काजी अलाउलमुल्क के परामर्श से सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी ने अपने जीवन के दो लक्ष्य निर्धारित किए जिनमें से पहला था पूरे भारत पर अधिकार करना तथा दूसरा था मंगोलों से अपने राज्य की रक्षा करना। अल्लाउद्दीन खिलजी ने सबसे पहले उत्तरी भारत में विजय अभियान चलाने का निर्णय लिया। अभी वह अभियान की तैयारी कर रहा था कि भारत पर मंगोलों के आक्रमणों की झड़ी लग गई।
मंगोल जाति अत्यंत प्राचीन काल में चीन में अर्गुन नदी के पूर्व के इलाकों में रहा करती थी, बाद में वह बाह्य खंगिन पर्वत शृंखला और अल्ताई पर्वत शृंखला के बीच स्थित मंगोलिया पठार के आर-पार फैल गई। युद्धप्रिय मंगोल जाति खानाबदोशों का जीवन व्यतीत करती थी और शिकार, तीरंदाजी एवं घुड़सवारी करने में बहुत कुशल थी।
बारहवीं शताब्दी ईस्वी के मध्य में, मध्य-एशिया में मंगोलों की आंधी उठी। हिंसक मंगोल लुटेरे टिड्डी दलों की तरह मध्य-एशिया से निकल कर चारों दिशाओं में स्थित दुनिया को बर्बाद कर देने के लिए बेताब हो रहे थे। यही कारण था कि सम्पूर्ण मुस्लिम जगत् एवं सम्पूर्ण ईसाई जगत् इस आंधी की भयावहता को देखकर थर्रा उठे। मंगोल सेनाएं जिस दिशा में मुड़ जाती थीं, उस दिशा में बर्बादी की निशानियों के अलावा और कुछ नहीं बचता था।
इस काल में भारत तथा दक्षिण-पूर्वी एशिया के बहुत से हिन्दू राज्य, मध्यएशिया से आए मुस्लिम तुर्कों के अधीन थे जबकि मंगोल इस्लाम के शत्रु थे। 12वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मंगोलों के मुखिया ‘तेमूचीन’ ने बड़ी संख्या में बिखरे हुए मंगोल-कबीलों को एकत्र किया और स्वयं उनका नेता बन गया। वह इतिहास में चंगेज खान के नाम से जाना गया। ई.1221 में चंगेज खाँ ने भारत पर पहला आक्रमण किया। दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश ने उसे उपहार आदि भेजकर संतुष्ट किया। ई.1227 में जब चंगेज खाँ मरा तब वह संसार के सबसे बड़े साम्राज्य का स्वामी था।
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तब से लेकर अल्लाउद्दीन के सुल्तान बनने तक मंगोल भारत पर कई आक्रमण कर चुके थे किंतु दिल्ली के तुर्क सुल्तान उन्हें भारत में पांव नहीं जमाने देते थे। ई.1296 में अल्लाउद्दीन खिलजी को सुल्तान बने हुए कुछ ही महीने हुए थे कि मंगोलों ने कादर खाँ के नेतृत्व में भारत पर आक्रमण किया। वे पंजाब तक घुस आए। अल्लाउद्दीन खिलजी को मंगोलों से लड़ने का कोई अनुभव नहीं था। इसलिए उसने स्वयं युद्ध के मैदान में जाने की बजाय अपने मित्र तथा मंत्री जफर खाँ को मंगोलों से लड़ने भेजा। जफर खाँ ने मंगेालों को जालंधर के निकट परास्त किया तथा उनका भीषण संहार किया।
कादर खाँ को गए कुछ ही महीने हुए थे कि ई.1297 में अल्लाउद्दीन को समाचार मिला कि ट्रांसआक्सियाना का मंगोल शासक दाऊद खाँ एक लाख मंगोल सैनिकों को लेकर मुल्तान, पंजाब और सिंध जीतने के निश्चय से भारत आ रहा है। इस बार अल्लाउद्दीन ने अपने भाई उलूग खाँ को दाऊद पर आक्रमण करने के लिए भेजा। उलूग खाँ ने दाऊद खाँ को बुरी तरह पराजित किया तथा उसे सिंधु नदी के दूसरी ओर धकेल दिया। इस युद्ध में अल्लाउद्दीन खिलजी की सेना को भी बहुत नुक्सान उठाना पड़ा।
दाऊद खाँ को भारत से गए कुछ ही महीने हुए थे कि ई.1297 में मंगोलों ने देवा तथा साल्दी के नेतृत्व में पुनः भारत पर आक्रमण किया। उनका ध्येय पंजाब, मुल्तान तथा सिन्ध को जीत कर अपने राज्य में मिलाना था। इस बार मंगोल दिल्ली तक चले आए। उन्होंने नवनिर्मित सीरी के दुर्ग पर अधिकार कर लिया।
अल्लाउद्दीन ने अपने दो सेनापतियों उलूग खाँ तथा जफर खाँ को मंगोलों का सामना करने के लिए भेजा। उन्होंने सीरी का दुर्ग मंगालों से पुनः छीन लिया तथा साल्दी को 2000 मंगोलों सहित बंदी बना लिया। इस विजय के बाद अल्लाउद्दीन तथा उसके भाई उलूग खाँ को जफर खाँ से ईर्ष्या उत्पन्न हो गई क्योंकि मंगोलों पर लगातार दो विजयों से सेना में जफर खाँ की लोकप्रियता बहुत बढ़ गई थी।
मंगोलों का सबसे अधिक भयानक आक्रमण ई.1299 में दाऊद के पुत्र कुतुलुग ख्वाजा के नेतृत्व में हुआ। उसने दो लाख मंगोलों के साथ बड़े वेग से आक्रमण किया। उसकी सेना तेजी से बढ़ती हुई दिल्ली के निकट पहुँच गई। उसका निश्चय दिल्ली पर अधिकार करने का था। इस बीच मंगोलों के भय से हजारों लोग दिल्ली में आकर शरण ले चुके थे। इससे दिल्ली में अव्यवस्था फैल गई। मंगोलों द्वारा दिल्ली की घेराबंदी कर लिए जाने के बाद तो स्थिति और भी खराब हो गई।
इस पर भी अल्लाउद्दीन ने साहस नहीं छोड़ा। जफर खाँ को मंगोलों से लड़ने का अनुभव था इसलिए उसे अग्रिम पंक्ति में रखकर शाही सेना ने मंगोलों का सामना किया। जफर खाँ तथा उसकी सेना ने हजारों मंगोलों का वध किया तथा वे लोग मंगोलों को काटते हुए काफी आगे निकल गए। मंगोलों ने घात लगाकर जफर खाँ को मार डाला। उस समय अल्लाउद्दीन तथा उसका भाई उलूग खाँ पास में ही युद्ध कर रहे थे किंतु उन्होंने जफर खाँ को बचाने का कोई प्रयास नहीं किया। रात होने पर मंगोल अंधेरे का लाभ उठाकर भाग गए।
सुप्रसिद्ध इतिहासकार किशोरी शरण लाल के अनुसार इस युद्ध से अल्लाउद्दीन को दोहरा लाभ हुआ। पहला लाभ मंगोलों पर विजय के उपलक्ष्य में और दूसरा लाभ जफर खाँ की मृत्यु के रूप में। जियाउद्दीन बरनी ने लिखा है- ‘मंगोल सैनिकों पर जफर खाँ की वीरता का इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि जब उनके घोड़े पानी नहीं पीते थे तो वे घोड़ों से कहते थे कि क्या तुमने जफर खाँ को देख लिया है जो तुम पानी नहीं पीते?’
ई.1302 में मंगोल सरदार तुर्गी खाँ ने एक लाख बीस हजार सैनिकों के साथ भारत पर आक्रमण किया और दिल्ली के पास यमुना के तट पर आ डटा। कुछ पुस्तकों में उसे तारगी खाँ भी लिखा गया है। इस बार अल्लाउद्दीन के पास जफर खाँ जैसा अनुभवी सेनापति नहीं था। इसलिए अल्लाउद्दीन मंगोलों के भय से दिल्ली छोड़कर भाग गया और राजधानी दिल्ली असुरक्षित हो गई।
मंगोलों ने दिल्ली की गलियों में धावे मारे। वे सुल्तान अल्लाउद्दीन को दिल्ली में ढूंढते रहे किंतु अल्लाउद्दीन उनके हाथ नहीं लगा। अंत में निजामुद्दीन औलिया ने मंगोल सरदार से बात की और मंगोल दिल्ली छोड़कर चले गए। इस प्रकार लगभग तीन महीने तक दिल्ली मंगोलों के अधिकार में रही। इस दौरान शाही रुतबा और इकबाल कहीं भी दिखाई नहीं दिया। दिल्ली सल्तनत के सैनिक मंगोलों के भय से दिल्ली से जा चुके थे और दिल्ली की निरीह जनता मंगोलों की दया पर जीवत थी।
कहा नहीं जा सकता कि इस अभियान में मंगोलों ने दिल्ली से कितना क्या लूटा क्योंकि किसी भी पुस्तक में इसका वर्णन नहीं मिलता किंतु इतना अवश्य है कि मंगोल खाली हाथ नहीं गए होंगे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता