तेरहवीं सदी के बेरहम तुर्की भारत में रजिया सुल्तान किसी आश्चर्य से कम नहीं थी। उस युग में कोई स्त्री शायद ही सुल्तान होने जैसा दुस्साहस भरा जोखिम उठा सकती थी। उस काल में किसी मुस्लिम स्त्री के लिए बुरके से बाहर आना ही संभव नहीं था, मर्दों के कपड़े पहनकर तलवार घुमाना तो बहुत दूर की बात थी। स्त्रियोचित स्वभाव के विपरीत, रजिया युद्ध-प्रिय थी तथा उसे अपने पिता के समय से ही शासन चलाने का अच्छा अनुभव था। सम्भवतः पिता की अंतिम इच्छा के कारण ही वह सुल्तान बने रहने की भावना से परिपूर्ण थी।
रजिया ने अपने नाना तथा पिता के राजदरबार में उपस्थित रहने के दौरान यह अच्छी तरह समझ लिया था कि सुल्तान को किस तरह दिखना चाहिये, किस तरह उठना-बैठना और चलना चाहिये तथा किस तरह अमीरों, वजीरों और जनसामान्य के साथ व्यवहार करना चाहिये। वह राजत्व के इस सिद्धांत को भी समझती थी कि सुल्तान को धीर-गंभीर एवं आदेशात्मक जीवन शैली का निर्वहन करते हुए भी प्रसन्नचित्त, उदार तथा दयालु होना चाहिये।
रजिया में यह भावना भी कूट-कूट कर भरी हुई थी कि आदेश की अवहेलना करने वालों से इतनी सख्ती से निबटना चाहिये कि वह दूसरों के लिए एक मिसाल बन जाए। वह अपने अमीरों को यह अनुभव कराने में विश्वास करती थी कि सुल्तान का ओहदा, सल्तनत के दूसरे अमीरों से कितना अधिक ऊपर और कितना अधिक दिव्य है। इस कारण सल्तनत के अमीर सुल्तान के समक्ष जन-सामान्य की ही तरह तुच्छ हैं।
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इन सब कारणों से रजिया ने सुल्तान बनते ही पर्दे का परित्याग कर दिया। वह स्त्रियों के वस्त्र त्यागकर पुरुषों के समान कुबा और कुलाह धारण करके जनता के सामने आने लगी। ‘कुबा’ एक तरह का कोट होता था जिसे सुल्तान धारण किया करते थे तथा ‘कुलाह’ शंकु की तरह दिखने वाली एक टोपी को कहते थे जिसे तुर्की अमीर धारण किया करते थे। रजिया सुल्तानों एवं अमीरों की तरह शिकार खेलने भी जाने लगी।
वह योग्य तथा प्रतिभा-सम्पन्न सुल्तान थी। उसमें अपने विरोधियों का सामना करने तथा अपने साम्राज्य को सुदृढ़़ बनाने की इच्छाशक्ति भी मौजूद थी। मिनहाज उस् सिराज ने रजिया के गुणों की भूरी-भूरी प्रशंसा की है। उसने लिखा है- ‘वह महान शासक, बुद्धिमान, ईमानदार, उदार, शिक्षा की पोषक, न्याय करने वाली, प्रजापालक तथा युद्धप्रिय थी…… उसमें वे सभी गुण थे जो एक राजा में होने चाहिये …… किंतु स्त्री होने के कारण ये सब गुण किस काम के थे?’
मिनहाज ने रजिया के जिन गुणों का उल्लेख किया है, उन गुणों का उल्लेख उस काल के मुल्ला मौलवियों ने किंचित् भी नहीं किया है। यदि यह मान भी लिया जाए कि रजिया में वे सब गुण थे जिनका उल्लेख मिनहाज ने किया है किंतु यह भी देखना होगा कि रजिया को इन गुणों के प्रदर्शन के लिए पर्याप्त समय ही नहीं मिला था। उसका शासन केवल साढ़े तीन साल का रहा था।
चूंकि तुर्की उलेमा और मुल्ला-मौलवी औरत के अधीन रहना मर्दों के लिए अपमान जनक समझते थे, इसलिए दिल्ली के अमीरों एवं प्रांतीय गवर्नरों ने रजिया के विरुद्ध विद्रोह का झण्डा कभी नीचे नहीं किया। ऐसी स्थिति में रजिया को सल्तनत के कार्यों में अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर ही नहीं मिल सका।
रजिया के सुल्तान बनने तक दिल्ली में बहुत से इस्माइलिया मुसलमान बस गये थे जिन्होंने शक्ति प्राप्त करने के लिये रजिया सुल्तान के विरुद्ध षड्यंत्र किया। उनके विद्रोह का दमन कर दिया गया और उनके समस्त प्रयत्न निष्फल कर दिये गये। ये इस्माइलिया मुसलमान शिया सम्प्रदाय को मानने वाले थे तथा एक बार उन्होंने इल्तुतमिश की भी हत्या करने का षड़यंत्र रचा था।
मुस्लिम अमीरों एवं प्रांतीय गवर्नरों द्वारा अपने ही सुल्तान के विरुद्ध किए जा रहे संघर्ष को देखते हुए कुछ हिन्दू राजाओं ने अपने खोए हुए राज्यों को फिर से प्राप्त करने के प्रयत्न आरम्भ कर दिए। इनमें सम्राट पृथ्वीराज चौहान के वंशज सर्वाग्रणी थे जो इस समय रणथंभौर के आसपास बिखरे हुए थे।
दिल्ली के पुराने वजीर कमालुद्दीन जुनैदी का भाई जियाउद्दीन जुनैदी, ग्वालियर का हाकिम था। उसके द्वारा विद्रोह किये जाने की तैयारियां करने की आशंका से ई.1238 में रजिया ने उसे दिल्ली बुलाया। दिल्ली में आने के बाद जुनैदी लापता हो गया। लोगों को यह आशंका होने लगी कि सुल्तान ने विश्वासघात करके उसकी हत्या करवाई है। इससे तुर्की अमीरों में रजिया के विरुद्ध घृणा तथा संदेह का वातावरण बढ़ने लगा। वे रजिया की ओर से शंकित होकर गुप्त रूप से विद्रोह की तैयारियां करने लगे।
ऐसी स्थिति में रजिया को अपने महल के भीतर भी सतर्क होकर रहना पड़ा। रजिया की सेवा में एक अबीसीनियाई हब्शी गुलाम रहता था, जिसका नाम जमालुद्दीन याकूत था। उसने अत्यंत निष्ठा से रजिया की सेवा की थी। इसलिए सुल्तान बनते ही रजिया ने उसे अमीर-ए-आखूर अर्थात् घुड़साल का अध्यक्ष बना दिया।
रजिया को अपने इस गुलाम के ऊपर इतना अधिक विश्वास था कि वह हर समय उसे अपने साथ रखती। जब वह घुड़सवारी करती तो याकूत का घोड़ा, रजिया के ठीक पीछे रहता था। रजिया तथा याकूत के बीच में कोई भी अमीर, सेनापति या मंत्री नहीं चल सकता था। ऐसा लगता था जैसे याकूत रजिया की छाया बन गया था किंतु वास्तविकता यह थी कि याकूत रजिया की छाया का ही नहीं अपितु तलवार और ढाल का भी का काम करता था। वह अपने आप में अकेला होते हुए भी किसी छोटी सेना से कम नहीं था।
गुलाम होते हुए भी याकूत को किसी भी समय सुल्तान के समक्ष उपस्थित होने का अधिकार दिया गया। इस कारण लोगों में रजिया सुल्तान और याकूत के प्रेम का अपवाद प्रचलित हो गया। कहा नहीं जा सकता कि इस बात में कितनी सच्चाई थी किंतु यह बात स्वयं को उच्च रक्तवंशी मानने वाले तुर्की अमीरों को पसन्द नहीं आयी। इस कारण राजधानी दिल्ली में रजिया का विरोध तेजी से बढ़ने लगा।
दिल्ली की जनता चटखारे ले-लेकर याकूत और रजिया के किस्सों को प्रचारित करने लगी। इस कारण वे मनचले जिन्होंने रजिया को प्रेम की देवी मानकर सुल्तान के तख्त पर बैठाया था, वे भी रजिया से चिढ़ गए।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता