अल्लाउद्दीन खिलजी के सेनापति उलूग खाँ तथा नुसरत खाँ ने गुजरात की राजधानी अन्हिलवाड़ा पर आक्रमण करने जाते समय जालोर के राजा कान्हड़देव से जालोर राज्य में से होकर जाने की अनुमति मांगी थी किंतु राजा कान्हड़देव ने अल्लाउद्दीन खिलजी की सेना को अपने राज्य से निकलने देने से मना कर दिया था। इस पर अल्लाउद्दीन खिलजी की सेना सिंध एवं जैसलमेर होकर गुजरात पहुंची थी।
जब उलूग खाँ को अन्हिलवाड़ा, सोमनाथ तथा खंभात की लूट से अपार सम्पत्ति प्राप्त हुई तो उसका उत्साह बढ़ गया। उसने गुजरात से दिल्ली लौटते हुए जालोर के राजा कान्हड़देव को दण्डित करने का निर्णय लिया। हर स्थान पर प्राप्त हुई विजयों के बाद उलूग खाँ का सिर घमण्ड से इतना घूम गया था कि उसने कान्हड़देव की कुछ भी चिंता किए बिना अपनी सेना को जालोर राज्य में घुसने का निर्देश दिया।
जब राजा कान्हड़देव को उलूग खाँ के इस दुस्साहस की जानकारी हुई तो उसने उलूग खाँ को दण्डित करने का निर्णय लिया। राजा कान्हड़देव के भाग्य से इस समय मुस्लिम सेना लूट के हिस्से को लेकर असंतोष से उबल रही थी और लगभग विद्रोह पर उतरी हुई थी।
पाठकों को स्मरण होगा कि पूर्ववर्ती सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी ने कई हजार मंगोलों को मुसलमान बनाकर दिल्ली के निकट बसाया था, इन्हें नव-मुस्लिम कहा जाता था। गुजरात के अभियान पर नव-मुस्लिमों को भी भेजा गया था। गुजरात की लूट से मिला धन इन मंगोल सैनिकों के सरंक्षण में था और तुर्की सैनिक इस धन को अपने संरक्षण में लेने के लिए नव-मुस्लिमों पर दबाव बना रहे थे।
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नव-मुस्लिमों अर्थात् मंगोल सैनिकों ने लूट का धन तुर्की सेनापतियों को देने से मना कर दिया। इस पर तुर्की सैनिकों द्वारा लूट के माल की पूछताछ के लिये मंगोल सैनिकों के मुखिया को लातों, घूसों और अन्य अपमानजनक तरीकों से पीटा गया। इस कारण मंगोल सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। मंगोल सैनिक वंश-परम्परा तथा धार्मिक परम्परा दोनों से ही दिल्ली सल्तनत से बंधे हुए नहीं थे। एक ओर तो वे अपनी इच्छा के मालिक थे तो दूसरी ओर दिल्ली सल्तनत के सेनापति भी उन्हें वह सम्मान भी नहीं देते थे जो तुर्की मुसलमानों एवं पठानों को प्राप्त था।
जियाउद्दीन बरनी द्वारा लिखित ‘तारीखे फीरोजशाही’ में नव-मुस्लिमों द्वारा किए गए विद्रोह का विस्तार से वर्णन किया गया है किन्तु समकालीन लेखक अमीर खुसरो इस विद्रोह के बारे में कुछ भी नहीं लिखता क्योंकि यह विद्रोह न तो सुल्तान के लिये और न उलूग खाँ तथा नुसरत खाँ के लिये कोई गर्व की बात थी।
मूथा नैणसी ने लिखा है कि जब मुस्लिम सेना जालोर से नौ कोस दूर संकराना गांव में पहुंची तो राजा कान्हड़देव ने कांधल आलेचा सहित चार राजपूतों को उलूग खाँ के शिविर में भेजा। पद्मनाभ ने अपने ग्रंथ ‘कान्हड़दे प्रबंध’ में मुस्लिम शिविर में जाने वाले प्रमुख दूत का नाम जैता देवड़ा तथा शिविर स्थल का नाम सराणा लिखा है। वस्तुतः यह घटना सराणा गांव की है न कि संकराणा की।
राजा के दूतों को सेनापति के तम्बू में ले जाया गया। राजा के दूतों ने उलूग खाँ से कहा- ‘हमारे राजा ने तुम्हारे सुल्तान से कहलवाया है कि तुमने गुजरात में अनेक हिन्दुओं को मार दिया है और सोमैया महादेव (सेामनाथ) को बांध लिया है। इस पर भी तुम मेरे किले के निकट आकर ठहरे हो, यह तुमने अच्छा नहीं किया। क्या तुमने मुझे राजपूत ही नहीं समझा?’
इस पर सेनापति ने जवाब दिया- ‘सुल्तान ने तेरे राजा का बिगाड़ा तो कुछ भी नहीं है, सुल्तान अत्यंत श्रेष्ठ हैं तथा कुछ भी कर सकते हैं। फिर तेरा राजा क्यों बादशाह से ऐसी बात कहलवाता है?’
इस पर दूतों ने कहा- ‘यह तो कान्हड़देवजी ही जानें। तुम तो अपने सुल्तान से जाकर वही कहो जो हमारे राजा ने कहा है।’
इस वार्त्तालाप से स्पष्ट है कि मूथा नैणसी के अनुसार अल्लाउद्दीन खिलजी भी इस शिविर में उपस्थित था। जबकि यह बात इतिहास सम्मत नहीं है। अल्लाउद्दीन खिलजी इस अभियान में साथ नहीं था, अल्लाउद्दीन का भाई उलूग खाँ और अल्लाउद्दीन का भांजा नुसरत खाँ ही इस अभियान का नेतृत्व कर रहे थे।
मूथा नैणसी ने यह भी लिखा है कि कांधल को इस दौरान मुस्लिम सेना के शिविर का अध्ययन करने का अवसर मिल गया। उसने एक गाड़ी में लदे हुए सोमनाथ के शिवलिंग के भी दर्शन किए। जब कांधल शिविर से बाहर निकला तो नव-मुस्लिमों के असंतुष्ट नेता उमराव मुहम्मद तथा मीर कामरू ने कांधल तथा उसके साथियों से भेंट की तथा उन्हें बताया कि शाही सेना में उनके साथ बहुत बुरा बर्ताव किया जा रहा है। अतः यदि राजा कान्हड़देव की सेना शाही सेना पर आक्रमण करेगी तो नव-मुस्लिम भी राजपूतों का साथ देंगे।
इस पर दोनों पक्षों में समझौता हो गया तथा अगली रात को मध्यरात्रि में शाही शिविर पर हमला करने का निर्णय हुआ। इस समझौते के अनुसार राजपूतों की सेना ने मध्यरात्रि में शाही शिविर पर हमला किया तथा मंगोलों ने भी उमराव मुहम्मद तथा मीर कामरू के नेतृत्व में दूसरी तरफ से शाही शिविर पर हमला किया।
‘कान्हड़दे प्रबंध’ में लिखा है कि दो दिन बाद ही जैता देवड़ा के नेतृत्व में राजपूतों ने मुस्लिम सेना पर आक्रमण किया। नुसरत खाँ का भाई मलिक अजिउद्दीन तथा अल्लाउद्दीन का भतीजा इस युद्ध में मारे गये। उलूग खाँ किसी तरह से बचकर दिल्ली भाग गया।
कान्हड़देव के सैनिकों को भागती हुई मुस्लिम सेना से संभवतः गुजरात की लूट से प्राप्त धन भी हाथ किन्तु उनकी दृष्टि में इस धन का कोई महत्त्व नहीं था। उनकी दृष्टि में गुजरात से बंधक बनाकर दिल्ली ले जाये जा रहे हजारों हिन्दू स्त्री-पुरूषों तथा सोमनाथ शिवलिंग को शत्रु के हाथों में मुक्त करा पाना ही सबसे बड़ी उपलब्धि थी।
‘कान्हड़दे प्रबंध’, ‘रणमल छन्द’ तथा ‘मूथा नैणसी री ख्यात’ में सोमनाथ शिवलिंग को राजा कान्हड़देव द्वारा पुनः प्राप्त किया जाना बताया गया है। अमीर खुसरो की ‘खजायनुल फुतूह’, जियाउद्दीन बरनी की ‘तारीखे फीरोजशाही’ तथा जिनप्रभ सूरी की ‘विविध तीर्थ कल्प’ में लिखा है कि मुस्लिम सेना द्वारा शिवलिंग दिल्ली ले जाया गया।
मूथा नैणसी लिखता है कि बादशाही सेना का नाश करके कान्हड़देव सोमनाथ के निकट पहुंचा। उसने महादेव की पिंडी को हाथ डालकर उठाया तो वह तुरन्त उठ गया। अतः शिवलिंग को संकराणा गांव में स्थापित कर दिया तथा वहाँ एक मंदिर बनवाया।
संकरणा गांव में यह मान्यता है कि दिल्ली के सैनिक सोमनाथ के शिवलिंग का एक टुकड़ा हाथी के पांव में बांधकर उसे घसीटते हुए दिल्ली ले जा रहे थे किंतु संकराणा गांव में राजपूतों ने शिवलिंग के टुकड़े को खोलकर एक कुएं में डाल दिया तथा जब शाही सेना वहाँ से चली गई तब शिवलिंग के उस टुकड़े को गांव के ही एक मंदिर में स्थापित कर दिया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता