प्रारम्भिक जीवन
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को हुआ था। उनके पिता जानकीनाथ बोस कटक में सरकारी वकील थे। सुभाषचंद्र के सात भाई और छः बहिनें थीं। सुभाष अपनी माता के सातवें पुत्र थे। 1913 ई. में हाई स्कूल परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद सुभाष ने कलकत्ता के प्रेसीडेन्सी कॉलेज में प्रवेश लिया। 1915 ई. में उन्होंने प्रथम श्रेणी में एफ. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। उन्होंने बी. ए. की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। वे आगे भी पढ़ना चाहते थे परन्तु उनके पिता उन्हें आई.सी.एस. बनाना चाहते थे। पिता की इच्छा के कारण वे 31 अगस्त 1919 को इंग्लैण्ड चले गये। आठ माह की संक्षिप्त अवधि में सुभाषचंद्र बोस ने आई.सी.एस. की परीक्षा के साथ-साथ कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में ऑनर्स की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। सुभाषचंद्र बोस सरकारी नौकरी नहीं करना चाहते थे। अतः उन्होंने पिता तथा इण्डियन ऑफिस को सूचित कर दिया कि वे आई.सी.एस. परीक्षा उत्तीर्ण कर लेने पर भी, सरकारी नौकरी नहीं करेंगे। सुभाष पहले और सम्भवतः आखिरी भारतीय थे जिन्होंने बहुप्रतिष्ठित आई.सी.एस. की नौकरी का इस ढंग से परित्याग किया था।
राजनीति में प्रवेश
16 जुलाई 1921 को सुभाषचंद्र बोस भारत लौटे। उस समय भारत में असहयोग आन्दोलन चल रहा था। सुभाषचंद्र बोस के राजनीतिक गुरु देशबन्धु चितरंजनदास ने सुभाष को इस आन्दोलन में रचनात्मक कार्य करने को कहा। साथ ही उन्हें नेशनल कॉलेज का प्रधानाचार्य बनाया गया। 5 फरवरी 1922 को गोरखपुर के चौरी-चौरा काण्ड के कारण गांधीजी ने 12 फरवरी 1922 को आन्दोलन बन्द कर दिया। इससे सुभाष बाबू को गहरा धक्का लगा। 1923 ई. में देशबन्धु ने सुभाष को कलकत्ता नगर निगम का मुख्य कार्यकारी अधिकारी नियुक्त करवा दिया परन्तु वे इस पद पर पांच माह ही काम कर पाये।
25 अक्टूबर 1924 को वायसराय लॉर्ड रीडिंग ने फरमान संख्या एक जारी करके बंगाल के अधिकारियों को अधिकार दिया कि वे आम अदालती कार्यवाही किये बिना, किसी भी देशभक्त को दण्ड दे सकते थे। सुभाषचन्द्र बोस और देशबन्धु चितरंजनदास ने इस एक्ट का विरोध किया। इस कारण सरकार ने सुभाष बाबू को बन्दी बनाकर अलीपुर जेल भेज दिया जहाँ से उन्हें बहरामपुर जेल भेज दिया गया। दो माह के बाद सुभाष को मांडले जेल भेज दिया गया। 1927 ई. में सुभाष बाबू के फेफड़ों में खराबी आ गई तथा वजन 40 पौंड कम हो गया। सरकार को बिना किसी शर्त, उन्हें रिहा करना पड़ा। सुभाष ने शीघ्र ही स्वास्थ्य लाभ कर लिया। बंगाल कांग्रेस ने उन्हें अपना प्रधान तथा अखिल भारतीय कांग्रेस ने उन्हें अपना प्रधान सचिव चुना।
