भारतीय राष्ट्रीय सेना (इण्डियन नेशनल आर्मी) गठित करने का निर्णय लिया गया। इस सेना का उद्देश्य भारत की मुक्ति के लिये संघर्ष करना बताया गया। यह भी निश्चित किया गया कि जापान अधिकृत एशियाई प्रदेशों में इण्डिया इण्डिपेण्डेंस लीग की स्थापना की जाये और प्रवासी भारतीयों को इसका सदस्य बनाया जाये। जून 1942 में बैंकाक में प्रवासी भारतीयों का पूर्ण प्रतिनिधि सम्मेलन करने का भी निर्णय लिया गया।
टोकियो सम्मेलन में हुए निर्णय के अनुसार 23 जून 1942 को बैंकाक में रासबिहारी बोस की अध्यक्षता में बर्मा, मलाया, स्याम, हिन्द चीन, फिलीपीन, जापान, चीन, बोर्नियो, जावा, सुमात्रा, हाँगकाँग आदि देशों के प्रवासी भारतीयों के प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन बुलाया गया। प्रवासी भारतीयों का प्रतिनिधित्व के. पी. मेनन, एन. राघवन, एस. सी. गोहो तथा एन. के. अय्यर ने किया जो मलाया के प्रसिद्ध वकील थे। सम्मेलन में स्वामी सत्यानन्द पुरी, ज्ञानी प्रीतम सिंह, कप्तान मोहनसिंह, कप्तान मोहम्मद अकरम खाँ, ले. कर्नल एन. एस. गिल ने भी भाग लिया। इस सम्मेलन में संग्राम परिषद् का गठन किया गया। सम्मेलन में तय किया गया कि इस आन्दोलन का नेतृत्व करने के लिये सुभाषचन्द्र बोेस को जर्मनी से बुलाया जाये।
1 सितम्बर 1942 को आजाद हिन्द फौज की नियमित स्थापना की गई। इस सेना के प्रथम डिवीजन में लगभग 1700 अधिकारी एवं सैनिक सम्मिलित थे। इसमें तीन ब्रिगेड और सहायक ईकाइयां थीं। इस सेना का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार से है-
(1) सेनापति – मेजर जनरल मोहनसिंह।
(2) उप सेनापति और मुख्य सलाहकार- कर्नल एन. एस. गिल।
(3) गांधी ब्रिगेड – ले. कर्नल आई. के. किआनी के नेतृत्व में।
(4) नेहरू- ब्रिगेड – ले. कर्नल अजीज अहमद खाँ के नेतृत्व में।
(5) आजाद-ब्रिगेड- ले. कर्नल प्रकाशचन्द्र के नेतृत्व में (प्रत्येक ब्रिगेड में 300 सैनिक)।
(6) नं. 1 हिन्द फील्ड फोर्स – ले. कर्नल जे. के. भौंसले के नेतृत्व में।
(7) कुछ सहायक इकाइयाँ भी थीं जिनका नेतृत्व हिन्दू, मुस्लिम और सिक्ख अधिकारियों को सौंपा गया। इनमें से एक शाहनवाज खाँ भी थे जिन पर लाल किले में अभियोग चला था। इस डिवीजन को अक्टूबर 1942 तक बर्मा की तरफ जाना था। इस सम्बन्ध में समस्त तैयारियां लगभग पूरी हो चुकी थीं परन्तु अचानक घटनाक्रम बदलने से सम्पूर्ण योजना ध्वस्त हो गई।
आजाद हिन्द फौज का भंग किया जाना
आजाद हिन्द फौज की स्थापना तो हो गई, परन्तु इसे आरम्भ से ही कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। जापान सरकार ने उसके बारे में नीति स्पष्ट नहीं की। यह भी निश्चित नहीं किया गया कि इस सेना में कितने सैनिकों को भर्ती किया जाये। यहाँ तक कि अब तक भर्ती किये गये भारतीय सैनिकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था भी नहीं की गई। सैनिकों के लिये आवश्यक सामग्री की भी पूर्ति नहीं की गई। आजाद हिन्द फौज के अधिकारी जापानी अधिकारियों से बार-बार अनुरोध करते रहे कि जापानी सरकार बैंकाक प्रस्ताव को खुले रूप से समर्थन प्रदान करे ताकि दुनिया जान जाये कि जापान भारत की स्वाधीनता का समर्थक है और हमारा आन्दोलन तथा आई. एन. ए. अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बना सके परन्तु जापानी अधिकारी इस सम्पूर्ण प्रकरण पर चुप्पी साधे रहे। इससे भारतीय अधिकारियों और सैनिकों में रोष व्याप्त होने लगा। उन्हें लगने लगा कि जापानी सरकार आजाद हिन्द फौज का उपयोग अपने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये कठपुतली के रूप में करना चाहती है। 