Thursday, November 21, 2024
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37. मुहम्मद गौरी ने सम्राट पृथ्वीराज का शिविर बूचड़खाने में बदल दिया!

मुहम्मद गौरी द्वारा संधिवार्त्ता का भुलावा देने पर भी पृथ्वीराज चौहान अपनी सेना लेकर तराइन के मैदान में आ गया। यद्यपि चौहान सम्राट के साथ बहुत कम सेना युद्धक्षेत्र में पहुंची थी तथापि मुहम्मद गौरी जानता था कि यदि सम्मुख युद्ध होता है तो यह हिन्दू सेना मुहम्मद गौरी की सेना पर भारी पड़ेगी। इसलिए मुहम्मद गौरी ने कई प्रकार के छल रचे तथा पृथ्वीराज के कुछ मंत्रियों एवं सेनापतियों को अपनी ओर मिला लिया जिनका विवरण हम पिछले आलेख में कर चुके हैं।

मुहम्मद गौरी के समकालीन लेखक हसन निजामी की पुस्तक ‘ताजुल मासिर’ को इस युद्ध का आँखों देखा हाल माना जा सकता है क्योंकि वह स्वयं मुहम्मद गौरी के साथ था किंतु आधुनिक शोधों से स्पष्ट हो चुका है कि हसन निजामी निष्पक्ष नहीं था। उसने तथ्यों एवं घटनाओं को बहुत तोड़-मरोड़कर एवं बढ़ा-चढ़ाकर लिखा है।

चंदबरदाई के ग्रंथ ‘पृथ्वीराज रासो’ को भी आँखों देखा हाल माना जा सकता है क्योंकि इसका लेखक युद्धक्षेत्र में पृथ्वीराज के साथ था किंतु इस पुस्तक में बाद में इतना अधिक लेखन जोड़ दिया गया कि पुस्तक का मूल स्वरूप लुप्त हो गया तथा अनेक भ्रामक बातें इतिहास बनकर खड़ी हो गईं।

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‘विविध तीर्थ कल्प’ आदि ग्रंथों में जैन लेखकों ने जो विवरण लिखे हैं वे भी इन्हीं दो पुस्तकों के आधार पर लिखे गए हैं क्योंकि उनमें से कोई भी समकालीन नहीं था। उदाहरण के लिए ‘विविध तीर्थ कल्प’ का लेखक जिनप्रभ सूरी चौदहवीं शताब्दी ईस्वी के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के समकालीन था।

सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध लेखक फरिश्ता ने लिखा है कि पृथ्वीराज की सेना सरस्वती नदी के एक ओर आकर बैठ गई। इसके बाद मुहम्मद अपनी छोटी सेना लेकर आया तथा नदी के दूसरी ओर खेमा गाढ़कर बैठ गया। उसकी मुख्य सेना पीछे थी जिसे पृथ्वीराज की सेना देख नहीं सकी और यह सोचकर आनंदित होती रही कि दुश्मन की सेना बहुत छोटी है।

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फरिश्ता लिखता है कि जब दोनों सेनाएं कुछ दूरी पर आमने-सामने खेमाजन हुईं तब राजपूतों ने गौरी को धमकाते हुए कुछ दूत भेजे। उन दूतों ने गौरी को यह संदेश सुनाया कि यदि वह गजनी लौट जाता है तो वे लोग उसे बिना नुक्सान पहुंचाए लौट जाने देंगे और यदि वह युद्ध करना चाहता है तो उसे तथा उसकी सेना को समूल नष्ट कर दिया जाएगा।

फरिश्ता लिखता है कि गौरी ने जवाब दिया- ‘मैं अपनी मर्जी से नहीं आया हूँ, अपितु अपने सुल्तान भाई की आज्ञा से आया हूँ। मैं तो सिर्फ सेनापति हूँ, मालिक तो वही है। यद्यपि मैं बहुत कष्ट और परेशानी उठाकर गजनी से यहाँ पहुंचा हूँ फिर भी आप लोगों की नेक सलाह मानते हुए आप लोगों से कुछ वक्त मांगता हूँ। आप लोगों की तरह मैं खुद चाहता हूँ कि हमारे बीच सुलह-सफाई हो जाए। सरहिन्द और मुल्तान मेरा तथा बाकी हिस्सा आपका। मैं इसी काम की खातिर एक सफीर अपने भाई के पास फीरोजकोह भेज रहा हूँ। इसलिए जब तक वह सफीर फीरोजकोह से वापस यहाँ लौट कर न आ जाए, तब तक जंग-बंदी रहे।’

हिन्दू सेनापति मुहम्मद गौरी की कूटनीतिक भाषा को समझ नहीं सके और इसे इस्लामी सेना की दुर्बलता समझकर राग-रंग एवं नाच-गाने में डूब गए। मुहम्मद गौरी ने हिन्दू सैनिकों को भ्रम में डाले रखने के लिए अपने शिविर में रात भर आग जलाए रखी और अपने सैनिकों को शत्रुदल के चारों ओर घेरा डालने के लिए रवाना कर दिया।

मिनहाज उस् सिराज ने लिखा है कि मुहम्मद ने अपनी मुख्य सेना को अपने पीछे रखा जिसके पास हाथी, झण्डे तथा शामियाने थे। जबकि दस-दस हजार घुड़सवारों के चार दल बनाकर काफिरों की सेना के चारों ओर अलग-अलग दिशाओं से भेज दिए। इन घुड़सवारों के पास हल्के हथियार थे।

 ज्योंही प्रभात हुआ, तुर्कों ने अजमेर की सेना पर चारों ओर से आक्रमण कर दिया। हिन्दू सेना तो अभी नींद में ही थी तथा कुछ सैनिक शौचादि का उपक्रम कर रहे थे। उसी समय 40 हजार घुड़सवार चारों दिशाओं से हिन्दू शिविर पर टूट पड़े। बहुत से हिन्दू सैनिकों को तो हथियार उठाने तक का अवसर नहीं मिला। इस कारण कई हजार सैनिकों को उनके शिविरों में ही निहत्थे मार दिया गया।

डॉ. बिंध्यराज चौहान ने लिखा है- ‘नरायन का दूसरा संग्राम युद्ध नहीं था, एक भयंकर दुर्घटना थी जिसमें न रणगजों पर हौदे चढ़ाए जा सके, न अश्वों पर जीनें कसी जा सकीं। न तो कोई राजपूत स्नान-ध्यान करके माथे पर रोली का टीका लगा सका, न कुसुम्बे का प्याला पी सका, न घोड़े पर सवार हाते समय चारणों एवं भाटों द्वारा गढ़ी गई चमत्कारी वंशोत्पत्ति का बखान सुन सका और न ही तुरही, भेरी नगाड़े बजाए जा सके, क्योंकि तब तक चारों तरफ हड़बड़ाहट से मची भगदड़ के बीच तुर्कों ने पशुओं के साथ राजपूतों को काट-काट कर ढेर लगा दिए।’

इस अनपेक्षित, असमय एवं आकस्मिक आक्रमण से पृथ्वीराज की सेना में चारों ओर भगदड़ मच गई। सम्राट पृथ्वीराज चौहान उसी समय हाथी पर चढ़कर युद्ध के लिए तैयार हो गया।

डॉ. बिंध्यराज ने लिखा है- ‘आरम्भिक क्षति उठाने के बाद राजपूती सेना संगठित हुई जिसका प्रधान सेनापति दिल्ली का गोविंदराय तोमर था।’

फुतुहूस्सलातीन ने लिखा है- ‘भयंकर हाथियों की सेना लेकर गोविंदराय आगे बढ़ा। उस समय राय पिथौरा अपनी केन्द्रीय सेना के साथ युद्ध कर रहा था।’

गोविंदराय के दाहिने ओर की कमान पदमशा रावल संभाले था और बायां दस्ता भोला अर्थात् भुवनैकमल्ल के अधीन था। मुईजुद्दीन साम की सेना के केन्द्रीय भाग का नेतृत्व मुहम्मद स्वयं कर रहा था। उसके दाहिने ओर इलाह था तथा बाएं दस्ते का नेतृत्व मुकल्बा के अधीन था। कुतुबुद्दीन सचल-दस्ते की व्यवस्था देख रहा था और सदैव ‘मुइजुद्दीन साम’ अर्थात् मुहम्मद गौरी के निकट रहता था। उस समय मुईजुद्दीन की सेना में 1,30,000 अश्वारोही थे। प्रत्येक सैनिक जिरह बख्तर और हथियारों से सुसज्जित था।

गोविंदराय हाथियों की सेना के साथ आगे बढ़ा और खारबक के अग्रिम दल पर हमला बोल दिया। खारबक ने अपने मुंह पर ढाल लगाकर अपनी रक्षा की और अपने तीरंदाजों को आदेश दिया कि वे केवल हाथियों और महावतों पर हमला करें। खारबक का आदेश पाते ही तुर्कों ने हाथियों पर इतना जबर्दस्त हमला किया कि चौहान सेना के हाथियों की सेना अस्त-व्यस्त हो गई तथा हिन्दुओं की सेना पराजय की ओर उन्मुख हो गई।

इसे ‘तराइन का द्वितीय युद्ध’ कहते हैं। यह कोई युद्ध नहीं था, निर्दोष एवं निहत्थे हिन्दू सैनिकों का कत्ले आम था, धोखा था, षड़यंत्र था, छल था!

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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