Sunday, December 22, 2024
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अध्याय – 25 : भारत में पाश्चात्य शिक्षा के विकास का प्रथम चरण (1813-1853 ई.)

1813 ई. का चार्टर एक्ट भारतीय शिक्षा के इतिहास का एक निर्णायक मोड़ है। क्योंकि अब कम्पनी ने भारतीयों की शिक्षा को अपने कर्त्तव्यों में सम्मिलित कर लिया था। इसके बाद ईसाई मिशनरी अधिक-से अधिक संख्या में स्कूल खोलने के लिए भारत आने लगे। 1813 ई. के चार्टर एक्ट से भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में तीव्र विवाद उठ खड़े हुए क्योंकि एक्ट में बहुत ही अस्पष्ट भाषा का प्रयोग किया गया था। एक्ट द्वारा निर्धारित धनराशि किस प्रकार खर्च की जायेगी इसे स्पष्ट नहीं किया गया था। एक्ट में केवल शिक्षा नीति के उद्देश्यों का उल्लेख था। ये उद्देश्य इस प्रकार थे-

(1.) साहित्य का पुनरुद्धार और उन्नति।

(2.) भारतीय विद्वानों को प्रोत्साहन।

(3.) ब्रिटिश भारत की जनता में विज्ञान की स्थापना तथा वृद्धि।

इस एक्ट को लेकर जो प्रश्न उठ खड़े हुए वे थे, वे इस प्रकार थे-

(1.) शिक्षा नीति के उद्देश्यों की भावना क्या है?

(2.) शिक्षा का माध्यम क्या होगा?

(3.) शिक्षा संस्थाओं की व्यवस्था करने वाली एजेन्सियां कौनसी होंगी?

(4.) सर्व-साधारण में शिक्षा के प्रचार के तरीके क्या होंगे?

इन चारों प्रश्नों पर कम्पनी के उच्चाधिकारियों में तीव्र मतभेद उत्पन्न हो गये। सबसे तीव्र मतभेद शिक्षा के माध्यम को लेकर था। इस प्रश्न पर तीन विचारधाराएं सामने आईं-

(1.) कम्पनी के पुराने कर्मचारी संस्कृत और अरबी भाषाओं के अध्ययन पर बल देते थे। उनकी मान्यता थी कि पश्चिमी ज्ञान और साहित्य का ज्ञान इन भाषाओं के माध्यम से दिया जा सकता है।

(2.) मुनरो और एलफिंस्टन, आधुनिक भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा देने के पक्ष में थे। उनकी मान्यता थी कि आधुनिक भारतीय भाषाओं के माध्यम से पश्चिमी ज्ञान जनता तक पहुँचाया जा सकता है।

(3.) चार्ल्स ग्रान्ट तथा उसके अनुयायी यह मानते थे कि पश्चिमी ज्ञान को सुचारू रूप देने के लिए अँग्रेजी ही सबसे प्रभावशाली माध्यम है। इस विचारधारा के समर्थक ईसाई मिशनरी और कम्पनी के नवयुवक कर्मचारी थे। लॉर्ड मैकाले के भारत में आने के बाद यह विचारधारा काफी मजबूत हो गई। अगले बीस वर्षों तक कम्पनी के उच्चाधिकारी इन्हीं विवादों में उलझे रहे।

1833 ई. का चार्टर एक्ट

1833 ई. के चार्टर एक्ट द्वारा भारत में कम्पनी के व्यापार का एकाधिकार समाप्त करके भारत के दरवाजे निजी व्यापारियों के लिये खोल दिये गये। इसका लाभ ईसाई मिशनरियों ने भी उठाया। उन्होंने शिक्षा की आड़ में, ईसाई धर्म के प्रचार का काम तेजी से आगे बढ़ाया।

लॉर्ड मैकाले के विचार

फरवरी 1835 में लॉर्ड मैकाले ने अपना प्रसिद्ध विचार-पत्र लिखा जिसमें उसने भारतीय साहित्य दर्शन एवं ज्ञान के विरुद्ध तथा पश्चिमी ज्ञान एवं अँग्रेजी भाषा के पक्ष में अनोखे तर्क दिये। उसने विज्ञान की शिक्षा देने के लिए अँग्रेजी माध्यम का प्रबल समर्थन किया। उसकी दृष्टि में देशी भाषाओं में साहित्यिक तथा वैज्ञानिक शिक्षा देने की क्षमता नहीं थी। उसने संस्कृत और अरबी भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाने का विरोध किया। अँग्रेजी भाषा का गुणगान करते हुए उसने लिखा- ‘अँग्रेजी भाषा में जो साहित्य अब तक उपलब्घ है वह तीन सौ वर्ष के सम्पूर्ण विश्व की समस्त भाषाओं में उपलब्ध साहित्य से अधिक मूल्यवान है।’

मैकाले के अनुसार यूरोप के एक अच्छे पुस्तकालय की अलमारी का एक खाना संस्कृत और अरबी के सम्पूर्ण देशी साहित्य के बराबर था। मैकाले ने भारतीय आयुर्विज्ञान, ज्योतिष, इतिहास और भूगोल पर करारा प्रहार करते हुए लिखा- ‘आयुर्विज्ञान के सिद्धान्त जो एक अँग्रेज नालबन्द का अपमान करेंगे, ज्योतिष शास्त्र जो एक अँग्रेजी बोर्डिंग स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियों में हँसी पैदा करेगा, इतिहास जिसमें तीस फुट ऊँचे बादशाह और तीस हजार वर्ष लम्बा शासन काल होगा, भूगोल जिसमें घी-दूध के समुद्र होंगे; इन सबको हम सरकारी खर्च पर प्रोत्साहन देंगे।’

गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक (1828-1835 ई.) ने मैकाले के विचारों से सहमति प्रकट की। 1834 ई. में बैंटिक ने मैकाले की अध्यक्षता में एक समिति गठित की जिसकी कार्यवाही का विवरण 2 फरवरी 1835 को जारी हुआ। यह आधुनिक भारतीय शिक्षा का महत्त्वपूर्ण घोषणापत्र था। इसे भारतीय शिक्षा के मील के पत्थर के रूप में भी जाना जाता है। इस घोषणा पत्र से चार बातें प्रमुख रूप से उभर कर सामने आईं-

(1.) भारतीय भाषा, साहित्य, दर्शन, विज्ञान एवं ज्ञान हर तरह से बौना है।

(2.) पश्चिमी भाषा एवं ज्ञान की सर्वश्रेष्ठता निश्चित है।

(3.) भारत में शिक्षा का माध्यम अँग्रेजी होना चाहिये।

(4.) भारत की विशाल जनसंख्या को सरकारी संसाधनों से शिक्षा नहीं दी जा सकती। इसलिये शिक्षा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।

विलियम बैंटिक ने 7 मार्च 1835 को एक आदेश जारी करके कहा कि ब्रिटिश सरकार का महान उद्देश्य भारतीयों में यूरोपीय साहित्य और विज्ञान को प्रोत्साहन देना है। शिक्षा पर व्यय की जाने वाली राशि केवल अँग्रेजी शिक्षा पर ही खर्च की जानी चाहिए। बैंटिक ने भारत में नियमित शिक्षण व्यवस्था के विकास में बहुत रुचि दिखाई।

लॉर्ड मैकाले की देन

भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में मैकाले की देन के विषय पर विद्वानों में भारी मतभेद है। कुछ उसे उन्नति के मार्ग का मशाल वाहक मानते हैं तो कुछ उसे अँग्रेजी शिक्षा के विस्तार के कारण भारत में उत्पन्न होने वाले असन्तोष और राजनीतिक अशान्ति के लिए उत्तरदायी मानते हैं। कुछ विद्वान भारतीय भाषाओं, संस्कृति और धर्म के बारे में उसकी अज्ञानता की कटु आलोचना करते हुए उसे निन्दनीय मानते हैं तो कुछ उसे भारतीय भाषाओं की अवहेलना के लिए दोषी ठहराते हैं। मैकाले को उन्नति के मार्ग का मशाल-वाहक कहना, उसकी अतिश्योक्तिपूर्ण प्रशंसा करना है। मैकाले द्वारा भारतीय साहित्य और धर्म की अनर्गल आलोचना करना तथा उसका मखौल उड़ाना वास्तव में निन्दनीय है। भारत में अँग्रेजी शासकों ने उसके इस सिद्धान्त का अक्षरंशः पालन किया कि- ‘यदि किसी देश को दास रखना है तो उसके साहित्य और संस्कृति का विनाश कर देना चाहिये।’ उपरोक्त दोषों के होते हुए यह भी सत्य है कि जिस पश्चिमी ज्ञान का मैकाले ने समर्थन किया उस पश्चिमी ज्ञान ने भारत को लाभ भी पहुँचाया। नये ज्ञान और शिक्षा ने भारत में एकता स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभाई। पश्चिमी देशों में होने वाले वैज्ञानिक अनुसन्धानों तथा उपलब्धियों से भारतीयों को परिचित करवाया और भारतीय भाषाओं के विकास में योगदान दिया जिसके फलस्वरूप इन भाषाओं में से कुछ को आगे चलकर विश्वविद्यालय तक की शिक्षा देने योग्य बनाया जा सका।

लॉर्ड विलियम बैंटिक ने 1835 ई. के निर्णय द्वारा भारत में शिक्षा के मूल उद्देश्य और माध्यम को लेकर चल रहे विवाद का समाधान करने का प्रयत्न किया, फिर भी यह विवाद पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ। अगले गवर्नर जनरल लॉर्ड ऑकलैण्ड ने नवम्बर 1839 में एक आदेश द्वारा इस विवाद को पूरी तरह से समाप्त किया। उसने शिक्षा पर खर्च की जाने वाली धनराशि को बढ़ा दिया तथा यह आदेश भी दिया कि समाज के वरिष्ठ वर्ग को उच्च शिक्षा दी जाए ताकि यह वर्ग अपनी संस्कृति तथा ज्ञान को जन-साधारण तक पहुँचा सके। यह नीति ऊपर से नीचे की ओर शिक्षा-प्रसार के प्रसिद्ध सिद्धान्त पर आधारित थी। 1844 ई. में कम्पनी सरकार ने एक प्रस्ताव पारित करके स्पष्ट किया कि सरकारी नौकरियों में उन्हीं लोगों को  प्राथमिकता दी जायेगी जो पश्चिमी ज्ञान और अँग्रेजी भाषा जानते होंगे। 1813 ई. से 1853 ई. तक की अवधि में ब्रिटिश प्रान्तों तथा राजपूताना राज्यों में हुए शिक्षा विस्तार का विवरण इस प्रकार से है-

(1.) बंगाल: ब्रिटिश संसद द्वारा 1813 ई. का चार्टर एक्ट पारित किये जाने के बाद, 1817 ई. में कलकत्ता स्कूल बुक सोसाइटी तथा कलकत्ता हिन्दू कॉलेज की स्थापना हुई। 1819 ई. में कलकत्ता स्कूल सोसाइटी स्थापित की गई। इन दोनों सोसाइटियों ने कलकत्ता तथा बंगाल के अन्य स्थानों पर सैकड़ों प्राथमिक स्कूल खोले, जिनके द्वारा शिक्षा का काफी प्रसार हुआ। 1823 ई. में गवर्नर जनरल के आदेश से जनरल कमेटी ऑफ पब्लिक इंस्ट्रक्शन नाम से एक केन्द्रीय समिति स्थापित की गई। संस्कृत के महान् विद्वान विल्सन को इसका सचिव बनाया गया।

(2.) बम्बई: बम्बई में भी 1815 ई. में सोसाइटी फॉर प्रमोटिंग दी एजुकेशन ऑफ द पूअर नामक समिति स्थापित की गई। आगे चलकर इस सोसाइटी का नाम बॉम्बे एज्यूकेशन सोसाइटी कर दिया गया। बॉम्बे नेटिव एज्यूकेशन सोसाइटी की भी स्थापना हुई। इन सोसाइटियों ने बम्बई, पूना आदि नगरों में अनेक स्कूल और कॉलेज खोलकर शिक्षा का प्रसार किया।

(3.) मद्रास: मद्रास में भी मद्रास स्कूल सोसाइटी तथा कमेटी ऑफ पब्लिक इंस्ट्रक्शन नामक संस्थाएं स्थापित हुईं जिन्होंने मद्रास में शिक्षा प्रसार का सराहनीय कार्य किया। शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए नॉर्मल स्कूलों की स्थापना करना, इन सोसाइटियों का महत्त्वपूर्ण कार्य था। इस प्रकार तीनों ब्रिटिश प्रेसीडेन्सियों में, शिक्षा प्रसार के लिए अनेक सोसाइटियों की स्थापना हुई।

(4.) उत्तर-पश्चिमी प्रान्त: उत्तर-पश्चिमी प्रान्त का लेफ्टिनेन्ट गवर्नर जेम्स थॉमसन शिक्षा प्रसार के कार्य में बड़ी रुचि लेता था। उसने निर्णय लिया कि शिक्षा अँग्रेजी माध्यम की बजाय, मातृभाषा में दी जाये। उसने शिक्षा-प्रसार की एक विशद् योजना बनाकर केन्द्र सरकार से स्वीकृत करवाई। परम्परागत देशी शालाओं का सुधार और उनमें राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति की स्थापना, इस योजना की मुख्य विशेषता थी। यह योजना परीक्षण के तौर उत्तर-पश्चिमी प्रान्त के आठ जिलों में लागू की गई। तत्पश्चात् प्रान्त के अन्य जिलों में भी प्राथमिक स्कूलों की स्थापना की गई। इन स्कूलों के संचालन के लिए शिक्षा विभाग की स्थापना की गई जिसके अंतर्गत प्रत्येक दो या अधिक तहसीली स्कूलों के निरीक्षण के लिए एक परगना विजिटर नियुक्त किया गया। उसके ऊपर प्रत्येक जिले के लिए एक जिला विजिटर और उसके ऊपर सम्पूर्ण प्रान्त के लिए विजिटर-जनरल नियुक्त किया गया। ये पद ही आगे चलकर सर्किल इन्सपेक्टर, डिस्ट्रिक्ट इन्सपेक्टर और डायरेक्टर ऑफ पब्लिक एज्यूकेशन कहलाए। बाद में यह शिक्षा योजना, बंगाल एवं बिहार में भी लागू कर दी गई।

(5.) पंजाब: 1849 ई. में पंजाब का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय करने के बाद पंजाब के नये प्रान्त की स्थापना हुई थी। उस समय पंजाब में हिन्दू, सिक्ख और मुसलमानों द्वारा बहुत सी प्राथमिक स्कूलें चलाई जा रही थीं। ये स्कूल- मन्दिर, मस्जिद या गुरुद्वारों से सम्बद्ध होते थे। इनमें से कुछ में लड़कियों को भी शिक्षा जाती थी किन्तु बहुत ही कम लड़कियां शिक्षा प्राप्त करती थीं। 1849 ई. के बाद सरकार ने अमृतसर में एक स्कूल खोला जिसमें अन्य विषयों के साथ-साथ अँग्रेजी भी पढ़ाई जाती थी। इसके बाद 1853 ई. तक वहाँ कोई सरकारी स्कूल नहीं खोला गया।

(6.) राजपूताना: लॉर्ड हेस्टिंग्ज के समय 1818 ई. में राजपूताना की प्रायः समस्त रियासतों के साथ अँग्रेजों ने सहायक सन्धियां कीं। राजपूताना की सैनिक परम्पराओं के कारण लॉर्ड हेस्टिंग्ज का राजपूताना से विशेष लगाव था। उसने सेरामपुर (बंगाल) के प्रसिद्ध ईसाई पादरी विलियम कैरे के पुत्र जबेज कैरे को राजपूताने में शिक्षा-प्रसार के लिए भेजा और उसे शिक्षा अधीक्षक के पद पर नियुक्त किया। 1819 ई. में उसने अजमेर पहुँच कर एक स्कूल की स्थापना की। तत्पश्चात् उसने पुष्कर में भी एक स्कूल खोला। अगले तीन वर्षों में उसने भिनाय और केकड़ी में भी स्कूल खोले किन्तु जबेज इन स्कूलों में ईसाई धर्म की शिक्षा देने लगा तो लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने उसे फटकारा। इन स्कूलों की विशेष प्रगति न देखकर 1827 ई. में इन्हें बन्द करके केवल अजमेर का स्कूल चालू रखा। 1831 ई. में उसे भी बन्द कर दिया गया।

इस प्रकार ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा राजपूताने में शिक्षा प्रसार का प्रथम प्रयास लगभग असफल रहा। 1836 ई. में कम्पनी ने पुनः अजमेर में एक स्कूल खोला। उसे भी जनवरी 1843 में बन्द कर देना पड़ा। 1851 ई. में अजमेर में पुनः एक स्कूल खोला। तब से अजमेर में निरन्तर शिक्षा की प्रगति होती रही। राजस्थान की अन्य रियासतों में भी वहाँ के ब्रिटिश पोलीटिकल एजेन्टों के प्रयत्न से कुछ स्कूल खोले गये। 1842 ई. में अलवर तथा भरतपुर और 1844 ई. में जयपुर में प्रथम आधुनिक स्कूल खोला गया।

तकनीकी शिक्षा

1833 ई. से 1853 ई. की अवधि में भारत में स्त्रियों तथा मुसलमानों की शिक्षा के लिए कुछ प्रयत्न किये गये किन्तु उनका कोई ठोस परिणाम नहीं आया। इस अवधि में मेडिकल, इन्जीनीयरिंग तथा अन्य तकनीकी शिक्षा के लिए भी कुछ कदम उठाये गये। 1835 ई. में कलकत्ता और मद्रास में तथा 1845 ई. में बम्बई में मेडिकल कॉलेज खोले गये। 1846-47 ई. में अजमेर में भी मेडिकल स्कूल खोलने का प्रयास किया गया किन्तु यह प्रयास सफल नहीं हुआ। 1847 ई. में रुड़की में भारत का प्रथम इन्जीनियरिंग कॉलेज स्थापित किया गया। 1850 ई. में मद्रास में एक औद्योगिक तथा व्यवसायिक स्कूल स्थापित किया गया।

शिक्षा के क्षेत्र में निजी प्रयास

भारत में शिक्षा के प्रसार के लिए ईसाई मिशनरियों तथा कम्पनी के अधिकारियों के साथ-साथ कुछ भारतीयों तथा अँग्रेजों द्वारा व्यक्तिगत रूप से भी प्रयास किये गये। ऐसे व्यक्तियों में राजा राममोहन राय, डेविड हेयर, मेथ्यून तथा बम्बई के प्रोफेसर पैट्टन, जगन्नाथ शंकर सेत और ज्योति बा फूले प्रमुख हैं।

(1.) राजा राममोहन राय (1774-1833 ई.): राजा राममोहन राय की मान्यता थी कि अलगाव की प्रवृत्ति के कारण भारतीय मस्तिष्क क्षीण हो गया है, अतः पाश्चात्य ज्ञान और साहित्य का अध्ययन भारतीयों में स्फूर्ति और ताजगी पैदा कर सकता है। इसलिए उन्होंने भारतीय तथा पश्चिमी संस्कृतियों के समन्वय पर जोर दिया। उनकी धारणा थी कि अँग्रेजी भाषा तथा पश्चिमी विज्ञान के अध्ययन से भारतीयों की निष्क्रियता और कूपमंडूकता दूर होगी। उन्होंने इंग्लैण्ड-वासियों के समक्ष प्राचीन भारतीय सभ्यता, संस्कृति और साहित्य के उज्जवल पक्ष को रखकर, भारत तथा इंग्लैण्ड के मध्य सांस्कृतिक पुल बनाने का कार्य किया। उन्होंने अँग्रेजी के अध्ययन के साथ-साथ भारतीय भाषाओं के अध्ययन पर भी जोर दिया। उन्होंने स्वयं बंगला भाषा में व्याकरण, भूगोल, ज्योतिष, गणित आदि विषयों पर पुस्तकें लिखकर अन्य साहित्यिक लोगों के समक्ष एक आदर्श उपस्थित किया। उन्होंने स्त्री शिक्षा पर बहुत जोर दिया और धर्मशास्त्रों के अध्ययन पर यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि प्राचीन समय में भारत में स्त्रियां शिक्षित होती थीं। इस प्रकार अँग्रेजी के साथ-साथ भारतीय भाषाओं के अध्ययन पर जोर देकर उन्होंने भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। भारतीय शिक्षा के इतिहास में राजा राममोहन राय का विशिष्ट स्थान है।

(2.) डेविड हेयर (1775-1842 ई.): डेविड हेयर पेशे से घड़ीसाज और जौहरी होते हुए भी शिक्षा में बड़ी रुचि रखता था। वह भारतीयों की दशा सुधारने के लिए पाश्चात्य साहित्य तथा विज्ञान का अध्ययन आवश्यक समझता था। वह अँग्रेजी साहित्य के अध्ययन पर तो जोर देता था किन्तु ईसाई पादरियों द्वारा दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा का विरोधी था। उसका विचार था कि भारत को ऐसे असाम्प्रदायिक स्कूलों तथा कालेजों की आवश्यकता है जहाँ अँग्रेजी भाषा और साहित्य के अध्ययन के साथ-साथ मातृभाषा की भी शिक्षा दी जाये। कलकत्ता का हिन्दू कॉलेज उसके विचारों का प्रतीक था जिसकी स्थापना तथा विकास में डेविड हेयर ने प्रचुर आर्थिक सहायता दी। कलकत्ता में मेडिकल कॉलेज को लोकप्रिय बनाने में उसका बड़ा हाथ था। वह प्राथमिक शिक्षा तथा स्त्री शिक्षा में भी काफी रुचि रखता था। शिक्षा के क्षेत्र में हेयर की सबसे बड़ी देन यह थी कि वह शिक्षण संस्थाओं को धर्म प्रचार का साधन बनाने के विरुद्ध था।

(3.) बैथ्यून (1801-1851 ई.): गवर्नर जनरल की कौंसिल का विधि सदस्य तथा शिक्षा समिति का अध्यक्ष बैथ्यून, स्त्री-शिक्षा का प्रबल समर्थक था किंतु 1849-50 ई. तक कम्पनी की नीति स्त्री-शिक्षा पर कुछ भी खर्च नहीं करने की थी। इसलिये बैथ्यून ने अपने धन से कलकत्ता में एक असाम्प्रदायिक कन्या पाठशाला की स्थापना की। 1851 ई. में मृत्यु के कुछ समय पूर्व, उसने अपनी सारी सम्पत्ति इस पाठशाला को अर्पित कर दी। यही कन्या पाठशाला आगे चलकर प्रसिद्ध बैथ्यून गर्ल्स कॉलेज में परिवर्तित हो गई। इस प्रकार स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में बैथ्यून का योगदान सराहनीय रहा।

(4.) प्रोफेसर पैट्टन: नारी शिक्षा को प्रोत्साहन देने वाले प्रोफेसर पैट्टन बम्बई के एलफिंस्टन कॉलेज में प्राध्यापक थे। उन्होंने कॉलेज में एक साहित्य तथा विज्ञान सोसाइटी बनायी तथा इसके माध्यम से साहित्यिक विषयों पर वाद-विवाद आयोजित कर शिक्षा के प्रति लोगों में रुचि पैदा की। उन्होंने मराठी तथा गुजराती भाषाओं के माध्यम से शिक्षा का बहुत प्रचार किया। उनकी सोसाइटी ने अनेक कन्या पाठशालाएं स्थापित कीं जिनमें से बहुत सी आज भी चल रही हैं।

(5.) जगन्नाथ शंकर सेत (1803-1865 ई.): बम्बई के सम्पन्न परिवार के जगन्नाथ शंकर सेत की मान्यता थी कि ईसाई मिशनरियों द्वारा दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा से बचने के लिये भारतीयों को अपनी शिक्षा संस्थाएं स्थापित करनी चाहिए। वे अँग्रेजी भाषा तथा पाश्चात्य विज्ञान के साथ-साथ हिन्दू संस्कृति के प्रबल समर्थक थे। राजा राममोहनराय की तरह वे भी प्राच्य तथा पाश्चात्य संस्कृतियों के समन्वय के पक्ष में थे। उनकी धारणा थी कि मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देना अधिक सुलभ है। उन्होंने अपना धन लगाकर अनेक यूरोपीय ग्रन्थों का मराठी में अनुवाद करवाया। वे स्त्री-शिक्षा के प्रबल समर्थक थे।

(6.) ज्योति बा फूले (1828-90 ई.): ज्योति बा फूले साधारण माली परिवार से थे। उन्हें स्वयं शिक्षा ग्रहण करने में जिन कठिनाईयों का सामना करना पड़ा उससे उन्हें अनुभव हो गया कि दलित और शोषित वर्ग को शिक्षा प्राप्त करने में क्या कठिनाईयां झेलनी पड़ती हैं। इसीलिए उन्होंने हरिजनों के लिए विद्यालय खोले। इस कार्य से उन्हें उच्च-वर्ण हिन्दुओं का प्रबल विरोध झेलना पड़ा किन्तु वे हताश नहीं हुए और उच्च-वर्ण हिन्दुओं के विरोध के उपरांत भी ये पाठशालाएं चलती रहीं। उन्होंने अपनी पत्नी को भी पढ़ाया। कुछ समय बाद उन्होंने एक कन्या पाठशाला खोली जिसमें अपनी पत्नी को अध्यापन का कार्य सौंपा। उच्च-सवर्ण हिन्दुओं ने उनकी पत्नी को स्कूल जाते समय पत्थरों से मारा किन्तु फूले दम्पत्ति विचलित नहीं हुए और उन्होंने दलित एवं शोषित कन्याओं की शिक्षा का कार्य जारी रखा। उन्होंने अनाथालय तथा विधवाश्रम जैसी संस्थाएं स्थापित कीं जहाँ समाज से ठुकराये हुए व्यक्तियों को आश्रय मिलता था। इस प्रकार दलित, शोषित और सामाजिक अत्याचारों से पीड़ित व्यक्तियों के उद्धार एवं शिक्षा के लिए ज्योति बा फूले ने उल्लेखनीय एवं सराहनीय कार्य किया।

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