पद्मनाभ तथा मुंहता नैणसी द्वारा दिए गए विवरणों के अनुसार जब जालोर के राजा कान्हड़देव ने अपने पुत्र वीरमदेव का विवाह शहजादी फिरोजा से करने से मना कर दिया तो शहजादी दिल्ली लौट गई तथा अल्लाउद्दीन खिलजी ने शहजादी की धाय गुलबहिश्त के नेतृत्व में दिल्ली की सेना जालोर भेजी।
पद्मनाभ तथा नैणसी द्वारा उल्लिखित इन घटनाओं का तत्कालीन फारसी तवारीखों में उल्लेख नहीं है। इसलिए डॉ. के. एस. लाल ने इन घटनओं को कपोल-कल्पित माना है किंतु डा. दशरथ शर्मा, डॉ. गोपीनाथ शर्मा तथा सुखवीरसिंह गहलोत आदि कतिपय आधुनिक इतिहासकारों ने इन तथ्यों को सत्य-घटना के रूप में स्वीकार किया है। आधुनिक काल के इन लेखकों का कहना है कि चूंकि पद्मनाभ ने फिरोजा को वीरमदेव से प्रेम होने तथा सुल्तान द्वारा शहजादी की धाय गुलबहिश्त को सेना के साथ जालोर भेजे जाने की बात लिखी है, इसलिए इन तथ्यों को सत्य माना जाना चाहिए। इन लेखकों के अनुसार पद्मनाभ का कान्हड़दे प्रबंध इसलिए अधिक विश्वसनीय है चूंकि वह फरिश्ता तथा हाजी उद्दबीर आदि के ग्रंथों से पहले लिखा गया है।
आधुनिक काल के इन लेखकों के अनुसार शहजादी फिरोजा का वीरम से प्रेम होना तथा सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी द्वारा शहजादी की धाय गुलबहिश्त को सेना के साथ जालोर भेजना आदि घटनायें अस्वाभाविक नहीं है। सम-सामयिक फारसी तवारीखों में इन घटनाओं का वर्णन नहीं होने से ये घटना असत्य सिद्ध नहीं हो जातीं।
आधुनिक काल के इन लेखकों के अनुसार डॉ. के. एस. लाल का एक महिला द्वारा तुर्की सेना के नेतृत्व में संदेह किया जाना उचित नहीं है क्योंकि अल्लाउद्दीन से पहले रजिया सुल्तान दिल्ली सल्तनत की गद्दी पर बैठ चुकी थी जिसने 4 वर्ष तक शासन और सैनिक नेतृत्व किया था।
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पद्मनाभ, मूथा नैणसी, डॉ. दशरथ शर्मा, डॉ. गोपीनाथ शर्मा तथा सुखवीरसिंह गहलोत भले ही फिरोजा की एक-तरफा प्रेमकथा की सत्यता से सहमति व्यक्त करें किंतु अन्य ऐतिहासिक घटनाक्रमों के आधार पर यह पूरी प्रेमकथा असत्य जान पड़ती है। यहाँ तक कि मूथा नैणसी की ख्यात के सम्पादक डॉ. मनोहरसिंह राणावत ने भी इस प्रेमकथा को असत्य माना है।
मेरे अपने विचार में भी फिरोजा अथवा सिताई की प्रेमकथा का वर्णन उतना ही असत्य है जितना कि अल्लाउद्दीन खिलजी का चित्तौड़ दुर्ग के भीतर जाकर दर्पण में महारानी पद्मिनी का चेहरा देखना और महारानी पद्मिनी का अल्लाउद्दीन के शिविर में जाकर रावल रतनसिंह को छुड़ाना।
अब हम अल्लाउद्दीन खिलजी के जालोर अभियान के सम्बन्ध में मिलने वाले अन्य घटनाक्रम की चर्चा करेंगे। हमने उस घटनाक्रम की चर्चा की थी जब ई.1299 में अल्लाउद्दीन खिलजी ने अन्हिलवाड़ा के राजा कर्ण बघेला पर अभियान किया था। तब जालोर के चौहान शासक ने खिलजी की सेना को जालोर से होकर नहीं जाने दिया था। तभी से अल्लाउद्दीन खिलजी के सम्बन्ध जालोर के चौहानों से तनाव-पूर्ण चल रहे थे।
जब ई.1301 में गुजरात से लौटते समय अल्लाउद्दीन की सेना बिना पूर्व अनुमति के जालोर राज्य में घुस गई तब जालोर की सेना ने अल्लाउद्दीन की सेना को जालोर राज्य से निकाल दिया था, तब ये सम्बन्ध और अधिक बिगड़ गए थे। इतना ही नहीं चौहानों ने उन नव-मुस्लिमों अर्थात् महमांशाह आदि मंगोलों को जालोर राज्य में शरण दी थी जिन्होंने अल्लाउद्दीन की सेना से वह धन छीन लिया था जो अल्लाउद्दीन की सेना ने गुजरात से लूटा था। इन्हीं कारणों से अल्लाउद्दीन खिलजी ने ई.1305 में जालोर के लिए अभियान किया।
यदि जालोर और अल्लाउद्दीन खिलजी के बीच युद्ध के ये कारण उत्पन्न नहीं हुए होते तो भी अल्लाउद्दीन खिलजी रणथंभौर, चित्तौड़ एवं मालवा के राजपूत राज्यों को नष्ट करने के बाद जालोर राज्य पर अवश्य ही आक्रमण करता क्योंकि अल्लाउद्दीन खिलजी का लक्ष्य तो सम्पूर्ण भारत पर अधिकार करने का था। अभी अन्हिलवाड़ा को नष्ट किया जाना बाकी था क्योंकि कर्ण बघेला ने फिर से अन्हिलवाड़ा पर अधिकार कर लिया था। दिल्ली से अन्हिलवाड़ा जाने के लिये जालोर होकर जाने वाला मार्ग सबसे छोटा, सुगम एवं सीधा था। इस मार्ग को अपने अधिकार में करना अल्लाउद्दीन खिलजी के लिये आवश्यक था।
डॉ. गोपीनाथ शर्मा लिखते हैं कि पहले की पराजय को विजय में बदलने की महत्त्वाकांक्षा अल्लाउद्दीन खिलजी द्वारा जालोर के अन्तिम आक्रमण का एक कारण हो सकती है, क्योंकि जब तक जालोर का पतन नहीं होता, तब तक जालोर के चौहान खिलजी सेना के दक्षिण अभियानों में बाधक सिद्ध हो सकते थे जबकि भारत के दक्षिणी प्रदेशों पर राजनीतिक प्रभाव बनाये रखने के लिये जालोर का दुर्ग सैनिक दृष्टि से उपयोगी हो सकता था।
डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार उत्तरी भारत के अन्य दुर्गों को जिनमें चित्तौड़ तथा रणथंभौर आदि प्रमुख थे, तुर्की सत्ता के सैनिक अड्डे बनाये रखने के लिये जालोर की स्वतंत्रता को समाप्त करने की सुल्तान की दृढ़ता भी अंतिम आक्रमण का कारण माना जाना चाहिये। इसी विचार को उन्होंने ‘कॉम्प्रिहेंसिव हिस्ट्री’ में भी लिखा है कि अल्लाउद्दीन खिलजी जालोर के राय की बढ़ती हुई शक्ति को सहन नहीं कर सकता था।
कुछ इतिहासकार ई.1305 में जालोर अभियान किया जाना मानते हैं जबकि कुछ इतिहासकार ई.1311 में अल्लाउद्दीन खिलजी का जालोर पर अधिकार होना मानते हैं। मूथा नैणसी की ख्यात के सम्पादक मनोहरसिंह राणावत ने 12 अप्रेल 1312 को खिलजी द्वारा जालोर दुर्ग पर अधिकार किया जाना माना है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार अल्लाउद्दीन खिलजी ने ई.1314 में कमालुद्दीन गुर्ग के नेतृत्व में जालोर के विरुद्ध सेना भेजी जिसमें कान्हड़देव परास्त हो गया और जालौर पर अल्लाउद्दीन खिलजी का अधिकार हो गया।
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि अल्लाउद्दीन का जालोर अभियान ई.1305 में आरम्भ हुआ एवं ई.1314 में जाकर पूरा हुआ। इस प्रकार अल्लाउद्दीन का जालोर अभियान आरम्भ होने एवं जालोर दुर्ग पर अल्लाउद्दीन का अधिकार होने के बारे में अलग-अलग तिथियां मिलती हैं जिनमें 6 साल से लेकर 9 साल तक का लम्बा अंतराल है।
ई.1305 से ई.1314 की अवधि के बीच ई.1308 में अल्लाउद्दीन खिलजी का सिवाना अभियान भी हुआ जो इतिहास की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। अवश्य ही यह अभियान जालोर अभियान से पहले हुआ था तथा दो साल तक अर्थात् ई.1310 तक चला था। सिवाना अभियान के पूर्ण होने पर ही जालोर दुर्ग पर अभियान किया गया था। अतः तथ्यों के आधार पर यह माना जा सकता है कि अल्लाउद्दीन खिलजी का जालोर अभियान ई.1308 में आरम्भ होकर ई.1311 में पूरा हुआ। सिवाना अभियान की चर्चा हम अगली कड़ी में विस्तार से करेंगे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता