दिल्ली सल्तनत के तुर्की अमीरों ने जलालुद्दीन खिलजी को मारने का षड़यंत्र इसलिए रचा था क्योंकि तुर्की अमीरों की दृष्टि में जलालुद्दीन खिलजी ‘तुर्क’ नहीं था। मुस्लिम इतिहासकारों निजामुद्दीन अहमद, बदायूंनी तथा फरिश्ता ने खिलजियों के वंश की उत्पत्ति के बारे में अलग-अलग बातें लिखी हैं।
‘तारीखे फखरुद्दीन मुबारकशाही’ के लेखक फखरुद्दीन ने 64 तुर्की कबीलों की एक सूची दी है जिसमें खिलजी कबीला भी सम्मिलित है। विन्सेट स्मिथ के विचार में खिलजी लोग अफगान अथवा पठान थे परन्तु यह धारणा सर्वथा अमान्य हो गई है। सर हेग के विचार में खिलजी मूलतः तुर्क थे परन्तु बहुत दिनों से अफगानिस्तान के गर्मसीर प्रदेश में रहने के कारण उन्होंने अफगानी रीति-रिवाज ग्रहण कर लिए थे। इस कारण दिल्ली के तुर्क खिलजियों को तुर्क नहीं मानते थे।
‘हिस्ट्री ऑफ खिलजीज’ के लेखक डॉ. किशोरी शरण लाल ने इस्लामी इतिहासकारों की बातों का निष्कर्ष निकालते हुए यह मत प्रस्तुत किया है कि खिलजी भी तुर्की थे जो 10वीं शताब्दी ईस्वी के पहले, तुर्किस्तान से आकर अफगानिस्तान के खल्ज प्रदेश में बस गए थे। उन्होंने अफगानी रीति रिवाजों को अपना लिया था।
उपरोक्त तथ्यों को देखते हुए यही मानना उचित प्रतीत होता है कि खिलजी मूलतः तुर्क थे जो कालान्तर में तुर्किस्तान से चलकर अफगानिस्तान की हेलमन्द घाटी तथा लमगाम प्रदेश के गर्मसीर क्षेत्र में आकर बस गए थे। दो सौ साल तक अफगानिस्तान में रहने के कारण उनका रहन-सहन पठानों जैसा हो गया था। अफगानिस्तान में खल्ज नामक गाँव से वे खिलजी कहलाये। अधिकांश भारतीय इतिहासकारों की भांति लगभग समस्त विदेशी इतिहासकारों ने भी खिलजियों को तुर्क माना है।
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भारत में आने वाले अधिकांश खिलजी या तो तुर्क आक्रांताओं के साथ उनके सैनिकों के रूप में भारत आए थे या फिर मंगोलों के आक्रमण से त्रस्त होकर उन्हें अफगानिस्तान छोड़कर भारत आना पड़ा था और उन्होंने तुर्की अमीरों तथा सुल्तानों की सेवा करना स्वीकार कर लिया था।
भारत में खिलजी राजवंश का संस्थापक जलालुद्दीन खिलजी 70 वर्ष की आयु में ई.1290 में दिल्ली के तख्त पर बैठा। इससे पहले वह अनेक वर्षों तक बलबन तथा कैकुबाद के लिए भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर मंगोलों के विरुद्ध युद्ध करता रहा था।
जलालुद्दीन खिलजी का राजगद्दी संभालना मामलुक राजवंश अर्थात् गुलाम वंश के अंत और अभिजात्य वर्ग के वर्चस्व का द्योतक था। जलालुद्दीन खिलजी कट्टर मुसलमान था जो मुजाहिद-ए-सबीलिल्लाह अर्थात् अल्लाह की राह में संघर्षरत योद्धा के रूप में स्वीकारा जाना चाहता था। जलालुद्दीन खिलजी भारत में इस्लामिक नियम एवं कानून लागू करने में अपनी असमर्थता को लेकर दुःखी रहता था। अपने इस दुःख को व्यक्त करते हुए एक दिन उसने अपने दराबर में कहा था- ‘हम सुल्तान महमूद से अपनी तुलना नहीं कर सकते…… हिन्दू…… हर दिन मेरे महल के नीचे से गुजरते हैं, अपने ढोल और तुरही बजाते हुए और यमुना नदी में जाकर मूर्ति पूजा करते हैं।’
जलालुद्दीन खिलजी का वास्तविक नाम मलिक फीरोज खिलजी था। वह ‘खिलजी’ कबीले का तुर्क था। अपनी युवावस्था में जलालुद्दीन अपने कुटुम्ब सहित भारत चला आया और दिल्ली के सुल्तानों के यहाँ नौकरी करने लगा। जलालुद्दीन ने सर्वप्रथम नासिरूद्दीन महमूदशाह अथवा बलबन के शासन काल में सेना में प्रवेश किया था।
बलबन के जिन सेनापतियों को सीमा प्रदेश की रक्षा के लिए नियुक्त किया गया था उनमें से जलालुद्दीन खिलजी भी एक था। कैकुबाद के शासनकाल में जलालुद्दीन शाही अंगरक्षकों के अध्यक्ष के उच्च पद पर पहुँच गया। बाद में वह समाना का गवर्नर नियुक्त कर दिया गया। वह योग्य सेनापति था। सीमान्त प्रदेश में कई बार उसने मंगोलों के विरुद्ध युद्ध में सफलता प्राप्त की। इस प्रकार उसने सैनिक तथा शासक दोनों रूपों में ख्याति प्राप्त कर ली थी। इसलिए सुल्तान कैकुबाद ने उसे शाइस्ता खाँ की उपाधि दी।
जब सेना के अमीर मलिक तुजाकी की मृत्यु हो गई तो कैकुबाद ने जलालुद्दीन खिलजी को सेना-मंत्री के उच्च पद पर नियुक्त कर दिया। दिल्ली दरबार में मंत्री होने के साथ-साथ वह समस्त भारत में बिखरे हुए विशाल खिलजी कबीले का प्रमुख भी था। इस कबीले के लोग इख्तियारुद्दीन-बिन-बख्तियार खिलजी के समय बंगाल में शासन कर चुके थे।
जब सुल्तान कैकुबाद को लकवा हो गया तब तुर्की अमीरों ने जलालुद्दीन खिलजी की हत्या करने का षड़यंत्र रचा। इस पर जलालुद्दीन खिजली दिल्ली में घुसकर शिशु सुल्तान क्यूमर्स को उठा ले गया। जब तुर्की अमीरों ने उसका पीछा किया तो खिलजियों ने तुर्की अमीरों को मार डाला।
कुछ दिनों बाद जब खिलजियों ने कैकुबाद के महल में घुसकर उसे लातों से मार डाला तब जलालुद्दीन खिजली, शिशु सुल्तान क्यूमर्स को पुनः दिल्ली ले आया तथा उसका संरक्षक बनकर शासन करने लगा। कुछ ही दिनों बाद जलालुद्दीन ने शिशु सुल्तान क्यूमर्स को कारागार में डाल दिया तथा स्वयं दिल्ली का स्वतंत्र सुल्तान बन गया।
जलालुद्दीन का यह कार्य ठीक वैसा ही था जैसा बगदाद के तुर्की गुलामों ने अपने स्वामियों अर्थात् बगदाद के खलीफाओं के साथ किया था, जैसा गजनी की तुर्की अमीरों ने अपने स्वामियों अर्थात् मुहम्मद गौरी के पुत्रों के साथ किया था, जैसा दिल्ली के तुर्की अमीरों ने अपने स्वामियों अर्थात् रजिया सुल्तान और बहरामशाह के साथ किया था। तुर्की कबीलों में सत्ता प्राप्त करने का कोई भी तरीका उचित माना जाता था। नैतिकता और अनैतिकता के प्रश्न उन्हें परेशान नहीं करते थे।
इस तथ्य से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि सत्ता प्राप्त करने के लिए तुर्की अमीर कितने भूखे थे और वे किसी भी शरणदाता, स्वामी एवं संरक्षक से गद्दारी करने में संकोच नहीं करते थे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता