अल्लाउद्दीन खिलजी ने दिल्ली सल्तनत के शासन में बड़े परिवर्तन करते हुए बाजारों में मूल्य-नियंत्रण का अनोखा उपाय अपनाया। उसने बाजार में सामान की आपूर्ति तथा मूल्य का निर्धारण करके दलालों की भूमिका को पूरी तरह समाप्त कर दिया। हालांकि उसकी यह बाजार व्यवस्था सम्पूर्ण दिल्ली सल्तनत में लागू नहीं हुई थी, यह व्यवस्था केवल दिल्ली एवं उसके आसपास के बड़े नगरों के बाजारों में लागू की गई थी।
अल्लाउद्दीन खिलजी अमीरों एवं जनता की व्यक्तिगत सम्पत्ति को आन्तरिक उपद्रवों का कारण समझता था। इसलिए उसने बहुत से अमीरों एवं बहुत सी जनता की व्यक्तिगत सम्पत्ति को उन्मूलित करके उस सम्पत्ति को राजकीय कोष में जमा कर लिया। इस कार्य के लिए उसने साधारण जनता से लेकर अमीरों तक पर अत्याचार किये तथा उनकी हत्याएं करवाईं।
मुसलमानों को मिल्क, इनाम, इशरत (पेंशन) तथा वक्फ (दान) के रूप में जो भूमि प्राप्त थी, उसका सुल्तान ने अपहरण कर लिया। इस प्रकार की कुछ भूमि फिर भी बची रह गई थी परन्तु अधिकांश भूमि छीन ली गई थी।
सुल्तान ने सैनिकों को जागीर देने की प्रथा बन्द करके नकद वेतन देने की व्यवस्था की। इससे सैनिक परिवार की स्थाई आय समाप्त हो गई किंतु राज्य की आय में वृद्धि हो गई। सरकार ने सम्पूर्ण भूमि का खालसा भूमि में परिवर्तन कर दिया। खालसा भूमि उसे कहते थे जो सीधे केन्द्र सरकार के अधिकार में होती थी। चूंकि अल्लाउद्दीन ने जागीरदारी प्रथा हटा दी, इसलिए अब समस्त भूमि सीधे सरकार के नियन्त्रण में आ गई और खालसा भूमि बन गई।
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सुल्तान ने सम्पूर्ण भूमि की नाप करवा कर सरकारी लगान निश्चित कर दिया। जितनी उपजाऊ भूमि होती थी, उसी के हिसाब से लगान देना पड़ता था। वह दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान था जिसने भूमि की पैमाइश करवाकर लगान वसूल करना आरम्भ किया। इसके लिए एक बिस्वा को इकाई माना गया। अल्लाउद्दीन खिलजी लगान को गल्ले के रूप में लेना पसंद करता था। लगान का निर्धारण तीन प्रकार से किया जाता था।
लगान की गणना के पहले प्रकार को कनकूत कहा जाता था जिसका अर्थ यह था कि जब फसल खड़ी हो तभी लगान का अनुमान लगा लिया जाए।
लगान की गणना का दूसरा आधार बटाई था। इसका तात्पर्य यह था कि अनाज तैयार हो जाने पर सरकार का हिस्सा निश्चित करके ले लिया जाए।
लगान निर्धारण के तीसरे प्रकार को लंकबटाई कहा जाता था जिसका तात्पर्य यह था कि फसल तैयार हो जाने पर बिना पीटे ही सरकारी हिस्सा ले लिया जाए।
अल्लाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में किसान की फसल में से 50 प्रतिशत हिस्सा राज्य का होता था। किसानों को चारागाह तथा मकान का भी कर देना पड़ता था। कुछ विद्वानों की यह धारणा है कि इतना अधिक कर केवल दो-आब में लिया जाता था जहाँ की भूमि अधिक उपजाऊ थी और लोग अधिक विद्रोह करते थे।
यद्यपि सुल्तान ने लगान वसूली के लिए सैनिक अधिकारी नियुक्त कर दिए थे तथापि वह पुरानी व्यवस्था को पूरी तरह नष्ट नहीं कर सका था। अधिकांश क्षेत्रों में लगान वसूली का कार्य अब भी हिन्दू मुकद्दम, खुत तथा चौधरी करते थे जिन्हें कुछ विशेषाधिकार प्राप्त थे। सुल्तान ने उनके समस्त विशेषाधिकारों को समाप्त करके उनका वेतन निश्चित कर दिया। खुत तथा बलहर अर्थात् हिन्दू जमींदारों को नष्ट नहीं किया गया परन्तु उन पर इतना अधिक कर लगाया गया कि वे निर्धन हो गए और कभी भी राज्य के विरुद्ध सिर नहीं उठा सके।
दो-आब के किसानों से लगान के रूप में अनाज लिया जाता था। उस अनाज को जमा करने के लिए सरकारी बखार होते थे। इन बखारों में इतना अधिक अनाज जमा होता था कि अकाल के समय सेना के लिए पर्याप्त होता था।
अल्लाउद्दीन खिलजी ने बकाया कर वसूलने के लिए दीवान-ए-मुस्तखराज नामक विभाग की स्थापना की। उसने सम्पूर्ण साम्राज्य को कई भागों में विभक्त करके प्रत्येक भाग को एक सैन्य-अधिकारी के अनुशासन में रख दिया। यह सैन्य-अधिकारी जनता से मालगुजारी वसूल करता था और जितनी सेना उसके सुपुर्द की जाती थी, उसका व्यय निकालने के उपरान्त शेष धन राजकोष में भेज देता था।
अल्लाउद्दीन खिलजी ने हिन्दुओं को पूरी तरह निर्धन बनाने का प्रयत्न किया जिससे वे विद्रोह की कल्पना तक नहीं कर सकें। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सुल्तान ने कई कदम उठाये। गंगा-यमुना के दो-आब का क्षेत्र बड़ा ही उपजाऊ प्रदेश था और वहाँ के हिन्दू प्रायः विद्रोह का झण्डा खड़ा कर देते थे। अतः सुल्तान ने दो-आब के क्षेत्र में उपज का 50 प्रतिशत मालगुजारी के रूप में वसूल करने की आज्ञा दी। हिन्दुओं को जजिया, चुंगी तथा अन्य कर भी पूर्ववत् देने पड़ते थे। चौधरी और मुकद्दम लोगों को घोड़ों पर चढ़ने, हथियार रखने, अच्छे वस्त्र पहनने, पान खाने से मनाही कर दी गई। इस प्रकार हिन्दुओं की समस्त सुविधाएँ छीन ली गईं और उनके साथ बड़ी क्रूरता का व्यवहार किया गया।
इन उपायों से राजकीय आय में भारी वृद्धि हो गई किंतु जनता पर करों का बोझ बढ़ गया। करों का अधिकांश बोझ हिन्दुओं पर ही पड़ा जिनका मुख्य व्यवसाय कृषि था और जिन्हें भूमि-लगान के अतिरिक्त कई प्रकार के कर देने पड़ते थे।
आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने लिखा है कि राज्य में हिन्दुओं की स्थिति क्या होनी चाहिए, इस विषय में अल्लाउद्दीन खिलजी ने बयाना के काजी मुगीसुद्दीन की सलाह ली। काजी ने सुल्तान को सलाह दी कि शरा में हिन्दुओं को खराज-गुजर अर्थात् कर देने वाला कहा गया है और जब कोई माल का अफसर अर्थात् कर-अधिकारी किसी हिन्दू से चांदी मांगे तो उसका कर्तव्य है कि बिना किसी पूछताछ के और बड़ी नम्रता के साथ कर अधिकारी को सोना दे दे और यदि अफसर उसके मुंह में धूल फैंके तो उसे लेने के लिए बिना हिचकिचाहट उसे अपना मुंह खोल देना चाहिए। इस प्रकार अपमानजनक कार्यों में ‘जिम्मी’ इस्लाम के प्रति अपनी आज्ञापालन की भावना का प्रदर्शन करता है। ईश्वर ने स्वयं उन्हें अपमानित करने की आज्ञा दी है ….. अल्लाह के दूत ने हमें काफिरों का वध करने, उन्हें लूटने तथा बंदी बनाने का आदेश दिया है …… महान इमाम अबू हनीफा ने जिसके धर्म का हम अनुसरण करते हें, हिन्दुओं पर जजिया लगाने की अनुमति दी है। अन्य इस्लामी धर्माधीशों के अनुसार हिन्दुओं के लिए नियम है कि वे मृत्यु अथवा इस्लाम में से एक का वरण करें। अल्लाउद्दीन ने काजी की सलाह का हृदय से स्वागत किया। वह अपने राज्य की बहुसंख्यक हिन्दू जनता के प्रति इसी नीति का अनुसरण करता आया था। इसलिए काजी की राय सुनकर उसे प्रसन्नता हुई।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता