अल्लाउद्दीन खिलजी द्वारा अब तक गुजरात के अन्हिलवाड़ा, मालवा के मांडू, उज्जैन, धारा नगरी तथा चन्देरी एवं राजपूताने के जैसलमेर, रणथंभौर एवं चित्तौड़ जैसे राज्यों को जीतने के उपरांत भी जालोर का राज्य उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर था इसलिए उसने जालोर पर अभियान करने का निश्चय किया किंतु जालोर पर अभियान करने से पहले उसे सिवाना पर अभियान करना पड़ा।
पद्मानाभ के ग्रंथ ‘कान्हड़दे प्रबंध’ के अनुसार ई.1308 में अल्लाउद्दीन खिलजी का सिवाना अभियान हुआ। उन दिनों सिवाना दुर्ग जालोर के सोनगरा चौहान शासक कान्हड़देव के भतीजे सातलदेव के अधिकार में था।
ई.1308 में अल्लाउद्दीन खिलजी ने मलिक कमालुद्दीन गुर्ग के नेतृत्व में सिवाना पर अभियान किया। सिवाना पर उन दिनों सातलदेव का शासन था जो जालोर के चौहान शासक कान्हड़देव का भतीजा था तथा उसी की ओर से सिवाना दुर्ग पर नियुक्त था। अल्लाउद्दीन की सेना ने दो साल तक सिवाना दुर्ग पर घेरा डाले रखा किंतु जब दिल्ली की सेना सिवाना पर अधिकार नहीं कर सकी तो ई.1310 में अल्लाउद्दीन स्वयं सिवाना आया।
अमीर खुसरो के ग्रंथ ‘तारीखे अलाई’ में लिखा है कि सिवाना दुर्ग एक दुर्गम जंगल के बीच स्थित था। यह जंगल भयानक जंगली आदमियों से भरा हुआ था जो राहगीरों को लूट लेते थे। इस जंगल के बीच पहाड़ी दुर्ग पर काफिर सातलदेव, सिमुर्ग की भांति रहता था और उसके कई हजार काफिर सरदार पहाड़ी गिद्धों की भांति उसकी रक्षा करते थे। सिमुर्ग फारसी पुराणों में वर्णित एक भयानक एवं विशाल पक्षी है। संभवतः जुरासिक काल के विशालाकाय पक्षियों को अरबी साहित्य में सिमुर्ग कहा गया है।
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ई.1308 में जब कमालुद्दीन गुर्ग जालोर पर आक्रमण करने के लिये रवाना हुआ तो सिवाना के दुर्गपति सातलदेव ने कमालुद्दीन का मार्ग रोका और उससे कहलवाया कि जालोर पर आक्रमण बाद में करना, पहले सिवाना से निबटना होगा।
कमालुद्दीन गुर्ग का लक्ष्य जालोर था न कि सिवाना। इसलिए वह सिवाना से उलझना नहीं चाहता था क्योंकि जैसलमेर के अभियान से वह अच्छी तरह समझ चुका था कि थार के रेगिस्तान में स्थित पहाड़ियों पर बने किसी भी दुर्ग को जीतना कितना कठिन होता है! जब कमालुद्दीन गुर्ग ने सिवाना के दुर्गपति सातलदेव चौहान की चुनौती स्वीकार नहीं की और वह सीधा ही जालोर की तरफ बढ़ने लगा तो सातलदेव की सैनिक टुकड़ियों ने कमालुद्दीन की सेना को तंग करना आरम्भ किया। इस कारण विवश होकर कमालुद्दीन गुर्ग ने सिवाना दुर्ग का रुख किया। सिवाना का दुर्ग जालोर से 50 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में स्थित है तथा इसका निर्माण परमार शासकों क काल में होना बताया जाता है।
सिवाना का दुर्ग एक ऊंची पहाड़ी पर स्थित था तथा इसके चारों ओर कंटीली झाड़ियों का विशाल जंगल हुआ करता था। इस जंगल के चारों ओर थार का रेगिस्तान था। इस स्थान के चारों ओर जल का कोई स्थाई स्रोत नहीं था। न नदी, न नाला, न कुआं, न तालाब। वर्षा भी बहुत कम होती थी। इस कारण कमालुद्दीन के आदमियों को अपने ऊंटों पर बहुत दूर से पानी ढोकर लाना पड़ता था। जबकि दूसरी ओर सिवाना दुर्ग में पानी के कई झालरे एवं तालाब बने हुए थे।
सातलदेव की सेना पहाड़ी पर स्थित थी जबकि कमालुद्दीन की सेना नीचे तलहटी में थी। इस कारण सातलदेव के सैनिक पहाड़ी के ऊपर से ही तुर्की सेना पर तीर और पत्थर बरसाते थे और तुर्की सेना को उनकी मार से बचने के लिए पहाड़ी से दूर भाग जाना पड़ता था। इस प्रकार सातलदेव की सेना ने गुरिल्ला युद्ध करके दिल्ली की सेना को बहुत छकाया।
जब दो साल बीत गए और कमालुद्दीन कुछ भी प्रगति नहीं कर सका तो अल्लाउद्दीन खिलजी ने स्वयं एक विशाल सेना लेकर सिवाना का रुख किया। अल्लाउद्दीन ने सिवाना दुर्ग के निकट ऊँचे पाशेब बनवाये तथा अपने सैनिकों को उस पर चढ़ा दिया। सातलदेव की सेना ने दुर्ग की प्राचीर से ढेंकुलियों की सहायता से शत्रु-सेना पर पत्थर बरसाये और ये पाशेब काम नहीं आ सके। इस प्रकार अल्लाउद्दीन खिलजी के समस्त दांव विफल हो गये।
पद्मनाभ ने लिखा है कि अंत में अल्लाउद्दीन खिलजी ने भायला पंवार नामक एक व्यक्ति को अपनी ओर फोड़ लिया तथा उसकी सहायता से दुर्ग में स्थित प्रमुख पेयजल स्रोत में गाय का रक्त एवं मांस मिलवा दिया। इससे दुर्ग में पेयजल की कमी हो गई। जब हिन्दू सैनिकों ने दुर्ग के तालाबों एवं झालरों में गाय के कटे हुए सिर पड़े देखे तो उन्होंने इन तालाबों एवं झालरों का पानी पीने से मना कर दिया। दुर्ग में पानी लाने का और कोई साधन नहीं था।
इस कारण राजा सातलदेव ने साका करने का निर्णय लिया। दुर्ग में स्थित स्त्रियों ने जौहर किया तथा हिन्दू सैनिक केसरिया बाना धारण करके, मुंह में तुलसीदल एवं गंगाजल लेकर, पगड़ी में भगवान कृष्ण का चित्र रखकर और हाथ में तलवार लेकर दुर्ग से बाहर आ गए। दोनों पक्षों के बीच हुए भयानक संघर्ष के बाद समस्त हिन्दू वीर रणक्षेत्र में ही कट मरे और दुर्ग पर अल्लाउद्दीन खिलजी का अधिकार हो गया। स्वयं सातलदेव भी सम्मुख युद्ध में काम आया।
अमीर खुसरो ने लिखा है कि अंत में पाशेब पहाड़ी की चोटी तक पहुंच गया। तत्पश्चात् सुल्तान के आदेश से मुस्लिम सैनिक पाशेब से निकलकर किले के पशुओं पर टूट पड़े किंतु किले वाले किले से न भागे। यद्यपि उनके सिर टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए। जो लोग भागे उनका पीछा किया गया और उन्हें पकड़ लिया गया। कुछ हिन्दुओं ने जालौर की तरफ भाग जाने का प्रयत्न किया किंतु वे भी बंदी बना लिए गए। 10 सितम्बर 1308 को प्रातःकाल सातलदेव का मृत शरीर शाही चौखट के सिंहों के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया गया।
इस विवरण से स्पष्ट है कि अमीर खुसरो ने हिन्दू सैनिकों के लिए घृणापूर्ण शब्दों का प्रयोग करते हुए उन्हें पशु लिखा है। यह वही अमीर खुसरो है जिसे भारत में हिन्दी भाषा के जनक एवं साम्प्रदायिक सद्भाव की मिसाल के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
कान्हड़दे प्रबंध में लिखा है कि जब सातलदेव का विशाल शरीर धरती पर गिर गया तब अल्लाउद्दीन खिलजी स्वयं उसके शव को देखने आया। उसे सातलदेव के शरीर के विशाल आकार को देखकर बहुत आश्चर्य हुआ। अल्लाउद्दीन खिलजी ने दुर्ग को एक मुस्लिम गवर्नर के सुपुर्द कर दिया तथा दुर्ग का नाम खैराबाद रखा।
सिवाना दुर्ग को जीत लेने के बाद दिल्ली की सेना जालोर अभियान के लिए गई। यहाँ भी दुर्ग को जीतने में कई साल का समय लगा किंतु अंत में जालोर दुर्ग तुर्कों के अधीन हो गया जिसका वर्णन हम पहले ही कर चुके हैं।
उत्तर भारत पर अधिकार स्थापित कर लेने के उपरान्त अल्लाउद्दीन ने दक्षिण भारत पर अभियान आरम्भ किया परन्तु उत्तरी भारत की विजय स्थायी सिद्ध नहीं हुई। अल्लाउद्दीन के जीवन के अन्तिम भाग में राजपूताना में विद्रोह की अग्नि प्रज्वलित हो उठी और अनेक स्थानों में राजपूतों ने अपनी खोई हुई स्वतन्त्रता को पुनः प्राप्त कर लिया परन्तु राजपूत पूर्ववत् असंगठित ही बने रहे। वे तुर्की सल्तनत को उन्मूलित नहीं कर सके।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता