कुतुबुद्दीन ऐबक ने गजनी के सुल्तान यल्दूज तथा मुल्तान के सुल्तान कुबाचा से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करके अपने राज्य की पश्चिमी सीमाओं को सुरक्षित बना लिया था। अब वह बड़ी शान से राजमुकुट धारण करके दिल्ली में बैठा। उसने एक ऐसी सल्तनत की नींव डाली थी जो अगले सवा तीन सौ साल तक अस्तित्व में रहने वाली थी।
कुतुबुद्दीन ऐबक के इतिहास में आगे बढ़ने से पहले हम युद्ध और विजयों के सम्बन्ध में कही जाने वाली एक लैटिन कहावत की चर्चा करेंगे। ईसा के जन्म से 47 साल पहले रोमन योद्धा जूलियस सीजर ने अपने लिए कहा था- ‘मैं आया, मैंने देखा और मैंने जीत लिया।’
इसी प्रकार अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी के फ्रांसीसी योद्धा नेपोलियन बोनापार्ट ने अपने बारे में कहा था- ‘फ्रांस का राजमुकुट मैंने युद्ध के मैदानों में पड़ा हुआ देखा, मैंने उसे अपनी तलवार से उठा लिया!’
भारत में तुर्की इतिहास के संदर्भ में इनमें से पहली कहावत मुहम्मद गौरी पर लागू होती है- ‘वह आया, उसने देखा और जीत लिया।’ जबकि दूसरी कहावत कुतुबुद्दीन ऐबक पर लागू होती है- ‘भारत का राजमुकुट उसे युद्ध के मैदानों में गिरा हुआ मिला।’
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ऐबक किसी सुल्तान का बेटा नहीं था, अपितु मध्यएशिया के बाजारों में पशुओं की तरह बिका हुआ एक निरीह गुलाम था। यदि बारहवीं सदी के गला-काट बेरहम युग में एक तुच्छ गुलाम दिल्ली का सुल्तान बना था तो उसके पीछे केवल उसका भाग्य ही काम नहीं कर रहा था। उसका उद्यम, परिश्रम, संघर्ष और उसके द्वारा चलाई गई तलवारें भी उसे सुल्तान के तख्त तक लेकर आए थे।
मुहम्मद गौरी ने भले ही उत्तरी भारत के बहुत बड़े हिस्से को अपनी तलवार की धार पर जीत लिया था किंतु इस विशाल भू-भाग पर अधिकार बनाए रखना, उसे जीतने की अपेक्षा कहीं अधिक दुष्कर था। इसके लिए कुतुबुद्दीन ऐबक को बहुत परिश्रम करना था। उसे मृत्यु-पर्यंत तलवार को कसकर पकड़े रखना ही था। वह स्वयं भी इस बात को समझता था कि जिस भी क्षण उसके हाथ से तलवार छूटेगी, उसी क्षण यह सल्तनत मुट्ठी में पकड़ी हुई रेत की तरह फिसल जाएगी। भारत में उसके शत्रुओं की कमी नहीं थी।
खलीक अहमद निजामी ने लिखा है- ‘यदि भारतीय जनता ने भारत में तुर्की शासन की स्थापना का प्रतिरोध किया होता तो गौरवंशी, भारतीय क्षेत्र में एक इंच भी भूमि नहीं जीत सकते थे।’
खलीक अहमद का यह कहना गलत है कि भारतीय जनता ने तुर्की शासन का विरोध नहीं किया था। वास्तविकता यह है कि पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के बाद भी भारतीय प्रतिरोध समाप्त नहीं हुआ था। भारत के प्रमुख हिन्दू राजा उसी दिन से अपनी खोई हुई स्वतन्त्रता को पुनः प्राप्त करने के लिए प्रयास करने लगे थे जिस दिन से पृथ्वीराज चौहान ने तराइन का मैदान हारा था। इस कारण मेरठ, बरन (अब बुलंदशहर), कोयल (अब अलीगढ़), चंदावर, बयाना, ग्वालियर, गुजरात, कालिंजर तथा बदायूं आदि अनेक क्षेत्रों में कुतुबुद्दीन ऐबक को हिन्दू राजाओं एवं हिन्दू सरदारों का सशस्त्र प्रतिरोध झेलना पड़ा। हांसी (अब हिसार जिले में), दिल्ली तथा अजमेर में उसे राजपूतों के भयानक विद्रोहों का सामना करना पड़ा।
ई.1208 में जिस समय कुतुबुद्दीन ऐबक मुल्तान तथा गजनी के अभियान में व्यस्त था, उस समय अवसर देखकर चंदेल राजपूतों ने अपनी राजधानी कालिंजर पर फिर से अधिकार स्थापित कर लिया था। चंदेलों ने न केवल कालिंजर पर अपितु अजयगढ़, झांसी, सौगोर, बिजवार, पन्ना और छत्तरपुर आदि अपने सभी पुराने क्षेत्र मुसलमानों से मुक्त करवा लिए।
गहड़वाल राजपूतों ने हरिश्चन्द्र के नेतृत्व में फर्रूखाबाद तथा बदायूँ में फिर से धाक जमा ली थी। ग्वालियर फिर से प्रतिहार राजपूतों के हाथों में चला गया था। अन्तर्वेद (गंगा-यमुना के बीच के प्रदेश) में भी कई छोटे-छोटे राज्यों ने दिल्ली सल्तनत को कर देना बन्द कर दिया था और तुर्कों को इस क्षेत्र से बाहर निकाल दिया था। हांसी में जटवन नामक एक हिन्दू सरदार ने तुर्की सेना को घेर लिया। ऐबक को दिल्ली से एक बड़ी सेना लेकर हांसी पहुंचना पड़ा और इस विद्रोह को दबाना पड़ा। जटवन बागड़ के पास हुए युद्ध में काम आया।
बरन नामक स्थान पर चंद्रसेन के नेतृत्व में डोर राजपूतों ने विद्रोह का झण्डा बुलंद कर दिया। कुतुबुद्दीन ऐबक वहाँ भी सेना लेकर पहुंचा और उसने डोर राजपूतों के नेता चंद्रसेन का दमन किया। कहते हैं कि चंद्रसेन का एक सम्बन्धी अजयपाल चंद्रसेन को धोखा देकर कुतुबुद्दीन ऐबक से मिल गया, इस कारण डोर राजपूत हार गए। मेरठ में भी हिन्दुओं ने विद्रोह किया किंतु कुतुबुद्दीन ऐबक ने मेरठ का विद्रोह भी सफलतापूर्वक दबा दिया तथा वहाँ तुर्की सैनिकों की एक टुकड़ी तैनात कर दी।
ई.1193 में दिल्ली के तोमरों ने कुतुबुद्दीन ऐबक के विरुद्ध फिर से हथियार उठा लिए। इस पर ऐबक ने तोमरों को बुरी तरह परास्त किया। इसी बीच अजमेर में चौहान राजपूतों ने भयानक विद्रोह किया। इस विद्रोह की हम आगे चलकर विस्तार से चर्चा करेंगे।
इस प्रकार निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है कि कुतुबुद्दीन ऐबक को मुहम्मद गौरी ने दिल्ली का गवर्नर भले ही बना दिया हो किंतु गवर्नर से सुल्तान बनने तथा सुल्तान बने रहने के लिए कुतुबुद्दीन को जीवन भर तलवार चलानी पड़ी थी। वह चारों ओर शत्रुओं से घिरा हुआ था। हर समय मौत का खतरा उसके सिर पर मण्डराता रहता था। हिन्दू राजा एवं सरदार जो कि इस देश के वास्तविक स्वामी थे तथा जिन्हें कुतुबुद्दीन ऐबक और उसके सेनापति विद्रोही कहते थे, प्राण-प्रण से अपनी भूमि फिर से प्राप्त करने के लिए जूझ रहे थे।
कुतुबुद्दीन ऐबक को जितना भय इन विद्रोही हिन्दू राजाओं से था, उससे कहीं अधिक भय मध्य-एशिया की तरफ से होने वाले आक्रमण का था क्योंकि ख्वारिज्म के शाह की दृष्टि गजनी तथा दिल्ली पर लगी हुई थी।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता