रजिया सुल्तान ने मुस्लिम अमीरों को अपने लिए खतरा मानकर उनके विरुद्ध कठोर दृष्टिकोण अपनाया था जबकि उसने कुछ प्रबल हिन्दू राज्यों की पुनर्स्थापना के उद्देश्य से रणथंभौर तथा ग्वालियर के दुर्ग फिर से चौहानों एवं प्रतिहारों को लौटा दिए थे।
रजिया ने हिन्दुओं के प्रति जो मुलायम रवैया अपनाया था, ठीक वही रवैया उसने मंगोलों के मामले में भी अपनाया। पाठकों को स्मरण होगा कि जब चंगेज खाँ भारत पर चढ़कर आया था, तब दिल्ली सल्तनत पर इल्तुतमिश का अधिकार था। उसने चंगेज खाँ से उलझने की बजाय उसे उपहार आदि भेजकर संतुष्ट करने का प्रयास किया था। इस कारण चंगेज खाँ बहुत सीमित क्षेत्र में लूटपाट मचाकर भारत से वापस लौट गया था।
रजिया के समय दिल्ली सल्तनत की पश्चिमी सीमा पर जलालुद्दीन मंगबरनी के प्रतिनिधि हसन करलुग का अधिकार था। जब मंगोलों ने भारत पर आक्रमण किया तब उसने मंगोलों के विरुद्ध रजिया से सहायता की अपील की किंतु रजिया ने भी अपने पिता इल्तुतमिश की नीति पर चलने का निर्णय लिया तथा मंगोलों के विरुद्ध कार्यवाही करने से इन्कार कर दिया। इस पर कुछ अमीरों ने रजिया के विरुद्ध विष-वमन करना आरम्भ कर दिया।
मंगोलों के प्रति रजिया की इस नीति का एक कारण और भी था, जब पंजाब के गर्वनर कबीर खाँ अयाज ने रजिया सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह का झण्डा खड़ा किया था, तब वह रजिया की सेना से परास्त होकर पीछे की ओर अर्थात् चिनाब नदी की ओर भागा था। उस समय चिनाब नदी पर मंगोलों का सैन्य शिविर लगा हुआ था जो पंजाब में लूट-मार मचाते घूम रहे थे। मंगोलों से डरकर कबीर खाँ को रजिया की तरफ आना पड़ा था तथा बिना शर्त रजिया के पैरों में गिरकर माफी मांगनी पड़ी थी। इसलिए रजिया समझ गई थी कि तुर्की अमीरों की शक्ति का सामना करने के लिए यह आवश्यक है कि देश के भीतर हिन्दू शक्ति तथा देश की सीमा पर मंगोल शक्ति बनी रहे किंतु तुर्की अमीर रजिया की इस चाल को समझ नहीं पा रहे थे और वे इसे रजिया की स्वतंत्र मनोवृत्ति मात्र मान रहे थे।
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इन घमण्डी तुर्की अमीरों की दृष्टि में रजिया अब भी एक औरत मात्र थी जिसे भोगा ही जा सकता था, उसका शासन किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं किया जा सकता था। रजिया दिल्ली की जनता के सहयोग से सुल्तान बनी थी जिसमें अमीरों की भूमिका बहुत कम थी। इसलिये वे रजिया के स्थान पर ऐसे व्यक्ति को सुल्तान बनाना चाहते थे जो तुर्की अमीरों विशेषकर चालीसा मण्डल के अमीरों के प्रति कृतज्ञ रहे तथा उनके हाथों की कठपुतली बनकर रहे।
जब रजिया ने एक भारतीय मुसलमान को अपने दरबार में उच्च पद दिया तो तुर्की अमीर रजिया के दुश्मन हो गए। वे भारतीय मुसलमानों को अपने से बहुत नीचा समझते थे और एक भारतीय मुसलमान के नीचे तुर्की अमीरों को रखा जाए, यह किसी भी स्थिति में सह्य नहीं था। इसलिए फिर से दिल्ली एवं दिल्ली के बाहर विद्रोह के झण्डे बुलंद हो गए।
एक नासमझ लड़की की ऐसी हरकतें देखकर तुर्की अमीरों एवं गवर्नरों में रजिया के प्रति घृणा अपने चरम पर पहुंच गई। इसी भावना के वशीभूत होकर भटिण्डा के गर्वनर मलिक इख्तियारुद्दीन अल्तूनिया ने विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया। रजिया विद्रोहियों को दबाने के लिए एक विशाल सेना लेकर दिल्ली से भटिण्डा की ओर बढ़ी। जब वह भटिण्डा पहुंची तब उसे तुर्की अमीरों ने अपने जाल में फांस लिया।
भटिण्डा के गर्वनर मलिक इख्तियारुद्दीन अल्तूनिया और रजिया की परवरिश, सुल्तान कुतुबुद्दीन के महलों में साथ-साथ हुई थी और दोनों बचपन के मित्र थे। जब अल्तूनिया ने युवावस्था में प्रवेश किया तो वह रजिया के प्रति अनुरक्त हो गया। उसने कई बार रजिया के समक्ष अपने प्रेम का प्रदर्शन किया किंतु रजिया ने हर बार हँसकर टाल दिया था। जब रजिया सुल्तान बन गई तो अल्तूनिया की चाहत और अधिक बढ़ गई। वह रजिया से निकाह करके न केवल अपने पुराने प्रेम को पाना चाहता था, अपितु इस वैवाहिक सम्बन्ध के माध्यम से सल्तनत पर कब्जा करने का स्वप्न भी देखा करता था।
तत्कालीन इतिहासकारों ने ऐसे संकेत दिए हैं कि रजिया सुल्तान, भले ही अल्तूनिया के प्रस्तावों को टाल रही थी किंतु उसने अल्तूनिया के विरुद्ध कोई सख्ती नहीं दिखाई थी। इस कारण अल्तूनिया की उम्मीदें जीवित बनी रहीं किंतु जब उसने सुना कि रजिया अपने हब्शी गुलाम याकूत के प्रेम में खोई हुई है तो अल्तूनिया का हृदय भंग हो गया। थोड़े ही दिनों में उसकी निराशा बदले की आग में बदल गई और उसने विद्रोह का झण्डा बुलंद कर दिया।
इस समय उत्तर भारत भयानक गर्मी से उबल रहा था तथा इसके साथ ही रमजान का महीना होने से मुस्लिम सैनिकों के रोजे चल रहे थे किंतु रजिया ने अल्तूनिया तथा विद्रोही अमीरों के विरुद्ध तुरंत कार्यवाही करने का निर्णय लिया और वह विशाल सेना लेकर भटिण्डा की ओर बढ़ गई। जब वह भटिण्डा पहुंची, तब दूसरे सूबों के प्रांतपति भी अपनी सेनाएं लेकर अल्तूनिया की सहायता के लिये आ गये।
अल्तूनिया ने बड़ी चतुराई से अपने कुछ लोगों को रजिया सुल्तान के दल में शामिल कर दिया और जब रजिया भटिण्डा पहुंची, तब पूर्व में निर्धारित योजना के अनुसार उन लोगों ने याकूत से गाली-गलौच करके उसे झगड़ा करने के लिये उकसाया। जब याकूत ने इन लोगों का विरोध किया तो उन लोगों ने याकूत को घेर कर वहीं मार डाला।
याकूत की मृत्यु से अपने ही सैन्य शिविर में रजिया की स्थिति कमजोर हो गई। अब उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि कौन उसका अपना था और कौन भेड़ की खाल में छिपा हुआ भेड़िया था किंतु रजिया ने हिम्मत से काम लिया तथा स्वयं तलवार लेकर शत्रुओं का सामना करने को उद्धत हुई किंतु धोखे, फरेब और जालसाजी के उस युग में रजिया का कोई सच्चा सहायक नहीं था। याकूत मारा जा चुका था तथा पुराना प्रेमी मलिक इख्तियारुद्दीन अल्तूनिया बागी हो गया था। इसलिये अप्रेल 1240 में रजिया बंदी बना ली गई।
इस प्रकार अपनी शक्ति और बुद्धि का अहंकार रखने वाले तुर्की अमीरों ने एक लड़की को छल से बंदी बनाया। वे युद्ध के मैदान में रजिया का सामना करने की स्थिति में नहीं थे। सूबेदारों की संयुक्त सेनाओं द्वारा रजिया बंदी बनाई जाकर अल्तूनिया को समर्पित कर दी गई।
विद्रोहियों ने इल्तुतमिश के छोटे पुत्र बहरामशाह को तख्त पर बैठा दिया। मिनहाज उस् सिराज के अनुसार रजिया ने 3 वर्ष, 6 माह, 6 दिन राज्य किया। जब रजिया बंदियों की तरह अल्तूनिया के समक्ष लाई गई तो अल्तूनिया ने उससे कहा कि यदि रजिया अल्तूतिनया से विवाह कर ले तो रजिया को कैद में नहीं रहना पड़ेगा। रजिया ने अब भी अपना साहस नहीं खोया था, इसलिए उसने अल्तूनिया का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया।
अल्तूनिया ने रजिया को भटिण्डा के किला मुबारक में बंद कर दिया। रजिया को अपना भविष्य अंधकार में दिखाई देने लगा किंतु कुछ समय बाद उसने एक बार फिर भाग्य आजमाने का फैसला किया। अल्तूनिया अब भी रजिया के साथ कठोर व्यवहार नहीं कर रहा था। रजिया हर शुक्रवार को राजसी ठाठ-बाट के साथ हाजी रतन मस्जिद में जाकर नमाज पढ़ती तथा अल्तूनिया प्रतिदिन रजिया से मिलने आता। रजिया ने उसकी आँखों में अपने लिये वही पहले जैसा प्यार देखा।
रजिया ने अल्तूनिया पर अपने रूप के जादू का प्रयोग करने का निश्चय किया। रजिया ने अल्तूनिया के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा। अल्तूनिया इस प्रस्ताव से सहमत हो गया और अगस्त 1240 में उसने रजिया को कारागार से मुक्त करके उसके साथ निकाह कर लिया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता