सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी ने तुर्की अमीरों को अपने पक्ष में करने के लिए उन्हें बड़े-बड़े पद दिए। इस कारण कुछ तुर्की अमीर तो सुल्तान को पसंद करने लगे किंतु कई तुर्की अमीरों तथा युवा खिलजियों ने 70 साल के बूढ़े जलालुद्दीन को पसंद नहीं किया और वे बगावत की योजना बनाने लगे।
सबसे पहले बलबन के भतीजे मलिक छज्जू ने बगावत का झण्डा बुलंद किया जिसे कड़ा-मानिकपुर का गवर्नर बनाया गया था। हजारों हिन्दू सैनिक, रावत एवं पायक भी छज्जू के साथ एकत्रित हो गए। इस पर सुल्तान जलालुद्दीन ने अपनी राजधानी दिल्ली को बड़े पुत्र खानखाना महमूद की सुरक्षा में छोड़ा तथा अपने छोटे पुत्र अर्कली खाँ को साथ लेकर मलिक छज्जू का दमन करने के लिए चला।
जब तक सुल्तान के पुत्र अर्कली खाँ ने सेना के अग्रिम भाग सहित काली नदी पार की तब तक मलिक छज्जू एवं विद्रोही हिन्दुओं की सेना काली नदी के उस पार आकर अपने डेरे गाढ़ चुकी थी। इसलिए मलिक छज्जू ने तुरंत ही विद्रोहियों की सेना पर हमला बोल दिया।
जियाउद्दीन बरनी ने लिखा है कि काली नदी पार करते ही अर्कली खाँ मलिक छज्जू की सेना पर टूट पड़ा तथा एक ही प्रयास में उसने छज्जू को परास्त करके दूर भाग जाने पर विवश कर दिया। जबकि अमीर खुसरो ने लिखा है कि दोनों पक्षों में कई दिनों तक सुबह से शाम तक संघर्ष होता रहा। अंत में मलिक छज्जू की सेना के कई सरदार थककर समर्पण करने को तैयार हो गए। जब मलिक छज्जू को अपने साथियों के इस विचार की जानकारी हुई तो वह रात के अंधेरे में अपना शिविर छोड़कर भाग गया।
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यहिया नामक एक मुस्लिम लेखक ने लिखा है कि रहब नदी के किनारे दोनों पक्षों में कई दिन और कई रात युद्ध हुआ। इसी बीच पीरमदेव कोतला के कुछ साथियों ने मलिक छज्जू के समक्ष उपस्थित होकर उसे बताया कि वह केवल अर्कली खाँ की सेना को ही वास्तविक शत्रु न समझे, सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी स्वयं भी अपनी विशाल सेना लेकर काली नदी के उस पार आ गया है तथा नदी पार करने की तैयारी कर रहा है। यह समाचार सुनकर मलिक छज्जू रात्रि में ही शिविर छोड़कर भाग गया। अगले दिन पीरमदेव कोतला तथा उसके साथी हिन्दू रावतों एवं पायकों ने मोर्चा संभाला।
इस समय तक अर्कली खाँ की सेना काफी बड़ी हो चुकी थी और उसने पीरमदेव कोतला को युद्ध के मैदान में ही मार डाला। इसके बाद अर्कली खाँ ने अपनी सेना को आदेश दिया कि वह भगोड़े छज्जू का पीछा करे। मलिक छज्जू ने पास के एक ‘मवास’ में शरण लेने का विचार किया किंतु वहाँ के मुकद्दम ने मलिक छज्जू को पकड़कर सुल्तान जलालुद्दीन के पास भेज दिया। इस पर भी अर्कली खाँ अपने काम में लगा रहा तथा उसकी सेना ने मलिक छज्जू के सैंकड़ों साथियों को आसपास के जंगलों से पकड़ लिया।
मलिक छज्जू तथा उसके साथियों को रस्सियों से बांधकर सुल्तान जलालुद्दीन के समक्ष उपस्थित किया गया। एक उच्च वंशी तुर्क को रस्सियों में बंधे हुए देखकर सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी की आँखों में दुःख के आंसू उमड़ आए। सुल्तान ने विद्रोही मलिक छज्जू तथा उसके साथियों को बन्धन-मुक्त करके उनके वस्त्र बदलवाए तथा उन्हें मदिरा-पान करवाया और उनके स्वागत-सम्मान में सुंदर स्त्रियों के नृत्य का आयोजन करवाया। सुल्तान ने मलिक छज्जू के साथियों की इस बात के लिए प्रशंसा की वे अपने पुराने स्वामियों के वंशजों के प्रति निष्ठावान थे।
सुल्तान ने छज्जू एवं उसके साथियों को भविष्य में विद्रोह न करने का उपदेश देकर उन्हें क्षमा कर दिया तथा उन्हें कोई सजा नहीं दी। सुल्तान के इस व्यवहार से मलिक छज्जू तथा उसके साथी तो बहुत प्रसन्न हुए किंतु तुर्की एवं अफगानी अमीरों के क्रोध का पार न रहा। उन्होंने अपने प्राणों पर खेलकर विद्रोहियों को पकड़ा था।
सुल्तान का रिश्तेदार मलिक अहमद चप एक नौजवान अमीर था जिसे सुल्तान ने अमीरे हाजिब के पद नियुक्त किया था। वह सुल्तान की इस मूर्खता को सहन नहीं कर सका और उसने भरे दरबार में सुल्तान की भर्त्सना करते हुए कहा कि ऐसे कामों से विद्रोहियों को प्रोत्साहन मिलता है। इस पर सुल्तान ने कहा कि मैं क्षण-भंगुर राज्य के लिए एक भी मुसलमान का कत्ल करना पसंद नहीं करता।
एक ओर तो सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी ने मलिक छज्जू के साथ अतिथियों जैसा व्यवहार किया किंतु दूसरी ओर उसके हिन्दू साथियों को हाथियों के पैरों तले कुचलवा कर मरवा दिया। जलालुद्दीन खिलजी ने आसपास के मैदानों को कटवाकर साफ कर दिया ताकि विद्रोही हिन्दुओं को पकड़कर मारा जा सके। जिन हिन्दू राजाओं ने अब तक कर नहीं दिया था, उन्हें भी पकड़कर बुलाया गया तथा कठोर दण्ड दिया गया।
सुल्तान ने अपने पुत्र अर्कली खाँ को मुल्तान का गवर्नर नियुक्त किया तथा अपने भतीजे अल्लाउद्दीन खिलजी को कड़ा-मानिकपुर का गवर्नर बना दिया जो कि सुल्तान का दामाद भी था। सुल्तान के निर्देश पर मलिक छज्जू को नजरबन्द करके शाही सुख-सुविधाओं के बीच दिल्ली में ही रखा गया और उस पर कड़ा पहरा बैठा दिया गया जबकि अन्य प्रमुख मुस्लिम विद्रोहियों को दिल्ली से बाहर स्थानांतरित कर दिया गया।
बलबन अपने विरोधियों को एक जैसी सजा देता था चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान जबकि सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी ने सल्तनत की नीति में बड़ा परिवर्तन करते हुए मुसलमानों के साथ उदारता एवं हिन्दुओं के साथ कठोरता की नीति अपनाई। संभवतः इस नीति के पीछे जलालुद्दीन खिलजी का यह चिंतन काम कर रहा था कि भविष्य में हिन्दू तथा मुसलमान मिलकर बगावत नहीं कर सकें।
एक ओर तो जलालुद्दीन खिलजी इस नीति पर चल रहा था कि वह हिन्दुओं और मुसलमानों को एकत्रित हाने से रोक सके तथा दूसरी ओर वह इस नीति को अपना रहा था कि किसी भी हालत में सुल्तान का तुर्की अमीरों से सीधा टकराव न हो जाए।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता