ई.1303 में दिल्ली के सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ दुर्ग पर अधिकार कर लिया तथा अब अपना ध्यान जालोर राज्य पर केन्द्रित किया। इस समय राजा कान्हड़देव सोनगरा जालोर का शासक था। सोनगरा चौहानों की शाखा सांभर के चौहानों में से निकली थी जो अजमेर तथा नाडौल होते हुए जालौर में अपना अलग राज्य स्थापित करने में सफल रही थी।
जालौर के चौहानों ने अल्लाउद्दीन खिलजी की सेना को सोमनाथ आक्रमण के समय अपने राज्य से होकर गुजरने की अनुमति नहीं दी थी। इसलिए अल्लाउद्दीन खिलजी ने जालौर को अपने अधीन करने का निश्चय किया। अल्लाउद्दीन खिलजी ने अपने सेनापति ऐनुलमुल्क मुल्तानी को आदेश दिया कि वह राजा कान्हड़देव को दिल्ली लेकर आए।
फरिश्ता के हवाले से प्रोफेसर एम. हबीब ने लिखा है कि राजा कान्हड़देव को कोई भी निर्णय लेने से पहले दो बार सोचना आवश्यक था कि वह अल्लाउद्दीन खिलजी की प्रबल शक्ति को देखते हुए उससे युद्ध करे अथवा नहीं किन्तु युद्ध का निर्णय खिलजी सेनापति ऐनुलमुल्क मुल्तानी ने स्वतः कर दिया जो कि बड़ा लड़ाकू, चतुर और चालबाज सेनापति था। वह राजा कान्हड़देव को समझा-बुझा कर दिल्ली ले गया ताकि राजा कान्हड़देव स्वयं को सुल्तान का मित्र सिद्ध कर सके।
डॉ. दशरथ शर्मा ने लिखा है कि ठीक छत्रपति शिवाजी की परिस्थितियों में सम्मानपूर्वक शान्ति स्थापित करने के लिये राजा कान्हड़देव दिल्ली गया किन्तु छत्रपति शिवाजी की ही भांति राजा कान्हड़देव ने शीघ्र ही अनुभव कर लिया कि सम्मानपूर्वक सुलह स्थापित करना असंभव था। लगातार मिली सफलताओं ने अल्लाउद्दीन का दिमाग फेर दिया था। उसने अपने सिक्कों पर स्वयं को दूसरा अलेक्जेण्डर बताया।
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फरिश्ता के हवाले से प्रोफेसर एम. हबीब ने लिखा है कि अल्लाउद्दीन का दरबार चाटुकारों से भरा पड़ा था। वह स्वयं भी अपनी बड़ाई किया करता कि भारत का कोई भी हिन्दू राजा अल्लाउद्दीन के समक्ष नहीं टिक सकता किन्तु यह दंभयुक्त चुनौती कान्हड़देव के आत्मसम्मान को सहन नहीं हुई और वह जालोर लौट आया तथा युद्ध की तैयारी करने लगा।
पद्मनाभ द्वारा लिखित ग्रंथ ‘कान्हड़दे प्रबंध’ राजा कान्हड़देव द्वारा अल्लाउद्दीन खिलजी की अधीनता स्वीकार करने की बात नहीं कहता। मूथा नैणसी की ख्यात में कान्हड़देव के दिल्ली जाने का उल्लेख नहीं है अपितु यह लिखा है कि अल्लाउद्दीन खिलजी द्वारा तलब किये जाने पर राजा कान्हड़देव ने अपने पुत्र वीरमदेव को दिल्ली भेजा।
फरिश्ता ने राजा कान्हड़देव के अल्लाउद्दीन के दरबार में उपस्थित होने की बात लिखी है जबकि पद्मनाभ ने उनमें से किसी के भी दिल्ली दरबार में जाने का वर्णन नहीं किया है। अधिकांश इतिहासकारों ने कान्हड़देव तथा वीरमदेव की दिल्ली दरबार में उपस्थिति को स्वीकार कर लिया है जिनमें डा. दशरथ शर्मा, डॉ. गोपीनाथ शर्मा, सुखवीरसिंह गहलोत आदि सम्मिलित हैं।
मुंहता नैणसी ने बादशाह अल्लाउद्दीन खिलजी द्वारा वीरमदेव को दिल्ली बुलाए जाने का कारण पंजू नामक पायक को बताया है। मुंहता नैणसी ने अपनी पुस्तक में अल्लाउद्दीन को सुल्तान की जगह बादशाह लिखा है। उस काल में मल्लयुद्ध लड़ने वालों को पायक कहा जाता था।
नैणसी खिलता है कि बादशाह अल्लाउद्दीन की सेवा में पंजू नामक एक पायक रहता था। पंजू किसी कारण बादशाह की सेवा छोड़कर रावल कान्हड़देव की सेना में चला गया। वहाँ उसने रावल कान्हड़देव के पुत्र वीरमदेव को बिन्नोट की विद्या अर्थात् मल्लयुद्ध की कला सिखाई थी।
कुछ समय बाद पंजू पुनः बादशाह की सेवा में चला गया। वहाँ कोई ऐसा पायक अर्थात् मल्ल नहीं था जो पंजू पायक को पराजित कर सके। बादशाह के अन्य सभी पायकों को पंजू ने परास्त कर दिया। एक दिन बादशाह ने पंजू से पूछा कि क्या कोई ऐसा पायक है, जो तुम्हारा मुकाबला कर सके!
इस पर पंजू ने निवेदन किया कि ईश्वर द्वारा निर्मित सृष्टि बहुत विशाल है उसमें किसी बात की कमी नहीं है। इस पृथ्वी पर ऐसे कई होंगे, मैंने देखे नहीं हैं परन्तु जालोर के रावल कान्हड़देव को पुत्र वीरमदेव ने मुझसे ही यह विद्या सीखी है, मेरी बराबरी कर सकता है।
इस पर बादशाह ने बडे़ वचन देकर कान्हड़देव को लिखा कि एक बार वीरमदेव को मेरे पास भेज दो। कान्हड़देव ने अपने भाई-बंधुओं से परामर्श किया और वीरमदेव को दिल्ली भेज दिया। बादशाह वीरमदेव को देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ। पांच-दस दिन व्यतीत हो जाने पर बादशाह ने वीरमदेव से कहा कि एक बार तुम और पंजू खेलो, हम देखना चाहते हैं। वीरमदेव ने कहा कि यह राजकुमारों का काम नहीं है फिर भी आपकी इच्छा है तो हम एकांत में खेल दिखायेंगे, जहाँ बादशाह चाहें।
इस पर बादशाह ने अपने महल में एक स्थान तैयार करवाया। अन्तःपुर की औरतें भी चिकों की ओट में दोनों पहलवानों का मल्लयुद्ध देखने आईं। दोनों ही बराबर के खिलाड़ी थे। बादशाह उनके खेल को देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ। पंजू से मल्लविद्या सीखने के बाद वीरमदेव ने कर्नाटक के पायकों से भी इस विद्या का एक दांव सीखा था जिसमें पैर के अंगूठे से उस्तरा बांधकर उल्टी गुलांच खाते थे जिससे उस्तरे की चोट प्रतिद्वन्द्वी के ललाट पर पहुंचती थी।
जब दो-तीन बार की लड़ाई में वीरमदेव और पंजू पायक बराबर रहे तो वीरमदेव ने दक्षिण के पायकों से सीखा हुआ दांव खेला और पंजू के ललाट पर उस्तरे की हल्की सी चोट मारी। वीरमदेव इस दांव के कारण जीत गया जिसे देखकर बादशाह और उसकी बेगमें बडे़ खुश हुए। बादशाह की युवा पुत्री फिरोजा इतनी प्रसन्न हुई कि वह राजकुमार वीरमदेव पर आसक्त हो गई। कुछ ग्रंथों में फिरोजा को सिताई भी कहा गया है।
खेल की समाप्ति पर वीरमदेव और पंजू अपने-अपने डेरों को चले गये। तब शहजादी किसी एकान्त स्थान में प्रतिज्ञा लेकर सो गई। उसने अन्न-जल छोड़ दिया। हरम की स्त्रियों द्वारा कारण पूछे जाने पर शहजादी ने उत्तर दिया कि ‘या तो कुंअर वीरमदेव के साथ विवाह करूं, नहीं तो अन्न-जल नये दांत आने पर ग्रहण करूं।
शहजादी की माता और महल की अन्य बेगमों ने शहजादी को समझाया कि वह हिन्दू है और तुम मुसलमान। दोनों का विवाह कैसे हो सकता है? परन्तु शहजादी ने बहुत हठ किया और मरने को तैयार हो गई। अतः बेगमों ने बादशाह को सूचित किया।
बादशाह ने इस विवाह से इन्कार कर दिया। शहजादी ने तीन दिन तक अन्न-जल ग्रहण नहीं किया तो पुत्री की प्राण-रक्षा के लिये बादशाह ने उसकी बात मान ली और वीरमदेव के पास विवाह का प्रस्ताव भेजा। वीरमदेव ने अनेक आपत्तियां प्रकट कीं किन्तु बादशाह नहीं माना। तब वीरमदेव ने समझ लिया कि या तो मरना पडे़गा या फिर बात स्वीकार करनी पडे़गी। वीरमदेव ने एक योजना बनाई और बादशाह से निवेदन किया कि बहुत अच्छी बात है। लग्न दिखाकर मुझे विदा कर दो। मैं जालोर जाकर पूरी तैयारी करूंगा और लग्न पर बारात लेकर आऊंगा। बादशाह को वीरम की बात पर संदेह हुआ और वीरमदेव की जमानत के तौर पर बनवीर के पुत्र राण को अपने पास रोक लिया। राजकुमार वीरमदेव ने जालोर आकर अपने पिता कान्हड़देव को समस्त विवरण बताया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता