प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति
प्रचीन भारत में शिक्षा प्रणाली का विकास आध्यात्मिक आवश्यकताओं के कारण हुआ था। इस कारण शिक्षा का स्वरूप व्यावसायिक नहीं था। शिक्षा का विकास ऋषियों और मुनियों के आश्रमों में हुआ था इस कारण जन-साधारण की शिक्षा का दायित्व राज्य पर नहीं था। शिक्षा का उद्देश्य परम तत्त्व की प्राप्ति अर्थात् सत्य की खोज था। इस कारण भारतीय शिक्षा का मूल आधार आस्था, विश्वास, विनय एवं अभ्यास के चार पायों पर खड़ा था। छात्र को अपने पिता का घर छोड़कर गुरु के आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण करनी होती थी। उन्हें वेद, वेदांग, उपनिषद, ज्योतिष, कर्मकाण्ड, आयुर्वेद, धनुर्वेद, शिल्पवेद एवं योग आदि की शिक्षा दी जाती थी। छात्रों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता था। गुरुकुल में रहने वाले ब्राह्मण परिवारों एवं उनके शिष्यों का निर्वहन राजाओं, सामंतों तथा श्रेष्ठि परिवारों द्वारा दी गई सहायता से होता था। शिक्षा पूर्णतः स्वतंत्र थी। राजा भी गुरुकुल की व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं करता था। शिक्षा का माध्यम देवभाषा संस्कृत था जिसमें सम्पूर्ण धार्मिक एवं सांसारिक ज्ञान उपलब्ध था। ब्राह्मण कन्याएं अपने पिता के आश्रम में ज्ञान प्राप्त करती थीं। राजपुत्रियां राजप्रासादों में शिक्षा प्राप्त करती थीं, उन्हें घुड़सवारी, रथ संचालन, धनुष विद्या तथा तलवार चलाना सिखाया जाता था। बड़े श्रेष्ठियों की पुत्रियां घर पर रहकर विभिन्न कलाओं का ज्ञान प्राप्त करती थीं। उन्हें नारी जीवन को सुखमय बनाने का ज्ञान दिया जाता था। अन्य वर्गों की लड़कियों की औपचारिक शिक्षा का प्रबंध नहीं था।
मध्यकाल में शिक्षा
मुसलमानों के भारत आगमन के पश्चात्, परम्परागत हिन्दू शिक्षण पद्धति में बड़ा परिवर्तन आया। दूरस्थ गुरुकुलों का स्थान स्थानीय पोसालों एवं चटशालाओं ने ले लिया जिनमें विद्यार्थी अपने गुरु को निर्धारित शुल्क देते थे। लड़कियों के लिये घरों से निकलना और अधिक प्रतिबंधित हो गया। जनसामान्य के लिए गांवों और कस्बों में पण्डितों द्वारा छोटे-छोटे विद्यालय खोले गये जिनमें बच्चों को भारतीय भाषाओं में पढ़ना, लिखना और प्रारम्भिक गणित करना सिखाया जाता था। साथ में धर्मिक शिक्षा भी दी जाती थी। इन विद्यालयों से प्रायः व्यापारी-पुत्र लाभ उठाते थे। ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों के बच्चे भी इन विद्यालयों में पढ़ते थे।
मुसलमानों ने अपने बच्चों की शिक्षा का प्रबंध मस्जिदों में किया जहाँ मौलवी, मुस्लिम बच्चों की बहुत थोड़ी संख्या को दीनी इल्म देते थे। आगे चलकर मदरसों की व्यवस्था आरम्भ हुई जिनमें मुख्यतः मुस्लिम बच्चे पढ़ते थे। हिन्दू बच्चे भी फारसी सीखने के लिये मदरसों में जाते थे क्योंकि राज्य-कार्य की भाषा फारसी थी।
उच्च हिन्दू शिक्षा, विद्यालयों, आश्रमों, चतुष्पाठी आदि संस्थाओं में दी जाती थी, जिसमें ब्राह्मण शिक्षक, अत्यंन्त सादा जीवन व्यतीत करते हुए अध्यात्म, दर्शन, कर्मकाण्ड, संहिताओं एवं स्मृतियों का अध्ययन-अध्यापन करते थे। अन्य जातियों के लिए धर्मिक आधार पर उच्च शिक्षा निषिद्ध थी।
इस प्रकार अँग्रेजों के आने के पहले हिन्दुओं में शिक्षा समाज के अत्यंत सीमित वर्ग को ही उपलब्ध थी। उच्च शिक्षा पर केवल ब्राह्मणों का अधिकार था। उनकी सम्पूर्ण शिक्षा हिन्दू संस्कृति के मूल सिद्धांतों पर अवलम्बित थी, जो आश्रम व्यवस्था एवं वर्ण व्यवस्था में विश्वास करना, वेदों की महानता में विश्वास करना और वेदों की व्याख्या करने वाले ब्राह्मणों की क्षमता में विश्वास करना सिखाती थी। इस शिक्षा के माध्यम से बच्चों को अपने माता-पिता, गुरुजन, अतिथि एवं राजा के प्रति सम्मान की भावना दी जाती थी। यह शिक्षा व्यक्ति को समाज की संरचना के अनुकूल बनाने का साधन थी तथा भारतीय संस्कृति की गौरवपूर्ण परम्परा थी। इसमें यह दोष अवश्य था कि सामान्यतः स्त्रियां, श्रमिक जातियाँ और किसान शिक्षा से वंचित थे।
मुस्लिम शिक्षा, हिन्दू शिक्षा से अलग थी। मुस्लिम जनता में शिक्षा पर किसी एक वर्ग का एकाधिकार नहीं था फिर भी बहुत कम मुस्लिम बालक मदरसों में पढ़ते थे जहाँ उन्हें कुरान एवं उसके सिद्धांतों की जानकारी दी जाती थी। उच्च शिक्षा का माध्यम अरबी भाषा थी, क्योंकि कुरान की रचना इसी भाषा में हुई थी, फिर भी कुछ मदरसों में कुरान के साथ-साथ फारसी और अन्य विषयों की शिक्षा भी दी जाती थी। दोनों समुदायों की शिक्षा में एक भारी अन्तर यह था कि हिन्दू विद्यालय समाज के विशिष्ट वर्ग के लिए थे, जबकि मुस्लिम मदरसे सबके लिए खुले थे, जो एक पैगम्बर में विश्वास करते थे।
देश में राजनीतिक एवं प्रशासनिक अराजकता अपने चरम पर थी, इस कारण हिन्दुओं एवं मुसलमानों, दोनों वर्गों में शिक्षा पतनोन्मुख थी। देश में मुद्रित पुस्तकों का अभाव था। स्वेदशी विद्यालय, चाहे वे ब्राह्मणों द्वारा चलाये जाते हों या फिर मौलवियों द्वारा, बच्चों की बड़ी संख्या को शिक्षित करने में असफल थे। लड़कियों के लिए तो शिक्षा का प्रावधान ही नहीं था।
ईसाई मिशनरियों द्वारा आरंभिक शैक्षणिक कार्य
पुर्तगाली मिशनरियों के प्रयास
यूरोप से भारत आने वाली जातियों में सर्वप्रथम पुर्तगाली थे। पुर्तगाली मुख्य रूप से दो उद्देश्य लेकर भारत आये थे- (1.) धर्म-प्रचार और (2.) व्यापार। धर्म-प्रचार के लिए जनता को बाइबिल का ज्ञान कराना आवश्यक था। इसलिये 1542 ई. में पुर्तगाली पादरी सेण्ट फ्रांसिस जेवियर भारत आया। वह लोगों को बाइबिल के उपदेश देता था तथा ईसाई धर्म स्वीकार करने के लिए प्रेरित करता था। उसने अनेक स्कूल भी खोले। 1575 से 1580 ई. के बीच उसने बम्बई के पास बान्द्रा, गोआ के पास चौल तथा कुछ अन्य स्थानों पर कॉलेज खोले जिनमें बाइबिल, लेटिन भाषा, पुर्तगाली व्याकरण, तर्कशास्त्र तथा पुर्तगाली संगीत की शिक्षा दी जाती थी। भारत आने वाला दूसरा प्रमुख पादरी रॉबर्ट डे नोबिल था। इन दोनों पादरियों ने पश्चिमी भारत में ईसाई धर्म तथा शिक्षा का प्रसार किया। पुर्तगाली पादरियों ने ही भारत में छापाखाने स्थापित किये। सर्वप्रथम उन्होंने ही बाइबिल का भारतीय भाषाओं में अनुवाद करके उसे पुस्तकों के रूप में छापकर साधारण जनता के बीच वितरित किया। इसीलिए पुर्तगालियों को भारत में आधुनिक शिक्षा प्रणाली का जन्मदाता माना जाना चाहिए।
नीदरलैण्ड वासियों के प्रयास
यूरोप से भारत आने दूसरे यूरोपीय, नीदरलैण्ड-वासी डच थे। उन्होंने अपनी कम्पनी के कर्मचारियों के बच्चों को शिक्षा देने के लिए भारत में कई पाठशालाएं खोलीं जिनमें कुछ भारतीय बच्चों को भी प्रवेश दिया गया। उनका मुख्य उद्देश्य व्यापार करना था किंतु अग्रजों से प्रतिद्वंद्विता के कारण उन्हें शीघ्र ही भारत छोड़ देना पड़ा। उनके जाते ही उनकी शिक्षा व्यवस्था भी समाप्त हो गई।
फ्रांस वासियों के प्रयास
सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में फ्रैंच ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अपनी व्यापारिक कोठियाँ चन्द्रनगर, माही, यनाम, कारोकल और पाण्डीचेरी के निकट स्थापित कीं। इन कोठियों में काम करने वाले फ्रैंच अधिकारियों के बच्चों के लिये उन्होंने फ्रैंच स्कूलों की स्थापना की। पुर्तगालियों की भांति उन्होंने भी अपने स्कूलों में स्थानीय भाषाओं की शिक्षा की व्यवस्था की। इन पाठशालाओं में भारतीय अध्यापकों को नियुक्त किया जाता था तथा भारतीय छात्रों को भी प्रवेश दिया जाता था जिन्हें भोजन, कपड़े और पुस्तकें निःशुल्क देकर स्कूल में आने के लिये प्रोत्साहित किया जाता था। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में फ्रैंच ईस्ट इण्डिया कम्पनी को अँग्रेजों से परास्त होकर भारत छोड़ना पड़ा तथा फ्रैंच बस्तियों पर अँग्रेजों का अधिकार हो गया और फ्रांसिसी स्कूल भी उनके अधिकार में चले गये।
डेनमार्क वासियों के प्रयास
अन्य यूरोपियनों की तरह डेनमार्क के व्यापारियों ने भी दक्षिण भारत में तंजोर के समीप तथा बंगाल में कलकत्ता के समीप सेरामपुर में अपनी कोठियां बनाईं। यद्यपि व्यापारिक या राजनैतिक दृष्टि से इन दोनों स्थानों का कोई महत्त्व नहीं है किन्तु कालान्तर में ये दोनों स्थान मिशनरी शिक्षा के प्रमुख केन्द्र बन गये। इस दिशा में डेनमार्क वासियों का कार्य काफी सफल रहा। इन दोनों स्थानों पर दो जर्मन मिशनरियों ने शिक्षण कार्य किया। उन्होंने बाइबिल का तमिल भाषा में अनुवाद किया। तमिल भाषा का व्याकरण और कोष बनाये तथा एक छापाखाना स्थापित किया। उन्होंने अध्यापकों के प्रशिक्षण के लिए ट्रेनिंग स्कूल खोले। डेनमार्क वासियों का अन्य केन्द्र बंगाल का सेरामपुर (श्रीरामपुर) बेप्टिस्ट मिशनरियों का प्रमुख कार्य क्षेत्र बन गया।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के आरम्भिक शैक्षणिक कार्य
दिसम्बर 1600 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना हुई। अन्य यूरोपीय कम्पनियों की भांति इसने भी भारत में अपनी कोठियां बनाईं जहाँ काफी संख्या में अँग्रेज व्यापारी तथा कम्पनी के कर्मचारी बस गये। उनकी धार्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कम्पनी ने इंग्लैण्ड से कुछ पादरी भारत भेजे। इन पादरियों ने कम्पनी के अँग्रेज कर्मचारियों की धार्मिक क्रियाओं सम्बन्धी आवश्यकता की पूर्ति करने के साथ-साथ कम्पनी के भारतीय कर्मचारियों को ईसाई बनाना प्रारम्भ किया। नये बनाये गये ईसाइयों तथा कम्पनी के अँग्रेज कर्मचारियों के बच्चों की शिक्षा के लिए कम्पनी ने कई स्कूल खोले। 1698 ई. में इंग्लैण्ड की संसद ने कम्पनी को निर्देशित किया कि कम्पनी अपने प्रत्येक कारखाने पर एक पादरी तथा 500 टन या इससे अधिक वजनी जहाज पर एक चैपलेन (धर्मगुरु) नियुक्त करे। कम्पनी सैनिक स्थानों तथा कारखानों के पास स्कूल खोले। इस आदेश से कम्पनी को धर्म-प्रचार करने तथा स्कूल खोलने के अधिकार मिल गये। इसके बाद कम्पनी ने 1715 ई. में मद्रास, 1718 ई. में बम्बई और 1731 ई. में कलकत्ता में स्कूल स्थापित किये।
बक्सर विजय के बाद 1765 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा में मालगुजारी वसूल करने के दीवानी अधिकार प्राप्त हुए। इससे कम्पनी एक राजनैतिक शक्ति बन गई। अब तक कम्पनी ने अँग्रेज और एंग्लो-इण्डियन कर्मचारियों के बच्चों की शिक्षा की ओर ही ध्यान दिया था किन्तु 1772 ई. में वारेन हेस्टिंग्ज के गवर्नर जनरल बनने के बाद कम्पनी ने भारतीय बच्चों की शिक्षा पर भी ध्यान दिया। 1781 ई. में कलकत्ता में एक मदरसा स्थापित किया गया जिसमें अरबी तथा फारसी के अध्ययन की व्यवस्था की गई। इस मदरसे को खोलने का उद्देश्य मुस्लिम भद्र समाज के युवकों को कम्पनी में नौकरी करने योग्य बनाना था।
1791 ई. में हिन्दू कुलीनों के पुत्रों को पढ़ाने के लिये बनारस संस्कृत कॉलेज की स्थापना की गई। इसमें संस्कृत भाषा के साथ-साथ हिन्दू विधि, साहित्य एवं धर्म का अध्यापन किया जाता था। ईसाई मिशनरी भारत के विभिन्न प्रदेशों में स्कूल खोलकर भारतीय बच्चों को शिक्षा दे रहे थे। उनके द्वारा दी जाने वाली शिक्षा में पश्चिमी दर्शन, अध्यात्म, नैतिकता, तर्कशास्त्र तथा अँग्रेजी भाषा सम्मिलित थी। 1784 ई. में सर विलियम जॉन ने बंगाल एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना की। जॉन ओवन ने बंगाल में स्कूल स्थापित किया जिसमें अँग्रेजी पढ़ाने का प्रावधान किया गया। 1800 ई. में लॉर्ड वेलेजली ने कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज स्थापित किया। इसमें कम्पनी के अधिकारियों को भारतीय भाषाओं एवं रीति-रिवाजों का प्रशिक्षण दिया जाता था।
ईसाई धर्म और पश्चिमी शिक्षा का जुड़ाव
1792 ई. में चार्ल्स ग्रांट ने इंग्लैण्ड में प्रकाशित अपनी पुस्तक ऑब्जर्वेशन्स ऑन दी स्टेट ऑफ सोसाइटी एमोंग दी एशियाटिक सबजेक्ट्स में इस बात पर बल दिया कि भारत में ईसाई धर्म और पश्चिमी ज्ञान के प्रसार के लिए स्कूल स्थापित किये जायें। 1793 ई. में जिस समय इंग्लैण्ड की संसद में कम्पनी के अनुज्ञा-पत्र के नवीनीकरण पर विचार चल रहा था, उस समय बिशप विल्बर फोर्स ने ब्रिटिश संसद के हाउस ऑफ कॉमन्स सदन में प्रस्ताव रखा कि कम्पनी के डायरेक्टरों को भारत में ईसाई धर्म-प्रचार के लिए मिशनरी भेजने का अधिकार दिया जाये। इस प्रस्ताव का संसद में घोर विरोध हुआ और यह प्रस्ताव पारित नहीं हो सका किन्तु इंग्लैण्ड में यह विचार जोर पकड़ने लगा कि कम्पनी को भारतीयों की शिक्षा की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। ब्रिटिश संसद ने इस बात को स्वीकार कर लिया तथा 1813 ई. के चार्टर एक्ट में भारतीयों की शिक्षा के लिए एक लाख रुपये वार्षिक व्यय का प्रावधान रखा।