8 दिसम्बर 1942 को ले. कर्नल एन. एस. गिल को गिरफ्तार कर लिया गया। इससे मामला गम्भीर हो गया। मोहनसिंह और मेनन ने अपने साथियों के साथ विचार-विमर्श कर निर्णय लिया कि जापानियों के साथ सहयोग नहीं किया जाये। मोहनसिंह ने जापान सरकार को एक पत्र लिखकर मांग की कि 23 दिसम्बर 1942 तक सरकार अपनी नीति स्पष्ट करे अन्यथा आजाद हिन्द फौज अपनी स्वाधीनता की कार्यवाही करने के लिये स्वतंत्र होगी। उन्होंने सीलबन्द लिफाफे में एक पत्र भारतीय अधिकारियों के नाम रख दिया जिसमें उन्होंने लिखा कि यदि उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता है तो आजाद हिन्द फौज को भंग कर दिया जाए। मोहनसिंह के पत्र ने जापान सरकार और रासबिहारी बोस दोनों को ही नाराज कर दिया। रासबिहारी बोस के आदेश से मोहनसिंह को गिरफ्तार कर लिया गया और आजाद हिन्द फौज को भंग कर दिया गया।
रास बिहारी बोस की अपील
रास बिहारी बोस पुराने क्रांतिकारी थे, जोश के साथ-साथ उनमें नेतृत्व गुण, धैर्य एवं व्यवहारिकता कूट-कूट कर भरी थी। उन्होंने मोहनसिंह को गिरफ्तार करवाने के बाद भारतीयों के नाम एक अपील जारी की- ‘हमारे पास न पैसा है, न आदमी और हथियार भी नहीं हैं। हम आजादी के लिये लड़ना चाहते हैं किंतु कैसे लड़ेंगे? मैं जापानियों से सहायता लेने के पक्ष में हूँ पर साथ ही अँग्रेजों को हटाकर जापानियों को अपना स्वामी नहीं बनाना चाहता। मैं नहीं चाहता कि जापानी भारत भूमि पर पैर रखें किंतु 30 लाख भारतीयों को जो स्वदेश से हजारों मील दूर रह रहे हैं, उन्हें जापानियों के सहयोग के बिना एकजुट करना भी सम्भव नहीं है। जापान युद्ध में व्यस्त है, हमें उससे झगड़ा खड़ा करके नहीं अपितु सहयोग करके सहायता लेनी चाहिये।’
आजाद हिंद फौज के भंग हो जाने के बाद रास बिहारी बोस ने इण्डियन इण्डिपेंडेस लीग (आई. आई. एल.) की विभिन्न कमेटियों के प्रतिनिधियों का दूसरा सम्मेलन अप्रैल 1943 में बुलाया। यह सम्मेलन उनकी कठिनाइयों का समाधान नहीं कर पाया और सब लोग, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के आने की प्रतीक्षा करने लगे।
सुभाष चंद्र बोस का दक्षिण-पूर्वेशिया में आगमन
जून 1942 में रासबिहारी बोस ने सुभाषचंद्र बोस को पूर्वी एशिया में आने तथा आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व सम्भालने का निमन्त्रण दिया था। 8 फरवरी 1943 को सुभाष ने फ्रेकेन बर्ग से एक जर्मन यू-बोट से अपनी यात्रा आरम्भ की। पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार मेडागास्कर से 400 मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित एक नियत स्थान पर जर्मन यू बोट से निकालकर उन्हें जापानी पनडुब्बी 129 में चढ़ाया गया। यह पनडुब्बी 6 मई 1943 को सुमात्रा के उत्तर में स्थित साबन द्वीप पहंुची। यहाँ पर उनके पुराने परिचित कर्नल यामामोटो ने जापान सरकार की ओर से उनका स्वागत किया। साबन द्वीप पर कुछ दिन विश्राम करने के बाद सुभाष बाबू हवाई जहाज से 16 मई 1943 को टोकियो पहुंचे। उनके जापान पहुंचने की सूचना कुछ दिनों तक गुप्त रखी गई। जब सुदूर पूर्व में बसे भारतीयों को जून 1943 में यह जानकारी मिली कि सुभाष बाबू जापान पहुंच गये हैं तो उनमें प्रसन्नता की लहर दौड़ गई और स्वाधीनता आन्दोलन मे नई जान आ गई। नेताजी के टोकियो पहुँचने के पूर्व ही द्वितीय विश्वयुद्ध की स्थिति में भारी परिवर्तन आ चुका था। यूरोप में जर्मनी कई मोर्चों पर पराजित हो चुका था और मित्र राष्ट्रों की स्थिति दिन-प्रतिदिन सुदृढ़ होती जा रही थी।
सुभाषचन्द्र बोस ने टोकियो में जापान के प्रधानमंत्री तोजो से लम्बी बातचीत की। प्रधानमंत्री तोजो, सुभाष के व्यक्तित्व तथा उनकी बातचीत से बहुत प्रभावित हुआ और उसने जापानी संसद (डीट) में घोषणा की कि- ‘जापान ने दृढ़ता के साथ फैसला किया है कि वह भारत से अँग्रेजों को; जो भारतीय जनता के दुश्मन हैं, निकाल बाहर करने और उनके प्रभाव को खत्म करने के लिये सब तरह की सहायता देगा तथा भारत को वास्तविक अर्थ में पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करने में समर्थ बनायेगा।’
भारतीयों के लिये मर्मस्पर्शी संदेश
2 जुलाई 1943 को नेताजी सुभाषचन्द्र बोस सिंगापुर पहुंचे जहाँ उनका शानदार स्वागत किया गया। 4 जुलाई को कैथे सिनेमा हॉल में आयोजित एक भव्य समारोह में उन्होंने विधिवत् ढंग से आई. आई. एल.(इण्डियन इण्डिपेण्डेन्स लीग) का अध्यक्ष पद ग्रहण किया। ले. कर्नल के. भौंसले ने सैनिकों की तरफ से उनका अभिनन्दन किया। इस अवसर पर नेताजी ने स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार बनाने और आजाद हिन्द फौज को लेकर हिन्दुस्तान जाने की घोषणा की। 5 जुलाई 1943 को सुभाष बाबू ने आजाद हिन्द फौज के पुनर्निर्माण की घोषणा की तथा सेना का निरीक्षण किया।
इस अवसर पर उन्होंने कहा- ‘यह केवल अँग्रेजी दासता से भारत को मुक्त कराने वाली सेना नहीं है, अपितु बाद में स्वतन्त्र भारत की राष्ट्रीय सेना का निर्माण करने वाली सेना भी है। साथियो! आपके युद्ध का नारा हो- चलो दिल्ली, चलो दिल्ली। इस स्वतन्त्रता संग्राम में हम में से कितने जीवित बचेंगे, यह मैं नहीं जानता परन्तु मैं यह जानता हूँ कि अन्त में विजय हमारी होगी और हमारा ध्येय तब तक पूरा नहीं होगा जब तक हमारे शेष जीवित साथी ब्रिटिश साम्राज्य की एक अन्य कब्रगाह- लाल किले पर विजयी परेड नहीं करेंगे।’
सुभाषचंद्र बोस ने परेड की सलामी लेने के बाद सिंगापुर रेडियो से भारतीयों के नाम मर्मस्पर्शी संदेश दिया- ‘एक वर्ष से मैं मौन एवं धैर्य के साथ समय की प्रतीक्षा कर रहा था। वह घड़ी आ पहुंची है कि मैं बोलूँ। ब्रिटिश दासता से भारतीयों को मुक्ति मिल सकती है- उन अँग्रेजों से जिन्होंने सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से अब तक हमें गुलाम बना रखा है। ब्रिटिश साम्राज्य के शत्रु हमारे स्वाभाविक मित्र हैं। समस्त भारतीयों की ओर से मैं घोषणा करता हूँ कि ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध युद्ध तब तक जारी रहेगा जब तक भारत आजाद न हो जाये।’
उन्होंने भारतीयों से अपील की– ‘दिल्ली चलो। यह रास्ता खून, पसीने और आंसू से भरा हुआ है……।‘
लोकप्रिय नारों का निर्माण
भारत की आजादी के लिये भारतीयों को जागृत करने के उद्देश्य से सुभाष बाबू ने संसार के सर्वश्रेष्ठ नारों का निर्माण किया। उनका विश्वविख्यात उद्घोष जयहिंद पूरी दुनिया में लोकप्रिय हुआ। उनका दूसरा नारा था– ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा।’ दिल्ली चलो नारा भी खूब लोकप्रिय हुआ।
अस्थायी भारत सरकार का गठन
21 अक्टूबर 1943 को नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार का गठन किया जिसमें कप्तान लक्ष्मी स्वामीनाथन, ले. कर्नन, ए. सी. चटर्जी, एस. ए. अय्यर, ले. कर्नल अजीज अहमद खाँ, ले. कर्नल ए. डी. लोगनाथन, एहसान कादर, शाहनवाज खाँ, डी. राजू, ए. एम. सहाय, ए. जेलाप्पा, देवनाथ दास, करीम गनी, डी. एम. खान, जो. जीवय और ईश्वरसिंह को मंत्री बनाया गया। 23 अक्टूबर को सुभाषचन्द्र बोस ने भारत की अस्थायी सरकार की तरफ से ब्रिटेन और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की। शीघ्र ही धुरी राष्ट्रों- जर्मनी, जापान और इटली तथा उनके प्रभाव के अन्तर्गत काम करने वाली सरकारों- स्याम, बर्मा, फिलिपीन इत्यादि ने स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार को मान्यता दे दी। जापान ने अण्डमान-निकोबार द्वीप समूहों का प्रशासन इस अस्थायी सरकार को सौंप दिया।