भारत में अँग्रेजी शिक्षा पद्धति के आरम्भ होने के बाद भारतीय समाज में एक नये शिक्षित वर्ग का उदय हुआ जिसे बुद्धिजीवी वर्ग कहा जाने लगा। इसके साथ ही औद्योगिकीकरण तथा नौकरशाह वर्ग के उदय के कारण भारत में मध्यम वर्ग का तेजी से विस्तार हुआ। भारत के बुद्धिजीवी एवं मध्यम वर्ग ने मिलकर भारत में राजनीतिक संस्थाओं की नींव रखी। भारतीय उद्योगपतियों एवं व्यवसाइयों ने भी इन संस्थाओं से स्वयं को जोड़ा ताकि सरकार एवं जनता के बीच मध्यस्थता की भूमिका ग्रहण कर अपने हितों की रक्षा की जा सके।
भारत में राजनीतिक चेतना का प्रादुर्भाव; प्रशासनिक सुधारों तथा नागरिक अधिकारों की मांग के रूप में प्रस्फुटित हुआ। ये मांगें किसी प्रान्त विशेष, क्षेत्र विशेष, जाति विशेष अथवा गुट विशेष तक सीमित नहीं थीं। भारत के हर क्षेत्र एवं हर समुदाय से ये मांगें उठ रही थीं जिनकी अनदेखी करना न तो भारत के बुद्धिजीवी वर्ग के लिये सम्भव था और न मध्यम वर्ग के लिये। भारतीयों का जो आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक शोषण किया जा रहा था, भारतीय उस शोषण के विरुद्ध खड़े होने लगे।
उन्नीसवीं सदी में भारत में उत्पन्न राजनीतिक जागृति के पीछे बहुत से कारक काम कर रहे थे-
(1.) सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आन्दोलन
राजनीतिक जागरण की प्रक्रिया में भारत में चले सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आन्दोलनों की भूमिका उल्लेखनीय थी। इन सुधार आन्दोलनों ने भारत में राष्ट्रवाद की अवरुद्ध धारा का मार्ग फिर से खोल दिया। ब्रह्म समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन, थियोसोफिकल सोसायटी आदि संस्थाओं ने हिन्दू समाज और हिन्दू धर्म की कमजोरियों की ओर जन-साधारण का ध्यान आकर्षित किया। छुआछूत, बाल-विवाह, सती-प्रथा, दहेज-प्रथा जैसी समस्याओं के समाधान के लिए जनमत तैयार करने में इन संस्थाओं ने सराहनीय कार्य किया। इन्होंने व्यक्तिगत एवं सामाजिक समानता पर जोर दिया। ये भावनाएँ आगे चलकर राष्ट्रीयता के रूप में प्रस्फुटित हुईं। राजनीतिक जनजागरण को उद्वेलित करने वाले प्रमुख सामाजिक एवं धार्मिक सुधारक इस प्रकार से थे-
राजाराम मोहन राय: राजा राममोहन राय (1774-1833 ई.) को भारतीय राष्ट्रवाद का जनक कहा जाता है। उन्नीसवीं सदी में भारतीयों की उन्नति के लिए जितने भी मुख्य आन्दोलन हुए, उनमें से अधिकांश आंदोलनों की नींव राजा राममोहन राय ने रखी। उन्होंने अँग्रेजों द्वारा भारतीयों को अँग्रेजी भाषा और यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा देने तथा सती-प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों पर प्रतिबन्ध लगाने आदि कदमों का पूरा समर्थन किया परन्तु जहाँ भी ब्रिटिश शासकों ने भारतीयों के साथ भेदभाव किया या भारतीयों के हितों पर आघात किया, वहीं उनका विरोध भी किया।
राजा राममोहन राय ने एक तरफ हिन्दू धर्म की कुरीतियों और दूसरी तरफ ईसाई धर्म-प्रचारकों की धर्मान्धता के विरुद्ध लड़ने के लिए 1828 ई. में ब्रह्म सभा की स्थापना की। वस्तुतः भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना के बाद ईसाई धर्म का प्रचार भी बड़ी तेजी से होने लगा था। पढ़े-लिखे भारतीयों में ईसाई धर्म के प्रति आकर्षण बढ़ता जा रहा था और वे ईसाई धर्म स्वीकार करने लगे थे। राजा राममोहन राय ने ब्रह्म सभा के माध्यम से ईसाई धर्म के प्रति आकर्षण को कम कर दिया। राजा राममोहन राय राष्ट्रीय समाचार पत्रों तथा प्रेस की स्वतन्त्रता के प्रबल समर्थक थे।
उन्होंने सरकार को सुझाव दिया कि किसानों का लगान और जमींदारों की मालगुजारी कम कर दी जाए। भोग-विलास की वस्तुओं पर करों में वृद्धि की जाये। यूरोपीय कलक्टरों के स्थान पर भारतीय कलक्टरों को नियुक्त किया जाये और भारतीय सेना का भारतीयकरण किया जाये।
स्वामी दयानन्द सरस्वती: स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 1875 ई. में आर्य समाज की स्थापना की। उन्होंने सामाजिक सुधार कार्य में धर्म की महत्ता पर अधिक जोर दिया। इसलिये उन्हें उग्र हिन्दूवादी सुधारक कहा जाता है। वेदों के ज्ञान एवं निराकार ईश्वर में उनका अटूट विश्वास था। उन्होंने विभिन्न धर्मों एवं समाजों के अन्धविश्वासों तथा पाखण्डों पर जोरदार प्रहार किया। उनका प्रमुख उद्देश्य भारतवासियों को उनके स्वर्णिम अतीत का स्मरण करवाकर उनके प्राचीन गौरव को जागृत करना था। वे पक्के देशभक्त थे। उन्होंने ब्रिटिश शासन की जकड़ में फँसे देशी रियासतों के राजाओं को जागृत करने का प्रयास किया। वे हिन्दी को ही राष्ट्रभाषा मानते थे। उनका स्वदेशी प्रेम असीमित था। वे मानते थे कि पारस्परिक द्वेष, अज्ञान एवं विलासिता के कारण भारत की स्वतन्त्रता का लोप हो गया। वे विदेशी शासन को उचित नहीं मानते थे चाहे वह कितना ही उन्नत एवं सुसभ्य क्यों न हो और कितना ही धर्मनिरपेक्ष एवं दयालु क्यों न हो। उन्हें विश्वास था कि भारत एक दिन स्वतन्त्र होगा। दयानंद के सम्बन्ध में वेलेन्टीन शिरोल ने लिखा है- ‘स्वामी दयानन्द सिद्धहस्त राजनीतिज्ञ तथा अँग्रेजी शासन को अन्दर से उखाड़ने में प्रयत्नशील थे।’
वस्तुतः दयानंद प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने कहा था- ‘भारत भारतीयों के लिए है।’
स्वामी विवेकानन्द: स्वामी विवेकानन्द ने समस्त विश्व में हिन्दू धर्म और अध्यात्म की श्रेष्ठता को स्थापित किया। उन्होंने कहा कि वेदान्त और आध्यात्मिकता के बल पर समस्त विश्व पर सांस्कृतिक विजय प्राप्त की जा सकती है किन्तु जब तक भारत दासता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है, वह इस महत्त्वपूर्ण भूमिका को नहीं निभा सकता। वे राष्ट्रवाद का आध्यात्मीकरण करना चाहते थे। भारत को राजनीतिक दासता से मुक्ति प्राप्त करने का आह्वान करते हुए उन्होंने कहा था- ‘आज हमारे देश को जिन चीजों की आवश्यकता है, वे हैं लोहे की मांसपेशियाँ, इस्पात की तंत्रिकाएँ, प्रखर संकल्प, जिसका कोई प्रतिरोध न कर सके, जो अपना काम हर प्रकार से पूरा कर सके? अपने में विश्वास रखो और उस विश्वास पर दृढ़ता पूर्वक खड़े रहो। क्या कारण है कि हम तेतीस करोड़ लोगों पर पिछले एक हजार वर्ष से मुट्ठी भर विदेशी शासन करते आये हैं ? क्योंकि उन्हें अपने में विश्वास था और हमें नहीं।’
विवेकानन्द ने आम भारतीय को जागृत करते हुए कहा– ‘निर्भीक बनो, साहस धारण करो, इस बात पर गर्व करो कि तुम भारतीय हो और गर्व के साथ घोषणा करो, मैं भारतीय हूँ और प्रत्येक भारतीय मेरा भाई है।’
थियोसोफिकल सोसाइटी: थियोसोफिकल सोसाइटी ने सर्व प्रथम दक्षिण भारत में लोगों को जागृत किया। भारत में इस आन्दोलन को व्यापक बनाने का श्रेय श्रीमती ऐनीबेसेंट को है जिन्होंने राष्ट्रीय चेतना की इस धारा को आगे बढ़ाया।
अन्य सुधारक: महाराष्ट्र में सरदार गोपाल हरि देशमुख तथा ज्योति बा फूले जैसे सुधारकों ने सामाजिक बुराइयों की अपेक्षा विदेशी नियंत्रण को अधिक खतरनाक बताया।
इस प्रकार, इन समाज सुधार एवं धर्म सुधार आन्दोलनों ने भारतीयों में आत्म-विश्वास तथा प्राचीन गौरवमयी परम्पराओं के प्रति श्रद्धा उत्पन्न की जिससे देश में राष्ट्रीय चेतना का संचार हुआ।
(2.) यंग बंगाल आंदोलन
भारतीयों में राष्ट्रीयता के बीज बोने में यूरेशियन (एंग्लो-इंडियन) युवक हैनरी लुई विवियन डिरोजियो (1809-31 ई.) का नाम सम्मान पूर्वक लिया जाता है। वह 1828 ई. में कलकत्ता के हिन्दू कॉलेज में सहायक शिक्षक के पद पर नियुक्त हुआ। 1831 ई. में 22 वर्ष की अल्पायु में ही उसका निधन हो गया। तीन वर्ष की अत्यंत अल्प अवधि में वह बहुत कुछ कर गया। उसने कॉलेज के विद्यार्थियों के सहयोग से 1828 ई. में एक एकेडेमिक एसोसिएशन की स्थापना की। इस एसोसिएशन की बैठकों में स्वतन्त्र इच्छा, भाग्य, धर्म, देश प्रेम इत्यादि विषयों पर विचार-विमर्श किया जाता था। इस एसोसिएशन के सदस्य, क्रान्तिकारी विचारों की प्रशंसा तथा ब्रिटेन के टोरियों (अनुदारवादियों) की कटु आलोचना करते थे। वे अपने देश (भारत) की दुर्दशा पर कविताएँ लिखते थे और स्वतन्त्र एवं स्वाशासित भारत का स्वप्न देखते थे। वे एक तरफ भारत के सामन्ती कुसंस्कारों के विरोधी थे तो दूसरी तरफ ईस्ट इण्डिया कम्पनी की प्रतिक्रियावादी नीतियों के विरुद्ध भी आवाज उठाते थे। एसोसिएशन की गतिविधियों को यंग बंगाल आंदोलन कहा जाने लगा। डिरोजियो की मृत्यु के बाद यह आन्दोलन बिखर गया परन्तु अपने अल्प काल में ही बंगालियों के हृदय में राष्ट्रवाद की भावना संचारित कर गया।
(3.) अँग्रेजी शिक्षा एवं साहित्य का प्रसार
भारत में पाश्चात्य शिक्षा आरोपित किए जाने का उद्देश्य भारतीय सभ्यता, संस्कृति और धर्म को नष्ट करके पाश्चात्य शिक्षा, संस्कृति एवं धर्म को स्थापित करना था। अँग्रेज भारत में एक ऐसे वर्ग की स्थापना करना चाहते थे जो रक्त और वर्ण से भले ही भारतीय हो किन्तु विचार, भाषा तथा रुचि से अँग्रेज हो। अँग्रेजी शिक्षा के प्रचार का उद्देश्य भारत में व्यापारिक कम्पनियों और ब्रिटिश उपनिवेश की शासन व्यवस्था के लिए कलर्कों को तैयार करना था। मैकाले का कहना था- ‘भारत को स्वतन्त्र सरकार की प्राप्ति नहीं हो सकती किन्तु उसे उसके नीचे की सबसे अच्छी वस्तु मिल सकती है- दृढ़ निष्पक्ष निरंकुशता।’
अँग्रेज अपने उद्देश्यों में सफल रहे परन्तु इस नीति के ऐसे विपरीत परिणाम भी निकले जिनकी अँग्रेजों ने आशा नहीं की थी। पाश्चात्य शिक्षा के प्रसार से भारतीयों को मिल्टन, बर्क, मिल, मैकाले, स्पेन्सर, रूसो एवं वाल्टेयर आदि अँग्रेजी विद्वानों के प्रसिद्ध ग्रन्थों का अध्ययन करने का अवसर मिला। इन ग्रन्थों में स्वतन्त्रता, राष्ट्रीयता, स्वशासन आदि विचारों की भरमार थी। इस कारण पश्चिमी शिक्षा ने भारतीयों को स्वतन्त्रता और राष्ट्रीयता के पश्चिमी सिद्धान्तों से परिचित करा दिया। अँग्रेजी शिक्षा के परिणामस्वरूप भारतीय नौजवानों में देश की वर्तमान स्थिति के प्रति असन्तोष उत्पन्न हुआ और वे प्रशासन में सुधारों की मांग करने लगे।
अँग्रेजी शिक्षा का एक अन्य प्रभाव यह पड़ा कि समस्त देश को एक सम्पर्क भाषा प्राप्त हो गई जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न प्रान्तों के निवासियों में पारस्परिक विचार-विनिमय के लिए माध्यम मिल गया। इससे पूर्व देश में ऐसी कोई एक भाषा नहीं थी जिसके माध्यम से सम्पर्क स्थापित हो सके। सर हेनरी कॉटन ने इस सम्बन्ध में लिखा है- ‘यह केवल पाश्चात्य शिक्षा का परिणाम है कि विविधता से भरा भारत वर्ष एकता के सूत्र में बंध सका। विभिन्न भाषाओं के होते एकता का कोई दूसरा सूत्र नहीं था।’
अनेक भारतीय विद्वानों ने भी अँग्रेजी शिक्षा एवं पश्चिम के सम्पर्क के महत्त्व को स्वीकार किया है। यह भी कहा जाता है कि भारतीय राष्ट्रवाद रूपी शिशु को पश्चिमी शिक्षा रूपी माँ ने दूध पिलाया किंतु यह कहना गलत होगा कि भारत में अँग्रेजी शिक्षा के अभाव में राष्ट्रीय आन्दोलन पैदा ही नहीं होता। क्रांति रूपी संग्राम के लिये जितनी आवश्यकता विचारों और शिक्षा की होती है, उससे अधिक आवश्यकता उन परिस्थितियों की होती है जिनके कारण आदमी संघर्ष करने और मरने-मारने पर उतारू हो जाता है।
(4.) पाश्चात्य सम्पर्क का प्रभाव
पश्चिमी देशों से भारतीयों का व्यक्तिगत सम्पर्क हो जाने से भारत में राष्ट्रीयता की तीव्र भावना जागृत हुई। अनेक भारतीय उच्च शिक्षा, व्यापार, पर्यटन एवं अन्य कारणों से इंग्लैण्ड तथा यूरोप के कई देशों में जाते थे। वे वहाँ के स्वतन्त्र वातावरण से अत्यधिक प्रभावित होते थे और उनमें वहाँ की प्रजातांत्रिक संस्थाओं के प्रति सम्मान एवं आकर्षण उत्पन्न होता था। जब वे पुनः भारत आते और यूरोपीय देशों की स्थिति से अपने देश की स्थिति की तुलना करते तो उनके मन में तीव्र असन्तोष होता था। इस असन्तोष ने भारतीयों को राष्ट्रीय आन्दोलन के लिये अग्रसर किया।
(5.) गैर-सरकारी अँग्रेजों की भूमिका
1857 ई. से पहले अनेक गैर-सरकारी अँग्रेज भारत आये। ये अँग्रेज ब्रिटेन के औद्योगिक बुर्जुआ वर्ग की प्रगतिशील विचारधारा से प्रभावित थे और उसका प्रतिनिधित्व करते थे। ये लोग भारत में वकील, शिक्षक, पत्रकार आदि बन कर आये थे। कम्पनी सरकार के अधिकारी इन्हें तिरस्कार-वश इण्टर-लोफर (अनधिकार प्रवेशकारी) कहते थे। इन अँग्रेजों का कई बातों पर कम्पनी के अधिकारियों से वाद-विवाद होता रहता था। इन्हीं लोगों ने कुछ प्रमुख भारतीयों के साथ मिलकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन के विरुद्ध आन्दोलन चलाने के लिए लैण्ड होल्डर्स सोसाइटी (1838 ई.), ब्रिटिश इण्डिया सोसाइटी (1839 ई.) और बंगाल ब्रिटिश इण्डिया सोसाइटी (1843 ई.) जैसे प्रभावशाली संगठन स्थापित किये थे। इन संगठनों द्वारा चलाये गये आन्दोलनों से भारतीयों को ब्रिटिश सरकार से अच्छा प्रशासन, राजनीतिक अधिकार एवं स्वतंत्रता प्राप्त करने की प्रेरणा मिली।
(6.) यूरोपीय विद्वानों द्वारा भारतीय संस्कृति की प्रशंसा
मैक्समूलर, मोनियर विलयम्स, रौथ, सैसून, बुनर्फ आदि अनेक यूरोपीय विद्वानों ने भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का गहन अध्ययन किया और उन्होंने समस्त विश्व को भारतीय संस्कृति की उच्चता से अवगत कराया। पश्चिमी विद्वानों ने प्राचीन भारतीय साहित्य, धर्म और संस्कृति के सम्बन्ध में शोध करके विश्व के सम्मुख भारतीयों के राजनैतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक इतिहास का समृद्ध चित्र प्रस्तुत किया। इन अनुसन्धानों के परिणाम स्वरूप भारत की प्राचीन आध्यात्मिक श्रेष्ठता और दैदीप्यमान सभ्यता के चिन्ह भारतीयों के समक्ष आए। इससे भारतीयों का आत्म विश्वास तथा आत्माभिमान बढ़ा और उनमें राष्ट्रप्रेम की भावना ने जोर पकड़ा। आर. सी. मजूमदार ने लिखा है- ‘वह खोज भारतीयों के हृदय में चेतना उत्पन्न करने में असफल नहीं हो सकती थी जिसके परिणाम स्वरूप उनके हृदय राष्ट्रीयता की भावना और तीव्र देशभक्ति से भर गये।’
(7.) जातीय विभेद की नीति
1858 ई. में महारानी विक्टोरिया की घोषणा में भारतीयों को योग्यतानुसार सरकारी नौकरियाँ दिये जाने का आश्वासन दिया गया था किन्तु इस घोषणा पर अमल नहीं करके, इस घोषणा का ठीक उलटा किया गया। शासकीय क्षेत्र में भारतीयों को उच्च पदों से वंचित करने, उन्हें अयोग्य घोषित करने तथा उनके प्रति रंगभेद बरतने पर अधिक बल दिया गया। 1869 ई. में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने इण्डियन सिविल सर्विसेज की परीक्षा उत्तीर्ण की परन्तु एक साधारण अँग्रेज क्लर्क की शिकायत पर उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया। जबकि इससे भी गम्भीर भूलें करने वाले अँग्रेज अधिकारियों के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं होती थी। इस घटना के सम्बन्ध में स्वयं बनर्जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- ‘मेरे मामले ने भारतीयों के हृदय में भारी क्षोभ उत्पन्न कर दिया, उनमें यह विचार फैल गया कि यदि मैं भारतीय न होता तो मुझे इतनी कठिनाइयाँ नहीं उठानी पड़तीं।’
1877 ई. में अरविंद घोष ने यह परीक्षा उत्तीर्ण की किंतु घुड़सवारी में उनकी अकुशलता की आड़ लेकर सरकार ने उनकी छंटनी कर दी।
किसी भी भारतीय न्यायाधीश को अँग्रेजों के मुकदमे सुनने का अधिकार नहीं था। एक ही अपराध के लिए भारतीयों व अँग्रेजों के लिए दण्डविधान में भी अन्तर था। सर थियोडोर मोरिसन के अनुसार- ‘भारत में घोर अदालती पापाचार है। यह एक निन्दनीय सत्य है जिसे छिपाया नहीं जा सकता। अँग्रेज भारतीयों की हत्या बारम्बार करते हैं।’
एक बार एक अँग्रेज सैनिक ने एक भारतीय रसोइये को इसलिए मार डाला कि वह उसके लिए एक भारतीय स्त्री न ला सका। अँग्रेजों ने अकारण ही अनेक भारतीयों की हत्याएँ कीं परन्तु उन्हें किसी प्रकार की सजा नहीं मिली।
हेनरी कॉटन ने लिखा है– ‘यदि चाय के रोपक पर किसी असहाय कुली को निर्दयता पूर्वक पीटने का अभियोग चलाया जाता तो उसका निर्णय करने के लिए चाय के रोपकों की जूरी बनाई जाती थी। यह जूरी स्वाभाविक रूप से अभियुक्त के पक्ष में होती थी। यदि किसी कारण से दोष सिद्ध हो जाता तो अँग्रेजों का सारा जनमत उस निर्णय की निन्दा करता। आंग्ल-भारतीय समाचार पत्र इस विरोध को प्रकट करते थे। अपराधी के लिए चन्दा एकत्रित करते थे। प्रभावशाली व्यक्तियों द्वारा स्मरण-पत्र तैयार किये जाते तथा उनमें अपराधी के छुटकारे के लिए निवेदन किया जाता था।’
गैरेट ने लिखा है- ‘भारतीय राष्ट्रीयता के उत्थान का प्रमुख कारण यूरोपियन एवं भारतीयों के मध्य जातीय कटुता थी। भारतीयों में असन्तोष फैलने और अँग्रेजों का विरोध करने का प्रमुख कारण भारतीयों से किया गया दुर्व्यवहार था।’
वस्तुतः भारत में अँग्रेज शासकों ने भेदभाव की नीति को अपनाया। इस जाति-विभेद नीति के पीछे अँग्रेजों की निश्चित मान्यताएं काम कर रही थीं। इनमें से कुछ इस प्रकार से हैं-
(1.) अँग्रेजों का मानना था कि भारतीय केवल भय और दण्ड की भाषा को ही समझ सकते हैं।
(2.) अँग्रेजों का मानना था कि एक यूरोपियन का जीवन अनेक भारतीयों के बराबर है।
(3.) अँग्रेजों का मानना था कि अँग्रेज, असभ्य भारतीयों को सभ्य बनाने के लिये भारत में आये हैं।
इस प्रकार की विकृत मनोवृत्ति के कारण ही भारतीयों को बारम्बार हीन ठहराया जाता था। अँग्रेजों के निवास स्थान भारतीय निवास-स्थानों से बिल्कुल पृथक् थे। उनके साथ रेल-यात्रा, रेस्टोरेन्ट आदि स्थानों पर दुर्व्यवहार किया जाता था। जाति-विभेद की नीति और न्यायिक मामलों में भेद-भाव के कारण जातीय कटुता में वृद्धि होती चली गई। अँग्रेजों के प्रति भारतीयों के मन में घृणा की भावना जागृत हो गई। इस भावना ने राष्ट्रीय आन्दोलन को गति प्रदान की।
(8.) कर-विरोधी आन्दोलनों का प्रभाव
1859 से 1875 ई. के दौरान अनेक कर-विरोधी आन्दोलन हुए। इन आंदोलनों ने राष्ट्रीयता के विकास में योगदान दिया। सरकारी खर्च को पूरा करने के लिए 1859 ई. में ब्रिटिश सरकार की तरफ से व्यापार, वकालत, डाक्टरी आदि व्यवसाय करने वाले लोगों पर लाइसेंस टैक्स का प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया। गैर-सरकारी अँग्रेजों तथा भारतीयों ने इस विधेयक का जोरदार विरोध किया। इस कारण सरकार ने यह विधेयक वापस ले लिया और उसकी जगह आयकर का प्रस्ताव रखा। आयकर के विरोध में भी देशव्यापी आन्दोलन हुआ। सरकार ने आन्दोलन के प्रमुख नेताओं को बंदी बना कर उन पर भारी जुर्माना लगाया। सरकारी दमन से आन्दोलन तो दब गया परन्तु सरकार की साख खराब हुई तथा भारतीयों में एकता बढ़ गई। पश्चिम उत्तर प्रदेश के महाजन, बनारस के पंडित, बम्बई के साहूकार, तंजौर के सूदखोर और मलाबार के मोपाला व्यापारी, मांग बुलन्द करने लगे कि आयकर वापस लिया जाये। आयकर विरोधी आन्दोलन ने ब्रिटिश भारत की देशी जातियों को एकता का एक साझा मंच दे दिया।
(9.) स्वदेशी आन्दोलन का प्रभाव
भारत को सार्वजनिक रूप से, स्वदेशी अपनाने का विचार देने वाले स्वामी दयानंद सरस्वती थे। उन्नीसवीं सदी के सातवें और आठवें दशक में पैदा हुआ स्वदेशी आन्दोलन, राष्ट्रीय आन्दोलन का ही अंग था। इस आन्दोलन का नेतृत्व मध्यम वर्ग ने किया। इसके अन्तर्गत स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की आवाज उठाई गई। बंगाल में इस आन्दोलन का नेतृत्व राजनारायण बसु तथा नवगोपाल मित्र ने किया। उन लोगों ने 1867 ई. से प्रतिवर्ष स्वदेशी मेला लगाना आरम्भ किया जिसे हिन्दू मेला या राष्ट्रीय मेला कहा जाता था। इस प्रकार के मेलों के आयोजन का उद्देश्य देशी उद्योग-धन्धों को प्रोत्साहन देना और स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग की भावना का विकास करना था। पंजाब में स्वदेशी आन्दोलन को रामसिंह कूका और उनके नामधारी सिक्खों ने नेतृत्व प्रदान किया। उन्होंने स्वदेशी वस्तुओं को अपनाया तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया। महाराष्ट्र में इस आन्दोलन का नेतृत्व गणेश वासुदेव जोशी ने किया। इस आन्दोलन के अन्तर्गत महाराष्ट्र के कई शहरों में देशी उद्योगों के प्रोत्साहन के लिए समितियां बनाई गईं। इन समितियों के सदस्य अपने दैनिक जीवन में देशी वस्तुओं के इस्तेमाल की शपथ लेते थे। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने एक प्रतिज्ञा-पत्र छपवाया- ‘हम लोग आज से कोई विलायती कपड़ा नहीं पहनेंगे………. हिन्दुस्तान का बना कपड़ा ही पहनेंगे।’
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और उनके मित्रों ने इस सम्बन्ध में लोकगीतों की रचना भी की और इनके माध्यम से लोगों में स्वदेशी वस्तुओं के प्रति लगाव की भावना उत्पन्न करने का प्रयास किया। उत्तरी भारत में भी स्वदेशी अपनाई जाने लगी।
23 दिसम्बर 1905 को टाइम्स ऑफ इण्डिया में एक समाचार छपा- ‘डेरा इस्माइल खाँ में एक स्वदेशी वस्तु भण्डार खोला गया जिसमें 50 हजार की पूंजी लगी है। इसका एक शेयर 20 रुपये का है जो बिक रहा है …..।’
कलकत्ता के रिपन कॉलेज में एक परीक्षा के दौरान छात्रों ने विदेशी कागज वाली उत्तर पुस्तिकाओं को छूने से मना कर दिया। उन्हें देशी कागज से बनी कॉपियां दी गईं। ऐसी घटनाएं पूरे देश में होने लगीं। लोगों ने विदेशी खिलौनों और विदेशी दवाओं तक का बहिष्कार कर दिया।
(10.) सिविल सर्विस आन्दोलन
ब्रिटिश शासित क्षेत्रों में नागरिक प्रशासन का दायित्व इण्डियन सिविल सर्विस के अधिकारियों को सौंपा गया। भारतीयों को इस सेवा से दूर रखा गया। यद्यपि 1858 ई. की महारानी की घोषणा में यह आश्वासन दिया गया था कि भारत में किसी भी पद पर नियुक्ति देने में अँग्रेजों और भारतीयों के बीच भेदभाव नहीं किया जायेगा। इस आश्वासन के उपरांत यह सावधानी बरती गई कि कोई भी भारतीय इसमें न चुना जाये। 1861 ई. में यह व्यवस्था की गई कि कोई भी भारतीय 22 वर्ष की आयु-सीमा तक लन्दन जाकर सिविल सर्विस की परीक्षा में बैठ सकता है। आम भारतीय के लिये लन्दन जाना सम्भव नहीं था, अतः भारतीयों ने मांग की कि सिविल परीक्षा के केन्द्र लन्दन के साथ-साथ कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में स्थापित किये जायें। सरकार ने इस मांग को स्वीकार नहीं किया। 1863 ई. में सत्येन्द्रनाथ टैगोर ने लन्दन जाकर परीक्षा दी और उत्तीर्ण हो गये। एक भारतीय द्वारा सिविल सर्विस परीक्षा उत्तीर्ण कर लेने पर, सिविलि सर्विस की परीक्षा के विषयों में परिवर्तन किया गया और 1866 ई. में अधिकतम आयु-सीमा को घटाकर 21 वर्ष कर दिया गया ताकि भारतीयों के लिए पीरक्षा उत्तीर्ण करना और कठिन हो जाये। 1869 ई. में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी सहित चार भारतीयों ने परीक्षा में सफलता प्राप्त की। इस पर ब्रिटिश सरकार ने 1877 ई. में परीक्षा देने की आयु सीमा घटाकर 19 वर्ष कर दी तथा सुरेन्द्रनाथ बनर्जी को अन्याय पूर्ण ढंग से नौकरी से निकाल दिया। सिविल सेवा परीक्षा में बैठने की आयु सीमा 19 वर्ष किये जाने पर सारे भारत में एक प्रबल आन्दोलन चला जो सिविल सर्विस आन्दोलन के नाम से प्रसिद्ध है। इस आन्दोलन का नेतृत्व इण्डियन एसोसिएशन ने किया। कलकत्ता, बम्बई, सूरत, पूना, लाहौर, अमृतसर, मेरठ, दिल्ली, आगरा, लखनऊ, कानपुर, इलाहाबाद और मद्रास के बुद्धिजीवियों ने इस आन्दोलन का समर्थन किया।
(11.) स्थानीय स्वायत्त शासन में भारतीयों का प्रवेश
स्थानीय स्वायत्त शासन आन्दोलन ने राष्ट्रीय जागृति में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। ब्रिटिश शासकों ने भारतीयों से नाना प्रकार के करों की वसूली के उद्देश्य से नगर पालिकाओं की स्थापना की थी। भारतीयों ने आरम्भ में तो विभिन्न करों के कारण इनका विरोध किया और बाद में इन संस्थाओं में प्रवेश पाने का प्रयास किया ताकि सरकारी नीतियों का विरोध किया जा सके। अतः समस्त देश में नगर पालिकाओं के लिए चुनावों की मांग की गई। 1870 ई. के बाद बहुत सी नगर पालिकाओं में चुनावों को आंशिक तौर पर स्वीकार कर लिया गया। इण्डियन एसोसिएशन आदि राजनीतिक संस्थाओं ने इन आंदोलनों को चलाया जिनका नेतृत्व मध्यम वर्ग के लोगों ने किया। इस कारण भारतीय राजनीति में मध्यम वर्ग हावी होने लगा। आगे चलकर इसी मध्यम वर्ग ने राष्ट्रीय आन्दोलन चलाया।
(12.) राजनीतिक एवं प्रशासनिक एकता
मुगल सल्तनत के पतन के बाद भारत सैंकड़ों राज्यों में विभक्त हो गया था। अँग्रेजों ने इन राज्यों के शासकों को अपने अधीन करके काश्मीर से कन्याकुमारी तक और बिलोचिस्तान से बर्मा तक सम्पूर्ण भारत को अँग्रेजी शासन के अधीन कर लिया। सम्पूर्ण ब्रिटिश शासित क्षेत्र में एक जैसी प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित की गई। डाक व्यवस्था, तार व्यवस्था, रेल परिवहन, सड़क परिवहन आदि व्यवस्थाओं के आरम्भ होने से देश के प्रशासन में एकरूपता आयी और देश एक दिखाई देने लगा। इस एकरूपता से आम भारतीय में एक विशाल देश का नागरिक होने का भाव जागृत हुआ। जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है- ‘ब्रिटिश प्रशासन द्वारा स्थापित भारत की राजनैतिक एकता, साम्राज्यिक दासता की एकता थी किन्तु उसने सामान्य राष्ट्रीयता की एकता को जन्म दिया।’
(13.) आर्थिक शोषण का प्रभाव
ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारतीय कुटीर उद्योगों, दस्तकारों एवं काश्तकारों की कमर पहले ही तोड़ दी थी। 1857 की क्रांति के बाद भी ब्रिटिश हितों को ध्यान में रखकर आर्थिक नीति अपनाई गई। इस कारण भारतीय कुटीर उद्योग, काश्तकार एवं दस्तकार कभी नहीं पनप सके। अकालों ने समस्या को और बढ़ा दिया। इससे भारत में बेरोजगारी की समस्या विकराल हो गई। 1857 ई. के बाद भारत में तैयार माल को इंग्लैण्ड ले जाना बंद कर दिया गया तथा केवल कच्चा माल ले जाया जाने लगा। भारत में तैयार माल के निर्यात पर इतने अधिक कर लगाये गये कि यदि वह विदेशों में ले जाया जाये तो वहाँ आसानी से बिकने न पाये। साथ ही इंग्लैण्ड में तैयार माल पर नाममात्र का कर रखा गया। करों के इस अंतर के कारण भारतीय माल भारत में भी खपना बंद हो गया। होरेस विल्सन ने लिखा है- ‘पेल्सी और मैनचेस्टर के कारखाने भारत के हस्त-उद्योगों का बलिदान करके बनाये गये।’
सर विलियम डरबी ने लिखा है- ‘भारत में लगभग दस करोड़ मनुष्य ऐसे हैं जिन्हें किसी भी समय पेट भर अन्न नहीं मिल सकता। ऐसे पतन का दूसरा दृष्टान्त इस समय किसी सभ्य और उन्नतिशील देश में कहीं पर भी दिखाई नहीं देता।’
ड्यूक ऑफ आरागील्ड ने लिखा है- ‘भारत की जनता में दरिद्रता है। रहन-सहन का स्तर तेजी से गिरता जा रहा है। उसका उदाहरण कहीं नहीं मिलता।’
भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द ने भी अपनी कविताओं में इस सत्य को अंकित किया है– ‘अँग्रेज राज सुख साज सजे महाभारी। पै धन विदेश चलि जाये यह है दुःख भारी।’
डी. ई. वाचा ने लिखा है- ‘भारतीयों की आर्थिक स्थिति ब्रिटिश शासन काल में अधिक बिगड़ी थी। चार करोड़ भारतीयों को केवल दिन में एक बार के भोजन से सन्तुष्ट रहना पड़ता था। इसका एकमात्र कारण यह था कि भारत भूखे किसानों से कर प्राप्त करता था तथा इंग्लैण्ड अपना माल भेजकर लाभ कमाता था।’
भारत के आर्थिक शोषण ने भारतीयों में राजनैतिक चेतना जागृत की। राष्ट्रीय आन्दोलन में इन्हीं भूखे किसानों ने प्रमुख भूमिका का निर्वहन किया।
(14.) यातायात तथा संचार के साधनों का विकास
यातायात तथा संचार के साधनों का विकास होने से भारतीय नागरिकों के बीच तेजी से सम्पर्क स्थापित होने लगा। इससे वैचारिक आदान-प्रदान को बढ़ावा मिला। लोग अपनी और अपने देश की दुर्दशा पर बात करने लगे। अपने-अपने क्षेत्रों में किये जा रहे शोषण एवं संघर्षों की बात करने लगे। लोग एक दूसरे को अपने देश का व्यक्ति समझने की भावना से भी परिपूर्ण होग गये। इससे राष्ट्रीयता की भावना का विकास हुआ। लोगों में पनपी इस भावना के कारण राष्ट्रीय नेताओं के लिए प्रचार कार्य सुगम हो गया। इन विकसित साधनों के कारण ही सुरेन्द्रनाथ बनर्जी सिविल सर्विस आन्दोलन के दौरान भारत के अधिकांश क्षेत्रों का दौरा करके उसे अखिल भारतीय रूप दे पाये। घोड़े की पीठ पर बैठकर पूरे भारत का दौरा करना संभव नहीं था। डाक-व्यवस्था से राष्ट्रवादियों का एक-दूसरे से पत्र-व्यवहार सुगम और तेज हो गया। इस कारण राजनैतिक विचारों का तेजी से प्रसार हुआ तथा बड़े-बड़े आंदोलनों की भूमिका बनने लगी। आंदोलनों को चलाने के लिये संस्थाओं को खड़ा करने का काम भी इन संचार एवं परिवहन साधनों ने सुगम कर दिया।
(15.) विदेशी आन्दोलनों का प्रभाव
उन्नीसवीं शताब्दी में इटली, जर्मनी, फ्रांस और अमेरिका आदि देशों में कई राजनीतिक आन्दोलन हुए। कई देशों के स्वतन्त्रता संग्राम लड़े गये। आन्दोलनों ने भारतीयों में भी उत्साह का संचार किया। इटली के राष्ट्रीय नेता मैजिनी का युवा भारतीयों पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा। मैजिनी ने इटली को एकता एवं राष्ट्रीयता का पाठ पढ़ाया था। इटली के कारबोनरी नामक संगठन का अनुकरण करते हुए 1870 ई. के बाद बंगाल में अनेक क्रांतिकारी गुप्त संगठन स्थापित हुए। इटली के एक अन्य नेता गेरीबाल्डी के साहसिक कार्यों ने भी युवा भारतीयों विशेषकर क्रान्तिकारियों को अत्यधिक प्रभावित किया। 1871 ई. में फ्रांस में तृतीय गणराज्य की स्थापना का भी भारत के राष्ट्रवादियों पर गहरा प्रभाव पड़ा।
(16.) समाचार पत्रों का योगदान
भारतीय समचार-पत्र ब्रिटिश सरकार की शोषणकारी एवं साम्राज्यवादी नीतियों के कटु आलोचक थे। समचार पत्रों ने अँग्रेज सरकार से भारतीयों के साथ समानता का व्यवहार करने तथा न्यायपूर्ण आचरण करने की मांग की। भारत में सबसे पहला समाचार पत्र 1780 ई. में बंगाल गजट प्रकाशित हुआ। यह एक साप्ताहिक समाचार पत्र था। इसके बाद कलकत्ता गजट और द इण्डियन वर्ल्ड आदि पत्र आरम्भ हुए। 1857 की क्रान्ति के पूर्व के समाचार पत्रों में राजा राममोहन राय का संवाद कौमुदी (1821 ई.), फार्दनजी मुर्जबान का बॉम्बे समाचार (1822 ई.), तथा अन्य पत्रों में बंगदूत, रास्तगुफतार आदि उल्लेखनीय हैं। 1857 ई. के बाद भारतीय पत्रकारिता का तीव्र गति से विकास हुआ। समाचार पत्रों की संख्या, प्रसार संख्या और प्रभाव क्षेत्र में अत्यधिक वृद्धि हुई। इनमें इण्डियन मिरर, बम्बई समाचार, अमृत बाजार पत्रिका, द हिन्दू, दी केसरी, टाइम्स ऑफ इण्डिया, स्टेट्समेन, मद्रास मेल, ट्रिब्यून आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। 1870 ई. तक भारत में 644 समाचार पत्र निकलने लगे थे। इनमें से 400 से अधिक समाचार पत्र देशी भाषाओं में थे। फिलियन्स के अनुसार 1877 ई. में देशी भाषाओं में बम्बई देश-विभाग और उत्तर भारत से 62, बंगाल से 28 और दक्षिण भारत से 20 समाचार पत्र प्रकाशित होते थे जिनके नियमित पाठकों की संख्या एक लाख से अधिक थी। देशी भाषाओं के समाचार पत्रों में सरकारी नीतियों की तीव्र आलोचनाएँ होती थी। इस कारण समाचार पत्रों के प्रति सरकारी दृष्टिकोण कठोर होता गया। इन समाचार पत्रों ने भारतीय जनता को अहसास कराया कि ब्रिटिश साम्राज्य भारतीय जनता को नैतिक, आर्थिक और मानसिक पतन की ओर ले जा रहा है। 1878 ई. में गवर्नर जनरल लॉर्ड लिटन ने वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट पारित करके इन समाचार पत्रों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। भारतीयों ने उसके इस कदम का कड़ा विरोध किया। 1882 ई. में लॉर्ड रिपन ने इस एक्ट को रद्द किया। इस प्रकार भारत में राष्ट्रीय चेतना विस्तृत करने में समाचार पत्रों का बहुत बड़ा योगदान रहा।
(17.) राष्ट्रीय साहित्य
राष्ट्रीय भावनाओं को जगाने में उन्नीसवीं सदी के साहित्यकारों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। साहित्यकारों ने नाटकों, उपन्यासों, लेखों एवं कविताओं आदि के माध्यम से भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना जागृत करने का कार्य किया। भारत की क्षेत्रीय भाषाओं में राष्ट्रीय साहित्य का जन्म हुआ जिसने आम भारतवासी को राष्ट्रीयता का महत्त्व समझाया। भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र (1850-1884 ई.) उन्नीसवीं सदी में स्वदेशी आन्दोलन के अग्रदूत थे। उन्होंने भारत दुर्दशा नाटक में भारत की दुर्दशा का वर्णन करके लाखों भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना जागृत की। उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से अँग्रेजी छल-कपट और मायाजाल का उग्र शब्दों में वर्णन किया-
भीतर भीतर सब रस चूसे, बाहर से तन मन धन मूसै।
जाहिर बातन में अति तेज, क्यों सखि, सज्जन नहीं अंगरेज।।
भारतेन्दु के समकालीन कवियों बदरी नारायण चौधरी और प्रताप नारायण मिश्र की रचनाएँ भी देश-प्रेम से ओत-प्रोत थीं। दीनबन्धु मित्र द्वारा रचित नील दर्पण ने भारतीयों को स्वदेश-प्रेम का संदेश दिया। बंगला और मराठी भाषाओं में भी उच्चकोटि के राष्ट्रीय साहित्य का सृजन हुआ। बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के आनन्द मठ को देश-प्रेम और क्रान्तिकारियों की गीता कहा जाता है। शरच्चन्द्र चट्टोपाध्याय की रचनाओं ने प्राचीन भारत के गौरव को प्रदर्शित किया। नर्मद ने गुजराती भाषा में, चिपलूणकर ने मराठी भाषा में और सुब्रमण्यम भारती ने तमिल भाषा में राष्ट्रीयता की भावना से परिपूर्ण साहित्य की रचना कर देशवासियों को स्वतंत्रता प्राप्ति हेतुे संघर्ष करने के लिये प्रेरित किया। मुहम्मद हुसैन आजाद और ख्वाजा अल्ताफ हुसैन हाली की उर्दू रचनाओं में देश-भक्ति की चेतना निहित थी।
(18.) किसानों के सशस्त्र विद्रोह
19वीं सदी में भारतीय किसानों ने अँग्रेज सरकार तथा उसके द्वारा पोषित जमींदारों, साहूकारों तथा सूदखोरों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष का मार्ग अपनाया। इस संघर्ष ने भारत में राष्ट्रीय चेतना का संचार करने में बहुत बड़ा योगदान दिया। उन्नीसवीं सदी के किसान आंदोलनों में नील विद्रोह (1859-61 ई.), जयंतिया विद्रोह (1860-63 ई.), कूकी विद्रोह (1860-90 ई.), फूलागुडी का बलवा (1861 ई.), कूका विद्रोह (1869-72 ई.), पवना का किसान विद्रोह (1872-73 ई.), महाराष्ट्र के किसानों का विद्रोह (1875 ई.), पूना में वासुदेव बलवंत फड़के के नेतृत्व में विद्रोह (1879 ई.) और रंपा विद्रोह (1879-80 ई.) प्रमुख हैं। किसान आंदोलनों ने आम भारतीयों का ध्यान किसानों की दुर्दशा की ओर खींचा। इससे लोगों में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध असन्तोष की अग्नि और तेज हुई।
(19) लॉर्ड लिटन की प्रतिक्रियावादी नीति
लॉर्ड लिटन (1876-80 ई.) के अन्यायपूर्ण शासन ने लोगों को अँग्रेजों के विरुद्ध एकजुट होने के लिये प्रेरित किया। लिटन की साम्राज्यवादी नीतियों ने शिक्षित भारतीयों को भीतर तक क्रोधित कर दिया। लिटन ने भारतीय सिविल सर्विस में प्रवेश की आयु-सीमा 21 वर्ष से कम करके 19 वर्ष कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इससे भारतीयों के लिए इस परीक्षा में सम्मिलित होना अत्यन्त कठिन हो गया। इससे भारतीयों में रोष फैला। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने इसका घोर विरोध किया तथा समूचे देश को इसके विरुद्ध संगठित करने का प्रयास किया। लिटन द्वारा पारित शस्त्र-अधिनियम ने भारतीयों को अत्यधिक उत्तेजित किया। इस अधिनियम द्वारा भारतीयों को बिना लाईसेन्स के शस्त्र रखने की मनाही कर दी गई परन्तु इस अधिनियम को यूरोपीय लोगों पर लागू नहीं किया गया। भारतीयों ने इस कार्य को बड़ा अपमानजनक समझा क्योंकि इस अधिनियम ने भारतीय जनता से आत्मरक्षा का अधिकार छीन लिया। 1878 ई. में लिटन ने वर्नाक्यूलर प्रेस-अधिनियम पारित किया जिसका उद्देश्य प्रेस की स्वतन्त्रता समाप्त करना था। लिटन के इस कार्य की भारत तथा इंग्लैण्ड में तीव्र आलोचना हुई।
लॉर्ड लिटन के समय भारत के विभिन्न क्षेत्रों में भयानक दुर्भिक्ष पड़ा। दुर्भिक्ष काल में ब्रिटिश शासन द्वारा भारतीयों के प्रति अपनाई गई गलत नीति के कारण लाखों लोग मर गये। जब भारतीय जनता भूख से तड़प रही थी तब ब्र्रिटिश सरकार ने भारत से 80 लाख टन अन्न का दूसरे देशों में स्थित अँग्रेजी मोर्चों को भेज दिया। यह भारतीयों के साथ किसी क्रूरता से कम नहीं था। 1 जनवरी 1877 को लिटन द्वारा दिल्ली दरबार का आयोजन करना, भारतीयों को चिढ़ाने के लिये पर्याप्त था। दरबार को भव्य बनाने के लिये धन को पानी की तरह बहाया गया। इस सम्बन्ध में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा- ‘यदि एक स्वेच्छाचारी वायसराय की प्रशंसा के लिए देश के राजा तथा अमीर-उमरावों को एकत्र होने के लिए बाध्य किया जा सकता है तो देशवासियों को न्याय संगत ढंग से स्वेच्छाचारिता को रोकने के लिए क्यों नहीं संगठित किया जा सकता।’
लिटन की अफगान नीति के कारण द्वितीय अफगान युद्ध लड़ा गया। इस युद्ध का भारत की सुरक्षा से कोई लेना-देना नहीं था किंतु भारतीय जनता को इस युद्ध का सारा खर्च उठाना पड़ा। इससे असन्तोष तीव्र हो गया। लॉर्ड लिटन ने कपास सीमा-शुल्क समाप्त कर दिया जिससे भारतीय कोष को हानि पहुँची। लिटन के कार्यों से भारतीयों को पक्का विश्वास हो गया कि उसके हृदय में भारतीयों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं है। भारतीयों को यह भी अनुभव हुआ कि अँग्रेजों का प्रबल विरोध करने के लिये भारतीयों को एक देशव्यापी संगठन की आवश्यकता है। सर विलियम वेडरवर्न ने लिखा है- ‘लॉर्ड लिटन के शासन काल के अन्त में स्थिति विद्रोह की सीमा तक पहुँच गई थी।’
उन्हीं दिनों पूना के मिलिट्री एकाउण्ट्स ऑफिस के बाबू वासुदेव बलवंत राव फड़के के दल द्वारा घोषणा की गई कि यदि कोई व्यक्ति बम्बई के गवर्नर रिचर्ड टेम्पुल का सिर काटकर लायेगा तो उसे 500 रुपये का पुरस्कार दिया जायेगा।
(20.) इल्बर्ट बिल विवाद
अब तक भारत की तीनों ब्रिटिश प्रेसीडेन्सियों को छोड़कर अन्य कहीं भी अँग्रेजों के विरुद्ध अभियोगों की सुनवाई केवल अँग्रेज न्यायाधीश ही कर सकते थे। भारतीय न्यायाधीश किसी भी अँग्रेज के विरुद्ध फौजदारी अभियोग की सुनवाई नहीं कर सकते थे। लॉर्ड रिपन के समय तक अनेक भारतीय सेशन जज बन चुके थे किन्तु वे अँग्रेजों के विरुद्ध अभियोगों की सुनवाई नहीं कर सकते थे। लॉर्ड रिपन की कौंसिल के विधि सदस्य सी. पी. इल्बर्ट ने रिपन के आदेश से एक विधेयक प्रस्तुत किया जिसमें भारत में रहने वाले यूरोपियनों के विरुद्ध अभियोगों की सुनवाई करने का अधिकार भारतीय न्यायधीशों तथा मजिस्ट्रेटों को देने की व्यवस्था थी। इस विधेयक से भारत स्थित समस्त यूरोपीय लोगों में खलबली मच गई। अँग्रेजों ने इसे काला कानून कहा। उन्होंने इस विधेयक को अपना जातीय अपमान समझा और इसके विरुद्ध आन्दोलन चलाने के लिए एंग्लो-इण्डियन डिफेन्स एसोसिएशन का गठन करके डेढ़ लाख रुपयों से अधिक का चन्दा एकत्रित किया। भारत स्थित अधिकांश गैर-सरकारी अँग्रेज भी इस विरोध में सम्मिलित हो गये। उन्होंने अपने प्रतिनिधि इंग्लैण्ड भेजे और रिपन को वापस बुलाने की मांग की। भारत में रह रहे अँग्रेजों ने यह भी धमकी दी कि यदि बिल वापिस नहीं लिया गया तो रिपन को बलपूर्वक जहाज में बैठाकर इंग्लैण्ड के लिये पार्सल कर दिया जायेगा।
बहुत से अँग्रेजों का मानना था कि गोरी जाति का अपमान करने के लिए भारतीय काले न्यायाधीश उनको कठोर सजा देंगे। जबकि अन्य अँग्रेजों को कहना था कि भारतीय न्यायाधीश, गोरे अभियुक्तों को सजा देने के लिए उपयुक्त नहीं हैं। भारतीयों ने पहली बार संयुक्त रूप से सरकार के समर्थन में (अर्थात् इल्बर्ट बिल के पक्ष में) जबरदस्त आन्दोलन चलाया परन्तु गोरों के आन्दोलन से परास्त होकर लॉर्ड रिपन को इल्बर्ट विधेयक में संशोधन करना पड़ा। यह निश्चित किया गया कि केवल यूरोपियन जिलाधीश व सेशन जज ही यूरोपियन अपराधियों के मुकदमे सुनने के अधिकारी होंगे। यूरोपियन अपराधियों को अपने फैसले के लिए जूरी बैठाने की मांग करने का अधिकार दिया गया। इस जूरी में कम से कम आधे सदस्य यूरोपियन होने आवश्यक थे।
इल्बर्ट बिल के विरुद्ध यूरोपीय समुदाय के संगठित विरोध ने भारतीयों की आँखें खोल दीं। भारतीय नेताओं ने अनुभव किया कि यदि राजनीतिक प्रगति वांछनीय है तो वह केवल एक राष्ट्रीय संस्था द्वारा ही सम्भव है। उन्हें विश्वास हो गया कि जब तक वे विदेशी शासन के अन्तर्गत हैं तब तक उन्हें यह भेदभाव और अन्याय सहना ही पडे़गा।
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने लिखा है- ‘कोई भी स्वाभिमानी भारतीय आँख मून्द कर सुस्त नहीं बैठा रह सकता। जो इल्बर्ट बिल-विवाद महत्त्व को समझते थे उनके लिए यह देशभक्ति का महान् आह्वान था।’
इल्बर्ट बिल की घटना ने भारतीय शिक्षित वर्ग को संगठित कर राजनैतिक आन्दोलन की आवश्यकता से परिचित कराया। भारतीय राष्ट्रीयता के विकास में इल्बर्ट बिल के योगदान की चर्चा करते हुए हेनरी कॉटन ने लिखा है- ‘इस विधेयक के विरोध में किए गए यूरोपियन आन्दोलन ने भारत की राष्ट्रीय विचारधारा को जितनी एकता प्रदान की उतनी तो विधेयक पारित होने पर भी नहीं होती।’
आर. सी. मजूमदार ने लिखा है- ‘भारतीयों ने अनुभव किया कि यदि राजनैतिक प्रगति करनी है तो उसे केवल एक राष्ट्रीय संस्था से ही प्राप्त किया जा सकता है। इस संस्था का सम्बन्ध विभिन्न प्रान्तों की स्वतन्त्र राजनीति से न होकर देश की एक व्यापक राजनीति से होना चाहिए।’ इसी भावना ने अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का मार्ग प्रशस्त कर दिया।
(21.) कांग्रेस के पूर्व की संस्थाओं का योगदान
कांग्रेस के पूर्व स्थापित विभिन्न संस्थाओं ने भी भारतीय राष्ट्रीय चेतना को विकसित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। 1850 ई. के पूर्व स्थापित संस्थाओं में कलकत्ता ट्रेड एसोसिएशन (1830 ई.), बंगाल चेम्बर ऑफ कामर्स (1834 ई.), लैंड होल्डर्स सोसायटी (1838 ई.), पैट्रियाटिक एसोसिएशन (1839 ई.), देश हितैषिणी सभा (1841 ई.) और बंगाल ब्रिटिश इण्डिया सोसायटी (1843 ई.) के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। लैंड होल्डर्स सोसायटी की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही। यह भारत के अँग्रेजों और भारतीय जमींदारों का संयुक्त संगठन था जिसका उद्देश्य वर्ण, जन्म, स्थान या धर्म का भेदभाव किये बिना जमींदारों के आम स्वार्थों की रक्षा करना था। बंगाल ब्रिटिश इण्डिया सोसायटी भी भारतीयों और गैर-सरकारी अँग्रेजों का सम्मिलित संगठन था। जब इसमें जमींदारी-प्रथा की आलोचना तथा किसानों के हितों पर चर्चाएँ होने लगीं तो बड़े जमींदार इस संगठन से अलग हो गये। अपने जनतांत्रिक कार्यक्रम के कारण इस संगठन को राजद्रोह के प्रचार का भागी होना पड़ा। पैट्रियाटिक एसोसिएशन की स्थापना कुछ भारतीयों और यूरेशियनों ने मिलकर की थी। इसका उद्देश्य कम्पनी सरकार के अन्यायों के विरुद्ध आवाज उठाना था। देश हितैषिणी सभा का गठन भी इसी उद्देश्य को लेकर किया गया था इन संस्थाओं ने देश में राजनीतिक संघर्ष का मार्ग प्रशस्त किया।
1850 ई. के बाद देश में अनेक राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना हुई जिनमें ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन (1851 ई.), बॉम्बे एसोसिएशन (1852 ई.), मद्रास नेटिव एसोसिएशन (1852 ई.), पूना दक्कन एसोसिएशन (1852 ई.), ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन (1866 ई.), पूना एसोसिएशन(1867 ई.), रेंटस्पेयर्श एसोसिएशन, बम्बई (1870), पूना सार्वजनिक सभा (1870 ई.), इण्डियन एसोसिएशन (1876 ई.), इण्डियन लीग (1875 ई.) उल्लेखनीय हैं। इन संस्थाओं ने राष्ट्रीय आंदोलनों के लिये विचार-भूमि तैयार करने में योगदान दिया।
ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन की स्थापना कलकत्ता में हुई। इस संस्था का उद्देश्य सरकारी विधियों और शासन कार्य की आलोचना करना और भारतीयों के लिए अधिकारों की आवाज उठाना था। यह संस्था अधिक समय तक नहीं चली। 1875 ई. में बंगाल के कुछ प्रगतिशील व्यक्तियों ने इण्डियन लीग की स्थापना की। इसका उद्देश्य भारतीय जनता में राष्ट्रीयता की भावना को बढ़ावा देना और उनमें राजनैतिक जागृति उत्पन्न करना था। 1876 ई. में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के नेतृत्व में इण्डियन एसोसिएशन की स्थापना हुई। राष्ट्रीयता के विकास में इस संस्था का सर्वाधिक योगदान रहा। इसने सम्पूर्ण भारत में सक्रिय राजनीतिक प्रचार का काम किया। इस संस्था एक अन्य उद्देश्य हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करना और सार्वजनिक आन्दोलनों में किसानों का सहयोग प्राप्त करना था। बम्बई में बदरूद्दीन तैयबजी और फिरोजशाह मेहता ने निष्क्रिय बॉम्बे एसोसिएशन को सजीव करने का प्रयास किया। महादेव गोविन्द रानाडे ने महाराष्ट्र में राजनैतिक जागृति उत्पन्न करने और समाज सुधार का कार्य करने के उद्देश्य से पूना सार्वजनिक सभा की स्थापना की। इन्हीं उद्देश्यों से मद्रास में महाजन सभा की स्थापना हुई।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत में राजनीतिक चेतना की सर्व-प्रथम प्रेरणा समाज सुधारकों एवं धर्म-सुधारकों ने दी। उनके द्वारा चलाये गये आन्दोलनों से भारतीयों के हृदय में स्वाभिमान एवं राष्ट्रभक्ति का अंकुरण हुआ। अँग्रेजों की दमनात्मक कार्यवाहियों ने उस अंकुर को पल्लवित होने के लिये प्रेरित किया। धीरे-धीरे अनेक राजनीतिक संगठनों की गतिविधियों ने राजनीतिक चेतना की भावना को विकसित किया। भारतीयों ने यह भी अनुभव किया कि राजनैतिक प्रगति एक राष्ट्रीय संगठन द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। इन्हीं भावनाओं ने 1885 ई. में अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के लिये मार्ग प्रशस्त किया।