कांग्रेस के नेतृत्व में किसान आंदोलन
(1.) चम्पारन का सत्याग्रह
अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1885 ई. में अपनी स्थापना होने के बाद लम्बे समय तक किसानों की स्थिति पर ध्यान नहीं दिया। गोपालकृष्ण गोखले ने अवश्य ही ब्रिटिश सरकार को एक ज्ञापन देकर सरकार का ध्यान अज्ञान, अकाल तथा ऋण-ग्रस्त्ता की ओर आकृष्ट करने का प्रयास किया था परन्तु उसका कोई परिणाम नहीं निकला। प्रथम विश्वयुद्ध (1914-19 ई.) के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कुछ नेताओं ने कृषि सम्बन्धी समस्याओं के प्रति चिन्ता व्यक्त करनी आरम्भ की। 1917 ई. के अन्त में देश के विभिन्न भागों में कृषक संघों की स्थापना की गई। उन दिनों उत्तरी बिहार में स्थित चम्पारन जिला नील की खेती के लिए प्रसिद्ध था। नील की खरीद करने वाले अँग्रेज व्यापारी नीलहे साहब कहलाते थे। उन्होंने पूरे क्षेत्र में अपनी कोठियां बना रखी थीं। वे लोग तिन काठिया प्रणाली के माध्यम से किसानों का जबरदस्त शोषण करते थे। इस प्रणाली के अंतर्गत प्रत्येक किसान को अपनी कुल कृषि भूमि के 3/20वें भाग पर नील की खेती करनी अनिवार्य थी। अँग्रेज व्यापारी नील की फसल को बहुत कम दामों पर खरीदते थे। जो किसान उनके आदेशों का उल्लंघन करता अथवा कम कीमत का विरोध करता तो उसके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता था। उसके परिवार को बुरी तरह मारा-पीटा जाता और उनके घरों में आग लगा दी जाती। अँग्रेजों द्वारा किये जा रहे अत्याचारों और शोषण के विरुद्ध कहीं शिकायत नहीं सुनी जाती थी। 1917 ई. में गंाधीजी के नेतृत्व में चम्पारन के किसानों ने आन्दोलन किया। उन्होंने नील की खेती करने से मना कर दिया। चम्पारन के लगभग 850 गांवों के 8000 से अधिक किसानों ने इस आंदोलन में भाग लिया। सरकार ने किसानों की निर्ममतापूर्वक पिटाई की तथा बड़ी संख्या में किसानों को बन्दी बना लिया परन्तु किसान डटे रहे। अन्त में सरकार ने एक जांच समिति गठित की। इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर सरकार ने चम्पारन कृषि अधिनियम पारित किया तथा नीलहे साहबों की मनमानी पर अंकुश लगा दिया।
(2.) खेड़ा सत्याग्रह आन्दोलन
1918-19 ई. में गुजरात के खेड़ा क्षेत्र में सूखा पड़ने से फसलें नष्ट हो गईं। सरकार का नियम था कि यदि 25 प्रतिशत पैदावार कम होगी तो किसानों का लगान माफ कर दिया जायेगा। इसी आधार पर खेड़ा के किसानों ने लगान माफी के लिये गुजरात सभा को एक ज्ञापन दिया। गुजरात सभा ने लगान माफी की अनुशंसा की परन्तु सरकार ने लगान माफ करने से मना कर दिया। इस पर मार्च 1919 में गांधीजी, सरदार वल्लभ भाई पटेल, इन्दुलाल याज्ञिक और एन. एम. जोशी आदि के नेतृत्व में किसानों ने आन्दोलन किया। किसानों ने सरकार को लगान न देने की घोषणा कर दी। इस पर सरकार ने सैंकड़ों किसानों को जेलों में डाल दिया, उनके मकान जब्त कर लिये तथा पशुओं को नीलाम कर दिया। किसानों की खड़ी फसलों पर अधिकार कर लिया गया और उन्हें शारीरिक यातनाएं दी गईं। इन कार्यवाहियों के उपरान्त भी किसानों ने आन्दोलन जारी रखा। अंत में जून 1919 में सरकार को किसानों की मांगें माननी पड़ीं।
(3.) संयुक्त प्रदेश में किसान आन्देालन
संयुक्त प्रदेश के किसानों को लम्बे समय से स्थानीय जमींदारों और सूदखोर साहूकारों के अत्याचारों का सामना करना पड़ रहा था। अधिकांश किसान खेतिहर श्रमिक थे जो जमींदारों, साहूकारों तथा सम्पन्न किसानों के खेतों पर मजदूरी करते थे। उनसे कठोर परिश्रम करवाया जाता था किंतु बहुत कम मजदूरी दी जाती थी। इस कारण उनकी आर्थिक दशा बहुत दयनीय थी। 1920-21 ई. में संयुक्त प्रदेश के किसानों ने असहयोग आन्दोलन आरम्भ करने का निश्चय किया। उन्होंने पं. जवाहरलाल नेहरू तथा अन्य कांग्रेसी नेताओं से सम्पर्क किया। इन नेताओं ने किसानों के आन्दोलन को अपना समर्थन प्रदान किया। फैजाबाद और रायबरेली जिलों के हजारों किसान आन्दोलन मे कूद पड़े। उन्होंने जमींदारों (ताल्लुकेदारों) की निजी फसलों को नष्ट करना आरम्भ कर दिया। इस पर पुलिस ने किसानों की भीड़ पर गोली चलाई। किसानों ने उत्तेजित होकर साहूकारों और ताल्लुकदारों के घरों और कार्यालयों को लूटना एवं जलाना आरम्भ कर दिया। सुल्तानपुर के किसान भी आन्दोलन में सम्मिलित हो गये। सरकार ने आंदोलन को कुचलने के लिये सेना बुलाई तथा हजारों किसानों को जेलों में डाल दिया। इसी बीच 5 फरवरी 1922 को गोरखपुर जिले में चौरा-चौरी की घटना हुई जिसमें आन्दोलनकारियों ने पुलिस की फायरिंग से उत्तेजित होकर 21 सिपाहियों एवं थानेदार को थाने में बन्द करके आग लगा दी। हिंसा की इस घटना से क्षुब्ध होकर गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन स्थगित कर दिया। इससे किसानों को भारी धक्का लगा। उन्हें लगा कि कांग्रेस ने किसानों की समस्याओं के हल के लिये किसानों का साथ नहीं दिया अपितु किसानों को अपने उपकरण की तरह इस्तेमाल किया तथा उन्हें बीच मंझधार में छोड़कर किसानों के साथ विश्वासघात किया। गांधीजी ने किसानों का साथ देने की बजाय उन्हें सलाह दी कि- ‘यदि जमींदार उन पर जोर-जुल्म करते हैं तो वे थोड़ा सहन करें। हम जमींदारों से नहीं लड़ना चाहते। जमींदार भी गुलाम हैं। हम उन्हें तंग नहीं करना नहीं चाहते…….।’ गांधीजी के इस कथन से किसानों को विश्वास हो गया कि कांग्रेस कभी भी किसानों की समस्याओं को हल नहीं करेगी। इसलिये किसानों ने पृथक् संगठन बनाया जो राका कहलाया। इसी संगठन ने आगे चलकर किसान आन्दोलन का नेतृत्व किया।
(4.) बारदौली सत्याग्रह आन्दोलन
जिस समय पूरे देश में साइमन कमीशन के विरुद्ध प्रदर्शन हो रहे थे, गुजरात के सूरत जिले में स्थित बारदौली के किसानों ने लगान वृद्धि के विरोध में आन्दोलन आरम्भ किया। बम्बई प्रान्त की सरकार ने 30 जूूून 1927 को बारदौली ताल्लुक का लगान 20 से 25 प्रतिशत बढ़ा दिया। यद्यपि बम्बई की विधायिका परिषद ने बढ़े हुए लगान की वसूली को रोकने का प्रस्ताव पारित कर दिया था तथापि प्रान्तीय सरकार अपने निर्णय पर अडिग रही। इससे किसानों में भारी असन्तोष फैल गया। किसानों ने एक विराट सभा आयोजित की तथा सरकार के राजस्व अधिकारी के पास शिष्टमण्डल भेजकर लगान वृद्धि को अनुचित बताते हुए उसे कम करने का अनुरोध किया परन्तु कोई परिणाम नहीं निकला। 6 दिसम्बर 1927 को किसानों ने पुनः सभा आयोजित की। इस सभा ने बढ़ा हुआ लगान न देने का निर्णय लिया। 4 फरवरी 1928 को पुनः सभा बुलाई गई और बढ़ा हुआ लगान नहीं देने का संकल्प, सर्वसम्मति से दोहराया गया। सरदार वल्लभ भाई पटेल को इस आन्दोलन का नेतृत्व सौंपा गया। सरकार ने बारदोली आंदोलन को कुचलने के लिये किसानों पर अत्याचार किये किंतु किसान डटे रहे। देश के विभिन्न भागों से मांग उठने लगी कि बारदौली के किसानों का लगान कम किया जाये। साथ ही अन्य प्रान्तों की किसान सभाओं ने भी बारदौली के समर्थन में आन्दोलन चलाने की धमकी दी। 12 जून 1928 को गंाधीजी की अपील पर पूरे देश में बारदौली दिवस मनाया गया। अन्त में सरकार को झुकना पड़ा और पुरानी लगान दर फिर से लागू करनी पड़ी।
स्वतन्त्र किसान संगठनों का निर्माण
असहयोग आन्दोलन की समाप्ति के बाद स्वतन्त्र किसान संगठनों के निर्माण का प्रयास किया गया। 1923 ई. में रैयत सभा तथा किसान एवं मजदूर सभा बनी। 1925 ई. में साम्यवादियों ने कामगार एवं किसान दल का गठन किया। पंजाब, संयुक्त प्रदेश तथा बिहार में भी इसी तरह संगठन बने। 1926 ई. में सोहनसिंह जोश ने भारतीय मजदूर एवं किसान पार्टी की स्थापना की। ये समस्त दल थोड़े ही दिनों में निष्क्रिय हो गये। 1927 ई. में बिहार किसान सभा स्थापित हुई। सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में यह एक व्यापक संगठन बन गया। 1935 ई. में संयुक्त प्रदेश में प्रादेशिक किसान सभा गठित हुई। इन किसान सभाओं ने सरकार के समक्ष जमींदारी प्रथा, ऋण-ग्रस्त्ता तथा अन्य समस्याओं के सम्बन्ध में मांग-पत्र प्रस्तुत किये। सरकार ने 1933 ई. में बंगाल में साहूकार अधिनियम; 1934 ई. में उत्तर प्रदेश ऋण राहत अधिनियिम; 1935 ई. में ऋण-ग्रस्त्ता राहत अधिनियम; 1935 ई. में पंजाब रैगुलेशंस ऑफ एकाउंट्स एक्ट पारित किया परन्तु इनसे किसानों को विशेष लाभ नहीं मिला।
1936 ई. में साम्यवादियों ने अखिल भारतीय किसान सभा स्थापित की। संगठित किसान आन्दोलन की दिशा में यह एक महत्त्वपूर्ण कदम था। इस संगठन का पहला अखिल भारतीय अधिवेशन दिसम्बर 1936 में राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन के साथ-साथ फैजपुर में हुआ। उसमें 20,000 किसानों ने भाग लिया। कांग्रेस ने फैजपुर अधिवेश में खेती-सम्बन्धी एक कार्यक्रम पारित किया और दोनों संगठनों के भाईचारे की घोषणा की। 1936 ई. में ही कलकत्ता में बंगीय प्रादेशिक किसान सभा की स्थापना हुई। इस सभा ने बंगाल में बटाईदारों की बेदखली तथा तरह-तरह के उप-करों के विरुद्ध कई आन्दोलन चलाये।
अखिल भारतीय किसान सभा का चौथा अधिवेशन अप्रैल 1939 में गया में हुआ। इस समय तक इसके सदस्यों की संख्या 8 लाख हो गई थी। इसके कुछ महीने बाद दूसरा विश्वयुद्ध आरम्भ हो गया। 1942-45 ई. का काल किसान आन्दोलनों के लिए अग्नि-परीक्षा का काल था। अगस्त 1942 में सरकार ने भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने के लिये कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया तथा आंदोलनकारियों पर भयानक अत्याचार किये। फिर भी किसानों ने साम्राज्यवादी एवं सामन्ती व्यवथा के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा। कांग्रेसी नेताओं के जेल में होने से संगठित किसान संगठनों की जिम्मेदारी बढ़ गई। अखिल भारतीय किसान सभा और उसकी प्रान्तीय शाखाओं ने राष्ट्रीय नेताओं की रिहाई और राष्ट्रीय सरकार की स्थापना के लिए दृढ़तापूर्वक आन्दोलन चलाया। किसानों ने सरकार के दमनचक्र का बहादुरी से सामना किया। किसानों ने अँग्रेजों द्वारा युद्ध-कोष के लिए किसानों से की जा रही धन-वसूली का विरोध किया और गांव-गांव में नौकरशाहों, अनाज चोरों ओर चोर-बाजारियों की कार्यवाहियों के विरुद्ध आवाज उठाई।
(5.) तिभागा किसान आन्दोलन
तिभागा आन्दोलन, जोतदारों के विरुद्ध बटाईदारों (बर्गदारों) का आन्दोलन था। इसमें बंगाल के बटाईदार किसानों ने एक जुट होकर आन्दोलन किया। आन्दोलन की शुरुआत नौआखाली से सटे हुए हसनाबाद क्षेत्र से हुई। आन्दोलनकारियों ने घोषणा की कि वे जोतदारों तथा जमींदारों को अपनी फसल में से केवल एक-तिहाई हिस्सा बंटाई के रूप में देंगे तथा शेष भाग अपने पास रखेंगे। फसल बंटवारे के इसी अनुपात के कारण यह आन्दोलन ते-भागा अथवा तिभागा आन्दोलन कहलाता है। यह आन्दोलन बड़ी तेजी से दूर-दूर के गंावों में फैल गया। इस आन्दोलन में बंगाल के साम्यवादी नेताओं- मोवीसिंह, मुजफ्फर अहमद और सुनील सेन ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। किसान सभा के नेतृत्व में चलने वाला यह आन्दोलन बंगाल का सबसे व्यापक आन्दोलन था जिसमें लगभग 50 लाख किसानों ने भाग लिया। उन्होंने जोतदारों, जमींदारों, उनके लठैतों और पुलिस का डटकर मुकाबला किया। स्त्रियों ने भी इस आन्देालन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह आन्देालन नवम्बर 1946 से फरवरी 1947 तक पूरे वेग से चला और स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी कुछ समय तक जारी रहा। इस आन्दोलन के दौरान पुलिस ने कई स्थानों पर गोली चलाई जिसमें 73 लोग मारे गये किंतु किसानों की मांगें नहीं मानी गईं।
(6.) तेलंगाना किसान आन्दोलन
हैदराबाद निजाम के राज्य में तेलंगाना क्षेत्र में रहने वाले देशमुखों ने पटेल एवं पटवारियों की सहायता से बड़ी संख्या में किसानों की भूमि पर कब्जा कर लिया था। देशमुखों को निजाम का संरक्षण प्राप्त होने से किसान उनके विरुद्ध कुछ नहीं कर पाते थे। इस कारण किसानों में देशमुखों के विरुद्ध आक्रोश व्याप्त था। द्वितीय विश्व युद्ध के समय तेलंगाना क्षेत्र के तेलुगू-भाषी किसानों से कम कीमत पर गल्ला वसूल किया जाने लगा। इसके विरोध में तेलुगू-भाषी किसानों ने आन्दोलन आरम्भ किया। 1946 ई. तक यह आन्दोलन नालगोंडा क्षेत्र के कई गाँवों में फैल चुका था। तेलंगाना किसानों के आन्दोलन का तात्कालिक कारण पुलिस द्वारा कमरय्या नामक व्यक्ति की हत्या करना था। कमरय्या साम्यवादी था और स्थानीय किसान सभा का सक्रिय पदाधिकारी था। किसानों ने उसके शव के साथ, विराट जुलूस निकाला। पुलिस और रजाकारों (मुसलमानों का एक विशेष संगठन) ने मिलकर इस जुलूस पर हमला कर दिया। किसानों ने भी पलटकर हमला किया। पुलिस वाले और रजाकर भागकर जमींदारों के घरों में जा छिपे। इसके बाद किसानों ने सूर्यपेट और आस-पास के कई गांवों पर अधिकार कर लिया। हैदराबाद के साम्यवादी नेताओं और आन्ध्र महासभा ने इस आंदोलन का नेतृत्व अपने हाथों में ले लिया। निजाम ने किसानों का दमन करने के लिए पुलिस और रजाकारों को भेजा तो किसानों ने लड़ाकू दस्ते गठित कर लिये और अपने अधिकार वाले गाँवों की शासन-व्यवस्था चलाने के लिए ग्राम-पंचायतें गठित कर लीं। किसानों ने जमींदारों की जमीनों को छीनकर भूमिहीन किसानों तथा खेतिहर मजदूरों में बाँट दिया। 1947 ई. में यह सशस्त्र संघर्ष और भी व्यापक तथा खतरनाक बन गया। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद कांग्रेस सरकार ने किसानों का पक्ष न लेकर निजाम तथा जमींदारों का पक्ष लिया, इसलिए तेलंगाना का किसान आन्दोलन साम्यवादियों के नेतृत्व में 1951 ई. तक चलता रहा।
(7) बर्ली किसान आन्दोलन
बम्बई के समीप स्थित बर्ली के किसान मूलतः आदिवासी थे। स्थानीय जमींदारों, साहूकारों और वन-विभाग के ठेकेदारों ने इन लोगों का जीना कठिन कर रखा था। बर्ली के किसान, साहूकारों के ऋण से दबकर बंधुआ मजदूर बन चुके थे। 1946 ई. में जब किसान सभा ने खेतिहर मजदूरों की हड़ताल करवाई तो उसमें बर्ली के किसान भी सम्मिलित हो गये। उन्होंने साहूकारों को बेगार देने से मना कर दिया तथा मांग की कि उनकी मजदूरी बढ़ाई जाये अन्यथा वे खेतों पर काम नहीं करेंगे। उनके पुराने ऋणों को माफ करके उन्हें बन्धुआ स्थिति से मुक्त किया जाये। पुलिस और गुण्डों के सामूहिक आक्रमणों के उपरान्त भी जब बर्ली के किसान डटे रहे तो साहूकारों को झुकना पड़ा और उन्होंने बेगार बन्द कर दी परन्तु मजदूरी और बन्धुआ स्थिति की समस्या लम्बे समय तक चलती रही।
(8.) राजस्थान में किसान आन्दोलन
देशी रियासतों में मुगल काल से ही भूमि का स्वामित्व दो भागों में बंट गया था- (1.) खालसा भूमि तथा (2.) जागीर भूमि। खालसा भूमि सीधे ही शासक के नियंत्रण में होती थी तथा जागीर भूमि जागीरदारों के पास होती थी। खालसा क्षेत्र के किसानों की अपेक्षा, जागीरी क्षेत्र के किसानों की हालत अधिक दयनीय थी। किसान, भू-स्वामी के आश्रित रहकर खेती करता था। जैसे-जैसे अँग्रेजों के कर बढ़ते गये, वैसे-वैसे राजाओं द्वारा जागीरदारों तथा ठिकाणेदारों पर लाग-बाग, खिराज, नजराना, कर भी बढ़ते गये। राजपूताना में जागीरदारों और ठिकाणेदारों ने किसानों पर करों की संख्या तथा मात्रा इतनी बढ़ा दी कि पूरे वर्ष कठोर परिश्रम करने के बाद भी किसान और उसके बच्चे भूखे मरते थे। कर न चुका पाने की स्थिति में किसानों और उनके परिवारों को जागीरदार तथा उसके कामदार के भय से खेती छोड़कर जंगलों में भाग जाना पड़ता था। 19वीं शताब्दी के अंत तक जागीरदार तथा किसानों के सम्बन्ध कटुतम स्तर पर थे। राजस्थान की अनेक रियासतों में समय-समय पर किसान आन्दोलन उठते रहे जिनमें बिजौलिया का किसान आन्दोलन, बेगूं का आन्दोलन, भोमट का भील आन्दोलन, मारवाड़ का किसान आन्दोलन, मेव आन्दोलन, सीकर का किसान आन्दोलन आदि प्रमुख हैं।
बिजोलिया किसान आंदोलन: बिजौलिया ठिकाना मेवाड़ के 19 ठिकानों में से एक था। बिजौलिया किसान आंदोलन का प्रथम चरण 1897 ई. में आरम्भ हुआ। वहाँ के जागीरदार ने जनता पर 84 प्रकार के लाग-बाग लगाये जिनके विरोध में बिजौलिया के किसानों ने महाराणा से अपील की। महाराणा ने जागीरदार को चेतावनी देकर छोड़ दिया। जागीरदार, शिकायत से रुष्ट होकर किसानों पर अत्याचार करने लगा। 1904 ई. में बिजौलिया के जागीरदार राव कृष्णसिंह ने किसानों को कुछ राहत दी किंतु उसके उत्तराधिकारी राव पृथ्वीसिंह ने 1906 ई. में उस छूट को समाप्त कर दिया तथा नये कर भी लगा दिये। 1913 ई. में बिजौलिया आंदोलन के प्रवर्तक साधु सीताराम दास, ब्रह्मदेव और फतहलाल चारण के नेतृत्व में लगभग एक हजार किसान राव के घर के बाहर एकत्रित हुए। वे, राव को एक प्रार्थना पत्र देना चाहते थे किंतु राव ने मिलने से मना कर दिया। इस पर किसानों ने तय किया कि वे जागीर की भूमि पर हल नहीं जोतकर, मेवाड़ की खालसा भूमि और ग्वालियर तथा बूंदी रियासतों की भूमि किराये पर लेकर उस पर हल जोतेंगे। इस कारण बिजौलिया जागीर के खेत खाली रहे और जागीर में अकाल पड़ गया। बिजौलिया जागीर को बड़ी आर्थिक हानि हुई। इन्हीं परिस्थितियों में राव पृथ्वीसिंह की मृत्यु हो गयी तथा उसका अल्पवयस्क पुत्र केसरीसिंह जागीरदार बना। मेवाड़ सरकार ने बिजौलिया का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया। महाराणा ने किसानों को कुछ राहत दी तथा ठिकाने का भोग 2/5 के स्थान पर 1/3 कर दिया। फलों के कर में कमी कर दी तथा किसानों को अपने उपयोग के लिये बबूल के पेड़ काटने का अधिकार दे दिया। लकड़ी और घास जो किसान वर्षा ऋतु में ठिकाने को बेगार में देता था, उसे बंद कर दिया किंतु ठिकाने के अधिकारी महाराणा के आदेश की परवाह न करके किसानों से बेगार लेते रहे तथा पहले की तरह ही लाग-बाग मांगने लगे। 1916 ई. में बिजौलिया में सूखा पड़ा किंतु ठिकाने ने किसानों से प्रथम विश्वयुद्ध के लिये वारफण्ड का चंदा वसूलना आरम्भ कर दिया। इससे किसानों में असंतोष और भड़का तथा आंदोलन का नेतृत्व गुर्जर विजयसिंह पथिक ने अपने हाथों में ले लिया। बिजौलिया ठिकाने के कहने पर मेवाड़ राज्य ने पथिक को बंदी बनाने का आदेश जारी कर दिया। पथिक भूमिगत हो गये और किसान आंदोलन को गुप्त रूप से संचालित करने लगे। उनके सहयोगियों ने गाँव-गाँव जाकर किसानों का आह्वान किया कि वे वारफण्ड के लिये चंदा न दें।
बिजौलिया किसान आंदोलन के दूसरे चरण में विजयसिंह पथिक ने बारीसल गाँव में किसान पंचायत बोर्ड की स्थापना की तथा बिजौलिया किसानों का हस्ताक्षर-युक्त पत्र उदयपुर महाराणा के सम्मुख रखा। बिजौलिया जागीर के विभिन्न स्थानों पर आम सभाएं की गयीं तथा अनेक गाँवों में पंचायत बोर्ड की शाखाएं स्थापित की गयीं। किसानों को उत्साहित करने के लिये खेतों और जंगलों में रात को गुप्त सभाएं होती थीं। उदयपुर महाराणा ने पंचायतों से प्राप्त पत्रों पर ध्यान नहीं दिया तथा बिजौलिया के ठिकाणेदार ने किसान नेताओं को बंदी बनाकर बुरी तरह पीटा तथा उनके घरों को लूट लिया। उनकी स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार किया गया। अप्रेल 1919 में मेवाड़ सरकार ने जाँच कमीशन नियुक्त किया। इस कमीशन ने माणिक्यलाल वर्मा तथा साधु सीताराम को जेल से मुक्त करवाया। इन नेताओं ने कमीशन को बताया कि इस समय खेती से उनकी वार्षिक आय 13.25 रुपये मात्र है जिससे गुजारा नहीं चल सकता। इस पर कमीशन ने किसानों के साथ सहानुभूति दर्शाते हुए 51 किसानों को जेलों से मुक्त कर दिया। कमीशन ने मेवाड़ सरकार को कई उपाय सुझाये किंतु महाराणा ने कोई कदम नहीं उठाया और बिजोलिया किसान आंदोलन चलता रहा।
इस आंदोलन के तृतीय चरण में 1923 से 1926 ई. की अवधि में किसानों की दशा अत्यंत शोचनीय हो गयी और वे भूराजस्व देने की स्थिति में नहीं रहे। 1927 ई. में मेवाड़ राज्य के सेटलमेंट ऑफीसर जी. सी. ट्रेंच ने बिजौलिया ठिकाने में असिंचित भूमि के कर की दर अन्य ठिकानों की अपेक्षा अत्यधिक ऊंची कर दी। किसानों ने इसका भी विरोध किया जिसके बाद कुछ रियायत की गयी। आंदोलन के चतुर्थ चरण में अप्रेल 1938 में माणिक्यलाल द्वारा मेवाड़ में प्रजामण्डल की स्थापना की गयी। यह आंदोलन शीघ्र ही पूरे राज्य में फैल गया। 24 नवम्बर 1938 को बिजौलिया के किसानों ने उमाजी का खेरा की सभा में एक प्रस्ताव पारित किया कि यदि उनकी असिंचित भूमि उन्हें वापिस मिल जाती है तो वे मेवाड़ के प्रजामंडल आंदोलन में भाग नहीं लंेगे। मेवाड़ सरकार ने किसानों को प्रजामंडल के आंदोलन से दूर रखने के लिये उनसे समझौता कर लिया किंतु किसानों को अगले दो वर्ष तक कोई राहत नहीं मिली। 25 दिसम्बर 1939 को टी. राघवाचार्य मेवाड़ के नये प्रधानमंत्री नियुक्त हुए। उनके समय में 1941 ई. में यह आंदोलन समाप्त हुआ।
बेगूं आंदोलन: 1921 ई. में बेगूं के किसानों ने अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाई। इस पर बेगूं ठिकाणे के कर्मचारियों ने किसानों पर और अधिक जुल्म किये। किसानों की अपील पर तत्कालीन रेवेन्यू कमिश्नर ट्रेंच 13 जुलाई 1923 को बेगूं ठिकाणे के गोविंदपुरा गाँव आया। उसने किसानों पर गोली चलाई तथा गाँव में आग लगा दी। कई किसान घटना स्थल पर ही मर गये। पुलिस ने घरों में घुसकर स्त्रियों का सतीत्व भंग किया। इस पर विजयसिंह पथिक ने बेगूं आकर किसानों को ढाढ़स बंधाया तथा उनसे साहस बनाये रखने की अपील की। इस पर पथिक को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें 1928 ई. में मुक्त किया गया। इसी तरह का असहनीय अत्याचार धंगडमउ तथा भंडावरी में भी हुआ। पारसोली तथा काछोला में किसानों ने आंदोलन किये।
बूंदी आंदोलन: 1926 ई. में बूंदी के किसानों ने लाग-बाग व बैठ बेगार के विरुद्ध आंदोलन छेड़ा। स्त्रियां भी पीछे नहीं रहीं। सरकार द्वारा आंदोलनकारियों पर सख्ती की गयी। बूंदी के बरड़ गाँव में हाकिम इकराम हुसैन के निर्देशों पर बूंदी रियासत की पुलिस द्वारा एक समारोह में एकत्र भीड़ पर गोली चलायी गयी जिससे नानक भील की मृत्यु हो गयी। नयनूराम को बंदी बना लिया गया। कई स्त्रियां एवं बच्चे भी घायल हो गये। माणिक्यलाल वर्मा ने आंदोलनकारी किसानों का साथ दिया। बूंदी का किसान आंदोलन लगभग 17 वर्ष तक चलता रहा। अंत में 1943 ई. में बूंदी रियासत की सरकार ने किसानों की मांगें स्वीकार कीं और यह आंदोलन समाप्त हुआ।
अलवर आंदोलन: अलवर में जंगली सूअर खेतों में घुसकर फसल नष्ट कर देते थे। किसानों ने इन सूअरों को मारना चाहा किंतु राज्य सरकार ने उन्हें मारने पर पाबंदी लगा दी। इस पर 1921 ई. में अलवर के किसानों ने आंदोलन किया। अंत में अलवर के शासक ने किसानों की मांगें स्वीकार कर लीं। 1925 ई. में एक बार फिर अलवर राज्य में किसानों का जोरदार आंदोलन हुआ। यह आंदोलन 1923-24 ई. में अलवर के शासक द्वारा लगान दर बढ़ाये जाने के विरोध में हुआ। किसानों ने अलवर सरकार से लगान फिर से पुरानी दर पर करने की अपील की किंतु अलवर के शासक ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। किसानों ने सरकार को लगान देने से मना कर दिया तथा अनाज अपने घर ले गये। लगान वृद्धि के विरोध में नीमूचाना गाँव में एक किसान सभा का आयोजन किया गया। अलवर के कुछ राज्याधिकारियों ने अलवर महाराजा जयसिंह को बदनाम करने की नीयत से, सम्मेलन पर गोली चला दी। इस गोली काण्ड में सैंकड़ों किसान, बच्चे, वृद्ध तथा स्त्रियां मारी गयीं। बहुत से पशु, चारा, घर, अनाज भण्डार जल कर राख हो गये। बहुत से किसान गिरफ्तार कर लिये गये। यह सामंती जुल्मों की कड़ी में जोड़ा गया एक बहुत ही भयावह हादसा था। इसने भारत की अंतरात्मा को हिला कर रख दिया। कांग्रेस ने इस नर संहार की तुलना जलियांवाला काण्ड से की। ऐसा किया।
सीकर आंदोलन: सीकर तथा शेखावाटी क्षेत्र में भी किसानों ने लगान, लाग-बाग तथा करों में वृद्धि के विरोध में आंदोलन किया। ठिकानेदार ने किसानों के दमन के लिये कठोर नीति अपनायी। जयपुर राज्य ने सीकर के सामंत को लगान में कमी करने के निर्देश दिये किंतु सामंत ने इन आदेशों को ठुकरा दिया। 1932 ई. में भारतीय जाट महासभा ने सीकर के जाटों को अपना आंदोलन और भी तेज करने के लिये प्रेरित किया। 1934 ई. में प्रजापति जाट महायज्ञ के माध्यम से आंदोलन को तेज किया गया। इस पर ठिकाणेदार ने किसानों पर निर्मम अत्याचार किये। 1935 ई. में सीकर के शांतिपूर्ण किसान प्रदर्शन पर गोलियां दागी गयीं जिससे कुछ किसान मौके पर ही मर गये। बहुत से किसान घायल हुए।
शेखावाटी आंदोलन: सीकर की तरह शेखावाटी क्षेत्र के अन्य जागीरदार भी किसानों पर अत्याचार करने में पीछे नहीं रहे। 1922 ई. में मास्टर प्यारेलाल गुप्ता ने चिड़ावा में अमर सेवा समिति की स्थापना की। मास्टर प्यारेलाल गुप्ता उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले का रहने वाला था तथा चिड़ावा का गांधी कहलाता था। उसी साल खेतड़ी नरेश अमरसिंह ने चिड़ावा का दौरा किया। खेतड़ी नरेश की सेवा के लिये जब अमर सेवा समिति के सदस्यों को बेगार करने के लिये बुलाया गया तो सदस्यों ने बेगार करने से मना कर दिया। राजा के आदेश पर मास्टर प्यारेलाल गुप्ता सहित समिति के सात सदस्यों को बंदी बनाकर भयानक अत्याचार किये गये। चिड़ावा अत्याचार की सूचना पूरे देश में फैल गयी। चांद करण शारदा तत्काल चिड़ावा आये। सेठ जमनालाल बजाज, सेठ घनश्याम दास बिड़ला तथा सेठ वेणी प्रसाद डालमियां आदि नेताओं ने खेतड़ी के राजा को कठोर चिट्ठियां लिखकर कड़ा विरोध जताया। 23 दिन बाद सभी बंदियों को छोड़ा गया।
झुंझुनूं किसान आंदोलन: 1925 ई. में पं. मदन मोहन मालवीय के मुख्य आतिथ्य में अखिल भारतीय जाट सम्मेलन हुआ। पण्डितजी के ओजस्वी वक्तव्य से प्रभावित होकर झुंझुनूं जाट पंचायत की स्थापना की गयी। 1932 ई. में झुंझुनूं जाट महासभा अधिवेशन हुआ जिसमें निर्णय लिया गया कि किसान अपने साथ हथियार रखें ताकि उन्हें कमजोर नहीं समझा जाये। लोगों ने रिवॉल्वर तथा बंदूकें रखने प्रारंभ कर दिये। 1938 ई. तक इस क्षेत्र में हथियारों का प्रदर्शन करना साधारण बात हो गया। 11 मार्च 1938 को झूंझुनूं में वृहत् महिला सम्मेलन बुलाया गया। जब 1939 ई. में सेठ जमनालाल बजाज को जयपुर की सीमा पर गिरफ्तार करके आगरा भेज दिया गया तो शेखावाटी क्षेत्र में किसानों ने विरोध प्रदर्शन किये। झूंझुनूं, सीकर तथा चौमूं में बड़ी-बड़ी सभायें हुईं। जयपुर नरेश के नेतृत्व में जागीरदारों और ठिकानेदारों ने किसानों का मनोबल तोड़ने के लिये किसानों पर बड़े अत्याचार किये। यदि कोई व्यक्ति हाथ में तिरंगा लेकर निकलता तो सिपाही उसे गोली मार देते या नंगा करके पीटते, उन पर थूकते, उल्टा लिटाकर डण्डों की बरसात करते। इन अत्याचारों के विरोध में गाँव-गाँव में चंग बजने लगे जिन पर गाया जाता था- आठ फिरंगी नौ गौरा। लड़े जाट का दो छोरा। सत्याग्रही लोग होली की धमाल इस तरह गाया करते थे- गोरा हटज्या, भरतपुर गढ़ बांको। तू कै जाणैं गोरा, लड़े रे जाट को। ज्याणो बेटो दशरथ को, गोरा हटज्या।
15 मार्च 1939 को झूंझुनूं शहर में सरदार हरलाल सिंह ने गिरफ्तारी दी। झूंझुनूं में पुलिस ने पाशविकता का नंगा नाच किया। झूंझुनूं पहुंचने वाले मार्ग पर कई किलोमीटर तक पुलिस तैनात कर दी गयी किंतु बहुत बड़ी संख्या में लोग हाथों में झण्डा लेकर सड़कों पर निकल आये। पुलिस भूखे भेड़ियों की तरह उन पर टूट पड़ी। उस दिन लगभग 1 लाख किसान झूंझुनूं पहुंचे जिन्हें पुलिस ने पीट-पीट कर अधमरा कर दिया। महिलाओं के जत्थों पर भी लाठियां बरसाई गईं किंतु महिलाओं ने पुलिस को झण्डे तक नहीं पहुंचने दिया। पुलिस ने लोगों पर घोड़े दौड़ाये। जब ये समाचार पूरे देश को मिले तो देश स्तब्ध रह गया। इतना होने पर भी जयपुर नरेश मानसिंह ने अपनी टेक नहीं छोड़ी। उसने 29 मार्च 1941 को झूंझुनूं का दौरा किया। पंचपाना के सरदारों ने जयपुर नरेश का महानायक की तरह स्वागत किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही यह आंदोलन समाप्त हो सका।
निष्कर्ष
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध एवं बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में हुए किसान आन्दोलन भारतीय इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटना है। भारत में अँग्रेजी शासन की स्थापना से ही भारत में किसान आंदोलन आरम्भ हुए जो भारत की आजादी तक चलते रहे। प्रारम्भ में किसानों का गुस्सा साहूकारों और जमींदारों से बदला लेने के लिये आंदोलन का रूप लेता था किंतु बाद में उनके आंदोलन अधिक व्यापक एवं उग्र हो गये। भारत सरकार, प्रांतीय सरकारों, राजाओं एवं जागीरदारों ने किसान आंदोलनों पर लाठियां और गोलियां चलाने से परहेज नहीं किया। इन आंदोलनों से प्रजा और शासकों के सम्बन्ध हमेशा के लिये खराब हो गये। अब उनके बीच किसी तरह की समरसता का उत्पन्न होना संभव नहीं रह गया। किसानों ने पूर्णतः संगठित न होते हुए भी जोरदार आन्दोलन किये। कांग्रेस ने किसानों का साथ नहीं दिया। साम्यवादियों ने किसानों को समर्थन तो दिया किंतु वे किसानों को सरकार की गोलियों से मरने से नहीं बचा पाये। भारत की आजादी की लड़ाई में यद्यपि किसान आंदोलनों की भूमिका को महत्त्व नहीं दिया जाता है किंतु यह उचित नहीं है। वास्तविकता यह है कि आजादी के पौधे को क्रांतिकारियों, किसानों एवं मजदूरों ने भी अपने रक्त से सींचा था।