1927 ई. में साइमन कमीशन भारत आया। देश भर में उसके विरुद्ध प्रदर्शन हुये। 1928 ई. के आरम्भ में साइमन कमीशन कलकत्ता पहुँचा। उसके विरुद्ध प्रदर्शन को सफल बनाने के लिए सुभाष बाबू ने मजदूर-किसान पार्टी से पूरी शक्ति से सम्मिलित होने का अनुराध किया। इस अपील का अच्छा परिणाम निकला और कलकत्ता का कमीशन विरोधी प्रदर्शन सबसे सफल रहा। नेहरू रिपोर्ट के प्रकाशन और कांग्रेस द्वारा उसके समर्थन के बाद ही देश के बहुत से शहरों में इंडिपेंडेंस लीगों की स्थापना की गई। यह इस बात का सूचक था कि देश के नौजवान डोमीनियन स्टेटस से सन्तुष्ट नहीं थे। वे भारत के लिए पूर्ण स्वाधीनता चाहते थे। नवम्बर 1928 में ऑल इंडिया इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना हुई। उसके नेता जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचन्द्र बोस थे। दिसम्बर 1928 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में नेहरू और बोस ने पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पारित कराने का प्रयास किया किन्तु गांधीजी और कांग्रेस के अन्य दक्षिण पंथी नेताओं ने उनके प्रस्ताव को पारित नहीं होने दिया। 1929 ई. के अंत में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का लाहौर अधिवेशन हुआ। इसमें पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पारित किया गया। इस अधिवेशन में सुभाष ने एक अन्य प्रस्ताव भी प्रस्तुत किया कि कांग्रेस का लक्ष्य देश में समानान्तर सरकार स्थापित करना होना चाहिए परन्तु उनके प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया गया। इसके बाद सुभाष और वांमपंथी सदस्य अधिवेशन से बाहर आ गये। इसके दस मिनट बाद ही सुभाष ने लाहौर में कांग्रेस डेमोक्रेटिक पार्टी की स्थापना की। साथ ही उन्होंने सारे भारत में 26 जनवरी 1930 को पूर्ण स्वाधीनता दिवस मनाने वाले प्रस्ताव का जोरदार समर्थन किया।
कांग्रेस सविनय अवज्ञा आन्दोलन चलाने के बारे में विचार-विमर्श कर रही थी, उसी समय सुभाषचन्द्र बोस तथा 11 अन्य लोगों को एक-एक साल का कठोर कारावास हो गया। बंगाल ने अपने प्रिय नेता को बन्दीगृह में रहते हुए भी मेयर पद से सम्मानित किया। उन्हें अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया जिस पर वे 1932 ई. तक आसीन रहे। सितम्बर 1931 को वे जेल से रिहा हुए परन्तु 18 नवम्बर 1931 को उन्हें मालजदा से बहरामपुर जाते हुए, धारा 144 में बन्दी बना लिया गया। एक सप्ताह बाद उन्हें मुक्त कर दिया गया। 14 जनवरी 1932 को सुभाष को पुनः बन्दी बना लिया गया। इस बार वे स्टेट प्रिजनर्स के रूप में अपने बड़े भाई शरत बोस के साथ जबलपुर जेल में रखे गये। क्षयरोग के पुराने रोगी होने के कारण उन्हें भुवाली सैनेटोरियम भेजा गया किन्तु उन्हें वहाँ भी कोई लाभ नहीं हुआ। 23 फरवरी 1932 को उन्हें विदेश जाना पड़ा। उन्होंने पोलैण्ड, फ्रांस, चेकोस्लोवाकिया, आस्ट्रिया, इटली आदि देशों का भ्रमण किया।
गांधीजी से मतभेद
कांग्रेस के 1938 ई. के हरिपुर अधिवेशन के अध्यक्ष पद पर सुभाषचन्द्र बोस को सर्वसम्मति से चुना गया। इस समय तक कांग्रेस ने 1935 के अधिनियम के प्रान्तीय स्वायत्तता वाले भाग को तो स्वीकार कर लिया था परन्तु संघीय योजना को स्वीकार नहीे किया था। कई दक्षिण पंथी कांग्रेसी नेता संघीय योजना को भी स्वीकार करने की वकालत कर रहे थे। सुभाषचन्द्र बोस संघीय योजना के विरुद्ध थे और वे अंग्रेज सरकार के विरुद्ध संघर्ष का मार्ग अपनाना चाहते थे। सुभाषचन्द्र बोस और उनके समर्थकों ने जनमत तैयार करने के लिये सम्पूर्ण भारत में अपने विचारों का प्रचार करना आरम्भ कर दिया। इससे गांधीवादियों के साथ उनका विरोध बढ़ता गया। उस समय तक कांग्रेस वर्किंग कमेटी का चुनाव नहीं होता था। अध्यक्ष ही उसे मनोनीत करता था।यदि अगले अधिवेशन के लिये सुभाष पुनः अध्यक्ष चुन लिये जाते तो कांग्रेस वर्किंग कमेटी में वामपंथी सदस्यों की संख्या बढ़ाई जा सकती थी और दक्षिणपंथियों को समझौते की तरफ जाने से रोका जा सकता था। इसलिये दक्षिणपंथियों ने सुभाष को अगले अधिवेशन का अध्यक्ष नहीं बनाने का निर्णय लिया।
1939 ई. में कांग्रेस के त्रिपुरा अधिवेशन के अध्यक्ष पद के लिये वामपंथियों के उम्मीदवार सुभाषचन्द्र बोस और दक्षिणपंथियों के उम्मीदवार डॉ.पट्टाभि सीतारमैया थे। गांधीजी ने पट्टाभि सीतारमैया को विजयी बनाने के लिये हर संभव प्रयास किया किंतु सीतारमैया हार गये। सुभाष को 1575 वोट और सीतारमैया को 1376 वोट मिले। सुभाष की विजय से कांग्रेस के दक्षिणपंथियों में हलचल मच गई। गांधीजी ने सीतारमैया की हार को अपनी हार बताया और कहा कि कांग्रेस ने भ्रष्ट संगठन का रूप धारण कर लिया है और उसके सदस्य फर्जी हैं। उन्होंने खुली धमकी भी दी कि यदि कांग्रेस ने दक्षिणपंथियों के अनुकूल नीति का पालन नहीं किया तो वे कांग्रेस से अपना नाता तोड़ सकते हैं।
सुभाष के अध्यक्ष चुने जाने के बाद दक्षिणपंथियों ने कांग्रेस में उनके लिये संकट पैदा कर दिया। कांग्रेस वर्किंग कमेटी के 15 सदस्य दक्षिणपंथी थे। उन्होंने सुभाष के साथ सहयोग करने से इन्कार करते हुए त्याग-पत्र दे दिये। इसी पृष्ठभूमि में 10-12 मार्च 1939 को कांग्रेस का त्रिपुरा अधिवेशन हुआ। गांधीजी इस समय राजकोट में अनशन कर रहे थे। दक्षिणपंथी नेताओं ने इस अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित करवा लिया कि कांग्रेस अध्यक्ष गांधीजी की इच्छा के अनुसार वर्किंग कमेटी मनोनीत करें। यह प्रस्ताव सुभाष बाबू के लिये स्पष्ट निर्देश था कि वे या तो दक्षिणपंथियों की इच्छानुसार चलें अथवा कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ दें। सुभाष ने गांधीजी से मिलकर समस्या को हल करने का प्रयास किया परन्तु गांधीजी की हठधर्मिता के कारण समस्या का कोई हल नहीं निकला। गांधीजी के अड़ियल रवैये से क्षुब्ध होकर सुभाष बाबू ने अप्रैल 1939 में ए.आई.सी.सी. के कलकत्ता अधिवेशन में कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया। दक्षिणपंथियों ने तत्काल डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को कांग्रेस का नया अध्यक्ष चुनकर कांग्रेस का नेतृत्व हथिया लिया।
फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना
कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने के बाद सुभाष ने कांग्रेस के अन्दर फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की परन्तु दक्षिणपंथी तो उन्हें कांग्रेस से ही निष्कासित करने पर तुले हुए थे। अतः उन्होंने सुभाष के विरुद्ध अनुशासन की कार्यवाही कर बंगाल कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद से हटा दिया और यह भी घोषित कर दिया कि वे आगामी तीन वर्ष तक कांग्रेस में किसी भी पद पर नहीं रह सकते हैं। सुभाषचन्द्र बोस अंग्रेज सरकार से संघर्ष करने में आस्था रखते थे जबकि कांग्रेस संघर्ष के नाम पर समझौतों की राजनीति कर रही थी। सुभाष बाबू किसी भी कीमत पर ब्रिटिश सरकार से समझौता करके साम्राज्यवाद का समर्थन नहीं करना चाहते थे। उनका स्पष्ट मत था कि द्वितीय विश्व युद्ध के रूप में ब्रिटेन का संकट भारत का संकटमोचन है तथा ब्रिटेन की पराजय से भारत का स्वातंत्र्य सूर्य उगेगा। जिसे दखने के लिये भारतीयों की दीर्घकालिक लालसा है। अतः फॉरवर्ड ब्लॉक ने कांग्रेस से सम्बन्ध तोड़ लिया। यह एक ऐसा राजनीतिक संगठन था जो किसी भी तरह स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहता था, उसके लिये कांग्रेस की तरह अहिंसा न धर्म थी और न नीति।
फॉरवर्ड ब्लॉक के कार्यक्रम
फॉरवर्ड ब्लॉक साम्राज्यवादी शक्ति का विरोध शक्ति से करना चाहता था। मार्च 1940 में फॉरवर्ड ब्लॉक ने कांग्रेस द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य से समझौता करने के विरोध में रामगढ़ में एक सभा का आयोजन किया। 6 जून 1940 को फॉरवर्ड ब्लॉक ने भारत के विभिन्न नगरों में राष्ट्रीय सप्ताह का आयोजन किया। इसमें युद्ध विरोधी प्रदर्शन किये गये तथा भारत में अंतरिम राष्ट्रीय सरकार स्थापित करने की मांग की गई। सुभाष बाबू ने द्वितीय विश्वयुद्ध में भारत द्वारा ब्रिटेन के साथ सहयोग करने की बात का जोरदार विरोध किया। उन्होंने मांग की कि भारत को युद्ध में सम्मिलित करने की ब्रिटिश शासकों की घोषणा को जबरदस्त चुनौती दी जाये, युद्ध में भारत के साधनों के उपयोग का विरोध किया जाये और केन्द्रीय सरकार के युद्ध प्रयासों में बाधा डाली जाये। फॉरवर्ड ब्लॉक का कार्यक्रम सेना में भारतीय रंगरूटों की भर्ती को रोकना, ब्रिटिश माल का बायकाट करना, सरकार को कर न देना तथा देशव्यापाी हड़तालों के माध्यम से सरकार को ठप्प करना था।
वीर सावरकर से भेंट
22 जून 1940 को सुभाष बाबू ने वीर सावरकर से भेंट की। वीर सावरकर ने सुभाष बाबू को सलाह दी कि जब अँग्रेज भयंकर युद्ध में फंसे हों, उस समय आप जैसे योग्य लोगों को स्थानीय एवं तुच्छ मसलों पर आंदोलन चलाकर जेल में सड़ने से कोई लाभ नहीं होगा। रास बिहारी बोस की तरह अँग्रेजों को वंचिका देकर देश से बाहर जाइये। जर्मनी और इटली के हाथ लगे युद्धबंदियों को नेतृत्व प्रदान कीजिये। भारत की स्वाधीनता की घोषणा कीजिये। जापान के युद्ध में सम्मिलित होने की स्थिति में बंगाल की खाड़ी या बर्मा की ओर से आजादी का प्रयास कीजिये। सुभाषचंद्र बोस को ये सुझाव अनुकूल जान पड़े और उन्होंने अपने लिये भावी योजना तैयार कर ली।
सुभाषचन्द्र बोस की गिरफ्तारी
जुलाई 1940 में सुभाष बाबू ने कलकत्ता के हालवेल मकबरे को हटाने के लिये आन्दोलन आरम्भ किया। इस पर 2 जुलाई को उन्हें भारत सुरक्षा कानून के अंतर्गत बंदी बनाकर उन पर मुकदमा चलाया गया। उन्हें कलकत्ता की प्रेसीडेन्सी जेल में रखा गया। अपने न्यायिक परीक्षण के दौरान 26 नवम्बर 1940 को सुभाष बाबू ने बंगाल के गवर्नर को पत्र लिखकर भूख हड़ताल करने की सूचना दी तथा लिखा कि- ‘अपने राष्ट्र को जीवित रखने के लिये व्यक्ति को मृत्यु का वरण अवश्य करना चाहिये। आज मुझे अवश्य मरना है ताकि भारत अपनी स्वाधीनता और गौरव को प्राप्त कर सके।’