कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के बाद दिल्ली सल्तनत चार भागों में बंट गई। मुल्तान तथा उच (सिंध) पर कुबाचा ने, लाहौर एवं दिल्ली पर आरामशाह ने, बदायूं पर इल्तुतमिश ने एवं बिहार तथा बंगाल पर अलीमर्दान ने अधिकार कर लिया किंतु लगभग आठ माह की इस अराजकता के बाद इल्तुतमिश ने दिल्ली के निकट आरामशाह को परास्त कर दिया तथा स्वयं दिल्ली का सुल्तान बन गया।
सुल्तान बनते ही इल्तुतमिश को अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ा। उसके समक्ष अनेक चुनौतियाँ मुंह बाए खड़ी थीं। इनमें से पहली चुनौती आरामशाह की थी जिसे इल्तुतमिश ने बंदी बना लिया था। इसके बाद आरामशाह का कुछ पता नहीं चला। सम्भवतः उसे मार डाला गया।
यद्यपि दिल्ली के काजी अली इस्माइल की सहायता से इल्तुतमिश दिल्ली के तख्त पर बैठ गया था तथापि उसने इस पद को उत्तराधिकार के नियम से प्र्राप्त नहीं किया था। यह पद उसने कुछ अमीरों के सहयोग से प्राप्त किया था। चूूँकि इल्तुतमिश एक गुलाम का गुलाम था, इसलिए बहुत से कुतुबी तथा मुइज्जी अमीरों ने इल्तुतमिश को सुल्तान स्वीकार नहीं किया। स्वतन्त्र तुर्क सरदार गुलाम के गुलाम को अपना स्वामी स्वीकार करने में अपना अपमान समझते थे। वे उसे राज्य का अपहर्त्ता मानते थे। इल्तुतमिश ने धैर्य के साथ इन विरोधियों का दमन किया।
सुल्तान बनने के पूर्व इल्तुतमिश एक छोटे से प्रान्त का गवर्नर था। अधिकांश तुर्क-सरदार उसके समकक्ष थे। तुर्क-सरदार कुबाचा तथा अलीमर्दान तो कुतुबुद्दीन ऐबक के काल में पद तथा प्रतिष्ठा में इल्तुतमिश से कहीं अधिक ऊँचे थे। उन्हें इल्तुतमिश का उत्कर्ष सहन नहीं था। उन्हें अपने वश में करने के लिए साहस, बुद्धि तथा धैर्य की आवश्यकता थी। इल्तुतमिश में ये समस्त गुण विद्यमान थे, अतः वह सफलतापूर्वक अपने समकक्ष विरोधियों का सामना कर सका।
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तुर्कों में यह परम्परा थी कि कोई वंश-विशेष सदैव के लिए राज्य का अधिकारी नहीं होता था। नया सुल्तान, तुर्क अमीरों के निर्वाचन द्वारा नियुक्त किया जा सकता था। फलतः पुराने सुल्तान का निधन होने पर समस्त योग्य तथा महत्त्वाकांक्षी सेनापति राजपद प्राप्त करने की चेष्टा करते थे। ऐसी स्थिति में राज्य में सैनिक विद्रोह होने की सम्भावना सदैव बनी रहती थी।
बंगाल में अलीमर्दान खाँ बड़ी निर्दयता तथा निरंकुशता से शासन कर रहा था और अल्लाउद्दीन का विरुद धारण करके स्वयं को स्वतन्त्र शासक घोषित कर चुका था। कुबाचा भी ऐबक की तरह मुहम्मद गौरी का गुलाम था। उसने भी मुहम्मद गौरी तथा कुतुबुद्दीन ऐबक की वैसी ही सेवा की थी जैसी ऐबक ने की थी। कुबाचा भी इल्तुतमिश की तरह कुतुबुद्दीन ऐबक का दामाद था। इसलिए उसने इल्तुतमिश को अपना स्वामी स्वीकार करने से मना कर दिया तथा स्वयं को मुल्तान तथा सिन्ध का स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया। उसने पंजाब का बहुत सा भाग दबा लिया और लाहौर, भटिन्डा, सरसुती, कुहराम आदि दुर्गों पर अपनी चौकियाँ स्थापित कर दीं। अब उसकी दृष्टि दिल्ली पर लगी हुई थी।
गजनी का शासक ताजुद्दीन यल्दूज, कुतुबुद्दीन ऐबक का श्वसुर था। उसने गजनी पर अधिकार स्थापित कर लिया था इसलिये वह स्वयं को मुहम्मद गौरी का उत्तराधिकारी समझता था और उस सम्पूर्ण भारतीय भू-भाग को अपने साम्राज्य के अंतर्गत मानता था जो मुहम्मद गौरी ने जीता था।
इस नाते यल्दूज दिल्ली के नए सुल्तान इल्तुतमिश को अपना प्रान्तपति समझता था। इसलिये यल्दूज ने इल्तुतमिश के पास राजकीय चिह्न भेजकर अपनी प्रभुता का प्रदर्शन किया। संकटपूर्ण परिस्थितियों में इल्तुतमिश ने उन वस्तुओं को स्वीकार कर लिया परन्तु इल्तुतमिश ने इस अपमान को स्मरण रखा तथा समय आने पर भरपूर बदला लिया।
इस प्रकार कुबाचा, यल्दूज एवं अलीमर्दान इल्तुतमिश की जान के दुश्मन बन गए। वे तीनों ही अलग-अलग कारणों से स्वयं को दिल्ली का स्वामी समझते थे और दिल्ली पर अधिकार करना चाहते थे।
इन दिनों दिल्ली की राजनीति में भारतीय मुसलमानों का भी एक प्रबल दल खड़ा हो गया था। उनमें तथा विदेशी मुसलमानों में बड़ा वैमनस्य था। इस कारण राज्य में आंतरिक संघर्ष की सम्भावना सदैव बनी रहती थी। ये लोग विद्रोह करने तथा अपना प्राबल्य स्थापित करने के लिए सचेष्ट रहते थे। इन विद्रोही-दलों पर नियन्त्रण रखना नितान्त आवश्यक था।
मुहम्मद गौरी तथा कुतुबुद्दीन ऐबक ने जिन राजपूत वंशों से उनके राज्य छीन लिये थे, वे ऐबक के मरते ही अपने खोये हुए राज्य प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगे। जालौर तथा रणथम्भौर के शासक फिर से स्वतन्त्र हो गये। अजमेर, ग्वालियर तथा दो-आब में भी तुर्की सत्ता समाप्त हो गई। इल्तुतमिश के बदायूँ छोड़ते ही गाहड़वालों की प्रतिक्रिया भी आरम्भ हो गई और उनके आक्रमणों का वेग बढ़ गया। कालिंजर तथा ग्वालियर तो ऐबक के शासन काल में ही स्वतन्त्र हो चुके थे।
इस काल में भारत की पश्चिमोत्तर सीमा की रक्षा की समुचित व्यवस्था करना नितान्त आवश्यक था क्योंकि मध्य-एशिया में स्थित तुर्क तथा मंगोल राज्यों में इस समय बड़ी खलबली मची हुई थी। अनेक मंगोल सरदारों को अपना देश छोड़कर पलायन करना पड़ रहा था। मंगोल सरदार, नये राज्य स्थापित करने की कामना से प्रेरित होकर अन्य देशों पर आक्रमण कर रहे थे। भारत उनके लिए आसान शिकारगाह बन सकता था।
पश्चिमोत्तर की समस्या के जटिल हो जाने का एक कारण यह भी था कि पंजाब में निवास करने वाले खोखर बड़े विद्रोही प्रवृत्ति के थे जो प्रायः लाहौर तथा दिल्ली के सुल्तानों की शान्ति भंग कर देते थे।
इल्तुतमिश ने विपत्तियों से घबराने के स्थान पर, निर्भीकता के साथ उनका सामना किया तथा एक-एक करके समस्त बाधाओं पर विजय प्राप्त करने में सफल रहा।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता