ट्रेड यूनियनवाद का उदय
बीसवीं सदी के दूसरे दशक में राष्ट्रव्यापी हड़तालों की पृष्ठभूमि में भारत का ट्रेड यूनियन आन्दोलन उत्पन्न हुआ। लगभग समस्त बड़े उद्योगों तथा औद्योगिक केन्द्रों में अधिकतर ट्रेड यूनियनें इसी अवधि में बनीं। इनमें से कई तो बुनियादी तौर पर हड़ताल कमेटियां मात्र थीं। ऐसी यूनियनों में अधिक समय तक टिकने की शक्ति नहीं थी। मजदूर लोग संघर्ष के लिए तैयार रहते थे परन्तु यूनियन का दफ्तरी काम दूसरे लोग करते थे। इस सम्बन्ध मे रजनी पामदत्त ने लिखा है- ‘अभी देश में समाजवाद के आधार पर, मजदूर वर्ग के विचारों तथा वर्ग-संघर्ष के आधार पर चलने वाला कोई राजनीतिक आन्दोलन नहीं था। इसका नतीजा यह हुआ कि विभिन्न कारणों से प्रेरित होकर जो बाहरी लोग दूसरे वर्गों के मजदूरों के संगठनों की सहायता करने को आये, उनमें मजदूर आन्दोलन के उद्देश्यों तथा जरूरतों की कोई समझ नहीं थी…… भारत के मजदूर आन्दोलन के गले में बहुत दिनों तक यह पत्थर बंधा रहा और उसने मजदूरों की शानदार लड़ाकू भावना और वीरता के बढ़ने में बहुत बाधा डाली, और उसका असर, अब भी बाकी है।’
मद्रास श्रमिक संघ की स्थापना
आम तौर पर यह माना जाता है कि नियमित सदस्यता और शुल्क के आधार पर ट्रेड यूनियन संगठन बनाने का पहला प्रयास थियोसोफिकल सोसाइटी की नेता श्रीमती एनीबेसेंट के सहयोगी वी. पी. वाडिया ने 1918 ई. में मद्रास श्रमिक संघ की स्थापना के रूप में किया। यह मद्रास शहर की कपड़ा मिलों में काम करने वाले मजदूरों के लिए बनाई गई थी। उन्हें इस यूनियन का सदस्य बनाया गया और उनसे चन्दा वसूल किया गया। जिस औद्योगिक केन्द्र में यह यूनियन बनी, वह खुद अपेक्षाकृत कमजोर था। वाडिया का दृष्टिकोण भी संकुचित और सीमित था। अप्रैल 1918 में यूनियन बन जाने के बाद मद्रास के मजदूरों ने मिल मालिकों के सामने अपनी मांगें प्रस्तुत कीं और जब मांगें नहीं मानी गईं तो मजदूरों ने वाडिया से मांग की कि अब हड़ताल होनी चाहिए। वाडिया ने हड़ताल का विरोध किया। वाडिया ऐसे समय में हड़ताल करके मिल मालिकों को हानि पहुँचाने के पक्ष में नहीं थे। वे स्वयं को ब्रिटिश साम्राज्य की राजभक्त प्रजा समझते थे। अतः वाडिया ने हड़ताल नहीं होने दी। दूसरी तरफ बिनी एण्ड कम्पनी ने वाडिया के अनुरोध को अनसुना करके कारखाने में ताला लगा दिया। विवश होकर मजदूरों को अपनी मांगें छोड़नी पड़ीं। 1921 ई. में मिल मालिकों ने कारखाने का ताला खोल दिया। ताला खुल जाने के बाद मजदूरों ने हड़ताल कर दी। इस पर कम्पनी ने हाईकोर्ट की शरण ली। हाई कोर्ट ने हड़ताल को असंवैधानिक ठहराते हुए यूनियन पर 1 लाख 5 हजार रुपये का जुर्माना आरोपति किया। कम्पनी ने घोषणा की कि यदि वाडिया, मजदूर आन्दोलन से हट जाये तो हम यूनियन से जुर्माना वसूल करने की कार्यवाही नहीं करेंगे। इस पर वाडिया ने मजदूर आन्दोलन से सम्बन्ध तोड़ लिया।
मजूर-महाजन संघ की स्थापना
1918 ई. में गांधीजी ने अहमदाबाद के मजदूरों का पक्ष लेकर उनका नेतृत्व किया तथा एक यूनियन स्थापित की जो टैक्सटाइल लेबर एसोसिएशन अथवा मजूर-महाजन संघ के रूप में विख्यात हुई। रजनी पामदत्त ने लिखा है- ‘अहमदाबाद में गांधीजी ने मालिकों के सहयोग से एक फुट-परस्त संगठन बनाया जिसका आधार वर्ग-शान्ति स्थापित करना था। उनका बनाया हुआ यह अहमदाबाद लेबर एसोसिएशन अथवा मजूर-महाजन संघ, भारत के मजदूर आन्दोलन से सदैव अलग रहा।’
अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस
अहमदाबाद कपड़ा मिल श्रमिक संघ कांग्रेस की रचना थी। कांग्रेस, मजदूरों की उग्रवादी प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना चाहती थी क्योंकि उनके उग्र आंदोलन उन पूंजीपतियों के लिये बहुत खतरनाक सिद्ध हो रहे थे जो कांग्रेस के समर्थक थे। कांग्रेस इन पूंजीपतियों के हितों की रक्षा करना चाहती थी। इसी ध्येय को लेकर 1920 ई. में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना की गई और उसे विभिन्न ट्रेड यूनियनों से सम्बद्ध किया गया। इसका पहला अधिवेशन 1920 ई. में लाला लाजपतराय की अध्यक्षता में बम्बई में हुआ। जोजेफ बैप्टिस्टा इसके उपाध्यक्ष थे। आरम्भ में यह संस्था केवल ऊपरी नेताओं का संगठन थी। ट्रेड यूनियन कांग्रेस के बहुत से नेताओं का मजदूर आन्दोलन से बहुत कम सम्पर्क था। रजनी पामदत्त ने इस संगठन की स्थापना का कारण यह बताया है कि इस बहाने नेताओं को, जिनेवा के अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर सम्मेलन में कुछ प्रतिनिधियों को नामित करने एवं भेजने का अधिकार मिल जायेगा। ट्रेड यूनियन कांग्रेस के जनरल सेक्रेटरी एन. एम. जोशी के अनुसार भारत में ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना वाशिंगटन के मजदूर सम्मेलन के प्रभाव से हुई थी।
आगामी कई वर्षों तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का मजदूरों की भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस पर नियन्त्रण बना रहा और लाला लाजपतराय, देशबन्धु चितंरजनदास, वी. वी. गिरि जैसे कांग्रेसी नेता इसके अध्यक्ष चुने जाते रहे। यद्यपि राष्ट्रीय आन्दोलन और श्रमिक आन्दोलन के बीच यह सम्बन्ध कई दृष्टियों से काफी महत्त्वपूर्ण रहा परन्तु मजदूर आन्दोलन के जुझारूपन को हानि पहुँची। क्योंकि इसके सम्मेलनों में प्रायः वर्ग-शान्ति का उपदेश और मजदूरों के सामाजिक एवं नैतिक सुधार की बातें रहती थीं और सरकार से मजदूरों के सम्बन्ध में कानून बनाने और उनका रहन-सहन सुधारने की मांग की जाती थी। मजदूरों को बुरी आदतें छोड़ने तथा ईमानदारी, सन्तोष एवं शान्ति का जीवन बिताने के उपदेश दिये जाते थे। इन कांग्रेसी नेताओं का हड़तालों के प्रति क्या रुख था, इस सम्बन्ध में ट्रेड यूनियन कांग्रेस के जनरल सेक्रेटरी एन. एम. जोशी ने लिखा है- ‘कार्यकारिणी ने कोई भी हड़ताल करने की अनुमति नहीं दी किन्तु भारत के विभिन्न भागों और विभिन्न धंधों में मजदूरों की हालत चूँकि बहुत खराब थी, इसलिए कुछ हड़तालों और तालाबंदियों की नौबत आ ही गयी जिनमें ट्रेड यूनियन कांग्रेस के पदाधिकारियों को भी दिलचस्पी लेनी पड़ी।’
1927 ई. तक ट्रेड यूनियन कांग्रेस का मजदूरों के वर्ग-संघर्ष से बहुत कम सम्बन्ध रहा। फिर भी इसमें संदेह नहीं कि इस संस्था के रूप में वह मंच तैयार हो गया था जहाँ ट्रेड यूनियनों के नेता जमा होते थे, आपसी विचार-विमर्श होता था और भावी रणनीति के बारे में विचार किया जाता था।
विश्वव्यापी मंदी का प्रभाव
1922 से 1926 ई. का काल भारतीय उद्योग और अर्थव्यवस्था में घोर मन्दी का समय था और मजदूरों के असन्तोष को बढ़ाने वाला था। मजदूरों के वेतन में कटौती की जाने लगी। उद्योगों के पुनर्गठन के नाम पर उनकी छंटनी की जाने लगी, जबकि जनसंख्या वृद्धि के कारण श्रमिकों की संख्या में वृद्धि हो गई थी। इससे मजदूरों में असन्तोष बढ़ गया। ट्रेड यूनियन कांग्रेस, हड़तालों के पक्ष में नहीं थी। फिर भी जब कई क्षेत्रों में हड़तालों की नौबत आ गई तो ट्रेड यूनियन कांग्रेस के नेताओं ने मजदूरों को वास्तविक लड़ाकू नेतृत्व एवं समर्थन नहीं दिया। अतः अधिकांश हड़तालें असफल रहीं अथवा कुछ मामूली सुविधाओं से सन्तोष करना पड़ा। उदाहरण के लिए सितम्बर 1922 में टाटा आयरन एण्ड स्टील कम्पनी जमशेदपुर की हड़ताल, अक्टूबर 1922 में सूरत की कपड़ा मिलों की हड़ताल, 1923 ई. में अहमदाबाद कपड़ा मिलों की हड़ताल आदि। 1927 ई. तक ट्रेड यूनियन कांग्रेस में 57 यूनियनें सम्मिलित हो गयी थीं जिनके सदस्यों की संख्या 1,50,555 थी।
संघर्ष की तैयारी
कांग्रेसी नेतृत्व, मजदूरों के असन्तोष को दूर न कर सका और ट्रेड यूनियन कांग्रेस का सफेद झण्डा लाल होने लगा। मजदूरों में साम्यवादी विचारधारा पनपने लगी और अब वे क्रान्ति तथा चिंगारी आदि शब्दों का प्रयोग करने लगे। ब्रिटिश सरकार ने कानपुर षड़यन्त्र केस की आड़ में नवोदित साम्यवादियों को गिरफ्तार करके उनकी शक्ति को कुचलने का प्रयास किया परन्तु इससे मजदूरों में साम्यवाद की लोकप्रियता पहले से भी अधिक बढ़ गई। वे अपने अधिकारों एवं हितों के लिए संघर्ष करने को उत्सुक हो उठे। यद्यपि आरम्भ में मजदूर आन्दोलन को, प्रभावशाली नेतृत्व नहीं मिल पाया, फिर भी भारत सरकार यह बात अच्छी तरह जानती थी कि यदि मजदूर वर्ग ने राजनीतिक चेतना प्राप्त कर ली और यदि उसे मजबूत संगठन और अच्छे नेता मिल गये तो ब्रिटिश साम्राज्य खतरे में पड़ जायेगा। इसीलिए सरकार ने मजदूरों की स्थिति की जांच कराने के लिए कुछ कमेटियां और कमीशन नियुक्त किये। 1921 ई. में बंगाल में औद्योगिक अशान्ति की जांच करने के लिए एक कमेटी नियुक्त की गयी। 1922 ई. में बम्बई प्रान्त में औद्योगिक विवादों की जांच करने के लिए कमेटी बनायी गयी। 1919-20 ई. में मद्रास प्रान्त में सरकार ने एक मजदूर विभाग खोला और फिर बम्बई प्रान्त में भी मजदूर विभाग खुल गया। 1921 ई. से औद्योगिक झगड़ों के आंकड़े रखे जाने लगे। सरकारी कमेटियों की समस्त जांच रिपोर्टों में यही सुझाव दिया गया कि मजदूर यूनियनों की राजनीतिक कार्यवाहियों पर रोक लगा दी जाये। सरकार ने इसके लिये प्रयास किये किंतु मजदूरों में राजनीतिक जागरण के चिन्ह दिखाई देने लगे थे। उनमें समाजवादी और साम्यवादी विचारों का प्रवेश होने लगा।
ट्रेड यूनियन कांग्रेस में साम्यवादियों का प्रवेश
साम्यवादियों ने अपनी पृथक ट्रेड यूनियन स्थापित कर रखी थी परंतु उसकी स्थिति काफी कमजोर थी। उन्होंने अपनी ट्रेड यूनियन को भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस से सम्बद्ध करने के लिये अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस में प्रभाव बढ़ाना आरम्भ किया। उनके बढ़ते हुए प्रभाव के कारण उनके नेता दत्तोपन्त ठेंगड़ी 1925 ई. में भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस के अध्यक्ष चुन लिये गये। 1927 ई. में पुनः साम्यवादी नेता एस. पी. घाटे अध्यक्ष चुने गये। इन नेताओं ने ट्रेड यूनियन कांग्रेस के माध्यम से वर्ग-संघर्ष की शुरुआत की परन्तु कार्यकारी परिषद् में सुधारवादी कांग्रेसियों का बहुमत होने के कारण वे ट्रेड यूनियन कांग्रेस को अपनी मनचाही दिशा में नहीं ले जा सके। 1927-28 ई. तक साम्यवादी नेता, ट्रेड यूनियन कांग्रेस में और अधिक शक्तिशाली हो गये। 1927 ई. में दिल्ली तथा कानपुर में ट्रेड यूनियन कांग्रेस के अधिवेशन हुए। इन दोनों अधिवेशनों में मजदूरों के लड़ाकू नेताओं की चुनौती भरी आवाजें सुनायी देने लगीं और यह भी स्पष्ट हो गया कि भारत की अधिकतर ट्रेड यूनियनें मजदूर वर्ग के इन नये नेताओं के साथ हैं न कि कांग्रेसी नेताओं के।
अखिल भारतीय मजदूर एवं किसान पार्टी
साम्यवादियों ने मजदूर एवं किसान पार्टियों के माध्यम से ट्रेड यूनियनों पर नियन्त्रण स्थापित कर लिया। सर्वप्रथम नवम्बर 1925 में बंगाल में मजदूर-किसान पार्टी स्थापित की गई थी परन्तु तब इसका नाम इण्डियन नेशनल कांग्रेस की लेबर एवं स्वराज्य पार्टी था। इसके संस्थापकों में हेमन्त सरकार, कुतुबुदीन अहमद, काजी नजरुल इस्लाम आदि मुख्य थे। इसके बाद बम्बई, पंजाब और संयुक्त प्रान्त में भी इसी तरह की प्रान्तीय पार्टियां गठित की गईं। दिसम्बर 1928 में कलकत्ता अधिवेशन में इन समस्त पार्टियों को मिलाकर अखिल भारतीय मजदूर एवं किसान पार्टी का गठन किया गया। इस पार्टी के माध्यम से मजदूरों और किसानों के मध्य साम्यवादी विचारधारा का जोरदार ढंग से प्रचार किया गया। रजनी पामदत्त ने लिखा है- ‘मजदूरों में जिस नयी जागृति के चिन्ह 1927 में प्रकट हुए थे, उसका राजनीतिक रूप इस संगठन के रूप में सामने आया, हालांकि शुरु में वह बहुत सी उलझनों का शिकार बना रहा। इस संगठन से यह जाहिर होता था कि देश में कौन सी नयी शक्तियां आगे बढ़ रही हैं।’
हड़तालों की धूम
भारत में 1927-28 ई. का समय भारी अशान्ति का था। सरकार के मुद्रा विधेयक तथा रुपये के अवमूल्यन आदि कार्यों से पूँजीपतियों एवं उद्योगपतियों में बैचैनी थी तथा साइमन कमीशन को लेकर भारतीय राजनीतिक क्षितिज उद्विग्न था। सारे देश में साइमन कमीशन के विरुद्ध जोरदार प्रदर्शन किये गये जिनमें मजदूरों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। पहली बार ऐसे नेता सामने आये जिनका, कारखानों में काम करने वालों मजदूरों से घनिष्ठ सम्पर्क था और जो वर्ग-संघर्ष को अनिवार्य मानते थे। प्रारम्भ में कांग्रेस के नेता और ट्रेड आन्दोलन के सुधारवादी नेता, साइमन कमीशन के विरुद्ध होने वाली हड़तालों और प्रदर्शनों में मजदूरों की भागीदारी के पक्ष में नहीं थे परन्तु जब मजदूरों ने इन हड़तालों एवं प्रदर्शनों में शानदार सफलताएं अर्जित कीं तो कांग्रेसी नेता चौंक गये। 1928 ई. में हड़तालों के कारण 3 करोड़ 15 लाख कार्य-दिवस प्रभावित हुए। इससे जहाँ एक तरफ मजदूरों की एकता सुदृढ़ हुई, वहीं उनमें संघर्ष करने की शक्ति भी बढ़ी। यह सब साम्यवादी नेतृत्व के कारण सम्भव हो पाया। साम्यवादी नेतृत्व ने उद्योगपतियों और सरकार के पक्ष में मजदूरों के साथ विश्वासघात नहीं किया जैसा कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नताओं ने किया था।
इस दौरान ट्रेड यूनियनों के संगठन का काम तेजी से आगे बढ़ा। सरकारी आंकड़ों के अनुसार बम्बई में ट्रेड यूनियनों की सदस्य संख्या 1923 ई. में 48,669 थी जो 1927 ई. में बढ़कर 75,602 और मार्च 1929 तक बढ़कर 2,00,325 हो गई। इन यूनियनों में बम्बई के मिल मजदूरों की गिरनी कामगार यूनियन (लाल बावटा) सबसे आगे थी जिसकी सदस्य संख्या मार्च 1929 में 65,000 हो गई थी। इसी बीच, बम्बई की पुरानी सूती मजदूर यूनियन जो 1926 ई. में स्थापित हुई थी और जो ट्रेड यूनियन कांग्रेस के मंत्री एन. एम. जोशी के सुधारवादी नेतृत्व में काम कर रही थी, की सदस्य संख्या घटकर 6,749 रह गयी। इससे पता चल जाता है कि मजदूरों को कौन-सी यूनियन पसन्द थी। गिरनी कामगार यूनियन की शक्ति इस बात में थी कि अलग अलग मिलों में उसकी मिल-कमेटियां थीं और उनका मजदूरों के साथ बहुत निकट का सम्पर्क था। इस प्रकार, मजदूर आन्दोलन आर्थिक और राजनीतिक दोनों क्षेत्रों में आगे-आगे चल रहा था और सुधारवादी नेतृत्व को हटा रहा था। इससे सरकार और कांग्रेसी नेतृत्व दोनों को चिन्ता हुई।
जनवरी 1929 में वायसराय लॉर्ड इरविन ने कहा- ‘कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रचार से बड़ी चिन्ता उत्पन्न हो रही है।’ 1928-29 ई. की सरकारी रिपोर्ट में कहा गया- ‘कम्युनिस्टों के प्रचार एवं प्रसार से, विशेष तौर पर कुछ बड़े शहरों के औद्योगिक मजदूरों के बीच उनके प्रचार और प्रभाव से, अधिकारियों को बहुत चिन्ता हुई।’ भारत के राष्ट्रवादी अखबारों को भी चिन्ता सताने लगी।
मई 1929 में बोम्बे क्रॉनिकल ने लिखा– ‘देश में आजकल समाजवाद का वातावरण है। कुछ महीनों से भारत में विभिन्न सभा-सम्मेलनों, खास तौर पर किसानों और मजदूरों के सम्मेलनों द्वारा समाजवादी सिद्धान्तों का प्रचार हो रहा है।’
ऐसी स्थिति में ट्रेड यूनियन के सुधारवादी नेताओं को अपना नेतृत्व छिन जाने की आंशका उत्पन्न हो गई। ट्रेड यूनियन की कार्यकारिणी समिति के अध्यक्ष शिवराव ने कहा– ‘अब समय आ गया है जब भारत के ट्रेड यूनियन आन्दोलन को अपने संगठन में से शरारती लोगों को निकाल देना चाहिए।’ स्पष्ट है कि उनका संकेत साम्यवादियों की तरफ था।
मेरठ षड़यन्त्र केस
भारतीय मजदूरों में साम्यवाद के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने की दृष्टि से 1929 ई. में गवर्नर जनरल ने एक विशेष अध्यादेश निकाला जिसका उद्देश्य भारत में साम्यवादी गतिविधियों पर रोक लगाना था। इसके बाद ट्रेड डिस्प्यूट्स एक्ट (औद्योगिक झगड़ों का कानून) बनाया गया जिसका उद्देश्य मजदूरों और मालिकों के झगड़ों को समझौतों के द्वारा सुलझाना तथा सार्वजनिक आवश्यकता के धन्धों में हड़ताल के अधिकार को सीमित करना था। मार्च 1929 में सारे भारत में मजदूर आन्दोलन के सक्रिय नेता बंदी बना कर मेरठ ले जाये गये जहाँ उन पर मुकदमा चलाया गया। आरम्भ में 31 प्रमुख नेताओं को बंदी बनाया गया था। बाद में लेस्टर हचिंसन नामक एक अँग्रेज को भी गिरफ्तार करके 32वाँ अभियुक्त बनाया गया। उस पर ब्रिटिश सरकार का तख्ता उलटने का षड़यन्त्र रचने का आरोप लगाया गया। इतिहास में यह घटना मेरठ षड़यन्त्र केस के नाम से प्रसिद्ध है। यह इतिहास में सबसे लम्बे और सबसे विशद सरकारी मुकदमों में गिना जाता है। इस मुकदमे में श्रीपाद अमृत डांगे, मुजफ्फर अहमद, एस. वी. घाटे, किशोरी लाल घोष, के. एन. जोगलेकर, फिलिप स्प्रैंट, एस. एस. मिरजकर, बी. एफ. ब्रेडले, पी. सी. जोशी, जी. एम. अधिकारी, धरनी गोस्वामी आदि नेता मुख्य अभियुक्त थे। अभियुक्तों में इंग्लैण्ड के मजदूर आन्दोलन के तीन प्रतिनिधि भी सम्मिलित थे। समस्त अभियुक्त ट्रेड यूनियन कांग्रेस, गिरनी कामगार यूनियन एवं मजदूर-किसान पार्टियों के पदाधिकारी थे। मुकदमे को जानबूझकर तीन साल तक खींचा गया ताकि प्रमुख नेताओं की अनुपस्थिति में ट्रेड यूनियन आन्दोलन और मजदूर किसान आन्दोलन को कुचला जा सके। लम्बी सुनवाई के बाद जनवरी 1933 में समस्त अभियुक्तों को कठोर सजाएं सुनाई गईं। मुजफ्फर अहमद को आजन्म काला पानी; डांगे, घाटे, जोगलेकर, निम्बकर और स्प्रैंट को बारह साल का कालापानी; ब्रेडले, मिरजकर और उस्मानी को दस साल का काला पानी दिया गया। इसी प्रकार की सजाएं शेष अभियुक्तों को भी दी गईं। बाद में विश्व जनमत के दबाव के कारण अपील में सजाएं काफी घटा दी गईं। प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारी, लम्बी सुनवाई और लम्बी सजाओं के परिणामस्वरूप मजदूर आन्दोलन को काफी धक्का लगा। भारतीय साम्यवादी दल के अब तक किये गये समस्त प्रयासों पर पानी फिर गया। उसे पुनः संभलने में काफी समय लगा।
ट्रेड यूनियन कांग्रेस में दरार
मेरठ षड़यन्त्र केस के उपरान्त भी सुधारवादियों (कांग्रेसी) और उग्रवादियों (साम्यवादी) में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस के नेतृत्व पर कब्जा करने के लिए प्रतिस्पर्धा जारी रही। 1929 ई. के अन्त में नागपुर अधिवेशन में ट्रेड यूनियन कांग्रेस में उग्रवादियों का बहुमत हो गया और सुधारवादी अल्पमत में आ गये। उन्होंने बहुमत के फैसले को मानने से इन्कार कर दिया और ट्रेड यूनियन कांग्रेस में फूट डाल दी। वे अपनी समर्थक यूनियनों को लेकर ट्रेड यूनियन कांग्रेस से अलग हो गये और उन्होंने अपना अलग ट्रेड यूनियन फेडरेशन बना लिया। जिन उग्रवादी नेताओं के हाथों में ट्रेड यूनियन कांग्रेस की बागडोर आ गयी थी, उनमें भी आपसी एकता एवं सहयोग की कमी थी। 1931 ई. के अधिवेशन में दोनों पक्षों में मतभेद इतने बढ़ गये कि देशपाण्डे के नेतृत्व में साम्यवादियों ने ट्रेड यूनियन कांग्रेस से सम्बन्ध विच्छेद करके रैड ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना की। इसका मूल कारण रूसी कम्युनिस्ट नेता कामिन्टर्न (तृतीय) का भारतीय कम्युनिस्टों को यह आदेश था कि सुधारवादी बुर्जुआओं अथवा राष्ट्रवादी सुधारवादियों से किसी प्रकार का सम्बन्ध न रखा जाये।
साम्यवादियों का यह निर्णय स्वयं उनके लिए घातक सिद्ध हुआ। अब ब्रिटिश सरकार के लिए साम्यवादियों को गिरफ्तार करना आसान हो गया। गांधीजी के सविनय अवज्ञा आन्दोलन से स्वयं को अलग रखकर भी उन्होंने आत्मघाती कदम उठाया। वे जनता की सामान्य सहानुभूति को खोकर अलग-थलग पड़ गये। साम्यवादियों के नेतृत्व में हड़तालों का सिलसिला आगे भी जारी रहा परन्तु उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली। सरकार ने एक संकटकालीन अधिकार आर्डिनेन्स जारी कर दिया जिसके अन्तर्गत कम्युनिस्ट नेता तथा ट्रेड यूनियन नेताओं को बिना मुकदमा चलाये, नजरबन्द कर दिया। कम्युनिस्ट पार्टी को तथा एक दर्जन से अधिक पंजीकृत ट्रेड यूनियनों को असंवैधानिक घोषित कर दिया। यंग वर्कर्स लीग (नौजवान मजदूर सभा) पर रोक लगा दी गई। इस प्रकार सरकार ने मजदूरों के जुझारू संगठनों को कुचलनेेेे का प्रयास किया। उधर साम्यवादी दल में भी नीति सम्बन्धी मतभेद उभरने लगे। देशपाण्डे तथा उसके समर्थक अलगाव की नीति को त्यागने के पक्ष में थे जबकि रणदिवे के उग्रवादी समर्थक इस पर डटे रहना चाहते थे। उनके आपसी विवाद ने रैड ट्रेड यूनियन कांग्रेस को समाप्त कर दिया और उससे सम्बद्ध विभिन्न यूनियनें पुनः अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस में लौटने लगीं। नतीजा यह हुआ कि 1935 ई. में दोनों ट्रेड यूनियनें फिर से एक हो गयी।
विभिन्न ट्रेड यूनियनों का एकीकरण
1929 ई. में सुधारवादियों ने अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस से अलग होकर भारतीय ट्रेड यूनियन फेडरेशन के नाम से अलग संगठन बना लिया था। इसके साथ 30 ट्रेड यूनियनें सम्बद्ध थीं। 1931 ई. में ऑल इण्डिया रेलवे मैन्स फेडरेशन तथा कुछ अन्य यूनियनें भी इसमें सम्मिलित हो गईं। 1936 ई. में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस के बम्बई में हुए अधिवेशन के मंच से फेडरेशन के सुधारवादी नेताओं से अपील की गई कि उन्हें मजदूरों के केन्द्रीय नेतृत्व में एकता स्थापित करने के लिए आगे कदम बढ़ाना चाहिए और उन्हें विश्वास दिलाया कि एकता के लिए उनकी समस्त शर्तें मान ली जायेंगी, यदि वे दो बुनियादी सिद्धान्त स्वीकार कर लें। पहला यह कि ट्रेड यूनियन आन्दोलन का आधार वर्ग-संघर्ष है और दूसरा यह कि ट्रेड यूनियनों के अन्दर जनवाद होना चाहिए। इस अपील का अच्छा परिणाम निकला। 1938 ई. में नागपुर अधिवेशन के समय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन फेडरेशन, अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस में सम्मिलित हो गई। कांग्रेस की प्रबन्ध समिति में दोनों हिस्सों को बराबर-बराबर प्रतिनिधित्व दिया गया। एक बार पुनः अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस, मजदूर आन्दोलन को एकजुट करने वाला संगठन बन गयी। केवल अहमदाबाद का लेबर एसोसिएशन (मजूर-महाजन) उसके बाहर रहा, क्योंकि वह गांधीवादी प्रेरणा से चल रहा था।
भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस का जन्म
1937 ई. के चुनावों के बाद अधिकांश ब्रिटिश भारतीय प्रान्तों में कांग्रेसी मन्त्रिमण्डल बने। श्रमिक संघों को उनसे बहुत आशाएं थी परन्तु जब उन्होंने वेतन कटौती तथा छंटनी आदि को लेकर हड़तालें कीं तो कांग्रेसी एवं गैर-कांग्रेसी दोनों तरह की सरकारों ने हड़तालों का दमन किया जिससे श्रमिक संघों का कांग्रेस से मोह भंग हो गया।
1930-38 ई. की अवधि के दौरान ट्रेड यूनियन आन्दोलन बड़ी तेजी से फैला। अनेक नयी यूनियनें बनी। 1928 ई. में पंजीकृत यूनियनोें की संख्या 29 थी, 1938 ई. में 296 हो गई जिनकी सदस्य संख्या 2,61,000 के लगभग थी। 1937 ई. में हड़तालों की संख्या 379 पहुँच गई जिनमें 6,47,801 श्रमिकों ने हिस्सा लिया। इससे अधिक संख्या में श्रमिकों ने इससे पहले कभी हिस्सा नहीं लिया था। सबसे जबरदस्त, बंगाल की जूट हड़ताल रही। प्रबल दमन के बावजूद वह पूरे जूट उद्योग में फैल गयी। इस हड़ताल का मूल कारण था- 1,30,000 श्रमिकों की छंटनी करके उन्हें काम से हटाना, श्रमिकों के वेतन में कटौती करना और रेशनेलाइजेशन के नाम पर मजदूरों से अत्यधिक काम लेना। बंगाल की फजलुल हक सरकार ने हड़ताल को कुचलने का हर सम्भव प्रयास किया। बंगाल सरकार का तर्क था कि इस हड़ताल का कोई आर्थिक आधार नहीं है और साम्यवादी नेता भारत में बगावत करने के लिए उसका उपयोग कर रहे हैं। अन्त में मिल मालिकों को झुकना पड़ा और वेतन कटौती को रद्द करना पड़ा। अहमदाबाद में हड़तालों की समस्या उठ खड़ी होने पर बम्बई प्रान्त की कांग्रेस सरकार ने धारा 144 लगा दी। कानपुर की कपड़ा मिलों में भी हड़ताल हो गई जो शीघ्र ही आम हड़ताल में बदल गई। दूसरे उद्योगों के श्रमिक भी इसमें सम्मिलित हो गये। मिल मालिकों ने साम्प्रदायिक दंगे भड़काने के प्रयास किये परन्तु श्रमिकों ने उनके प्रयास विफल कर दिये। 55 दिन की हड़ताल के बाद श्रमिकों की जीत हुई। बम्बई के श्रमिकों ने ट्रेड डिस्प्यूट एक्ट के विरुद्ध शानदार हड़ताल की। इसमें लगभग 90 हजार श्रमिक सम्मिलित हुए। रेलवे श्रमिकों का संगठन यद्यपि सुधारवादियों के नियन्त्रण में था, फिर भी बंगाल-नागपुर रेलवे के 40,000 श्रमिकों ने एक महीने हड़ताल रखी। इस प्रकार लगभग सभी प्रांतों में ट्रेड यूनियन आन्दोलन को कांग्रेसी सरकारों से अपेक्षित सहयोग नहीं मिला। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा श्रमिक संगठनों के सम्बन्ध और अधिक बिगड़ते, उससे पहले ही द्वितीय विश्व युद्ध आरम्भ हो गया और कांग्रेसी मन्त्रिमण्डलों ने त्यागपत्र दे दिये।
युद्ध के प्रारम्भ में साम्यवादी नेतृत्व की ट्रेड यूनियनों ने कई बार हड़तालें करवाईं परन्तु जब सोवियत रूस, मित्र राष्ट्रों के पक्ष में आ गया तो भारतीय साम्यवादी भी ब्रिटिश सरकार का सहयोग करने लगे। उन्होंने 1942-45 ई. के मध्य किसी भी हड़ताल का नेतृत्व अथवा समर्थन नहीं किया। इसके विपरीत कांग्रेसी नेतृत्व वाली ट्रेड यूनियनों ने कई बार हड़तालें कीं परन्तु उनके नेताओं की गिरफ्तारी के कारण वे सफल नहीं रहीं। दूसरी तरफ साम्यवादियों को अखिल भारतीय ट्रेड यूनियनों पर अपना नियन्त्रण स्थापित करने में सफलता मिल गई।
1945-46 ई. की अवधि में देश की स्थिति काफी शोचनीय हो चुकी थी। युद्ध के कारण मंहगाई बढ़ती जा रही थी और आए दिन हड़तालों से आर्थिक जीवन को भारी क्षति पहुँच रही थी। सरकार स्थिति को नियन्त्रण में लाने में असफल हो रही थी और साम्यवादी संगठन नित्य नये विवादों को जन्म दे रहे थे। ऐसी स्थिति में कांग्रेस ने गांधीवादी सिद्धान्तों के आधार पर भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस बनाने का निश्चय किया जिसमें केवल कांग्रेसी विचारधारा वाली यूनियनें ही सम्मिलित हों। मई 1947 में भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस अस्तित्त्व में आई। कांग्रेस द्वारा अलग संगठन बना लेने के बाद कांग्रेस-समाजवादियों ने भी अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन को छोड़ दिया और दिसम्बर 1948 में हिन्द मजदूर सभा नाम से एक स्वतन्त्र यूनियन बना ली। इससे मजदूर वर्ग की एकता को जबरदस्त धक्का लगा। अब देश में तीन मजदूर संगठन अपने-अपने ढंग से काम करने लगे।