साम्प्रदायिकता की समस्या
साम्प्रदायिकता की समस्या हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा बन कर खड़ी हो गई। इस कारण जनता को आजादी प्राप्त करने में अधिक पसीना बहाना पड़ा तथा आजादी का रथ मंद गति से आगे बढ़ा। ऐसा कई बार हुआ जब निकट आती हुई आजादी, साम्प्रदायिक समस्या के कारण दूर खिसक गई। इस समस्या के कारण देश का विभाजन हुआ तब कहीं जाकर भारत को आजादी मिली किंतु साम्प्रदायिकता की समस्या का अंत देश की आजादी के बाद भी नहीं हो सका।
साम्प्रदायिकता का अर्थ
सम्प्रदाय शब्द की व्युत्त्पत्ति सम् तथा प्रदाय शब्दों से मिलकर हुई है। सम् का अर्थ है पूर्ण और प्रदाय का अर्थ होता है- देने वाला। इस प्रकार सम्प्रदाय का शाब्दिक अर्थ होता है- पूर्णता देने वाला। भारत में इस्लाम के प्रसार से पहले सनातन धर्म (हिन्दू धर्म) के भीतर तीन सम्प्रदाय माने जाते थे- शैव, शाक्त एवं वैष्णव। अर्थात् सम्प्रदाय, एक धर्म के भीतर उत्पन्न होने वाले मत थे। इस दृष्टि से शिया और सुन्नी, इस्लाम के; तथा कैथोलिक एवं प्रोटेस्टेण्ट, ईसाई धर्म के सम्प्रदाय माने जा सकते हैं।
साम्प्रदायिक समस्या का अर्थ
साम्प्रदायिक समस्या से तात्पर्य दो भिन्न सम्प्रदायों की आध्यात्मिक एवं दार्शनिक मान्यताओं में अंतर होने से उनके अनुयायियों के बीच होने वाला संघर्ष है किंतु भारत की विशेष परिस्थितियों में साम्प्रदायिक समस्या का सम्बन्ध राजनीतिक संघर्ष से है।
भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या का स्वरूप
भारत में साम्प्रदायिक समस्या का आरम्भ मुसलमानों के भारत में प्रवेश के समय से हो गया था किन्तु ब्रिटिश शासन के दौरान इस समस्या ने एक नवीन रूप ग्रहण किया। इस परिप्रेक्ष्य में हिन्दू, इस्लाम एवं ईसाई, धर्म न रहकर सम्प्रदाय बन गये। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान धर्म के लिये सम्प्रदाय शब्द का प्रयोग किया जाना इस मानसिकता का परिचायक है कि सब मनुष्यों का धर्म तो एक ही है- मानव धर्म, किंतु बाह्य स्वरूप की भिन्नता के कारण अलग-अलग सम्प्रदाय खड़े हो गये हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार साम्प्रदायिकता वह मानसिकता है जो स्वयं को किसी धार्मिक सम्प्रदाय से सम्बद्ध करती है किन्तु जिसका वास्तविक उद्देश्य अपने समूह के लिए राजनीतिक शक्ति और संरक्षण प्राप्त करना होता है। एक अन्य विद्वान ने लिखा है कि किसी समुदाय विशेष के लोगों के, एक सामान्य धर्म के अनुयायी होने के नाते उनके राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हित भी एक जैसे ही होते हैं। इस मत के अनुसार भारत में हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख और इसाई अलग-अलग सम्प्रदायों के व्यक्ति हैं, जिनके हित उस सम्प्रदाय के सदस्यों के बीच, एक समान हैं।
साम्प्रदायकिता का आरम्भ साम्प्रदायिक हितों की पारस्परिक भिन्नता से होता है किन्तु सामान्यतः इसका अन्त विभिन्न धर्मानुयायियों में पारस्परिक विरोध तथा शत्रुता की भावना में होता है। जब यह भावना उग्र रूप धारण कर लेती है तो साम्प्रदायक दंगों में बदल जाती है जिनका अंत प्रायः सभ्यताओं, संस्कृतियांे एवं अंततः राष्ट्रों के विभाजन से होता है। भारत में स्वातंत्र्य संघर्ष के समय, विभिन्न सम्प्रदायों में अधिक शक्तियाँ प्राप्त करने की होड़ मची। यह होड़ पराधीन भारत की संवैधानिक संस्थाओं में अलग प्रतिनिधित्व अर्थात् आरक्षण प्राप्त करने से आरम्भ हुई तथा अलग राष्ट्रों का निर्माण करके उस शक्ति का उपभोग करने की लालसा पर जा पहुंची। इस प्रवृत्ति ने साम्प्रदायिक समस्या को उग्र स्वरूप प्रदान किया जिसकी परिणति लाखों लोगों की हत्या, करोड़ों लोगों के पलायन और भारत के विभाजन में हुई।
इस प्रकार राष्ट्रीयता एवं साम्प्रदायिकता, एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत हैं। राष्ट्रीयता अपने छोटे हितों को त्यागकर व्यापक हितों पर एकजुट होने के सिद्धांत पर आधारित है किंतु साम्प्रदायिकता, संकीर्णता, संकुचन तथा विभाजन की मानसिकता पर टिकी होती है। राष्ट्रीयता एक राष्ट्र में कई सम्प्रदायों को संजोये रख सकती है किंतु साम्प्रदायिकता एक राष्ट्र के कई टुकड़े कर सकती है। जब कांग्रेस ने भारत में राष्ट्रीय आंदोलन चलाया तो अँग्रेजों ने उसे साम्प्रदायिकता की तलवार से काटने का निर्णय लिया। दुर्भाग्य से भारत में साम्प्रदायिकता के विकास के लिये आवश्यक तत्त्व पहले से ही मौजूद थे।
आधुनिक भारत के इतिहास में मुस्लिम साम्प्रदायिकता का उदय एवं विकास तथा भारतीय राजनीति में उसकी भूमिका, एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है। भारतीय उपमहाद्वीप में विशाल हिन्दू बहुसंख्यक जनसंख्या एवं विशाल मुस्लिम अल्पसंख्यक जनसंख्या मौजूद है। पश्चिम में भी बहुत से देश, अल्पसंख्यकों द्वारा उत्पन्न समस्याओं से ग्रस्त हैं परन्तु उनकी समस्याएं वर्ण, जातीयता, भाषाई-सांस्कृतिक समूह, राष्ट्र अथवा क्षेत्र विशेष से जुड़ी हुई हैं। जबकि भारत की साम्प्रदायिक समस्या मूलतः धार्मिक उन्माद से जुड़ी हुई है। भारत के हिन्दुओं तथा मुसलमानों या सिक्खों एवं ईसाइयों के अलग से अपने-अपने सामूहिक हित नहीं हैं। यहाँ हर धर्म का आदमी उस क्षेत्र की भाषा बोलता है जिसमें वह रहता है। प्रत्येक सम्प्रदाय में बेरोजगारी, अशिक्षा तथा निर्धनता की समस्या मौजूद है। इन समस्याओं के कारण समस्त भारतीय जनता के राजनीतिक एवं आर्थिक हित एक समान ही हैं परन्तु धूर्त राजनीतिक नेतृत्व, धार्मिक उन्माद तथा औपनिवेशिक शक्तियों के प्रेात्साहन के फलस्वरूप हिन्दुओं एवं मुसलमानों की धार्मिक चेतना ने साम्प्रदायिक समस्या का रूप धारण कर लिया। इस समस्या को जटिल बनाने में ब्रिटिश शासन की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही क्योंकि इसके माध्यम से वे लम्बे समय तक हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रगति को अवरुद्ध करने में सफल रहे।
ब्रिटिश शासनकाल के अन्तिम तीन दशकों में भारत में साम्प्रदायिकता का उफान अपने चरम पर पहुंच गया जिसकी अन्तिम परिणति द्वि-राष्ट्रीय सिद्धान्त के जन्म में हुई। इस सिद्धांत के अनुसार हिन्दू तथा मुसलमान दो राष्ट्र हैं जिन्हें एक राजनीतिक व्यवस्था के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता।
भारत में साम्प्रदायिकता के उदय के कारण
राष्ट्रीय आंदोलन में साम्प्रदायिकता की समस्या के उभार के लिये कई तत्त्व जिम्मेदार थे। साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले तत्कालीन मुस्लिम नेताओं ने इन तत्त्वों को एकत्रित करके अपने पक्ष में ऐसे तर्क जुटा लिये जिनके आधार पर वे अपने लिये प्रभावशाली राजनीति कर सकें। भारत में साम्प्रदायिकता के उदय के निम्नलिखित मुख्य कारण थे-
(1.) इस्लाम का भारत की भूमि में बाहर से आना
हिन्दू धर्म भारत की भूमि पर आकार लेने वाला प्रथम धर्म है जिसके लिये कहा जाता है कि यह धर्म नहीं, जीवन शैली है। इसी लिये इसे सनातन धर्म कहते हैं। बाद में बौद्ध, जैन, सिक्ख आदि कई पंथ इसी धर्म से निकले किंतु इस्लाम तथा इसाई धर्म भारत में बाहर से आये। इस्लाम ने आक्रांताओं के धर्म के रूप में भारत में प्रवेश किया। आक्रांता तो शक, कुषाण, हूण, बैक्ट्रियन तथा यूनानी भी थे किंतु उन्होंने इस देश में अपना धर्म थोपने के स्थान पर भारत के स्थानीय धर्मों को अपना लिया। उनमें से कुछ बौद्ध हो गये तो कुछ हिन्दू अथवा जैन। जबकि इस्लाम को मानने वाले आक्रांताओं ने ऐसा नहीं किया। वे न केवल स्वयं के लिये इस्लाम को एकमात्र विकल्प के रूप में देखते थे अपितु उन्होंने भारत की जनता में भी इस्लाम के प्रसार का प्रयास किया। यदि इस्लाम भारत की भूमि पर उत्पन्न हुआ होता तो संभवतः हिन्दुओं और मुसलमानों तथा सिक्खों और मुसलमानों के बीच साम्प्रदायिक वैमनस्य नहीं उठ खड़ा होता। न तो मुसलमान कभी यह भूल पाये कि उनकी पहचान इस्लाम से है और न हिन्दू कभी भूल पाये कि उनकी पहचान हिन्दू धर्म से है। ऐसी परिस्थितियों में भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या मध्यकाल से ही मौजूद थी। उन्नीसवीं सदी में अँग्रेजों द्वारा हिन्दुओं एवं मुसलमानों में भेदभाव किये जाने से यह समस्या विकराल हो गई।
(2.) मुसलमानों का राजनीतिक एवं आर्थिक क्षेत्र में पिछड़ जाना
भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना के पूर्व, मुस्लिम समाज दो वर्गों में विभाजित था- प्रथम वर्ग में वे लोग थे जो विदेशों से आये आक्रांताओं, व्यापारियों तथा धर्म प्रचारकों के वंशज थे। दूसरे वर्ग में वे भारतीय थे जो भय अथवा लालच से ग्रस्त होकर, परिस्थिति वश, बल पूर्वक अथवा स्वेच्छा से धर्म-परिवर्तन करके मुसलमान बन गये थे अथवा ऐसे लोगों की सन्तान थे। प्रथम वर्ग के लोग शासन संभालते थे तथा उनका शासन एवं शासकीय नौकरियों पर एकाधिकार था। यह मुस्लिम अभिजात्य वर्ग था। दूसरे वर्ग के लोग खेती-बाड़ी या अन्य छोटे-मोटे काम करते थे। धर्म-परिवर्तन के बाद भी उनके आर्थिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक स्तर में कोई उल्लेखीय परिवर्तन नहीं हुआ था। प्रथम वर्ग अर्थात् मुस्लिम अभिजात्य वर्ग का राजनीतिक प्रभुत्व 18वीं और 19वीं शताब्दी में बंगाल, अवध तथा दिल्ली द्वारा अँग्रेजों के समक्ष घुटने टेक देने के साथ ही समाप्त हो चुका था। मुस्लिम अभिजात्य वर्ग, राजनीतिक प्रभुत्व का इतना अधिक अभ्यस्त था कि इसने कभी व्यापार अथवा किसी अन्य कार्य की ओर ध्यान नहीं दिया। सरलता से धन प्राप्त होते रहने से इस वर्ग में अकर्मण्यता व्याप्त थी। प्रतिष्ठा बनाये रखने के दिखावे ने इस वर्ग को भीतर और बाहर दोनों तरफ से खोखला कर दिया। भूमि के स्थायी बन्दोबस्त के कारण अभिजात्य वर्ग के मुसलमानों की आर्थिक स्थिति और भी दयनीय हो गई। अँग्रेजी शिक्षा-पद्धति ने भी मुसलमानों की सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रगति को अवरुद्ध कर दिया, क्योंकि मुसलमान अपनी परम्परागत शिक्षा-पद्धति से चिपके रहे। उन्हें सरकारी नौकरियां नहीं मिल सकीं क्योंकि अँग्रेजी राज में सरकारी नौकरियों के लिए अँग्रेजी शिक्षा की डिग्रियां आवश्यक थीं। इस क्षेत्र में हिन्दू उनसे आगे निकल गये। मुसलमानों की स्थिति के सम्बन्ध में विलियम हण्टर ने लिखा है- ‘एक अमीर, गौरव-पूर्ण तथा वीर जाति को निर्धन तथा निरक्षर जन-समूह में बदल दिया गया और उसके उत्साह तथा गर्व को मिट्टी में मिला दिया गया।’
अँग्रेजों के शासन में मुसलमानों के राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक जीवन में आई गिरावट के कारण मुसलमान स्वयं को उपेक्षित अनुभव करने लगे और उनमें असन्तोष तथा विद्रोह की भावना उत्पन्न होने लगी।
(3.) 1857 की क्रांति के बाद अँग्रेजों का मुसलमानों पर अविश्वास एवं हिंदुओं पर अधिक विश्वास करना
अँग्रेजों का मानना था कि 1857 का विद्रोह मुसलमानों द्वारा, अपने खोये हुए शासन की पुनर्प्राप्ति का प्रयास था। सर जेम्स आउट्रम का मत था- ‘यह मुसलमानों के षड़यंत्र का परिणाम था जो हिन्दुओं की शक्ति के बल पर अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते थे।’ वी. ए. स्मिथ ने लिखा है- ‘यह हिन्दू शिकायतों की आड़ में मुस्लिम षड़यंत्र था।’ यद्यपि 1857 की क्रांति में हिन्दू एवं मुसलमानों ने संयुक्त रूप से भाग लिया था परन्तु यह भी सत्य है कि मुसलमानों ने हिन्दुओं से अधिक उत्साह दिखाया। इस कारण ब्रिटिश शासन ने क्रांति की समाप्ति के बाद मुसलमानों पर विश्वास करना बंद करके हिन्दुओं की तरफ झुकाव दिखाया। शासन के इस असमान व्यवहार के कारण हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच की दूरियां बढ़ीं। जब-जब हिन्दुओं और मुसलमानों ने मिलकर देश की आजादी का बिगुल बजाया, तब-तब अँग्रेजों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति पर चलते हुए मुसमलानों की साम्प्रदायिक भावना को भड़काया।
(4.) सर सैयद अहमदखाँ का अलीगढ़ आन्दोलन
1857 की क्रांति के असफल रहने के बाद अँग्रेजों के साथ सामंजस्य के प्रश्न पर मुस्लिम समाज में दो वर्ग उभर कर आये। एक वर्ग तो वह था जो किसी भी कीमत पर ब्रिटिश सत्ता से समझौता अथवा सहयोग करने के विरुद्ध था तथा हिंसात्मक साधनों से ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकना चाहता था। इसके विपरीत दूसरा वर्ग ब्रिटिश सत्ता की स्थिरता चाहता था तथा मुस्लिम समुदाय के विकास के लिए पश्चिमी शिक्षा को महत्त्वपूर्ण मानता था। पहले वर्ग का प्रतिनिधित्व सैयद अहमद बरेलवी ने किया, जबकि दूसरे वर्ग की विचारधारा ने अलीगढ़ आन्दोलन को जन्म दिया, जिसका नेतृत्व सर सैयद अहमदखाँ ने किया। उनका जन्म 17 अप्रैल 1817 को दिल्ली में हुआ। 1846 से 1854 ई. तक वे ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधीन दिल्ली के सदर अमीन रहे। 1855 ई. में उनका बिजनौर स्थानान्तरण हो गया। 1857 ई. की क्रांति के समय वह बिजनौर में थे। उन्होंने क्रांति के समय बहुत से अँग्रेजों के प्राण बचाये। इससे उन्हें अँग्रेजों की कृपा प्राप्त हो गई। इस कृपा का उपयोग उन्होंने भारतीय मुसलमानों के हितों के लिये किया। उस समय भारतीय मुसलमान अपने अतीत में खोये हुए थे और अँग्रेजों के साथ उनके अच्छे सम्बन्ध नहीं थे। मुसलमानों में अँग्रेजी शिक्षा के प्रति धार्मिक और सांस्कृतिक उदासीनता थी। सैयद अहमद खाँ ने अपने जीवन के प्रमुख दो उद्देश्य बनाये- पहला, अंग्रेजों व मुसलमानों के सम्बन्ध मधुर करना और दूसरा, मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा का प्रसार करना। उन्होंने मुसलमानों को समझाया कि ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादार रहने से ही उनके हितों की पूर्ति हो सकती है तथा अँग्रेज अधिकारियों को समझाया कि मुसलमान हृदय से अँग्रेजी शासन के विरुद्ध नहीं हैं। अँग्रेजों की थोड़ी सी सहानुभूति से वे सरकार के प्रति वफादार हो जायेंगे। अँग्रेजों ने भी मुसलमानों के प्रति सद्भावना प्रकट करना उचित समझा, क्योंकि हिन्दुओं में बढ़ती हुई राष्ट्रीयता के विरुद्ध वे मुस्लिम साम्प्रदायिकता का उपयोग कर सकते थे। अतः सर सैयद अहमदखाँ को अपने प्रथम उद्देश्य में शीघ्र ही सफलता मिल गई। वास्तविकता यह थी कि सर सैयद अहमद ने स्वयं को मुस्लिम कुलीन वर्ग के हित-चिंतन तक ही सीमित रखा था। जब उन्होंने मुसलमानों को हिन्दुओं से पृथक करने तथा उनमें हिन्दुओं के प्रति घृणा फैलाने का कार्य आरम्भ किया, तब अँग्रेजों ने सर सैयद का ऐसा प्रचार किया जैसे वे समस्त मुस्लिम सम्प्रदाय के एक-मात्र उन्नायक हों। भारत के अनपढ़ एवं संकीर्णतावादी मुसलमानों ने सर सैयद अहमदखाँ का साथ दिया परन्तु जागृत एवं प्रगतिशील मुसलमानों ने कांग्रेस को अपना समर्थन देकर सर सैयद की राष्ट्र-विरोधी एवं भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन को शिथिल करने की नीति का समर्थन नहीं किया।
दूसरे उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने अपने विचारों और कार्यक्रमों का केन्द्र अलीगढ़ को बनाया। अलीगढ़ से किये गये समस्त प्रयासों को समग्र रूप से अलीगढ़ आन्दोलन कहा जाता है। अलीगढ़ आन्दोलन ने मुसलमानों की शिक्षा के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किया। 1875 ई. में सर सैयद अहमदखाँ ने अलीगढ़ में मोहम्मडन एंग्लो ओरियंटल कॉलेज की स्थापना की। जनवरी 1877 में लॉर्ड लिटन ने इस कॉलेज का विधिवत् उद्घाटन किया तथा उत्तर प्रदेश के गवर्नर म्यूर ने इस कॉलेज को भूमि प्रदान की। इस प्रकार, आरम्भ से ही इस संस्था पर अंग्रेजों की विशेष कृपा-दृष्टि रही। लॉर्ड लिटन को दिये गये स्मृति-पत्र के अनुसार इस कॉलेज ने ब्रिटिश ताज के प्रति नवचेतना लाने और उन्हें संगठित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। अलीगढ़ आन्दोलन के विचारों को प्रचारित करने के लिए सर सैयद ने 1886 ई. में ऑल इंडिया मुहम्मडन एजुकेशनल कांग्रेस की स्थापना की। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से अन्तर स्पष्ट करने के लिए 1890 ई. में इसका नाम बदलकर ऑल इंडिया मुहम्मडन एजुकेशन कांफ्रेंस किया गया। अलीगढ़ कॉलेज का मुख्य उद्देश्य तो मुस्लिम युवाओं में पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार करना था किन्तु शीघ्र ही वहाँ का मुख्य काम राष्ट्रविरोधी और साम्प्रदायिक वातावरण तैयार करना हो गया। वहाँ से प्रकाशित अलीगढ़ इन्स्टीट्यूट गजट शैक्षणिक विषयों पर ध्यान केन्द्रित न करके राजनीतिक क्रिया-कलापों की खिल्ली उड़ाने और गाली-गलौच करने लगा।
यद्यपि कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश अधिकारियों के प्रोत्साहन एवं सहयोग से हुई थी तथापि जब कांग्रेस उनके द्वारा निर्देशित मार्ग पर न जाकर उलटे ब्रिटिश शासन की आलोचना का मंच बन गई तो ब्रिटिश नौकरशाही का रुख कांग्रेस-विरोधी हो गया। सैयद अहमद खाँ ने कांग्रेस का विरोध आरम्भ से ही किया था। जब ब्रिटिश शासकों का रुख कांग्रेस के विरुद्ध होने लगा तो सैयद अहमद ने कांग्रेस पर हमला और भी तेज कर दिया। उन्होंने मुसलमानों को कांग्रेस से दूर रखने का प्रयास किया। 1887 ई. में सर सैयद ने कहा कि- ‘कांग्रेस में हिन्दू, बंगालियों के साथ मिलकर अपनी शक्ति बढ़ाना चाहते थे जिससे वे मुसलमानों के धर्म-विरोधी कार्यों को दबा सकें।’
सर सैयद अहमद मुसलमानों के ऐतिहासिक महत्त्व का बखान करके हिन्दुओं तथा मुसलमानों में गहरी खाई उत्पन्न करना चाहते थे ताकि मुसलमानों को पृथकतावादी राजनीति के लिये तैयार किया जा सके। उन्होंने इस बात का प्रचार करना आरम्भ किया कि यदि प्रतिनिधि मूलक जनतांत्रिक सरकार बन गई और ब्रिटिश शासन का अन्त हो गया और सत्ता भारतीयों को हस्तांतरित कर दी गई तो हिन्दू, मुसलमानों पर शासन करेंगे। उन्होंने प्रतियोगी परीक्षाओं के समकालिक करने की कांग्रेस की मांग को मुसलमानों के हितों के विरुद्ध बताया, क्योंकि शिक्षा के क्षेत्र में मुस्लिम समुदाय काफी पिछड़ा हुआ था।
1887 ई. में उन्होंने मुसलमानों के पिछड़ेपन को लेकर लिखा- ‘जितना अनुभव और जितना विचार किया जाता है, सबका निर्णय यह निकलता है कि अब भारत के मुसलमानों को भारत की अन्य कौमों से समानता कर पाना असम्भव सा लगता है। बंगाली तो अब इतना आगे बढ़ गये कि यदि बंगाल, हिन्दुस्तान और पंजाब के मुसलमान पंख लगाकर भी उड़ें तो उनको पकड़ नहीं सकते। भारत की हिन्दू कौमों ने भी उन्नति करके मैदान में मुसलमानों को बहुत पीछे छोड़ दिया है। यदि मुसलमान दौड़कर भी चलें तो भी उनको पकड़ नहीं सकते।’
इस प्रकार सैयद अहमद ने भारत की राजनीति में साम्प्रदायिक रंग घोल दिया। उन्होंने मुसलमानों के हितों की राजनीति करने के नाम पर जिन उपायों एवं वक्तव्यों का सहारा लिया, वे राष्ट्रीय जीवन के मार्ग को अवरुद्ध करने वाले सिद्ध हुए। उनकी साम्प्रदायिक राजनीति के दो हथियार थे- (1.) ब्रिटिश राज्य के प्रति अटूट स्वामि-भक्ति और (2.) मुसलमानों की पृथक् राजनीति।
अलीगढ़ आन्दोलन ने जिस मुस्लिम बौद्धिक जागरूकता का विकास किया उससे भारतीय मुसलमानों को अपनी अलग पहचान स्थापित करने में सहायता मिली। इसी कारण आगे चलकर उन्हें राजनैतिक रूप से संगठित होने का अवसर मिला।
(5.) थियोडर बेक का कांग्रेस विरोधी अभियान
अलीगढ़ कॉलेज के प्रिंसीपल थियोडर बेक ने कांग्रेस-विरोधी अभियान में सर सैयद को महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया। बेक ने अलीगढ़ के छात्रों को कांग्रेस से दूर रखने के लिए छात्रावासों में जाकर तथा छात्रों को अपने घर बुलाकर उनके मस्तिष्क में कांग्रेस विरोधी जहर भरा। कांग्रेस-विरोधी राजनीतिक विचारों को इंग्लैण्ड में प्रचारित करने के लिए बेक की सहायता से अगस्त 1888 में यूनाइटेड इण्डियन पेट्रियाटिक एसोसिएशन की स्थापना की गई। बेक द्वारा कांग्रेस की नीतियों के विरोध में की जा रही कार्यवाहियों का एक मात्र लक्ष्य यह था कि ब्रिटिश सरकार कांग्रेस की मांगों को स्वीकार न करे। फिर भी 1892 ई. में भारतीय परिषद् अधिनियम पारित हो गया। अतः पुनः मुस्लिम हितों की रक्षा के लिए बेक ने सर सैयद के सहयोग से दिसम्बर 1893 में मुहम्मडन एंगलो-ओरियंटल डिफेन्स एसोसिएशन की स्थापना की। वे इस संस्था के माध्यम से भारतीय मुसलमानों को एक राजनीतिक शक्ति के रूप में प्रस्तुत कर अँग्रेजी राज्य से उनके लिए अधिक से अधिक लाभ उठाने का प्रयास कर रहे थे। एसोसिएशन द्वारा मुसलमानों को बिना किसी प्रवेश-परीक्षा के तकनीकी शिक्षा संस्थानों में प्रवेश, व्यवस्थापिका सभा तथा अन्य स्थानीय स्वशासी निकायों में मुसलमानों के समुचित प्रतिनिधित्व तथा साम्प्रदायिक प्रणाली के आधार पर पृथक् निर्वाचन-पद्धति की स्थापना की मांग की गई। इन मांगों के लिए प्रस्तुत आधारभूत सिद्धान्त इस प्रकार थे-
(क.) जिन नगरों में मुस्लिम जनसंख्या 15 प्रतिशत थी, वहाँ कम-से-कम एक मुस्लिम सदस्य अवश्य होना चाहिए।
(ख.) जिन नगरों में मुस्लिम जनसंख्या 15 प्रतिशत से 25 प्रतिशत तक थी, वहाँ मुसलमान सदस्यों की संख्या यथासम्भव आधी होनी चाहिए।
(ग.) जिन नगरों में मुस्लिम जनसंख्या 25 प्रतिशत से अधिक हो, वहाँ आधे सदस्य अवश्य मुसलमान होने चाहिए।
एसोसिएशन के उद्घाटन भाषण में बेक ने कहा- ‘इस समय देश में दो आन्दोलन चल रहे हैं- पहला, राष्ट्रीय कांग्रेस का और दूसरा गो-हत्या विरोधी। पहला आन्दोलन ब्रिटिश-विरोधी है और दूसरा मुस्लिम-विरोधी।’
बेक ने अपने एक लेख में गृह-सरकार की इस बात के लिए निन्दा की कि वह देशद्रोही आन्दोलनकारियों के दबाव में आकर उनकी मांगें स्वीकार करती जा रही है। 1898 ई. में सर सैयद अहमद खाँ का और अगले वर्ष बेक का देहान्त हो गया। उनके देहान्त के बाद उनकी कांग्रेस विरोधी राजनीति को थियोडर मॉरिसन ने आगे बढ़ाया। उसने घोषणा की कि यदि भारत में प्रजातन्त्र की स्थापना होती है तो यहाँ अल्पसंख्यकों की स्थिति लकड़हारों एवं भिश्तियों जैसी हो जायेगी।
(6.) हिन्दुओं द्वारा अपने सांस्कृतिक उत्थान के प्रयास
ब्रिटिश काल में हिन्दू समाज में नई चेतना उत्पन्न हुई। मुसलमानों के शासन काल में हिन्दू अपने समस्त राजनीतिक अधिकार खो चुके थे तथा उनमें शासन का विरोध करने का भी साहस नहीं बचा था किंतु अँग्रेजों के शासन काल में पाश्चात्य शिक्षा के कारण हिन्दुओं में शासन के विरुद्ध संघर्ष करने का नवीन साहस उत्पन्न हुआ तथा हिन्दू समाज में राष्ट्रीयता की भावना का फिर से उदय हुआ। यही कारण है कि राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व प्रायः हिन्दू नेताओं के हाथों में रहा।
(क.) गौ-रक्षा आंदोलन: 1882 ई. में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने गौ रक्षिणी सभा की स्थापना की तथा आर्य समाज ने देश भर में गौ-हत्या के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ा। मुसलमानों ने इस आंदोलन का विरोध किया जिसके फलस्वरूप देश के बहुत बड़े हिस्से में साम्प्रदायिक दंगे हुए। इन दंगों में बहुत से मन्दिर, मस्जिद और दुकानें नष्ट कर दी गईं। दोनों सम्प्रदायों के सैंकड़ों लोग घायल हुए।
(ख.) बाल गंगाधर तिलक के आंदोलन: महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक ने विदेशी सत्ता के विरुद्ध जनमत तैयार करने के लिए छत्रपति शिवाजी एवं भगवान गणेश के नाम पर उत्सव आरम्भ किये। इस कारण मुस्लिम समुदाय, हिन्दुओं के विरुद्ध भड़क गया।
(ग.) उर्दू विरोधी आंदोलन: उत्तर-पश्चिमी प्रान्त के न्यायालयों एवं शासन के निम्न स्तरों पर उर्दू भाषा का प्रयोग लम्बे समय से किया जा रहा था किन्तु 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में उर्दू के स्थान पर, हिन्दी को शासन की भाषा के रूप में प्रयोग करने की मांग की जाने लगी। 1900 ई. में प्रान्त के लेफ्टिनेन्ट गवर्नर एन्थोनी मेक्डोनेल ने हिन्दी को न्यायालयों की वैकल्पिक भाषा के रूप में स्वीकार कर लिया। उसके इस कदम से मुसलमान, हिन्दुओं के विरुद्ध लामबन्द हो गये।
(7.) कांग्रेस की स्थापना के बाद ब्रिटिश नौकरशाहों द्वारा हिन्दुओं पर अविश्वास एवं मुसलमानों के प्रति विश्वास की नीति अपनाना
साम्प्रदायिकता की समस्या को उलझाने में ब्रिटिश नौकरशाहों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। अपने शासन के प्रारम्भ में वे मुसलमानों को उच्च पदों पर नियुक्त नहीं करते थे तथा अँग्रेजी शिक्षा प्राप्त हिन्दुओं को प्राथमिकता देते थे। इस कारण ब्रिटिश राज में मुसलमानों की आर्थिक दशा, हिन्दुओं की अपेक्षा अधिक तेजी से खराब हुई। ज्यों-ज्यों राष्ट्रीय आन्दोलन में उग्रता आने लगी, त्यों-त्यों अँग्रेज यह अनुभव करने लगे कि अपनी सत्ता की सुरक्षा के लिए उन्हें मुसलमानों को अपने पक्ष में लेना चाहिये तथा मुसलमानों को हिन्दुओं से दूर किया जाना चाहिये। 1905 ई. का बंगाल-विभाजन हिन्दुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे से दूर करने के लिए ही किया गया था। लॉर्ड कर्जन ने पूर्वी बंगाल के मुसलमानों को यह भरोसा दिया था कि नये सूबे में उनकी वही प्रधानता स्थापित होगी जो कभी मुस्लिम सूबेदारों के युग में होती थी। 1911 ई. में बंगाल विभाजन को निरस्त करने से मुस्लिम साम्प्रदायिकता में अत्यधिक वृद्धि हुई क्योंकि अँग्रेज, मुसलमानों को यह समझाने में सफल रहे कि हिन्दुओं के आंदोलन के कारण ही मुसलमान अपना मुस्लिम बहुल प्रांत खो बैठे।
(8.) सरकारी नौकरियों में मुसलमानों का कम प्रतिनिधित्व
ब्रिटिश भारत में मुसलमानों की जनसंख्या 23 प्रतिशत थी किंतु 1893 ई. से 1907 ई. के मध्य विभिन्न विधान सभाओं में मुसलमानों को केवल 12 प्रतिशत स्थान प्राप्त हुए। 1904 ई. में किये गये एक सरकारी सर्वेक्षण के अनुसार देश में 75 रुपये या इससे अधिक वेतन पर काम करने वाले हिन्दुओं की संख्या 1427 थी और मुसलमानों की संख्या केवल 213 थी। जब भारत सचिव लॉर्ड मार्ले ने संवैधानिक सुधारों की घोषणा करके भारत में प्रतिनिधि-शासन-प्रणाली के विस्तार का समर्थन किया तो मुसलमानों में चिन्ता व्याप्त हो गई। उनमें हिन्दुओं के प्रति ईर्ष्या का भाव उत्पन्न हुआ जो अँग्रेजी पढ़-लिखकर अधिक संख्या में नौकरियां पा गये थे।
(9.) अँग्रेजों द्वारा साम्प्रदायिकता को प्रोत्साहन
अँग्रेज नौकरशाहों ने मुसलमानों की चिंताओं का लाभ उठाने का निश्चय किया। वायसराय के निजी सचिव स्मिथ ने अलीगढ़ कॉलेज के प्रिंसिपल आर्किबाल्ड को लिखा- ‘यदि आगामी सुधारों के बारे में मुसलमानों का एक प्रतिनिधि मण्डल मुसलमानों के लिए अलग अधिकारों की मांग करे और इसके लिए वायसराय से मिले तो वायसराय को उनसे मिलने में प्रसन्नता होगी।’
इस पर 36 मुस्लिम नेताओं का एक प्रतिनिधि मण्डल सर आगा खाँ के नेतृत्व में 1 अक्टूबर 1906 को शिमला में लॉर्ड मिन्टो से मिला और उन्हें एक आवेदन पत्र दिया जिसमें मुख्य रूप से निम्नलिखित मांगें थीं-
1. मुसलमानों को सरकारी सेवाओं में उचित अनुपात में स्थान मिले।
2. नौकरियों में प्रतियोगी तत्त्व की समाप्ति हो।
3. प्रत्येक उच्च न्यायालय और मुख्य न्यायालय में मुसलमानों को भी न्यायाधीश का पद मिले।
4. नगरपालिकाओं में दोनों समुदायों को अपने-अपने प्रतिनिधि भेजने की वैसी ही सुविधा मिले, जैसी पंजाब के कुछ नगरों में है।
5. विधान परिषद के चुनाव के लिए मुख्य मुस्लिम जमींदारों, वकीलों, व्यापारियों, अन्य महत्त्वपूर्ण हितों के प्रतिनिधियों, जिला परिषदों और नगर पालिकाओं के मुस्लिम सदस्यों तथा पांच वर्षों अथवा किसी ऐसी ही अवधि के पुराने मुसलमान स्नातकों के निर्वाचक-मण्डल बनाये जायें।
इस प्रार्थना-पत्र में इस तथ्य पर विशेष जोर दिया गया कि भविष्य में किये जाने वाले किसी संवैधानिक परिवर्तन में न केवल मुसलमानों की संख्या, वरन् उनके राजनीतिक और ऐतिहासिक महत्त्व को भी ध्यान में रखा जाये।
वायसराय मिन्टो ने मुस्लिम प्रतिनिधि मण्डल के प्रार्थना-पत्र की प्रशंसा की तथा उनकी मांगों को उचित बताया। मिण्टो ने कहा- ‘आपका यह दावा बिल्कुल उचित है कि आपके स्थान का अनुमान सिर्फ आपकी जनसंख्या के आधार पर नहीं, अपितु आपके समाज के राजनीतिक महत्त्व और उसके द्वारा की गई साम्राज्य की सेवा के आधार पर लगाया जाना चाहिए।’ मिन्टो ने यह आश्वासन भी दिया कि भावी प्रशासनिक पुनर्गठन में मुसलमानों के अधिकार और हित सुरक्षित रहेंगे।
इस प्रकार ब्रिटिश नौकरशाही ने मुसलमानों को अपने जाल में फंसाने तथा साम्प्रदायिकता की खाई को चौड़ा करने का काम किया। इस प्रतिनिधि मण्डल की उत्तेजना को देखकर अँग्रेज नौकरशाह अच्छी तरह जान गये कि वे 6.2 करोड़ मुसलमानों को राष्ट्रीय आन्दोलन से अलग करने में समर्थ हो गये हैं। इसकी पुष्टि खुद लेडी मिन्टो की डायरी से होती है। अक्टूबर 1906 का मुस्लिम शिष्ट मण्डल, एक मुस्लिम राजनैतिक दल के गठन का पूर्वाभ्यास था, इसका आभास मिलते ही ब्रिटिश नौकरशाही वर्ग में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई।
उसी शाम एक ब्रिटिश अधिकारी ने वायसराय की पत्नी मेरी मिन्टो को पत्र लिखकर सूचित किया- ‘मैं आपको संक्षेप में सूचित करता हूँ कि आज एक बहुत बड़ी बात हुई है। आज राजनीतिज्ञतापूर्ण एक ऐसा कार्य हुआ जिसका प्रभाव भारत तथा उसकी राजनीति पर चिरकाल तक पड़ता रहेगा। 6 करोड़ 20 लाख लोगों को हमने विद्रोही पक्ष में सम्मिलित होने से रोक लिया है।’
इंग्लैण्ड के समाचार पत्रों ने भी इसे एक बहुत बड़ी विजय बताया और मुसलमानों की बुद्धिमत्ता की प्रशंसा की। यह प्रथम अवसर था जब वायसराय के निमंत्रण पर भारत के विभिन्न भागों के मुसलमान शिमला में एकत्र हुए थे। जब वे वापिस अपने-अपने घर लौटे तब वे पूरे राजनीतिज्ञ बन चुके थे। अब उनके कंधों पर अलीगढ़ की राजनीति को सारे देश में फैलाने की जिम्मेदारी थी।
मुसलमानों को हिन्दुओं के विरुद्ध खड़ा करने के इस काम के लिए भारत सचिव मार्ले ने 16 अक्टूबर 1906 को गवर्नर जनरल लॉर्ड मिन्टो को पत्र लिखकर बधाई दी। ब्रिटिश सरकार ने अपना आश्वासन पूरा किया और 1909 ई. के भारतीय परिषद् अधिनियम के अन्तर्गत ब्रिटिश भारत की प्रत्येक विधान सभा के लिए मुसलमानों को अपने समुदाय पर आधारित चुनाव मण्डलों से अपने प्रतिनिधियों को, अपनी जनसंख्या के अनुपात से कहीं अधिक अनुपात में चुनने का अधिकार दिया। इस प्रकार, मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया जाता रहा।